रोहित धनकर
आज सुबह ‘द हिन्दू’ अखबार में पढ़ा की अब मुस्लिम क्लेरिक्स (उलेमा?) कहते हैं की भारती ने उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत किया है, अतः वे उन पर मुकदमा चलाएंगे। वास्तव में जब लोग धार्मिक भावनाओं के आहात होने के आधार पर लोगों की जुबान बंद करने की कोशिश करते हैं तो बहुत से भारतीयों की लोकतांत्रिक भावनाएं बहुत आहात होती हैं। शायद मैं भी उनमें हूँ। पर मुझे ऐसा भी लगता है की देश और खासकर लोकतंत्र भावनाओं के बल-बुत्ते नहीं चल सकते, तो सोचा थोडा देखलें की भारती ने ऐसा क्या कहा जिस से किसी की धार्मिक भावनाएं आहात हो सकती हैं। जब कुछ ख़ोज-खबर की तो दो चीजें मिली। वे नीचे दी हैं।
“आरक्षण और दुर्गाशक्ति नागपाल इन दोनों ही मुद्दों पर अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार पूरी तरह फेल हो गयी है. अखिलेश, शिवपाल यादव, आज़म खां और मुलायम सिंह (यू.पी. के ये चारों मुख्य मंत्री) इन मुद्दों पर अपनी या अपनी सरकार की पीठ कितनी ही ठोक लें, लेकिन जो हकीकत ये देख नहीं पा रहे हैं, (क्योंकि जनता से पूरी तरह कट गये हैं) वह यह है कि जनता में इनकी थू-थू हो रही है, और लोकतंत्र के लिए जनता इन्हें नाकारा समझ रही है. अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और बेलगाम मंत्री इंसान से हैवान बन गये हैं. ये अपने पतन की पट कथा खुद लिख रहे हैं. सत्ता के मद में अंधे हो गये इन लोगों को समझाने का मतलब है भैस के आगे बीन बजाना.” –कँवल भारती।
“उत्तर प्रदेश में सपा सरकार ने नोएडा में आईअस अफसर दुर्गाशक्ति नागपाल को निलंबित कर दिया, क्यों की उन्होंने रमजान माह में एक मस्जिद का निर्माण गिरवा दिया। यह निर्माण अवैध रूप से सरकारी जमीन पर हो रहा था। लेकिन, रामपुर में रमजान माह में जिला प्रशासन ने सालों पुराने इस्लामिक मदरसे को बुलडोज़र चलवाकर गिरवा दिया। विरिध करने पर मदरसा संचालक को जेल भिजवा दिया। इस मामले में अखिलेश सरकार ने अभीतक किसी अफसर को निलंबित नहीं किया। ऐसा इसलिए नहीं किया गया, क्योंकी यहाँ अखिलेश का नहीं आजम खां राज चलता है। उनको रोकने की मजाल तो खुदा में भी नहीं है।”–कँवल भारती।
पहली टिपण्णी में तो धर्म का जिक्र तक नहीं है। तो उस से धर्किक भावनाओं के आहात होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। दूसरी टिपण्णी में तीन बातें हैं जिन से कुछ लोगों को बुरा लग सकता है। पहली, रमजान माह में सरकारी जमीन पर मस्जिद के अवैध निर्माण के गिरना। दूसरी, एक मदरसे को गिरना। और तीसरी, आजम खान को तो खुद भी नहीं रोक सकता। मैं अभी भी नहीं समझ रहा की इन कथनों से धार्मिक भावनाएं कैसे आहात हो सकती हैं?
