रोहित धनकर
(अनुवाद: रमणीक मोहन)
[अंग्रेजी में यह लेख मैं ब्लॉग पर पहले ही पोस्ट कर चुका हूँ “To detain or not to detain: Barking-up the wrong tree” नाम से. रमणीक जी ने मेहरबानी करके अनुवाद कर दिया है तो यहाँ हिन्दी में भी दे रहा हूँ.]
समाचार-पत्रों में इन दिनों इस बात का बहुत ज़िक्र हो रहा है कि पास-फ़ेल करने वाली व्यवस्था को स्कूलों में फिर से लागू किया जाए या शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत मौजूदा प्रणाली को जारी रखा जाए जिस के अन्तर्गत बच्चे को अगली कक्षा में स्वत: प्रमोट कर दिया जाता है। 21 अगस्त 2015 को अंग्रेज़ी समाचार-पत्र ‘द हिन्दू’ में छपी ख़बर के मुताबिक इस प्रणाली को “रद्द किये जाने के लिए उठ रही एकमत आवाज़ के बावजूद” केन्द्र सरकार इस मुद्दे पर बहुत सावधानी से चल रही है और उस ने “सभी राज्य सरकारों से लिखित प्रतिक्रियाएँ लेना तय किया है”।[i] इसी तारीख़ को ‘द हिन्दू बिज़्नस लाइन’ में छपा कि महाराष्ट्र के शिक्षा मन्त्री के मुताबिक, “देश के अधिकतर राज्य…… चाहते हैं कि केन्द्र सरकार शिक्षा का अधिकार अधिनियम में संशोधन कर के कक्षा-1 से कक्षा-8 तक के विद्यार्थियों को किसी भी कक्षा में न रोके रखने की नीति को रद्द करे”।[ii] लेकिन कुछ शिक्षाविद इस नीति को समाप्त करने के पीछे एक कॉरपोरेट एजेण्डा देखते हैं। उन का मानना है कि “शिक्षा का अधिकार अधिनियम ने स्पष्ट तौर पर खोल कर बताया था कि सी.सी.ई. [यानी निरन्तर एवं सतत मूल्यांकन] को किस प्रकार लागू किया जाना चाहिए। उन्हें अनुत्तीर्ण कर के आप बच्चों को अच्छे शिक्षार्थी नहीं बना देते” (‘द हिन्दू’ ,18 अगस्त 2015)[iii]। दूसरी ओर शिक्षक बहुत बार बच्चों को किसी कक्षा में रोके न रखने और सज़ा न देने की इस नीति पर शिकायत करते हैं – उन में से कुछ के लिए तो ये दोनों ही बच्चों पर नियन्त्रण का सब से कारगर औज़ार हैं। और जैसा कि हम जानते ही हैं, बच्चों को सिखाने के लिए नियन्त्रण को एक आवश्यक शर्त के रूप में देखा जाता है।
लगता है कि दोनों दावों में कुछ सत्य तो है, लेकिन असल मुद्दे से तो वे दोनों ही बहुत दूर हैं। हमारी औपचारिक शिक्षा पद्धति करीब डेढ़ सदी से भी अधिक समय से परीक्षाओं की सख़्त जकड़ में रही है। इम्तिहान सीखने के लिए एकमात्र उत्प्रेरक बनजाते हैं और इस के चलते प्रेरक का काम करने वाला कोई भी अन्य स्रोत उभर नहीं पाता। सभी शिक्षित भारतीय इस अनुभव से हो कर गुज़रे हैं। इसी लिए वे इस बात उनके ज़हन में गहरे बैठ चुकी है कि ‘इम्तिहान नहीं, तो सीखना भी नहीं’। यह विश्वास बहुत ही आसानी से बच्चों को भी हस्तान्तरित हो जाता है। सीखने और ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में भी एक मज़ा होता है, इस बात का अन्दाज़ा शायद प्रचलित व्यवस्था को है ही नहीं। इस लिए जिन लोगों का मानना है कि इम्तिहान के डर के बिना बच्चे सीखेंगे नहीं, वे एक व्यावहारिक बात करते दिखाई देते हैं, हालाँकि शिक्षा-शास्त्रीय नज़रिये से देखें तो यह बात सही नहीं है।
शिक्षाविदों का यह कहना सही है कि “बच्चों को फ़ेल कर के आप उन्हें अच्छे शिक्षार्थी नहीं बना सकते”। लेकिन यह सोचने में वे ग़लत हैं कि अगली कक्षा में स्वत: प्रमोट कर दिये जाने से प्राथमिक शिक्षा पूरी की जा सकती है। बहुत बार यह विचार रखा जाता है कि बच्चे फ़ेल होने की वजह से स्कूल छोड़ जाते हैं[iv] – असल में यह बात सही नहीं है। बच्चे सीख न पाने की वजह से स्कूल छोड़ते हैं, फ़ेल होना तो इस इस ‘सीखने से रहित शिक्षा’ का परिणाम भर है। यह दावा कि “शिक्षा का अधिकार अधिनियम ने स्पष्ट तौर पर ज़िक्र किया है कि सी.सी.ई. को किस तरह कार्यान्वित किया जाना है”, ग़लत है। शिक्षा अधिकार अधिनियम में तो सी.सी.ई. की समझ भी ठीक से नहीं झलकती, उस के कार्यान्वयन का तरीका दूर की बात है।
