सत्य, शुभ और भावना: निर्णय का बोझ


रोहित धनकर

कोई एक-दो महीने पहले मैंने एक हिंदी फिल्म देखि थी: काबिल. फिल्मों की मेरी समझ कोई खाश नहीं है, अतः मैं उसके गुण-दोषों पर टिप्पणी नहीं करूँगा. पर इस फिल्म को एक खाश नजर से देखें तो यह कई जटिल सवाल किसी बात को ‘ज्ञान’ मानने के औचित्य (justification) और नैतिक निर्णय के आधारों पर उठाती है. हालाँकि फिल्म-कार ने इस से दृष्टि यह फिल्म बनी नहीं है. मैं यहाँ इन सवालों में से कुछ को उठाने की किशिश करूँगा.

समझ जायेंगे पर समझा नहीं पायेंगे-१

फिल्म का केंद्रीय बिंदु “समझ जायेंगे पर समझा नहीं पायेंगे” लगता है. अति संक्षेप में एक नेत्र-हीन व्यक्ति अपनी नेत्र-हीन पत्नी के साथ हुए बलात्कार और उसके फलस्वरूप पत्नी की आत्महत्या का बदला लेने के लिए बलात्कारियों और उनको बचाने वालों की हत्याएं करता है. क्योंकि पुलिस अपराधियों को दंड देने में भ्रष्टाचार के कारण असफल रहती है, बलात्कार की शिकार स्त्री का पति उन्हें स्वयं दंड देने का निर्णय लेता है. फिल्म में भी और मेरे इस आलेख में भी किसी नागरिक का अपराधी को स्वयं दंड देने का निर्णय कितना उचित है इस पर चर्चा नहीं है. बल्कि जिस तरह की चेतावनी के साथ राहुल भटनागर (बलात्कार कि शिकार स्त्री का पति) हत्याएं करता है और हत्याओं का दोषी माना जाने से बच जाता है यह है.

राहुल भटनागर चेतावनी के रूप में पुलिस से कहता है कि वह अपराधियों को स्वयं दंड देगा और हत्या के आरोप से बच जाएगा. कि पुलिस अफसर ‘समझ याजेगा की हत्याएं किसने की हैं पर समझा नहीं पायेगा’. अर्थात न्यायालय में और अन्य लोगों के सामने यह सी.द्ध नहीं कर पायेगा कि हत्याएं राहुल ने की हैं.

अब हम कल्पना करें कि जांच करने वाला पुलिस अधिकारी अपने कर्त्तव्य के प्रति बहुत निष्ठावान और ईमानदार था. (इस फिल्म में ऐसा नहीं है, हम यह इस स्थिति में ज्ञान के औचित्य (justification) और कर्म की नैतिकता के सवालों की जटिलता को रेखांकित करने के लिए मान रहे हैं.) अब एक अपराधी (चाहे उसने अपराध किसी अन्याय के प्रतिकार के रूप में ही किये हों) के बारे में पुलिस अधिकारी को साफ़ पता है कि हत्याएं उसी ने की है. यह कोई अनुमान भर नहीं है बल्कि तथ्यों के आधार पर एक तार्किक निष्कर्ष है.  पर दो समस्याएं है: एक, पुलिस अधिकारी जिन घटनाओं को तथ्यों के रूप में काम में ले रहा है वे किसी नेत्र-हीन व्यक्ति के लिए संभव नहीं लगती और इस लिए समाज और नायालय उसे नहीं मानेंगे, यह उसे पता है. जैसे एक दृष्टी-हीन व्यक्ति कैसी कसी को दुसरे सबल और सुआन्खे व्यक्ति को लड़कर फांसी दे पायेगा? कुछ तथ्यों की उसे व्याख्या करनी पड़ती है और वह व्याख्या भी आम तौर पर अमान्य ठहराई जायेगी.

यहाँ तक आम बात है. सवाल यह उठता है कि क्या ज्ञान में व्यक्तिगत-औचित्य (personal justification) और लोक-औचित्य (public justification)  में कोई बड़ा भेद है? क्या यह संभव है की कोई व्यक्ति अपने स्तर पर पूरी तरह आस्वस्त है कि वह किसी घटना के होने की  सच्चाई जनता है, उस के लिए उसके पास अपनेतई साफ़ और पुख्ता आधार है; और इस लिए वह उसे सिद्ध-विश्वास (justified belief) मानता है, साथ ही वह सत्य भी है, तो असके लिए वह ज्ञान है. पर उसके औचित्य को अन्य-लोगों को समझाना असंभव है, तो यह लोक-मान्य-ज्ञान (पब्लिक नॉलेज) नहीं बन सकता, कम से कम अभी. अतः वह अपराधी को न्याय के कठघरे में खड़ा नहीं कर सकता. एक कर्त्तव्य-निष्ठ अधिकारी के लिए यह बड़ी दुविधा की स्थिति होगी: उसके कर्त्तव्य का यह भी हिस्सा है कि न्याय के आधार लोक-मान्य हों, अर्थात औचित्य लोक मान्य हो, justification publicly समझा जाए. तो वह अपराधी को पकड़ नहीं सकता. दूसरी तरफ उस की कृतव्य-निष्ठा यह भी चाहती है कि कोई अपराधी बचे नहीं. तो वह पराधी को छोड़ भी नहीं सकता. तो, क्या करे वह? इस पर आगे और बात करेंगे.

