रोहित धनकर
[इस ब्लॉग में मैं अपने कल के अङ्ग्रेज़ी के ब्लॉग “Rampant ad hominem and dogmatic warriors” में कही बात को ही हिन्दी में कह रहा हूँ। दोनो आलेख मैंने ही लिखे हैं। अतः, हू-ब-हू अनुवाद की जरूरत नहीं समझता।]
इस वक़्त भारत एक बहुत मुश्किल दौर से गुजर रहा है, शायद अपने संवैधानिक इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से। राजनैतिक विचार धाराओं के बहुत आक्रामक संघर्ष के कारण समाज बहुत उद्वेलित है और नागरिक लगातार दो धड़ों में बंटते जा रहे हैं। रोज लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता पर खतरे का डर फैल रहा है।
धर्मनिरपेक्षता लोकतन्त्र के लिए जरूरी है। न तो कोई भी देश बिना धर्मनिरपेक्षता के लोकतन्त्र हो सकता है, नाही कोई लोकतन्त्र धर्म-राज्य या फिरकापरस्त हो सकता है। क्यों कि लोकतन्त्र में व्यक्ति का महत्व स्वीकारना मूल मंत्र होता है। व्यक्ति स्वतन्त्रता इस का आधार होती है। और सब नागरिकों का हित समान समान होता है। अतः, राज्य अपनी नीतियों में धर्म के आधार पर भेद नहीं कर सकता। भेद करने पर इन सिद्धांतों का विरोध होगा। अतः वह लोकतन्त्र नहीं रहेगा।
लोकतन्त्र की गुणवत्ता उसके नागरिकों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। लोकतन्त्र के नागरिकों की पहली जरूरत स्पष्ट और विवेकशील चिंतन और नए विचारों को समझने की काबिलियत होती है। यह एक सुशिक्षित व्यक्ति की पहचान भी है। असपष्ट और विवेकहीन विचार करने वाले नागरिकों का लोकतन्त्र ना तो सुरक्षित रह सकता है नाही विकास कर सकता है। क्यों की इन्हें कोई भी दुर्बुद्धी नेता या प्रसिद्ध व्यक्ति आज के शक्तिशाली संचार माध्यमों के उपयोग से बहका सकता है। लोकतन्त्र में नागरिक की प्रभाविता उसकी साफ समझ और सत्या-सत्य के निर्णय की बौद्धिक ईमानदारी पर निर्भर करती है। उस में तथ्य और कुप्रचार में फर्क करपाने की समझ होनी चाहिए। उस में मतांधता और पूर्वाग्रह को नकारने की सामर्थ्य होनी चाहिए; और भेड़-चाल के विरुद्ध खड़े होने की सामर्थ्य होनी चाहिए।
साफ विचार की काबिलियत के साथ ही लोकतन्त्र विचार और अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता की भी मांग करता है। बिना अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के संवाद संभव नहीं है और बिना संवाद के विवेक आधारित सहमती संभव नहीं है। मत-भेदों और हितों की टकराहट को दूर करने के लिए लोकतन्त्र में विवेक आधारित सहमति के अलावा कोई तरीका नहीं होता। अतः अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बिना लोकतन्त्र नहीं चल सकता।
लोकतन्त्र का सचेत नागरिक अपनी बात साफ और स्त्यरूप में निडर हो कर तो कहता ही है; वह दूसरे की बात भी पूरी शांति और ध्यान से सुन कर वेवेक-सम्मत जवाब देता है। जो अपने से भिन्न विचारों को शांति से सुनने और समझने की काबिलियत नहीं रखता वह कभी भी विवेकशील और स्पष्ट चिंतन नहीं कर सकता। ऐसे नागरिक का शोर-शराबा ना तो लोकतन्त्र की रक्षा करता है ना ही किसी लोकतान्त्रिक मूल्य की।
आम तौर पर जो लोग अपने विचारों के विरुद्ध विचार और तर्क सुनकर गुस्सा होते हैं उन्होने कुछ विचार और विश्वास बिना समझे और बिना उनके लिए उचित तर्कों/आधारों के स्वीकार कर लिए होते हैं। बहुत बार ऐसे लोग किसी गुरु, विचारक, प्रसिद्ध बुद्धिजीवी या यहाँ तक की खोखले सेलेब्रिटी तक का अनुकरण कर रहे होते हैं। अपने विचार के तर्कसहित विरोधिविचार से सामना होने पर ऐसे लोग असुरक्षित महसूस करते हैं, क्यों की वे नातो स्वयं के विचार को ठीक से समझते हैं, ना ही उस के लिए प्रमाण या तर्क दे सकते हैं। अतः, अपने बचाव के लिए ये लोग विचार से ध्यान हटा कर विचार रखने वाले हमला कर देते हैं। यह बहुत व्यापक स्तर पर काम में लिया जाने वाला तर्क-दोष है। और आज कल तो इसका बहुत ही ज्यादा चलन हो गया है। इस तर्कदोष का लेटिन भाषा में नाम एड होमिनेम है।
एड होमिनेम के कुछ उदाहरण नीचे दिये हैं:
“कुछ लोग बात कर रह थे। राम और उसके दोस्तों की दृढ़ मान्यता थी कि धरती घनाकार है। कृष्ण के बहुत हैरानी हुई।
उसने कहा “धरती यदि घनाकार है तो समुद्र से आते हुए जहाज को किनारे से देखने पर पहले मस्तूल और फिर बाद में पूरा जहाज क्यों दिखता है? चंद्र ग्रहण के समय चाँद पर धरती की छाया गोल क्यों दिखती है? मेरे विचार से धरती गोलाकार होनी चाहिए।
राम: तुम्हें भाषा नहीं आती। तुमने “बाद में” को “बद में” बोला है।
कृष्ण: ठीक है। तुम मेरी बात तो समझ गए हो। तो यह बताओ मेरे तर्क में क्या दोष है?