सर्वप्रथम, हमें ध्यान देना होगा कि कक्षा में ‘न रोके रखे जाने की नीति’ और सी.सी.ई. का एक दूसरे से बहुत करीबी सम्बन्ध है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद-4 के तहत आयु-उपयुक्त कक्षा में दाख़िला एक तीसरा मुद्दा है जिस से कुछ स्कूलों में स्थितियाँ कुछ उलझ गई होंगी। इस प्रावधान के मुताबिक यदि छ: साल से अधिक उम्र के बच्चे को या तो स्कूल में दाख़िला नहीं मिला या वह प्रारम्भिक शिक्षा पूरी किए बिना स्कूल छोड़ गया हो तो वापस विद्यालय आने पर “उसे अपनी आयु के अनुकूल कक्षा में दाख़िला मिलेगा।”[v] इस सन्दर्भ में हम यह भी पहले से जानते हैं कि हमारे बच्चे पाठ्यचर्या में उन से की गई उम्मीद के मुकाबले बहुत कम सीखते हैं। ऐसी जटिल स्थिति में विद्यार्थी को कक्षा में रोके न रखे जाने की नीति से बस एक ही बात सुनिश्चित की जा सकती है – वास्तविकता में कुछ भी सीखे बिना प्राथमिक शिक्षा पूरा कर लिए जाने का दिखावा।
लेकिन अगर हम इस नीति के शैक्षिक महत्व को समझना चाहते हैं तो हमें शिक्षा का अधिकार अधिनियम द्वारा प्रतिपादित तीनों महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखना और समझना होगा : आयु-उपयुक्त कक्षा में दाख़िला, सी.सी.ई., तथा विद्यार्थी को कक्षा में न रोके रखे जाने की नीति।
इन विचारों की जड़ें
इन तीनों विचारों की जड़ें पश्चिम में चली विकासवादी शिक्षा की मुहिम में हैं, जिस के कई रूप हैं। भारत में इस का पदार्पण बाल-केन्द्रित शिक्षा के नाम से हुआ। कक्षा के भीतर की प्रक्रिया बच्चे की रुचि के अनुसार और गतिविधियाँ करते हुए सीखने की बात से मार्गदर्शित हो, ऐसा इस की सोच में निहित है। भारत में शिक्षा के विमर्श में रचनावाद (constructivism) के नाम से प्रचलित शिक्षा-शास्त्रीय व्यवस्था बाल-केन्द्रित शिक्षा के लिए पूरी तरह उपयुक्त है। विकासवादी शिक्षा की ही तरह रचनावाद के भी कई रूप हैं। इस के एक सिरे पर तो यह विचार है कि शिक्षक बच्चों को स्वयं अपना ज्ञान निर्मित करने में सहायक हो, और वह उन द्वारा निर्मित ज्ञान की उपयुक्तता या उस के सत्य के लिए कोई मापदण्ड लागू न करे, क्योंकि सम्पूर्ण ज्ञान व्यक्तिगत अनुभवों और व्यक्तिगत अर्थ-निर्माण का नतीजा होता है। रचनावाद के ही तहत में एक विचार यह है कि शुरुआत वहाँ से करें जहाँ बालिका है, यानी उस के पास उपलब्ध ज्ञान से शुरुआत हो। अवधारणाओं के निर्माण तथा उन के बीच के परस्पर सम्बन्धों के निर्माण के माध्यम से सक्रिय अर्थ-निर्माण करने में विद्यार्थी की मदद की जाए – मगर उद्देश्य उस ज्ञान तक पहुँचने का ही है जो आम तौर पर आज के दिन स्वीकार्य है।
इन धारणाओं का तकाज़ा है कि बच्चे एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए काम करें, एक स्वतन्त्र वातावरण में तार्किक खोज करते हुए आगे बढ़ें। मान कर चला जाता है कि एक ही आयु के बच्चों का परस्पर अन्त:क्रिया में होना और सहयोग करना उन्हें इस निरन्तर अर्थ-निर्माण में बेहतर मददगार होगा। इसी के चलते आयु-उपयुक्त कक्षा के सिद्धांत की बात की जाती है। (हालाँकि आयु-उपयुक्त कक्षा में प्रवेश एक अस्थाई व्यवस्था हर है, क्योंकि यदि सभी बच्चे विद्यालय आने लगें और कोई भी बीच में ना छोड़े तो सभी अपने आप ही आयु-उपयुक कक्षा में होंगे.)
