रोहित धनकर
अयोध्या फैसले को ले कर कई प्रकार की भ्रांतियाँ फैलाई जा रही हैं। प्रमुख यह है की यह फैसला धार्मिक-विश्वास के आधार पर लिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को ले कर भ्रांतियाँ फैलाना—कई बार जान बूझ कर भी—कोई नई बात नहीं है। बहुत लोगों को याद होगा की अफजल गुरु को फांसी दिये जाने के फैसले पर अरुंधति रॉय ने एक लेख लिख कर प्रचारित किया था कि न्यायालय स्वीकार कर रहा है कि यह फैसला जन-भावनाओं पर मरहम लगाने के लिए दिया है। यह बात सरासर गलत थी और कोई भी व्यक्ति लगभग १०८ पृष्ट का वह फैसला पढ़ कर यह समझ सकता था। पर ऐसी भ्रांतियाँ फैलाने वाले जानते हैं कि पढ़ने का काम कोई नहीं करेगा। और अयोध्या फैसला तो १०४५ पृष्ठों का है, इसे तो और भी कम लोग पढ़ेंगे।
पर इन भ्रांतियों पर आने से पहले मैं फैसले के बारे में अपना मत स्पष्ट करना चाहता हूँ। बहुत विस्तार में जाये बिना मैं कहना चाहूँगा कि यह फैसला बहुत संतोष जनक नहीं है। मैं कोई कानूनी विशेषज्ञ नहीं हूँ, पर मेरी सामान्य समझ इस से संतुष्ट नहीं है। यह बहुत उलझा हुआ सदियों पुराना मसला है। इस में कई तरह के कानूनी नुक्ते और बहुत सारे वादी-प्रतिवादी थे। सर्वोच्च न्यायालय ने सब वादी प्रतिवादियों को कानून सम्मत तरीके से हटा कर आखिर में मुस्लिम-पक्ष (सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड) और हिन्दू-पक्ष (भगवानश्री राम लल्ला विराजमान) रखे और फैसला मोटे तौर पर इन्हीं दो के बीच दिया। कुछ तथ्य निम्न प्रकार है:
- विवादित जमीन दोनों में से किसी की भी नहीं है, बल्कि सरकारी है।
- सरकार ने इस संपत्ति पर अधिकार के लिए दावा छोड़ दिया।
- दोनों (मुस्लिम-पक्ष और हिन्दू-पक्ष) में से किसी के भी पास ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जो यह सिद्ध करे कि इस जमीन पर किसी तरह का कब्जा उन्हें किसी के द्वारा दिया गया सिद्ध करता हो।
- पर इस जमीन पर मस्जिद थी और बाहरी चौक में (चाहर-दीवारी के अंदर) राम-चबूतरा, सीता की रसोई और भंडार की कोठारी थी।
- भीतरी चौक की मस्जिद में नमाज अदा होती थी और उस पर वास्तविक कब्जा मुस्लिम-पक्ष का था।
- बाहरी चौक में पूजा होती थी और उस पर वास्तविक कब्जा हिन्दू-पक्ष का था।
ऐसी परिस्थिति में यह मुकदमा ‘लंबे कब्जे के आधार पर जमीन पर मालिकाना हक़’ देने का था। तो न्यायालय को यह तय करना था कि किसका कब्जा कहाँ था, कितना पुख्ता था, कितने समय से था और वहाँ कौनसी धार्मिक गतिविधियां चालू थीं।
- न्यायालय ने सब से पहले धार्मिक गतिविधियों और कुछ हद तक कब्जे का प्रमाण १७७० के आस पास एक जर्मन यात्री के विवरण को माना है। इस यात्री का नाम टेफेंथलर (Tieffenthaler) था और यह १७४३ से १७८५ तक भारत में था। इस ने लिखा है कि विवादित जमीन पर एक वेदी थी, जिसे हिन्दू राम का जन्म स्थान मानते थे। एक सीता-रसोई थी। इस जगह पर पूजा होती थी और रामनवमी का मेला लगता था।
