डरा-धमाका कर दबाना लोकतान्त्रिक नहीं होता


रोहित धनकर

मेरे एक पूर्व विद्यार्थी ने हाल ही में लिखा कि उसके मन में अभी देश में चल रही बहस और सीएए आदि पर चल रहे आंदोलनों को लेकर बहुत सवाल हैं। वह कोई पक्का मन नहीं बना पा रहा। वह अपने कुछ विवेकशील लगने वाले साथियों से बात करने की कोशिश करता रहा है। पर नतीजे के तौर पर या तो उन्होने संबंध ही तोड़ लिए या उसे शर्मिंदा करने के लिए विभिन्न लेबल (name-calling) लगने लगे। इस से वह डरने लगा है और चुप रहना ही ठीक समझता है।

पिछले कुछ महीनों में छह-सात व्यक्तियों ने मिलती-जुलती बात कही है। इन लोगों में से शायद एक-दो ही बीजेपी और मोदी समर्थक हों। वह भी मैं पूरी तरह से नहीं जानता। पर ये सब सीएए, एनपीआर, और एनआरसी को एक बड़ी और दुष्ट मुहिम का हिस्सा मान कर अस्वीकार करने से पहले इन्हें इनके गुण-दोषों के आधार पर समझना चाहते थे। इन सब को समूह में अस्वीकार करके या शर्मिंदा करके डरा दिया गया।

यह वही प्रक्रिया है जो बीजेपी और मोदी समर्थक सरकार से सवाल पूछने पर चलाते हैं। कोई मोदी सरकार से आर्थिक दुर्दशा के बारे में सवाल पूछे तो उसे देश-द्रोही कह देते हैं।  या गाय के नाम पर भीड़ द्वारा मारे जाने पर सरकार की जिम्मेदारियाँ याद दिलाये तो उसे हिन्दू विरोधी कह देते हैं। या बीजेपी नेताओं के बेहद असभ्य और मुसलमानों पर आक्रमण करने वाले भाषणों पर सवाल पूछे उसे पाकिस्तान जाने का फरमान हो जाता है। ठीक इसी तरह कथित-उदारवादी लोग सीएए में समस्याएँ पूछने पर प्रश्न करने वाले को गैर-धर्म-निरपेक्ष कह देते हैं। सीएए के नाम पर इस्लामिक वर्चश्ववादी नारे लगने पर ऐतराज करे तो उसे सांप्रदायिक कह देते हैं। दोनों में से कोई भी मुद्दे की बात नहीं करता, मुद्दा उठाने वाले को कठघरे में खड़ा कर के शर्मिंदा करने की कोशिश करते हैं। यह एक लोकतन्त्र में दो उग्र समूहों द्वारा ढुल-मुल और कुछ हद तक भीरू बहुमत को डरा कर चुप करने की कोशिश है।

ऐसे में चुप रहने वाले बहुमत को अपने विचार बनाने पड़ेंगे, बोलना पड़ेगा, खतरे उठाने पड़ेंगे। किसी भी पार्टी या राजनैतिक दल या धार्मिक समूह को दूध के धुले का प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता। नाही किसी को खालिस दुष्टता का फरमान दे कर अंध विरोध किया जा सकता है। अंध-विरोध किसी भी मायने में अंध-भक्ति से बेहतर नहीं है। हर नीती की, हर योजाना की निष्पक्ष जांच करनी होगी। उसके दूरगामी परिणाम बुद्धि और तर्क के आधार पर देखने होंगे, उर्वर कल्पना के आधार पर नहीं। और ये सब लोकतान्त्रिक ढांचे को सुदृढ़ करते हुये करना होगा। उसे खारिज करके या कमजोर करके नहीं।