इसी प्रकार, बच्चे भिन्न-भिन्न गति से विकास करते हैं और ज़रूरी नहीं कि यह विकास एक ही अवधारणात्मक पथ के माध्यम से हो। इस लिए तयशुदा प्रश्नों की सब के लिए एक ही नियतकालिक परीक्षा का होना उपयुक्त नहीं है – क्योंकि इस के चलते शैक्षिक तथा नैतिक एवं भावनात्मक विकास में बच्चे की प्रगति का मूल्याँकन काफ़ी हद तक छूट जाता है। और इसी लिए सी.सी.ई. की आवश्यकता है।
क्योंकि बच्चे अपनी गति से विकास करते हैं, और यह इस लिए भी आवश्यक है कि वे स्वयं अपने दिमाग़ को प्रयोग में लाते हुए अवधारणात्मक स्पष्टता हासिल कर पाएँ, इस लिए कक्षाओं में पास-फ़ेल करने की कोई तुक नहीं है। इस से तो बच्चों को बस कृत्रिम तरीके से, ज़बरदस्ती एक-दूसरे के साथ इकट्ठा कर दिया जाता है – इसी लिए बच्चे को कक्षा में रोके न रखे जाने की नीति की बात होती है।
इस तरह इन तीनों विचारों (सी.सी.ई., पास-फ़ैल व्यवस्था को हटाना और आयु-उपयुक्त कक्षा में बच्चे का दाख़िला) का एक दूसरे से नज़दीकी रिश्ता है और ये तीनों विचार ज्ञान, मानव के सीखने और बच्चे के स्वभाव तथा प्रकृति से सम्बन्धित मान्यताओं पर आधारित हैं। ये एक दूजे के पूरक हैं और एक साथ गम्भीरता से लिए जाएँ तो किसी भी शिक्षा व्यवस्था में काम में लाए जा सकते हैं। इन्हें अलग-अलग कर दिया जाता है और किसी एक को अपनाते हुए अन्य को छोड़ दिया जाता है, तो बात नहीं बनेगी, और ऎसी कोशिश निसंदेह असफल होगी।
गहरा विरोधाभास
अगर हम आयु-उपयुक्त कक्षा में दाख़िला, सी.सी.ई. और कक्षा में न रोके रखने की नीति की बुनियाद में मौजूद मान्यताओं को स्वीकार करते हैं तो पाठ्यचर्या की व्यवस्था और स्कूल के ढाँचे में बुनियादी बदलाव करने होंगे। पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम को ‘सीखने में सातत्य’ के सिद्धांत को मान कर चलना होगा न कि ‘सीखने की सीढ़ी’ के सिद्धांत को। ‘सातत्य’ के तहत सीखने के एक ऐसे वक्र की कल्पना की जाती है जिसे हम प्रत्येक बच्चे द्वारा लिया गया पथ कह सकते हैं। आवश्यक नहीं है कि इस पथ में समय-सीमाओं में बंधे और तयशुदा मील के पत्थर हों। ज़रूरत हो तो पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम के तहत ज्ञान, दक्षताओं और मूल्यों को एक शृँख़ला में तो व्यवस्थित किया जा सकता है, लेकिन किसी सालाना कड़ी-कठोर सीढ़ी-व्यवस्था के लिए जगह नहीं हो सकती।
दूसरी ओर ‘सीखने की सीढ़ी’ के सिद्धांत में पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम को सालाना व्यवस्था के रूप-आकार में बड़े ही साफ़-सुथरे तरीके से बांधा जाता है। इन्हें हम ग्रेड्स या कक्षाओं के रूप में जानते हैं। प्रत्येक साल में एक व्यवस्थित पैकेज सीखा जाता है। साल के दौरान परीक्षा हो सकती है – जितनी चाहें हो सकती हैं, लेकिन नतीजों को साल के अन्त में इकट्ठा किया जाता है। पर्याप्त सीखना हो पाया है या नहीं, इस पर निर्णय पास या फ़ेल, उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण के रूप में अभिव्यक्त होता है। अनुत्तीर्ण होने की सूरत में सम्पूर्ण वार्षिक-खण्ड को फिर से सीखा जाता है; उत्तीर्ण हो जाएँ तो माना जाता है कि पहले से नाप लिए गए क्षेत्र में सीखे गए को अधिक मज़बूती देने के लिए और मौका मिलाने की ज़रूरत नहीं है। बस चढ़ गए अगली सीढ़ी, अब पीछे का दिमाग में रहे या ना रहे कोई फर्क नहीं पड़ता.