- फैजाबाद गजटियर के १९२८ के संस्कारण में लिखा है कि १८५५ में विवादित मस्जिद को ले कर हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ। उसके बाद मस्जिद के सामने एक दीवार बना कर चहर दीवारी के क्षेत्र को दो हिस्सों में बाँट दिया गया। अंदरूनी हिस्से में मस्जिद थी, वहाँ हिंदुओं के प्रवेश पर रोक लगादी गई। हिन्दू बाहरी हिस्से में अपनी पूजा-अर्चना करने लगे, राम-चबूतरा बनाया। मुसलमान बाहरी हिस्से से हो कर ही मस्जिद में प्रवेश कर सकते थे। इस से ये अंदाजे लगाए जा सकते हैं:
- १८५५ से पहले विवादित मस्जिद में हिन्दू-मुस्लिम दोनों अपनी-अपनी पूजा-नमाज़ करते थे।
- १८५५ में दीवार मुसलमानों के मस्जिद में नमाज अदा करने और कब्जे की स्वीकृती है।
- यही दीवार हिंदुओं के बाहरी चौक में पूना-अर्चना, उत्सवों और कब्जे की स्वीकृति है।
- १८५६ में अवध पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। इस के बाद बहुत से प्रमाण अर्जियों, मुकदमों आदि के दस्तावेजों के रूप में उपलब्ध हैं जो भीतरी-चौक में मुसलमानों का कब्जा और बाहरी-चौक में हिंदुओं का कब्जा साबित करते हैं।
- भीतरी-चौक में हिन्दू लगातार प्रवेश की कोशिशें करते रहते थे, जिन्हें सफल नहीं होने दिया गया।
- इसी तरह बाहरी चौक की कुछ गति विधियों (जैसे चबूतरे पर मंदिर बनाना या मेलों पर भीड़ के प्रवेश के लिए एक और दरवाजा निकालना) पर मुसलमान ऐतराज करते रहते थे, जो कभी सफल रहे कभी अफल।
- कमोबेश यह स्थिति १९४९ तक चलती रही जब सम्पूर्ण विवादित स्थल पर अदालत ने रिसीवर बैठा दिया।
इन तथ्यों से मेरी सामान्य समझ में यह आता है कि जितना और जैसा कब्जा हिंदुओं का बाहरी-चौक पर था, कम से कम उतना तो मुसलमानों का भीतरी-चौक पर भी था, शायद थोड़ा ज्यादा। क्यों की मुसलमानों को बाहरी चौक से गुजर कर भीतरी चौक में जाने का हक़ था, जबकी हिंदुओं को भीतरी-चौक में जाने का ऐसा कोई हक़ नहीं था।
तो मेरी असंतुष्टि का पहला कारण कारण तो यह है कि हिंदुओं के कब्जे को निर्बाध और एकांतिक (exclusive) माना, जब कि मुसलमानों के कब्जे को नहीं।
परिशर के दो हिस्से ना करने के न्यायालय ने दो कारण दिये हैं। एक कानूनी और दूसरा व्यावहारिक। कानूनी यह कि न्यायालय वही राहत दे सकता है जो दावे में मांगी गई है। वह अपनी तरफ से कोई अन्य उपयुक्त राहत नहीं दे सकता। और हिन्दू तथा मुस्लिम पक्ष में से किसी ने भी परिशर के बँटवारे की बात नहीं की। दोनों ही अपने अपने लिए पूर्ण परिशर चाहते हैं। अतः न्यायालय परिशर को बांटने की बात नहीं कर सकता था।
दूसरा व्यावहारिक कारण यह कि परिशर को बांटने से आपसी झगड़े की संभावना सदा के लिए बनी रहती। १८५६ के बाद एक तरह से बंटवारा ही तो था व्यावहारिक स्तर पर, हालांकि मालिकाना हक़ नहीं था।
