रोहित धनकर
मैं TV कभी-कभी ही देखता हूँ. रवीश कुमार के कुछ लेख भर पढ़े हैं. दो-चार रिपोर्ट्स भी देखी हैं. वे सब मुझे बहुत सुलझे हुए और सटीक विश्लेषण लगे. इस तरह के लेखन या रिपोर्टिंग के लिए कोई गाली-गलोच करे यह बहुत ही बेवकूफी की बात है.
फेसबुक पर कई दोस्तों की पोस्ट से पता चालता है कि कुछ लोग वर्त्तमान सरकार और विशेष रूप से प्रधानमन्त्री मोदी के विरूद्ध कुछ भी बोलने पर गाली-गलोच करने लगते हैं. ये निसंदेह ऐसे लोग लगते हैं जो यातो बहुत मूर्ख है, या फिर समझते हैं कि सोशल-मीडिया में हल्ला मचाने से लोग विश्लेषण करना और बोलना बंद करदें गे. इन के करतबों से इनके आकाओं को भी कोई लाभ नहीं होनेवाला. विचार-विमर्श और अभिव्यक्ती की आजादी के बिना लोकतंत्र संभव नहीं है. अतः तथ्य का जवाब तथ्य और तर्क का जवाब तर्क से देने के बजाय धमकी और गाली देना public debate को खत्म करने की कोशिश होती है. इस का विरोध करने की और इसे रोकने की जरूरत है.
पर मुझे यह भी लगता है की सोशल मीडिया पर बहुत बार विरोध भी केवल विरोध और इस से अपने ऊपर धान आकर्षण के लिए होता है. यह भी debate के लिए शुभ नहीं है. इस वक्त सोशल मीडिया में शोर और मूर्खता पूर्ण दावे संतुलित विचार की तुलना में कहीं अधिक हो रहा है. पर गाली और अशोभनीय भाषा का उपयोग मोदी और बीजेपी समर्थकों की तरफ से कहीं ज्यादा है. यह शायद इस लिए की उनकी वैचारिक क्षमता विरोधियों की तुलना में बहुत कम है. और क्यों की वे ठीक से तर्क नहीं कर सकते इस लिए मूर्खों की तरह गाली पर उतर आते हैं.
आप इन लोगों को ठीक से समझना चाहते हैं तो थोड़ा यह देखिये कि समाज में विवेकशील विचार की बाकी जगह क्या स्थिती है. यह देखिये की टीवी धारावाहिक क्या संदेश देते हैं और उनमें आनंद लेने के लिए कितनी अक्ल चाहिए. क्या वे पूरी तरह विचार को ख़त्म करने की मुहीम नहीं लगेते? यह देखिये की टीवी पर चलने वाली बहाशों में वैचारिक मशाला कितना होता है विचार-विहीन पूर्व-निर्धारीं मतान्धता कितनी? क्या इन बहाशों में भाग लेने वाले लोग, चाहे वे बीजेपी के हों या कोंग्रेस के, अपने अपने मालिकों के भोंपू नहीं लगते? यह देखिये की राजनीति और पार्लियामेंट में क्या विवेक की कोई कीमत है? यह देखिये कि बाबाओं और अम्माओं में अंधश्रद्धा कितनी है?
इस सब को ध्यान से देखेंगे तो पायेगे कि इस वक्त जो सिद्धांत देश में चल रहा है वह है: जिससे मेरा स्वार्थ सधता लगता है वह बात सही है; तथ्य और तर्क कुछ नहीं होता, शोर ही लोकतंत्र में कारगर हथियार है. इस सिद्धांत को मानने वालों को बहुत अशानी से जाती के नाम पर, धर्म के नाम पर और धन के नाम पर मूर्ख बनाया जा सकता है. और इस तरह मतान्ध बनाए गए लोग विवेक से सामना होने पर केवल और केवल भावनात्मक प्रतिक्रया करते हैं; वह वास्तविक जीवन में वास्तविक हिंसा में अभ्व्यक्त होती है और वर्चुअल दुनिया में वर्चुअल हिंसा में. धमकी और गाली-गलोच वर्चुअल हिंसा का ही रूप है.