पहला और दूसरा कथन तो बस दो वास्तविक घटनाओं को इंगित करते हैं। वे सही या गलत (सत्य या असत्य) तो हो सकते हैं, पर भावनाओं से उनका क्या लेना-देना है? तीसरा कथन खुदा की असमर्थता बताता है, आजम खान को रोकने में। यह इक मुहावरा है: खुदा भी नहीं रोक सकता, और इसका उपयोग हिंदी भाषा में आम बात है। इसके उपयोग के हजारों उदहारण हिंदी साहित्य में कोई भी आधे घंटे की मशक्कत करके ढूंढ सकता है। जो मुहावरा इतने आम चलन में है इस से भावनाओं के आहात होने का क्या मतलब हो सकता है? येदि खुदा की असमर्थता बताने को मुद्दा बनाया जाए तो भी कुछ समझ में नहीं आता। बहुत लोगों का मानना है की खुदा तो मानव-मन का एक असम्भव और तार्किक रूप से असंगत विचार भर है। तो वह बेचारा अतार्किक विचार कहाँ से समर्थ होगा? लोगों के ऐसा मानाने या कहने से यदि भावनाएं आहात होती हैं तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जायेगी।जब कोई भी ऐसी बात कहेगा जो मैं नहीं मानता तो मेरी भावनाएं आहात होजायेंगी और मैं उसका मुंह बंद करने के लिए मुकदमा चलाने की धमकी देने लगूंगा। तो भाई बात-चीत कैसे होगी? विचारों का आदान प्रदान कैसे होगा? हम एक दूसरे को समझेंगे कैसे?
वास्तव में मुझे न तो यह भावनाओं का मामला लगता है नाही धर्मका। यह धर्म के नाम पर खुली धोंस-पट्टी है। किसी भी शहर की सड़कों के बीच में मंदिर-मस्जिद के रूप में इस धोंस-पट्टी के सैकड़ों उदहारण देखे जासकते हैं। लोगों के विचारों पर लगे प्रतिबन्ध और परबंधित किताबें भी इसी धोंस-पट्टी के उदहारण हैं। अब सवाल यह है की धर्म के नाम पर यह धोंस-पट्टी चलाती क्यों है?
यह धोंस-पट्टी चलाती क्यों है?
राजनैतिक तौर पर एक बड़ा कारण यह है की सभी भारतीय राजनैतिक पार्टियाँ लोगों को धार्म के नाम पर बर्गलाने में विस्वास रखती हैं। चाहे वह कोंग्रेस हो, बीजेपी हो, या कोई और। यह बात सब मानते हैं। पर यह बीमारी का वर्णन भर है, उसका कारण नहीं। राजनैतिक पार्टियाँ यह नीति इसलिए अपनाती हैं क्यों की उनको विस्वास है की भारतीय नागरिक येही पसंद करता है। तो हमें इस धोंस-पट्टी के प्रभावी होने के असली कारण भारतीय नागरिकों के सोचने-समझे, उनके व्यवहार में और उनके चरित्र में ढूँढने चाहियें। हमें अपने मन में झांकना चाहहिये और अपने कर्मों को देखना चहिये। तभी हम इस रोग के असली कारणों को समझेंगे। मैं यहाँ किसी प्रकार की आत्मा शुद्धि की नहीं सामाजिक अध्यान की बात कर रहा हूँ। हमें बहुत से सामाजिक अध्ययनों की जरूरत है जो हमारे अपने व्यवहार के पीछे कारणों को समझने में मदद कर सकें।
मुझे शक है की हम लोग लोकतान्त्रिक नागारारिक के लिए आवश्याक काबिलियेतें और मूल्यों में बहुत कमजोर हैं।
लोकतंत्र में नागरिकों को एक साफ़ सामाजिक दृष्टि की जरूतात होती है और उस दृष्टि को चरितार्थ करने के लिए काम करने के लिए तैयार रहने की जरूरत होती है। हमारी सामाजिक दृष्टि आत्मकेन्द्रित है और जो जैसी भी है हम उसको चरितार्थ करने के लिए कुछ भी प्रयत्ने करने से कतराते हैं। हम उसे चरितार्थ करने की जिम्मेदारी सरकार की मानते हैं।
लोकतंत्र के नागरिक में साफ़ सोचने और इसको बे झिझक अभियक्त करने की काबिलियत चाहिये। हम लोग सोचने से भी कतराते हैं और कहने से तो बहुत ही डरते हैं, ख़ास कर आजकल। लोकतंत्र में दूसरों के भले-बुरे के प्रति संवेदनशील होने और उनके अधिकारों का हनन होने पर उनके साथ खड़े होने की जरूरत होती है। हमारी आत्मा-केन्द्रितता दूसरों के साथ अन्याय होने पर उस अन्याय को समझने और उसका विरोध करने से हमें रोकती है।