राम: तुम घनाभ चीजों को पसंद नहीं करते, इस लिए ऐसा कह रहे हो।
कृष्ण: बढ़िया। अब ये बताओ मेरी बात में गलती क्या है?
राम2: हमें तुम्हारा इतिहास भी देखना पड़ेगा, तुमने चंद को भी गोल कहा था।
कृष्ण: ठीक। अब मेरे धरती संबंधी तर्क में गलती बताओ।
राम3: तुम्हारी बुद्धि बीमार हो गई है।
कृष्ण: धन्यवाद। पर मेरे तर्क में दोष बताओ।
राम4: हे ईश्वर, यह कह रहा है कि धरती गोल है! घ्रणित, अति घ्रणित!!
आज कल नागतिकता संशोधन विधेयक और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पर चल रही बहस में बहुत ज्यादा लोग उपरोक्त तरीके से बात कर रहे हैं। ऐसा नहीं है की अच्छी और उचित प्रकार की बहस नहीं चल रही। वह भी खूब चल रही है और उस से लोकतान्त्रिक प्रक्रिया मजबूत भी हो रही है। क्यों की तर्कों में स्पष्टता आ रही है और विचारों की विभिन्न परतों का विश्लेषण हो रहा है।
पर दूसरी तरफ ऊपर वर्णित किश्म के लोग भी लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता के योद्धा बने घूम रहे हैं। इन में से अधिकतर योद्धा ठीक से पढ़कर कर समझने की काबिलियत नहीं रखते, तर्क की समझ शून्य है, अपने अलावा सब विचारों के लिए एकदम बंद दिमाग हैं। बस अपने गुरुओं से सुनी बातें दोहरा रहे हैं और समझते हैं की बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। पहले सिर्फ संघ के पास ऐसे बंद-दिमाग योद्धा थे; अब दोनों तरफ इनकी फौजें हैं।
इन लोगों ने कुछ समाज में सराहना पाने वाले विचार आत्मसात कर लिए हैं, कुछ अच्छे समझे जाने वाले विश्वास बना लिए हैं। पर उनके मर्म को समझे बिना और उनके पीछे विवेक के आधार को समझे बिना उन्हें आत्मसात किया है। अब क्यों कि ये विचार समाज में इतना मान पते हैं और जाने-माने बुद्धिजीवी इसी तरह की बातें अपने कारणों से बहुत ऊग्रता से रखते हैं। अतः इन पदाति सैनिकों को बल मिलता है। चूंकि ये तर्क कर नहीं सकते, तो क्रोध अभिव्यक्त करके और विपरीत विचार के लिए आग्रह करने वालों पर व्यक्तिगत आक्रमण करके अपने आप को उच्च नैतिक धरातल पर समझने लगते हैं। जब कि इनके आदर्श-लोग, जो इन विचारों का महत्व और इनके तर्क-कुतर्क समझते हैं, वे व्यक्तियों पर आक्रमण किए बिना अपनी बात रखते हैं।
ये पदाति-सैनिक यह नहीं समझते कि उदार लोकतन्त्र में अपने विरोधी की विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करना एक बहुत महत्वपूर्ण मूल्य है। एक विचार-शील नागरिक विरोधी को अपनी बात रखने देता है, बल्कि कोई और उस के इस अधिकार को बाधित करते हैं तो उसके अधिककर की रक्षा भी करता है; और तब सभ्य तरीके से सटीक आलोचना प्रस्तुत करता है। जब हम लोगों को उनके विचारों के लिए शर्मिंदा करने की कोशिश करके चुप कराना चाहते हैं या उन पर व्यक्तिगत आक्रमण करते हैं तब हम स्वयं हथियार डालचुके होते हैं।
नैतिक निर्णय किसी रटे-रटाये सिद्धान्त को मतान्ध लागू करना नहीं होता। कोई भी नैतिक समस्या तब तक नहीं उपजती जब तक एक ही परिस्थिति में दो महत्वपूर्ण नैतिक सिद्धांतों की टकराहट न हो। अतः, नैतिक निर्णय कम से कम दो सिद्धांतों में से किसी एक का विवेक-सम्मत चुनाव होता है। यह लकीर का फकीर होने से बहुत अलग चीज है। नैतिक निर्णय बहुत बार लकीर छोड़ कर नए पथ के निर्माण की मांग कर कराते हैं।
लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, स्वतन्त्रता और समानता में समझ कर विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति किसी के विचार गलत हों तो भी व्यक्तिगत आक्रमण नहीं कर सकता। निसंदेह, गलत विचार की आलोचना की भी जरूरत होती है और उसे नकारने की भी। पर यह काम सभ्य तरीके से करना पड़ता है। जो विचार की आलोचना करके उसे नकारने का काम बिना व्यक्त पर आक्रमण किए नहीं कर सकता, वह लोक-संवाद के पहले सिद्धान्त से भी अपरिचित है।
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20 दिसम्बर 2019