पाठ्यचर्या को सीखने-के-सातत्य के रूप में व्यवस्थित करने का अर्थ होगा स्कूल के ग्रेड या कक्षा-आधारित ढांचे के विरुद्ध जाना। क्योंकि माना गया है कि सीखना सतत निरन्तरता में होगा, इस लिए वर्ष-आधारित बंटवारा भी नहीं किया जाएगा। ऐसे में बच्चों को विभिन्न ग्रेड्स या कक्षाओं में स्थित करना, और उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण वाली परीक्षा-प्रणाली भी न केवल अनावश्यक हो जाते हैं बल्कि वे सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के लिए अवरोध का काम करेंगे। इस हालत में सी.सी.ई. की मूल्याँकन पद्धति ही उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक हो सकती है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था बहुत ही रूढ़ और जड़ किस्म की है। बच्चे द्वारा स्वयं, सीधे तौर पर, लगातार विकास करते हुए ज्ञान के निर्माण का विचार उस विचार के संपूर्ण ढाचे के ही विरुद्ध जाता है जिस के तहत पाठ्यपुस्तक में स्थापित ‘ज्ञान’ एक संपूर्ण और पक्का उत्पाद है, ठीक कुम्हार के पके घड़े की तरह, तो पूर्ण और अपरिवर्तनीय है। पाठ्यचर्या की ग्रेड/कक्षा-आधारित व्यवस्था ज्ञान की इस अवधारणा के साथ बहुत मेल खाती है, क्योंकि किसी भी पूर्ण उत्पाद को साफ़-सुथरे तरीके से टुकड़ों में विभाजित कर के प्रस्तुत किया जा सकता है। स्कूल का कक्षा-आधारित ढाँचा एक प्रशासक के लिए बहुत ही सुविधाजनक है क्योंकि इस का प्रयोग करते हुए विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए बहुत आसानी से काम निर्धारित किए जा सकते हैं। पास-फ़ेल परीक्षा-प्रणाली तो ज्ञान, ज्ञानार्जन, पाठ्यचर्या और स्कूल सम्बन्धी इन विचारों का स्वाभाविक तार्किक नतीजा भर है।
यह एक पुरानी पड़ चुकी सत्तावादी-जड़ व्यवस्था और शिक्षा के एक अधिक प्रबुद्ध, ज्ञान-सम्पन्न विचार के बीच इस वक्त चल रहे टकराव का नतीजा है कि पहले तो सी.सी.ई और विद्यार्थी को कक्षा में न रोके रखने की नीति को लागू किया जाता है और अब उसे हटाए जाने के लिए शोर हो रहा है। सी.सी.ई. और विद्यार्थी को कक्षा में न रोके रखने की नीति को तब तक अर्थपूर्ण ढंग से लागू नहीं किया जा सकता जब तक कि हम सत्तावादी और जड़ शिक्षा-व्यवस्था को चुनौती नहीं देते, उसे डहा देने को तैयार नहीं होते।
साहस की कमी – या समझ की?