इस अंदर्भ में हर्ष मंदर का इन दिनों प्रसिद्ध विडियो-भाषण बात को समझने के लिए एक अच्छा उदाहरण है। कुछ लोग इस भाषण को हिंसा भड़काने वाले भाषण के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। शायद उच्चतम न्यायालय ने भी इस पर सवाल पूछे हैं। मेरे विचार से यह भाषण किसी भी मायने में हिंसा भड़काने वाला या दंगों के लिए प्रेरित करने वाला नहीं है। यह शांति, सद्भाव और प्यार की बात करता है। लेकिन यह भाषण तथ्यात्मक रूप से गलत जानकारी देता है, इस में कई विरोधाभास हैं और यह लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं अस्वीकार करता है।

इस भाषण के एक हिस्से को जरा ध्यान से देखते हैं। हर्ष मंदर कहते हैं: “इसे [संविधान और संविधान की आत्मा को] बचाने के लिए हम लोग सब सड़क पर निकले हैं और निकलते रहेंगे. देखिए, यह लड़ाई संसद में नहीं जीती जाएगी क्योंकि हमारे जो राजनीतिक दल हैं, जो खुद को सेकुलर कहते हैं, उनमें लड़ने के लिए उस तरह का नैतिक साहस ही नहीं रहा है.

यह लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में भी नहीं जीती जाएगी क्योंकि हमने सुप्रीम कोर्ट को देखा है. पिछले कुछ वक्त से एनआरसी के मामले में, अयोध्या के मामले में और कश्मीर के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने इंसानियत, समानता और सेकुलरिज्म की रक्षा नहीं की.

पर हम कोशिश जरूर करेंगे क्योंकि वह हमारा सुप्रीम कोर्ट है. लेकिन फैसला न संसद न सुप्रीम कोर्ट में होगा।

इस देश का क्या भविष्य होगा, आप नौजवान हैं, आप अपने बच्चों को यह देश कैसा देना चाहते हैं, यह फैसला कहां होगा?

सड़कों पर होगा. हम सब लोग सड़कों पर निकले हैं. लेकिन सड़कों से भी बढ़ के इसका फैसला होगा. कहां होगा? अपने दिलों में, आपके और मेरे दिलों में.”

मैंने उद्धृत भाषण के कुछ हिस्सों को रेखांकित किया है। उन्हें ध्यान से पढ़ें। लोकतन्त्र में नियम कानून बनाने के लिए संसद का गठन होता है। यह संसद संविधान में निर्धारित प्रक्रियाओं और नियमों के आधार पर बहुमत से चुनी जाती है। संसद नियम-कानून बहस के बाद बहुमत से बनती है। अर्थात देश के अधिकतर लोग जिस से (अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से) सहमती रखते हैं वैसे ही कानून बनते हैं। इसी संसद ने भारी बहुमत से, संविधान के नियमों का पालन करते हुए सीएए को स्वीकार किया। अर्थात यह (1) बहुमत की मानसा है, और (2) संविधान सम्मत है, यहाँ तक।

पर कई बार संसद कुछ ऐसे कानून भी बना सकती है जो बहुमत तो चाहता हो, पर वास्तव में संविधान के मूल सिद्धांतों के विरोध में हों। तो उस के उन सिद्धांतों की रखवाली के लिए उच्चतम न्यायालय है। उसका काम है कि वह ऐसे क़ानूनों को निरस्त करदे जो संविधान के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध हों। और जागरूक नागरिकों का काम है की ऐसे क़ानूनों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दें। न्यायिक तरीकों में उच्चतम न्यायालय से आगे कुछ नहीं है। संवैधानिक तरीकों में जनता को समझाना और अपने पक्ष में करना है, जिस से अगले चुनाव में बेहतर संसद चुनी जाए। गैर-संवैधानिक तरीकों में हिंसक क्रांति है। बस, आगे गली बंद है।

