तीन अलोकप्रिय टिप्पणियाँ


रोहित धनकर

[एक: अराजकता में किसी का भी भला नहीं है।

दो: सीएए, एनपीआर और एनआरसी की तुरंत जरूरत है।

तीन: हर गलत आख्यान की आपको कीमत चुकानी पड़ेगी, जिस भी दुष्टता को आप पुष्ट करेंगे वही आप को डसेगी, चाहे वह हिन्दू-दुष्टता हो या मुस्लिम-दुष्टता।]

एक: अराजकता में किसी का भी भला नहीं है

हमने अपना प्रातिनिधिक-लोकतन्त्र और इस की संसदीय प्रणाली अंग्रेजों से सीखी है। इस संसदीय प्रणाली की सफलता की एक शर्त की विवेचना अंबेडकर अपनी पुस्तक “पाकिस्तान ओर पार्टिसन ऑफ इंडिया” के पृष्ट 291 पर करते हैं। वे इस संदर्भ में वे लॉर्ड बलफ़ौर (Lord Balfour) का उद्धरण देते हुए कहते हैं कि संसदीय प्रणाली की ताकत सब की “इसे सफल बनाने की नीयत (प्रतिबद्धता) में होती है”। जिन लोगों ने अंग्रेजों से यह पद्धती सीखी है उनके बारे में लॉर्ड बलफ़ौर आगे कहते हैं कि “वे हमारी संसद में रुकावट डालने के तरीके तो सीख लेते हैं, पर यह उन्हें कोई नहीं समझाता कि जब असल बात आती है तो हमारी सब संसदीय पार्टियां इस बात के लिए प्रतिबद्ध होती हैं कि मशीन (अर्थात राज्य-व्यवस्था) बंद नहीं हो (यह चलती रहे)”। (They learn about our parliamentary methods of obstruction, but nobody explains to them that when it comes to the point, all our parliamentary parties are determined that the machinery shan’t stop.) अंबेडकर का मानना है कि चलते रहने, अवरुद्ध हो कर बंद न हो जाने, की प्रतिबद्धता के बिना संसदीय प्रणाली नहीं चल सकती। यह समझना सहज है की किसी राज्य व्यवस्था के भंग हो जाने पर अराजकता आती है और अराजकता सिर्फ संगठित गुंडा-गिरोहों का भला कर सकती है।

कल के द हिन्दू अखबार में बंगाल की संवैधानिक रूप से चुनी हुई, और संविधान की सपथ के कर मुख्य-मंत्री बनी सुश्री ममता बनेर्जी का वक्तव्य है कि “जो बंगलादेश से आए हैं, जिन्हों ने पहचान-पत्र प्राप्त किए हैं, और जो वोट देते रहे हैं, वे भारत के नागरिक हैं। उन्हें फिर से प्रतिवेदन देने की जरूरत नहीं है”। इस देश में नागरिकता के कुछ नियम हैं, नागरिकता कानून में अभी के संशोधन से पहले भी थे। सुश्री बनेर्जी कह रही हैं की जिन लोगों ने जैसे-तैसे भी मतदाता सूची में अपने नाम लिखवा लिए हैं वे अब स्वतः ही नागरिक हैं। उन्हें किसी प्रकार के प्रतिवेदन की जरूरत नहीं है।

मैंने अपने 29 फ़रवरी 2020 के ब्लॉग पोस्ट “व्हेर डज दिस इंडियन बेलोंग?” में यही लिखा है। कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक का विरोध इस लिए नहीं है कि इस से भारतीय मुसलमानों की नागरिकता को कोई खतरा है, बल्कि इस लिए है कि जिन के नाम गैर-कानूनी तरीकों से विभिन्न राजनैतिक पार्टियों ने मतदाता सूची में लिखवा दिये हैं, उन की पहचान न हो सके। सुश्री बनेर्जी यही कह रही हैं। साथ ही वे यह भी कह रही हैं कि धोखे से नागरिकता लेलेना इस देश में उन्हें जायज लगता है। अर्थात वे देश के नियमों से चलाने की पक्षधर तभी तक हैं जब तक की नियम वे हैं जो उन्हें पसंद हैं।