पहले व्यक्ति-गत या आतंरिक औचित्य पर कुछ टिप्पणी. किसी घटना या अनुभव/अवलोकन को व्याख्या करके ही निष्कर्ष निकालने में काम में लिया जासकता है. साथ ही उस तथ्य का तार्किक सम्बन्ध भी निष्कर्ष से होना चाहिए. अब व्याख्या और तार्किक सम्बन्ध देखना दोनों ही व्यक्ती के पूर्व अनुभवों, पूर्व-ज्ञान और तर्क की समझ पर निर्भर करता है. पर कोई भी व्यक्ति अपने संपूर्ण अनुभव, ज्ञान और तर्क को दूसरों के सामने (publicly) रखपाने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वह कितनी भी कोशिश करे और लोक (public) कितनी भी प्रबुद्ध हो. निष्कर्ष यह की आतंरिक-औचित्य का दायरा शायद लोक-औचित्य से सदा ही बड़ा होगा. हमारा कुछ ज्ञान हमेंशा ऐसा होगा जिसे हम लोक में सिद्ध नहीं कर पायेंगे. यह किसी भी ईमानदार अधिकारी के लिए बड़ी कष्ट की स्थिति होगी.

पर व्यवस्था—जैसे पुलिस—में काम करने वाले अधिकारियों के लिए कुछ राहत इस बात से मिल सकती है की उनकी निष्ठा का एक हिस्सा प्रक्रियात्मक (procedural) भी होता है. अर्थात हत्या की जांच के कानूनी तरीके होते है, साक्ष्य की परिभाषाएं होती हैं, अतः वहां सत्य में भी एक प्रक्रितात्मक (procedural) तत्व आ जाता है. अधिकारी अपने आप से यह कह सकता है की नियमों के अनुसार जो संभव था सब किया; अब वह इस जांच को खुली छोड़ कर किसी और काम में लगे. यह जाँच कुछ नए तथ्य सामने आये तो फिर खोली जा सकेगी. अतः, प्रक्रियात्मकता में ज्ञान और नैतिकता की पीड़ा दायक दुविधाओं को छुपाया जा सकता है. इस फिल्म में जांच अधिकारी भी कुछ ऐसा ही करता है.

पर आम नागरिक जो अपने व्यक्तिगत आधार पर काम कर रहा हो और उसे कुछ ऐसा समझ में आये कि समाज में कुछ अनुचित है, अन्याय पूर्ण है; वह उसे समझता है, पर समझा नहीं सकता, तो उसकी ज्ञानात्मक और नैतिक दुविधाओं का क्या रूप और क्या कष्ट होंगे? इस पर अगले लेख में विचार करेंगे.

एक और काबिले गौर स्थिति यह हो सकती है जहाँ आम-नागरिक की व्यक्तिगत भवनायें भी जुड़ी हों, अर्थात कुछ ऐसा उसके या उसके किसी प्रिय मित्र के साथ होता है जो अन्याय पूर्ण है, कोई व्यक्ति-विशेष उसे जनता भी है, पर कोई पब्लिक justification उपलब्ध नहीं है. तो इन समस्याओं के क्या स्वरुप बनेगें और क्या इनका कोई हल हो भी सकेगा? यह भी आगे विचार करने की चीज है.

इन उदाहरणों में एक आम बात यह है कि जब व्यक्तिगत तौर पर सिद्ध ज्ञान और सामाजिक तौर पर सिद्ध किये गए ज्ञान में बड़ा भेद हो तो ज्ञान एक फांश बन जाती है. इस फिल्म का मूल कथ्य मुझे यही लगता है. पर इस पर और विस्तार से बात ऊपर उठाई गई दो समस्याओं को समझने की कुछ कोशिश के बाद करेनेगे.

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4 Responses to सत्य, शुभ और भावना: निर्णय का बोझ

  1. Narendra Parvat says:

    यह पूर्णतः सही है कि कोई भी व्यक्ति किसी और को अच्छी तरह समझा नहीं सकता । फिर ज्ञान और समझ को लिए ढोता रहता है।

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  2. मुकेश जोशी says:

    रोहित जी बिल्कुल इसी प्रकार की स्थीति पारलोकिक शक्तियो का सामना कर रहे अथवा चुके लोगो के साथ होती है । वह व्यक्ति अपने अनुभव को बता तो सकता है परंतू कुछ भी साक्ष्य नही बता सकता।

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  3. Anonymous says:

    Rohitji,

    A lot of personal subjective experience and emotion has this quality…we can understand it but can’t explain it. Many of our sensory perceptions also fit in this cateogory, e.g. happiness, pain, hurt (physical or psychological) or, say, a perception of colour. Suppose you saw a new colour you had never seen before. Without showing that colour to someone, you can’t explain it. The word ‘qualia’ catures exactly such experience. That is at least one reason why personal justifications will always differ from public ones. Why you love or hate someone can strictly have only personal justification. This means that there is a cateogory of strictly personal knowledge, the justification or even truth for which lies or can lie only with the individual. It cannot become public knowledge and these two arenas must be kept separate.

    However, since personal words/actions (governed by knowledge) affect others, they require justifications in the public space. Such justifications should also be governed by public rules of acceptability like soundness of evidence, logic, coherence, shared norms or values etc.I cant publicly justify torturing someone just because I like doing it.

    Of course, your analysis of the film is looking at justification in a specific (unfamiliar for me) context, not a general one.

    Anshumala

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