श्री मंदर संसद और उच्चतम न्यायालय दोनों को संविधान की रक्षा में असमर्थ घोषित कर रहे हैं। उच्चतम न्यायालय के कुछ फैसलों को “इंसानियत, समानता और सेकुलरिज्म” के विरुद्ध बता रहे हैं। और फिर इस गलती को कुछ नौजवानों की सड़क पर ताकत के बल पर दुरुस्त करना चाहते हैं। इस में समस्या हिंसा और दंगों की नहीं है। समस्या यह है की यदि बहुमत और उच्चतम न्यायालय वह नहीं करता जो “हम” चाहते हैं तो वे गलत है। संविधान और न्याय के मामले में; इंसानियत, समानता और सेकुलरिज्म के मामले में; उच्चतम प्राधिकारी उच्चतम न्यायालय नहीं हम हैं। हम अल्पमत में हैं, पर हमारा ज्ञान अधिक है, हमारी समझ अधिक गहरी है, हमारी आत्मा अधिक शुद्ध है; न्याय वह है जो हम कहें। श्री मंदर यह कह रहे हैं।

गांधी ऐसी बातें कहते और करते थे। और देश ने उनका साथ दिया। श्री मंदर को आज का सब से बड़ा गांधीवादी कहा जाता है। तो वे अपने रास्ते पर तो सही ही हैं। पर गांधी ये बातें एक विदेशी आलोकतांत्रिक तरीके से सत्ता जमाये बैठी सरकार के विरुद्ध कहते और करते थे। श्री मंदर भारत में वयस्क मतदान द्वारा चुनी संसद और भारतीय संविधान द्वारा गठित उच्चतम न्यायालय के विरुद्ध कह रहे हैं। संविधान की आत्मा की रक्षा उनके अनुसार उसी संविधान से गठित उच्चतम न्यायालय नहीं कर सकता। वे अपने युवा साथियों के साथ करेंगे। किस अधिकार से?

यह सैद्धान्तिक रूप से संभव है की संसद संविधान सम्मत चुनाव के बावजूद गलत लोगों के हाथों में पड़ जाये। यह भी संभव है की उच्चतम न्यायालय सरकार के दबाव में आजाए। और बहुमत अंधा होजाए, पर आपकी – अल्पमत की – आंखे खुली रहें। तो ऐसी स्थिति में लोकतन्त्र में अंतिम सत्ता को पूकारा जाता है। वह अंतिम सत्ता है जनता, भारत के नागरिक। नागरिकों के पास आप उनका मत परिवर्तन करने के लिए भी जा सकते हैं और उनको डरा कर अपने पक्ष में करने के लिए भी। पहला आपका संविधान सम्मत हक़ है, दूसरा संविधान को तक पर रख कर धोंस-पट्टी चलना है। श्री मंदर का अपना कोई अलग आंदोलन चला होतो मुझे उसकी जानकारी नहीं है। (आप जानते हों तो जरूर बताएं।) इस लिए मैं उनके इस भाषण को अभी चल रहे आम सीएए विरोधी आंदोलन का हिस्सा ही मान रहा हूँ। मेरी यह मान्यता गलत है तो जानकारी मिलने पर इसे दुरुस्त करने के लिए खुले दिमाग के साथ।