आप ऐसे बहुत से उदाहरण देख सकते हैं जो देश की कानून व्यवस्था को ठप्प करने के लिए खुली चुनौती हैं। ये राजनैतिक पार्टियां कर रही हैं, समाज-सेवी कर रहे हैं, और कथित-बुद्धिजीवी तो इसी को अपनी महानतम उपलब्धी मानते हैं। लोकतन्त्र विधि-विधानों पर चलता है। संसद और उच्चतम न्यायालय इन विधि-विधानों के बनाने वाले और रखवाले होते हैं। जब आप यह घोषणा करते हैं कि न्यायालय और संसद की बात तभी तक मानेंगे जब तक वे आप के मन के अनुसार चलें तब आप निरंकुश हो रहे हैं, तब आप भारत के दूसरे नागरिकों को अपने आप से कमतर मान रहे होते हैं। आप को कोई कानून पसंद नहीं है तो उसे बदलवाने के लिए बहस का, प्रदर्शन का, शांतिपूर्ण संघर्ष का हक़ तो संविधान देता है; पर उस कानून को ना मानने का और जबतक वह कानून है तब तक न्यायालय के निर्णय को न मानने का हक़ नहीं है। यदि आप ऐसा करते हैं तो आरजकता कि निमंत्रण दे रहे हैं।

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दो: सीएए, एनपीआर और एनआरसी की तुरंत जरूरत है

कल एक व्हाटसप्प समूह में किसी ने एक अखबार की कटिंग सब को भेजी। इस का शीर्षक है “मुख्यमंत्री और राज्यपाल के नागरिकता प्रमाण नहीं सरकार के पास, आरटीआई का खुलासा”। यह खबर हरयाणा की है। आगे तर्क दिया गया है कि “जिनके अपने नागरिकता प्रमाण पत्रों का रेकर्ड मौजूद नहीं, वे पूरे प्रदेश और देश की 135 करोड़ जनता से सबूत मांग रहे जो अपने आप में बड़ा ही हास्यास्पद है”।

मैं तो इन महाशय से उलटे नतीजे पर पहुंचता हूँ इस खबर से। मुझे तो इस खबर से यह लगता है देश में नागरिकता के रेकॉर्ड्स की बहुत बुरी हालत है। यहां लोग बिना नागरिकता के सबूत के मुख्यमंत्री और राज्यपाल बनजाते हैं। हमें क्या पता कितने लोग कहाँ-कहाँ से आकार, किस-किस तरह के अतीत के साथ, किन-किन महत्वपूर्ण पदों पर बैठ कर हम पर राज कर रहे हैं? इस परिस्थिति को तो जल्द से जल्द सुधारना चाहिए। हमें शीघ्रातिशीघ्र एनपीआर और एनआरसी पर काम करना चाहिए जिस से ऐसी स्थिति से निकाल सकें।

अभी तक रेकॉर्ड्स और जानकारियों का ठीक से रख-रखाव नहीं हुआ, नियमों के अनुशार काम नहीं हुआ, तो क्या इस का यह अर्थ है कि आगे भी यही अव्यवस्था रहे? अव्यवस्था और नागरिकों के बारे में अज्ञान है, इसी लिए तो एनपीआर और एनआरसी की जरूरत है।

मेरा दिमाग उलटा काम कर रहा है या इन भाई साहब का?