हम फिरकापरस्त और पक्षपाती लोग हैं। हाल ही में हिन्दू जागरण मंच को गुडगाँव में सरकारी जमीन पर कब्ज़ा करती मस्जिद तो दिख गई पर भारत भर में सरकारी जमीन पर कब्जा करते सैकड़ों मंदिर उसको कभी नहीं दिखेंगे।
शिक्षा की भूमिका
मैंने ऊपर जो कुछ भी कहा है उसमें कुछ भी नया नहीं है। ये आम बातें हैं जो हम सब जानते हैं। सवाल यह है की लोकात्नात्र के लिए जरूरी काबिलियतें और मूल्य आयेंगे कहाँ से? हमारी शिक्षा पर बने कई कम्मिसनों और कमेटियों ने इन सब चीजों का जिक्र किया है। इन पर बहस की है और इन को शिक्षा के उद्देश्यों में शामिल करने की बात की है। वास्तव में ये मूल्य हमारी शिक्षा के उद्द्येश्यों में शामिल हैं भी। दाहरण के लिए हम राष्ट्रीय पाठ्यचर्या २००५ को देखें तो पायेगे की लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ और उनके लिए विवेकशील प्रतिबद्धता को महत्त्वपूर्ण उद्द्येश के रूप में लिखा गया है। और लोकतांत्रिक मूल्यों में धर्मनिरपेक्षता, समानता, न्याय, दूसरों के प्रति संवेदनशीलता, आदि का जिक्र है। साथ ही विचार और कर्म की स्वायत्तता भी शिक्षा के उद्द्येश्यों में दर्ज है। यह कोई नयी बात भी नहीं है, शिक्षा के उद्द्याशों में इस तरह की क्षमता और मूल्यों का जिक्र कामो-बेश बल के साथ सदा ही रहा है। और फिर भी हमारी शिक्षा इन कबिलियेतों और मूल्यों के विकास में असफल रही है। क्यों? मुझे इसका कोई माकूल जवाब नहीं पता।
एक आम धारणा यह है की शिक्षा सामाजिक चिंतन और व्यवहार में इस तरह के बड़े परिवर्तन नहीं कर सकती, ये परिवर्तन सामाजिक-राजनैतिक आन्दोलनों और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों से ही आते हैं। इस बात में कुछ सच्चाई हो सकती है। शिक्षा अकेली ऐसे परिवर्तन करने में असमर्थ रहेगी शायद, पर अन्य चीजों के साथ-साथ शिक्षा इस चितन के विकास में मदद तो कर ही सकती है। इस बातको अस्वीकार करने का अर्थ होगा की शिक्षा केवल दक्षताएं सिखा सकती है, चिंतन और मूल्य नहीं।
मुझे ऐसा लगता है की भारतीय शिक्षा तंत्र ने कभी भी सबको शिक्षित करने और उसकी गुणवत्ता पर गंभीरता से काम ही नहीं किया।
धर्म और इस तरह के अन्य सीमित चिंतन को चुनौती देने का काम शिक्षा की मदद के बिने नहीं हो सकता। चाहे शिक्षा अकेली यह काम न कर सके पर इसमें बहुत महत्त्वपूर्ण मदद कर सकती है और इसको सही दिशा दे सकती है। अंततः यह लड़ाई हमें विद्यालयों और शिक्षक शिक्षा महाविद्यालायं में लड़नी होगी। शिक्षा में काम करने वाले हम सब लोगों को धर्म की इस धोंस-पट्टी के लिए अपने आपको जिम्मेवार समझना चाहिए। हम अपने काम में और समाज के प्रती अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रहे हैं, हमारी शिक्षा ने लोकतंत्र की मदद नहीं की। (यह सब मैंने निरपेक्ष दृष्टा के रूप में विश्लेषण के लिए नहीं, बल्की एक नागरिक और शिक्षक की सक्रिय भूमिका में लिखा है। इस विश्लेषण में हमें अपने आपको देखने की जरूरत है। आम तौर पर सैद्धांतिक विश्लेषण एक दृष्टा के रूप में किया जाता है, कर्ता के रूप में नहीं।)
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