यह फैसला उपरोक्त साक्ष्यों की नजर में कुछ असंतुष्टी छोड़ देता है। फिर न्यायालय ने यह फैसला क्यों किया होगा? सर्वोच्च न्यायालय के लिए “क्यों” पर जाना, अर्थात motive को इंगित करना खतरनाक है, यह अवमानना हो सकती है। कुछ लोग कहते हैं कि धार्मिक विश्वास, अर्थात हिंदुओं का यह मानना कि राम का जन्म स्थान यही है, इस में कारक रहा है। मुझे ऐसा नहीं लगता। बल्कि मुझे लगता है कि कारण कुछ-कुछ वैसा रहा है जो १८८५ के फैसले में अवध का आयुक्त (Commissioner) कहता है। महंत रघुबर दास ने १८८५ में राम चबूतरे पर मंदिर बनाने के लिए याचिका दी थी। यह याचिका पहले ट्राइल कोर्ट में खारिज हुई, फिर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में और आखिर में जुड़ीशियल कमिसनर अवध के कोर्ट में। डिस्ट्रिक्ट जज ने याचिका खारिज करने के साथ यह भी लिखा “it was “most unfortunate” that the Masjid should have been built on the land especially held sacred by the Hindus but since the construction had been made 358 years earlier, it was too late in the day to reverse the process”। अर्थात: यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मस्जिद हिंदुओं द्वारा विशेष रूप से पवित्र मानी जाने वाली जमीन पर बनाई गई, पर क्यों कि यह निर्माण ३५८ वर्ष पहले हो चुका है, इस लिए अब इसे हटाने में बहुत देर हो चुकी है”। जुड़ीशियल कमिसनर अवध ने भी कुछ ऐसा ही लिखा। उस ने कहा कि हिन्दू पवित्र मनी जाने वाली जगह पर मंदिर बनाना चाहते हैं। पर “this spot is situated within the precinct of the grounds surrounding a mosque erected some 350 years ago owing to the bigotry and tyranny of the Emperor Babur, who purposely chose this holy spot according to Hindu legend as the site of his mosque”. अर्थात: “यह स्थान ३५० वर्ष पहले बनाई गई मस्जिद के अहाते में आता है। हिन्दू विश्वासों के अनुसार यह मस्जिद बाबर ने जान बूझ कर अपनी धर्मांधता के कारण इस पवित्र जगह पर बनाई”।
बहुत संभव है की यह फैसला देते वक़्त न्यायाधीशों के मन में दबे-छुपे कहीं ऐसा कुछ गूज़ रहा हो, हालांकि यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। कुछ भी हो फैसले में यह खामी तो लगती है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या उपरोक्त विचार (यदि ऐसा था तो भी) इस फैसले को धार्मिक विश्वास के आधार पर साबित करता है? मुझे लगता है नहीं। पर इस पर विचार कल या परसों करेंगे। नीचे लिखी चार भ्रांतियों के साथ। फैसले के बारे में निम्न चार बातें जिम्मेदार लोगों ने कही हैं, इन पर आगे विचार करेंगे:
- बाबरी मस्जिद बनाने के लिए कोई मंदिर नहीं तोड़ा गया था। ( फैसला ऐसा नहीं कहता।)
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला धार्मिक-विश्वास के आधार पर दिया। (सही नहीं है)
- यह हास्यास्पद है कि ताकतवर मुगल साम्राज्य में मस्जिद में नमाज नहीं पढ़ी जा रही थी इस के लिए प्रमाण मांगा जाए। (न्यायालय के लिए प्रमाण मांगना जरूरी था, कुछ भी हास्यास्पद नहीं।)
- मस्जिद बाबर ने बनवाई। (न्यायालय ने नहीं कहा।)
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१८ नवम्बर २०१९
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