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तीन: हर गलत आख्यान की आपको कीमत चुकानी पड़ेगी, जिस भी दुष्टता को आप पुष्ट करेंगे वही आप को डसेगी, चाहे वह हिन्दू-दुष्टता हो या मुस्लिम-दुष्टता

पिछले दो सप्ताह से मैं दो आख्यानों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ।

पहला आख्यान (narrative): इसके अनुसार दिल्ली में जो कुछ हुआ वह:

  1. हिंदुओं ने किया, मुसलमानों के विरुद्ध।
  2. इस में सरकार और दिल्ली पुलिस ने मदद की।
  3. दिल्ली में मुसलमानों का ‘जनसंहार’ (genocide) हुआ।
  4. हिंदुओं ने मुसलमानों की ‘तबाही’ (pogrom) किया।
  5. भारत में मुसलमानों का जनसंहार किया जा रहा है, यह जनसंहार हिन्दू सरकार के सहयोग से कर रहे हैं।
  6. भारत के हिन्दू मुसलमानों से घ्राणा करते हैं और उन्हें खत्म कर देना चाहते हैं।
  7. भारत मुसलमानों के लिए सब से असुरक्षित देश हो गया है।
  8. इस सारी चीज में मुसलमान एकदम निर्दोष हैं, भले हैं, शांतिप्रिय रहे हैं और वे सामान्य तौर पर शान्तिप्रिय हैं।
  9. मुसलमानों के जन संहार का ये दौर कपिल मिश्रा के बयान के कारण शुरू हुआ।

दूसरा आख्यान

  1. दिल्ली का दंगा मुसलमानों ने हिंदुओं पर संगठित आक्रमण के रूप में किया।
  2. मुसलमानों ने बहुत मजबूत पूर्व तैयारी कर रखी थी।
  3. यह देश को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की यात्रा के समय दुनिया भर में बदनाम करने की सजिस थी।
  4. यह हिंदुओं दो डराने और सरकार को बदनाम करने के लिए था।
  5. हिन्दू निर्दोष और शान्तिप्रिय हैं।
  6. मुसलमान सदा आक्रामक और दंगा शुरू करने वाले होते हैं।

मुझे आख्यान शब्द से बहुत प्रेम नहीं है। इस में सदा ही मुझे तर्क और तथ्यों की कमी को काल्पनिक व्याख्याओं से भरने के प्रयत्न की बू आती है। ये काल्पनिक व्याख्याएँ बहुत बार निराधार और गलत आरंभिक मान्यताओं पर चलती हैं, जिन्हें सिद्ध नहीं किया जा सकता। पर यहाँ यह आख्यान शब्द बहुत ही सटीक है। मेरे विचार से इन दोनों आख्यानों में झूठ के साथ-साथ जिसे हैरी फ़्रंकफ़र्ट “बुलशिट” (बकवास?) कहता है उसकी मात्र बहुत अधिक है। फ़्रंकफ़र्ट के अनुसार बुलशिट का सदा ही झूठ होना जरूरी नहीं है। बुलशिटर सच्चाई और झूठ से निरपेक्षा रह कर जो उसे उस वक़्त कामका लगता है वह आख्यान बनाने की कोशिश करता है। और बुलशिट समाज में झूठ के बजाय ज्यादा हानिकारक होती है।

उपरोक्त दोनों आख्यानों के लिए खुदरे ‘प्रमाण’ संचार माध्यमों में, विशेष रूप सेर सोसियल-मीडिया में, बहुतायत से उपलब्ध हैं। उन्हें सिर्फ सुविधा अनुसार या अपने-अपने उद्देश्यों के अनुसार, चुनने की जरूरत होती है। बुलशीटिंग में कथित-लिब्रल बुद्धिजीवियों की महारत मोदी-समर्थकों की तुलना में कहीं ज्यादा है। जब आप सिद्धान्त-निर्माण को आख्यान घड़ने का समानार्थक मान लेते हैं, तो सिद्धान्त निर्माण के नाम पर बुलशिटिंग के अभ्यास के बहुत मौके मिलते हैं। और कथित-लिबरल बुद्धिजीवी अपनी आर्थिक सामाजिक बढ़त के चलते इसके मौके अपेक्षाकृत अधिक पाते हैं। इस लिए पहला आख्यान दुनिया भर में अधिक प्रचलित हो रहा है।

