कश्मीर: कुछ और मुद्दे


मेरी पिछली पोस्ट “जय हिन्द पर इतनी लफ़्फ़ाज़ी?” पर टिप्पणी के रूप में WhatsApp समूह में एक साथी ने जो लिखा उसे नीचे कुछ बिन्दुवार लिखने की और उसपर कुछ कहने की कोशिश कर रहा हूँ:

  • अपनी पोस्ट के आखिर में सनीप जी ने लिखा है “यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं हिमांशु कुमार की पोस्ट से जोड़कर न देखे जाएं”। अर्थात अब इसे उस लफ़्फ़ाज़ कविता से अलग करके विचार किया जा सकता है। यह अच्छी बात है।
  • “कश्मीर की समस्या राष्ट्रीयता की समस्या है इसे सोची समझी साजिश के तहत इस्लामिक समस्या बनाया गया है।” कश्मीर समस्या पर इस तरह को कोई पक्का विचार बना लेना आसान नहीं है। इस के लिए हमें काफी अध्ययन करना पड़ेगा, बहुत कुछ लिखा जा चुका है वह देखना पड़ेगा। आम तौर पर यह काम समाज में कुछ विशेषज्ञों का होता है। हमारी समस्या वर्तमान में यह हो गई है की कोई भी निरपेक्ष विशेषज्ञ नहीं बचा। सब धड़े बंद हो कर अपना ही पक्ष रखते हैं। मैं इस विषय पर विशेषज्ञ नहीं हूँ। फिर भी आम नागरिक की दृष्टि से कुछ पढ़ता रहा हूँ, और बहुत कुछ पढ़ रहा हूँ। यहाँ सारे संदर्भ देने के लिए समय नहीं है, पर कोई बहुत गंभीरता से बात करना चाहे तो दे सकता हूँ, जरूरत पड़ने पर। (१) आजादी के समय कश्मीर के महाराजा और शेख अब्दुल्ला दोनों ही उसको स्वतंत्र देश बनाना चाहते थे। विलय तो पाकिस्तान के आक्रमण (काबाइलियों के वेश में) के कारण उन्हें मानना पड़ा। (२) अगस्त १९५३ में अब्दुल्ला को अपदस्थ करने के संदर्भ में “Kashmir Conspiracy Case” को ठीक से समझना पड़ेगा। मैं इसपर भरोसेमंद सामाग्री ढूंढ रहा हूँ। अभी तक जो कुछ मिला है उसके आधार पर लगता है कि निर्णय नेहरू ने लिया था, निर्णय से पहले नेहरू को अब्दुल्ला के भाषण और कुछ पत्राचार दिखाया गया था। नेहरू को इस से बड़ा झटका लगा, और उनके मन में ये अब्दुल्ला के पाकिस्तान से सम्बन्धों के, स्वतंत्र देश बनाने के और इस में इस्लाम के उपयोग के प्रमाण बन गए। मेरी समझ के अनुसार नहरु का निष्कर्ष ठीक था। (३) कश्मीर षड्यंत्र केस में बेगम अब्दुल्ला और उनके साथियों पर पाकिस्तान से घन और अन्य संसाधन, यहाँ तक की विष्फोटक सामाग्री प्राप्त करने के भी आरोप लगे थे। (४) कश्मीर षड्यंत्र केस का कोर्ट में फैसला नहीं हो सका, क्यों की भारत सरकार और अब्दुल्ला के बीच समझौता हो गया, नेहरू की कश्मीर समस्या हल करने की इच्छा के कारण। इस  में हज़रतबल मस्जिद से मुहम्मद के बाल के गायब होने और फिर प्राप्त हो जाने की घटना का भी योगदान रहा।

ये सब इस लिए लिखा की बताया जा सके की ‘राष्ट्रीयता’ की समस्या को हल करने के लिए पाकिस्तान—इस्लाम के आधार पर बने देश–और इस्लामिक भावना की खुली मदद ली जारही थी। और फिर आगे चल कर तो अब यह समस्या इस्लामिक राज स्थापित करने की समस्या है ही।

इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है की दुनियाभर में कोई भी राजनैतिक समस्या जहां मुसलमान बहुतायत में हों वह बहुत जल्दी धर्म की समस्या क्यों बन जाती है? यह लोगों को (आप को भी) एक सांप्रदायिक वक्तव्य लगेगा। पर इसके विरुद्ध पर्याप्त संख्या में उदाहरण मिलने पर मैं इस विचार को त्यागदूंगा।

आपने लिखा है कि इसे इस्लामिक समस्या बनदिया गया। यह भी सवाल है की किसने बनाया? कश्मीरियों ने खुद? भारत सरकार ने? काँग्रेस पार्टी ने? संघ परिवार ने? बीजेपी ने? किसने? ऐसे मुद्दों पर खुल कर बात करने की जरूरत है। सिर्फ संकेतों से काम नहीं चल सकता.