सी.सी.ई., विद्यार्थी को कक्षा में न रोके रखना, और आयु-उपयुक्त कक्षा में दाख़िला – ये तीनों सैद्धांतिक तौर पर मज़बूत और व्यावहारिक तौर पर सही सिद्ध हो चुके विचार हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए ये विचार तयशुदा कक्षा/ग्रेड तथा पास-फ़ेल परीक्षाओं के मुकाबले कहीं बेहतर विकल्प हैं। इसी लिए विद्यार्थी को कक्षा में न रोके रखने की बात का मौजूदा विरोध “गलत पेड़ पर भोंकने”[vi] जैसा है। कमी स्कूल के निरंकुश ढाँचे में है, कैंसर वहां है. न कि विद्यार्थी को फ़ैल न करने की नीती में।
दिक्कत यह है कि हमारे यहाँ बात को पूरी तरह समझे बिना और संस्थागत ढाँचों तथा सम्बद्ध लोगों को समर्थ बनाए बिना, उसे लागू कर दिए जाने का इतिहास रहा है। डी.पी.ई.पी. की तरह की बाल-केन्द्रिकता, बी.आर.सी/सी.आर.सी के विचार और कार्यरत शिक्षकों के सालाना प्रशिक्षण का ढोंग ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। और अब वक्त आया है शैक्षिक तौर पर एक और विचार (यानी विद्यार्थी को कक्षा में न रोके रखने के विचार) को बदनाम करने का – और हम यही करने में लगे हुए हैं।
शिक्षा से सम्बद्ध प्रशासकों से यह आशा करना कि वे सी.सी.ई. और कक्षा में विद्यार्थी को न रोके रखने के सिद्धांत को समझ लेंगे, बेपर की उड़ान वाली बात होगी। लेकिन उन शिक्षाविदों के बारे में क्या कहें जो शिक्षा का अधिकार जैसी नीतियों पर सलाह देते हैं? क्या उन में इन प्रस्तावित शैक्षिक सुधारों की नफ़ासत और उन के परस्पर अन्तर्सम्बन्धों की समझ की कमी है? या फिर उन में यह हिम्मत नहीं है कि वे ऊपर चर्चा में आए अन्तर्विरोध, और स्कूल के सत्तावादी जड़ ढांचे को डहा देने कि जरूरत पर जोर दे सकें?
इन दिनों हम देश के लिए एक नई शिक्षा-नीति पर चर्चा कर रहे हैं। इस चर्चा के केन्द्र में शिक्षा और स्कूल की एक अधिक विवेक-सम्मत दृष्टि होनी चाहिए थी। यह देख कर निराशा होती है कि नीति सम्बन्धी बहसों को दिशा देने वाले लोगों में हमारी शिक्षा-व्यवस्था की इस घोर आवश्यकता के प्रति कोई जागरूकता नहीं है। और इसी लिए हम यों ही गलत पेड़ों पर भोंकने के लिए अभिशप्त रहेंगे।
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[i] The Hindu, in “Govt. treads warily on RTE amendment” dated 21st August 15.
[ii] The Hindu BusinessLine, in “States want revocation of no-detention policy in schools”, 21st August 15
[iii] The Hindu, in “Panel for phased implementation of no-detention policy in schools”, 18th August 15.
[iv] The Hindu BusinessLine, in “States want revocation of no-detention policy in schools”, 21st August 15
[v] RTE section 4.
[vi] अंग्रेजी का एक मुहावरा है “barking up the wrong tree”. कल्पना करिए आप अपने शिकारी कुत्ते की मदद से शिकार को निकले हैं. जो शिकार आप ढूंढ रहे हैं वह नीम के पेड़ पर छुपा है और आप का कुत्ता दूर कीकर के पेड़ के नीचे खड़ा होकर ऊपर देखते हुए भोंक रहा है आप को यह संकेत देने के लिए कि शिकार कीकर पे पेड़ पर है. इस एकाहते हैं “गलत पेड़ पर भोकना”.
1.प्रारंभिक शिक्षा में अधिगम परिणाम सुनिश्चित करना: नई शिक्षा नीति 2015 में यदि प्रत्येक कक्षा के लिए अधिगम को लक्ष्य बनाया जाए तो यह उचित होगा। अभी तक लक्ष्य अधिगम का आकलन नहीं हो पाता और बिना अपेक्षित अधिगम के बावजूद छात्रों को एक कक्षा के बाद दूसरी कक्षा में रख दिया जाता है। प्राथमिक स्तर पर छात्रों को एक कक्षा में एक साल से अधिक रोकना भी न्यायसंगत नहीं हैं। लेकिन अध्यापकों को चाहिए कि वह हर छात्र में अधिगम से कम प्राप्ति पर सुधारात्मक शिक्षण को भी साथ-साथ संचालित करे। सालाना परीक्षा से पूर्व ही हर छात्र अपेक्षित अधिगम के आस-पास तो पहुंच ही जाए। अन्यथा अगली कक्षा के आरंभिक माह में सुधारात्मक शिक्षण की मदद से छात्रों को वह कौशल प्राप्त करवाएं जाएं जिससे वह अगली कक्षा में असहज न हो। किसी भी कक्षा में किसी भी बच्चे को रोकना,फेल की उपाधि देना छात्र को पीछे धकेलना ही है।
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