भारत में जो बुद्धीमान अकादमिक पिछले ४० वर्षों से विवेक को ताकत वालों का नाजायज हथियार मानने और भावना को उस से ज्यादा महत्वापूर्ण मानने के लिए थ्योरी बनाते रहे हैं, विमर्श में विवेक के उपयोग को दूसरे लोगों को दबाने का साधान मानते रहे हैं उन बौद्धिकों को अब इस स्थिती के विश्लेषण में अपने सिद्धांत को देखना चाहिए. उनको यह समझना चाहिए कि ये लोग अपनी मूर्खता पूर्ण भावनाओं का ही इजहार कर रहे हैं. उनके आकाओं को, इन के मन में स्थापित मान्यताओं को, जब आप चुनौती देते हैं और उनके पास विवेकपूर्ण जवाब नहीं होता तो वे अपनी भावना के सहारे आप के विवेक का जवाब देते हैं; और वह धमकी या गाली के रूप में आता है. हमें यह समझाने की जरूरत है कि भावायें पब्लिक debate में स्वीकार्य और अस्वीकार्य दोनों तरह की हो सकती हैं. और कौनसी स्वीकार्य और कैसी अस्वीकार्य है इस का निर्णय भावना से बहार निकल कर ही हो सकता है, भावना के सहारे नहीं. यदि केवल-और केवल बहुमात से निर्णय करना चाहते हैं तो गाली-गलोच समूह इन्टरनेट पर अपना बहुमत साबित कर रहा है, अतः किसी को कोई कष्ट नहीं होना चाहिए. पर कष्ट तो है. इस का अर्थ यह है की स्वाकार्य-अस्वीकार्य भावना और विचार के लिए ना तो भावना अकेली यथेष्ठ है नाही बहुमत. तो केवल विवेक ही बचता है इस मूर्खता से लड़ने के लिए. यह सब मैं इस लिए लिखा रहा हूँ की पिछले ४० वर्षों में तर्क और विवेक की मिट्टीपलीद करने में हम में से बहुत से बौद्धिकों के महत्त्वपूर्ण योगदान किया है. तो अब पब्लिक स्पेस में हमें ही विवेक को पुनः स्थापित करना होगा. और अभी भी यदी इसे स्वीकार नहीं करना चाहते तो जैसी आप की भावनाए वैसी गाली-गलोच-मूर्खों की, फिर परेशानी क्या है? सोशल मीडिया पर गाली और धमकी समाज में व्यापक स्तर पर विवेक पर हो रहे हमलों का एक रूप है, असली बीमारी विवेक-विहीनता है.
और आखिरी बात यह कि मुझे लगता है (मैं गलत हो सकता हूँ, क्यों की मैं सोशल मीडिया को बहुत नहीं समझता) कि हम सोशल मीडिया और उस पर गाली-गलोच करने वाले मूर्खों को उनकी औकात से ज्यादा महत्व दे रहे हैं. उन को उसी स्पेस में बेवकूफ और असभ्य साबित करना अधिक उपयोगी होगा.
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Thanks for the post sir. Indeed, it is a virtual violence.
Thin skinned politicians, troll-happy ‘bhakts’, TRP hungry TV channels…what is the next abyss?
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thank you for the post sir. it was good reading the entire piece. But i wanted some clarification on one of your statement of expressing emotionally. Sir i want to learn fro you why do you think an emotional expression is baseless and should not be taken into consideration? is it always necessary to be have reason and be rational in your feelings or what one feel? or should we accept that in this world we ought not to give any space for what one feels, as that is something which cannot have the logical sequence of a premise and a conclusion? In asking you this i do not intend to support or justify the people who choose to abuse or initiate virtual violence. Nevertheless help me understand this. I beg your pardon for this naive argument, but would be more than happy to hear from you.
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Dear Nitu,
I am taking the liberty of answering your question, even though it was posed to Rohitji Suppose you evaluate someone’s claim, statement or conclusion, and it evokes feelings in you of anger, dissatisfaction, unhappiness, hurt etc. Only saying you don’t like the position, or it makes you feel upset or angry is not enough simply because it doesnt give others a chance to appreciate your position. You will necessarily need to say WHY it makes you angry or upset. This is the demand of democracy, which gives both parties an equal right to agree or disagree and have *legitimate* feelings (i. e. feelings that depend on valid reasons). If someone expresses a feeling, particularly a negative and hurtful one without a valid reason, it is undemocratic, disrespectful to others, mindless self-indulgence or egotism or arrogance, which nobody can be expected to honour.
So you will have to get *out of the emotion*, and justify your view with a sound basis. In other words, state your *reasoning*, which allows others to accept or reject your view. Without this discipline, there is no genuine democratic dialogue possible, neither convincing people towards a position, however sensible, and only forcing, terrorising, or shutting up people are the options left.
I hope I have added some clarity to this discussion.
anshumala
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Dear Anshu,
Thank you for your reply. It has surely added to my understanding. You are true in saying that rationale and reasoning is important for true form of democracy. However I still fail to understand how and why do we need to have a ‘legitimate feeling’. Does feelings need to be justified with reason? I might be entering into a completely different space of discussion with this, and hence I beg your pardon.
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