इस बात के कोई भरोसे मंद प्रमाण नहीं हैं कि यह “जनसंहार” या “पोग्रोम” था। पर विदेशी मीडिया यही लिख रहा है, भारतीय बुलशिटर्स की मदद से। इस बात के कोई बरोसेमंद प्रमाण नहीं हैं कि यह एकतरफा दंगा था, पर विदेशी मीडिया यही लिख रहा है। इस में मुसलमानों ने उतनी ही हिंसक-दुर्भावना से हिस्सा लिया है जितना हिंदुओं ने। भारत में शान्तिप्रिय और सबके प्रती सद्भावना रखने वाले लोग मुसलमानों और हिंदुओं दोनों में हैं, पर मीडिया में प्रचार एकतरफा है।

मेरे विचार से उदारवाद के लिए सत्य और न्याय का पक्ष लेना नैतिक ज़िम्मेदारी है। पर भारतीय उदारवादी दुनियाभर में मिथ्या प्रचार का कोई जवाब देने की जरूरत नहीं समझते, जब तक कि वह प्रचार उनके वर्तमान उद्देश्यों की पूर्ति करता रहे। ये हिन्दू को और देश को अशहिष्णु, क्रूर, मुसलमानों के लिए दुर्भावना-ग्रस्त और बहुसंख्यावादी साबित करने वाले आख्यान जीतने ज्यादा सफल होंगे उतना ही जल्दी पलट कर अपने निर्माताओं पर आएंगे। मुस्लिम अशहिष्णुता, आक्रामकता, इस्लामिक-वर्चश्व की भावना और मुस्लिम-वीटो की मुहिम को जितना छुपाया जाएगा उतना ही वह बढ़ेगी।

दिल्ली दंगों में दोनों पक्षों ने भाग लिया है। दोनों ने क्रूरता की है। अमानवीयता की है। शाहीन-बाग जैसे विरोध-प्रदर्शनों के पीछे जितनी धोंसपट्टी आम जनता के लिए है, जितनी ऊग्रता और दुर्भावना साफ दिखती है, बच्चों तक को सिखाई जा रही है, उसे छुपाने से वह मिट नहीं जाएगी। और बढ़ेगी।

इस बुलशिट आख्यान का एक हिस्सा दुनिया भर में प्रचारित यह है कि दंगे कपिल मिश्रा के बयान/भाषण से भड़के। मैंने कपिल मिश्रा के वास्तविक बयान और विडियो ढूँढने की कोशिश की। मुझे जो मिला वह यह है। कपिल मिश्रा ने कहा कि (1) हम ट्रम्प की यात्रा के समापन तक चुप हैं। (2) “हमने दिल्ली पुलिस को तीन दिन की अंतिम-चेतावनी दी है कि जफ्फराबाद और चंदबाग की सड़कें खुलवादे”। (3) पुलिस के सामने खड़ा हो कर कहा कि “नहीं तो (हम खुलवाएंगे) और आप की (पुलिस की) भी नहीं सुनेंगे”। दंगा कपिल मिश्रा और उसके समर्थकों के चले जाने के एक घंटे बाद शुरू हुआ। सवाल यह है की कपिल मिश्रा के बयान में ऐसा क्या है कि तुरंत दंगे हो गए? इस बयान के अलावा तो मुझे कपिल मिश्रा की कोई कारस्तानी इस दंगों के संदर्भ में कहीं मिली नहीं। तो इस आख्यान में कपिल मिश्रा के बयान को दंगों के लिए जिम्मेदार क्यों ठहराया जा रहा है? कोई तर्क? कोई प्रमाण?