  • “जहां तक खून खराबे की बात है उसके बारे में अभी से हम कुछ नहीं कह सकते हैं यह तो तभी पता चलेगा जब पूर्णत: कर्फ्यू हटा लिया जाएगा।” यह ठीक है। मैंने अपनी पिछली पोस्ट में खून-खराबे को रोकने के लिए सेना की बात सिर्फ इस लिए की थी क्योंकि कहा गया कि सेना आदेश मानने से इंकार क्यों नहीं करती।
  • “आखिर यह अधिकार पूर्णत: कश्मीरीयों को है कि वो अलग होना चाहते हैं, भारत के साथ आना चाहते हैं या पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं। इसके लिए सरकार को जनमत संग्रह करवाना चाहिए।” माफी चाहते हुये भी मुझे लखना पड़ेगा कि यह विचार बहुत चीजों को अनदेखा करता है। किसी भी प्रदेश की जनता का अलग होने का अधिकार न तो अंतरराष्ट्रीय कानून में अबाध अधिकार है न ही नैतिक दृष्टि से इसे सदा समर्थित किया जा सकता है। इस पर मैंने अपने एक पुराने ब्लॉग “Kashmir: Illegal occupation by India?” में लिखा है। पूरा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें। इस पोस्ट में सिर्फ इतना ही लिखुंगा कि (१) देश जब मर्जी हो तब अलग होने के सिद्धान्त पर नहीं चल सकते। (२) अलग होने में वहाँ बचे अल्पसंख्यक समुदायों के हितो की रक्षा का जो वचन भारत राष्ट्र ने दिया था उसका क्या होगा? कश्मीरियों ने अपने यहाँ अल्पसंख्यकों से बहुत बुरा व्यवहार किया है। और पाकिस्तान भी करता है। वे पाकिस्तान में मिले तो उनका क्या होगा? (३) इस्लाम के आधार पर एक विभाजन १९४७ में हो चुका है। इतना जल्दी दूसरा विभाजन बाकी देश की क्या गत बनाएगा?
  • “जबकि यह सर्वविदित है कि 1948 में गुजरात की जूनागढ़ रियासत के लिए जनमत संग्रह करवाया गया था।” फिर से माफी चाहते हुये, ये भ्रामक या अधूरी जानकारी पर आधारित है। मेरे ऊपर संदर्भित ब्लॉग में विस्तार से देखें। यहाँ इतना ही कि (१) कश्मीर में जनमत-संग्रह के एकाधिक प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ में पास हुए हैं। जनमत संग्रह की पहली शर्त यह थी कि पाकिस्तान अपनी सारी फौज और सभी नागरिकों को वहाँ से पहले हटाये। (२) भारत की सेना कानून व्यवस्था के लिए न्यूनतम आवश्यकता के अनुसार वहाँ रहे। (३) तब संयुक्त राष्ट्र संघ की देख-रेख में जनमत संग्रह हो। पहली शर्त कभी पूरी नहीं हुई। जूनागढ़ में ये सब उलझाने नहीं थी।
  • “आज के दौर में हम सेना की उपस्थिति को तो नहीं नकार सकते लेकिन सेना को विशेषाधिकारों से लैश करना बिल्कुल गलत है।” कौनसे विशेषाधिकार? उनकी स्पष्ट अभिव्यक्ति के बिना गोलमोल भाषा में बात करने से कुछ नतीजा नहीं निकलेगा। और इसमें कश्मीर में पाकिस्तान से आने वाले, पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंककारियों को भी नजर में रखना पड़ेगा।
  • “मैं पूछना चाहता हूँ छत्तीसगढ़ के जंगलों में सेना क्या कर रही है ? माओवादीयों के नाम पर आदिवासियों को अपने घरों से, जंगलों से उजाड़ा जा रहा है ताकि अड़ानी, अंबानी जैसे धन्ना सेठ प्राकृतिक संसाधनों को लूट सकें और यह सब सेना के माध्यम से करवाया जा रहा है।” आप पूछना चाहते हैं यह तो आप का हक़ है, पर यह इस जगह पर बहुत बड़ा विषयांतर है। इस पर बात अलग से होनी चाहिए। आदिवासियों के साथ भारत देश में अन्याय हुआ है इस से इंकार नहीं किया जा सकता। पर माओवादी आदिवासियों का भला कर रहे हैं इस को भी जाँचना होगा। साथ ही नक्षलवाद के इतिहास में भी वहाँ से जाना पड़ेगा जब चारु मजूमदार चीन से क्रांति (या आतंकवाद का?) प्रशिक्षण ले कर आए थे और माओवादी माओ को अपना चैर-मैन घोषित करते थे (आज किसे घोषित करते हैं अपना चैर-मैन, मैन नहीं जनता)। जैसा मैंने ऊपर कहा, अलग और लंबा विषय है।

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२३ सितंबर २०१९

2 Responses to कश्मीर: कुछ और मुद्दे

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