यह सवाल मैं दो कारणों से रख रहा हूँ। एक, मैं समझ नहीं पा रहा कि कि दंगों की कड़ी मिश्रा के बयान से कैसे जुड़ती है। मेरी मिश्रा जैसे लोगों को दोषमुक्त करने की या उनके समर्थन की कोई मानसा नहीं है। पर मैं यह नहीं मान पा रहा कि ये बयान अपने आप में दंगा शुरू करने में समर्थ हैं। दो, मिश्रा के बयान को दंगों के आधार के रूप में स्वीकार करना पहले आख्यान के लिए जरूरी है। यही वह कड़ी है जिस के माध्यम से दंगों का पूरा दोष बीजेपी समर्थक हिंदुओं पर मढ़ा जा रहा है। तो इसे समझना जरूरी है। क्यों की आगे का बुलशिट आख्यान इसी आरंभिक मान्यता पर आधारित है।

अपने आप को प्रगतिशील, लिब्रल और धर्मनिरपेक्ष साबित करने की इच्छा रखने वाले सभी, खास कर युवा पीढ़ी के, भारतीयों को शर्मिंदा होने की बहुत आदत है। वे हर बात पर, हिन्दू होते पर, भारतीय होने पर, इस देश में रहने, पर शर्मिंदा होते रहते हैं। शायद इस लिए की शर्मिंदा हैं यह कह देना सब से सरल तरीका है अपने आप को लिबरल बुद्धिजीवी साबित करने का। मेरी बिना मांगी सलाह है की पहले थोड़ा तथ्यों की जांच करें, सब तरफ के आख्यानों को जाँचें; फिर तय करें कि शर्मिंदा होना है या गुस्सा होना है या दुखी होना है, या कुछ और। और फिर शर्मिंदा, गुस्सा, दुखी या कुछ और हो कर बैठ नहीं जाएँ; बल्कि जहां हैं वहाँ आपने काम में इस समस्या से जूझने की कोशिश करें। वरना आप की कई पीढ़ियाँ शिर्फ शर्मिंदा होती रहेंगी; आप पर भी।

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5 मार्च 2020

 

 

 

 

4 Responses to तीन अलोकप्रिय टिप्पणियाँ

  1. […] लेख शिक्षाविद् रोहित धनकर के ब्लॉग से साभार प्रकाशित […]

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  2. Asha says:

    “नागरिकता (संशोधन) विधेयक का विरोध इस लिए नहीं है कि इस से भारतीय मुसलमानों की नागरिकता को कोई खतरा है, बल्कि इस लिए है कि जिन के नाम गैर-कानूनी तरीकों से विभिन्न राजनैतिक पार्टियों ने मतदाता सूची में लिखवा दिये हैं, उन की पहचान न हो सके।”

    सर आपके ऐसा कहने के पीछे क्या आधार है?

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    • rdhankar says:

      आधार कोई बहुत पुख्ता तो नहीं है आशा जी। पर कुछ सोच कर मेरा मत अभी यही बना है। यह मुझे reasonableलगता है निम्न ‘आधारो’ के चलते:
      1. एक से अधिक राजनीतिज्ञों ने कहा है की जो आगाए हैं उन्हें वापस भेजना संभव नहीं है। चिदम्बरम और ममता उदारन है। इस से लगता है वे पहचान करने के भी विरुद्धह हैं।
      2. अभी NRC और एनपीआर का खाका आधिउकारिक रूप से सामने आया नहीं है, फिर भी विभिन्न भयावह कल्पनाएं करके CAA के विरोधी भाय का वातावरण बना रहे हैं। इस से भी मुझे यही संकेत मिलता है, कुछ और संकेतों के साथ।
      3. आसाम में जो समस्याएँ आई उनका जिक्र तो बार बार किया जा रहा है पर यह नहीं देखा जारहा की वे समस्याएँ एनआरसी में 1985 के बाद देरी किए जाने के कारण पैदा हुई, और इस बीच इन्हीं विरोध करने वाली पार्टियों किए स्थानीय सदस्य नकली आधारों पर बांग्लादेश से आए लोगों को कागजात बनवाने में मदद करते रहे। अभी वहाँ NRC में आई दिक्कतें अधिकतर इन्हीं कारणों से हैं।

      ये सब देस्ख कर लगता है दर्द कहीं और है। पर मैंने अपने पिछले ब्लॉग में कुछ और दर्द भी इंगित किए हैं, यह अकेला ही नहीं है।

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