अभी जो आंदोलन चल रहा है उसमें बहुत सारी धोंस-पट्टी है। उदाहरण के लिए शाहीन बाग के धरने को लें। इसे सब शांतिपूर्ण मानते हैं। मैं भी जितनी जानकारी है उसके अनुसार इसे शांतिपूर्ण ही मानता हूँ। पर मैं यह मानता हूँ कि पहले 1-2 दिन यह सड़क रोकना लोगों की सीएए से असहमती की जायज अभिव्यक्ति थी। पहले 1-2 दिन भी सड़क रोकना कानून सम्मत तो नहीं था, पर लोकतन्त्र में लोगों को अपनी तीव्र असहमती दिखाने के लिए ऐसे प्रदर्शनों को जगह मिलनी चाहिए। अतः 1-2 दिन ठीक था। पर महीनों तक एक बड़े शहर की प्रमुख सड़कों में से एक को रोक कर रखना कानूनी और नैतिक दृष्टि से गलत है। यह बहुमत को बंधक बनाने का तरीका है। बहुमत को धोंस-पट्टी से चुप कराना है। इसे शांतिपूर्ण तरीका कहा जा रहा है, पर ध्यान देने की बात यह है कि यह इस में शांति बनाए रखने की ज़िम्मेदारी उस पर है जिसका हक़ मारा जा रहा है। मान लीजिये मैं आप के घर का रास्ता रोक कर बैठ जाऊँ। न कोई कड़वी बात कहूँ, न आप पर हाथ उठाऊँ; पर आप को घर से निकलने की जगह भी ना दूँ। तो मैं कितना शांतिपूर्ण हूँ? यहाँ शांति बने रहने का श्रेय आपको मिलना चाहिए या मुझे? शाहीन बाग प्रदर्शन बस इतना ही शांतिपूर्ण है। प्रदर्शन गलत नहीं है, यह तो उनका हक़ है। पर सड़क रोकना हक़ नहीं है। यह धोंस-पट्टी है। और ऐसी धोंस-पट्टी पूरे देश में कई जगह चलाने की कोशिश की गई है। श्री मंदर अपनी समझ का उपयोग बहुमत को धोंस-पट्टी से मनवाने के लिए करना चाहते हैं।

ये सब क्यों? श्री चिदम्बरम और श्री मनमोहन सिंह काँग्रेस के बड़े नेता हैं। दोनों कह चुके हैं कि सीएए वापस लो तो सब आंदोलन समाप्त हो जाएँगे। और भी कई लोग और नारे यही कहते लग रहे हैं। अर्थात एक अल्पमत बंधक बना कर बहुमत से बने कानून को निरस्त करने की बात कर रहा है। इस में सीएए विरोध के मंचों से उठने वाले नारों और देश के किसी हिस्से को काट देने को उकसाने वाले भाषणों को और शामिल कर लीजिये। यह अल्पमत में होने के बावजूद बहुमत पर अपनी मन-मानी चलाने की कोशिश साफ दिखने लगेगी।

पर तस्वीर अभी पूरी नहीं है। देश में बहुमत को न दबाया जा सके तो पूरी दुनिया में बदनामी का डर दिखाने का तरीका अभी बाकी है। श्री उमर खालिद अमेरिकी राष्ट्रपती की यात्रा के वक़्त उन्हें यह बताने का आह्वान करते हैं कि भारत की जनता भारत की सरकार के साथ नहीं है। कि भारत की सरकार देश को तोड़ने की कोशिश कर रही है। जरूर बताएं, यह उनका हक़ है। पर इन चीजों का असर सरकार की बदनामी तक सीमित नहीं रहता। बहुत आगे तक जाता है। देश की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। देश की दुनिया में कैसी तस्वीर बनती है इस पर पड़ता है। कानूनी और संवैधानिक तौर पर यह आपका हक़ है। करिए। पर बहुमत को झुकाने के लिए आप कितनी कीमत चुकाने को तैयार है यह आप की प्रतिबद्धताओं को भी उजागर करता है।

दिल्ली के दंगों को सारी दुनिया में मुस्लिम-जनसंहार के रूप में प्रचारित करना इसी शृंखला की एक कड़ी है। इस के लिए इसे हिंदुओं द्वारा शुरू करना बताना जरूरी था। नहीं तो वह आख्यान नहीं बन सकता जो भारत पर अल्पमत की बात मानने पर बहुमत को मजबूर करने के लिए दुनिया भर से दबाव बना सके। एक जानकारी के अनुसार (यह गलत है तो बताएं) दिल्ली दंगे में पहला आक्रमण सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों द्वारा दिल्ली पुलिस पर हुआ। इस में एक पुलिस कर्मी मारा गया और दो गंभीर रूप से घायल हुए। फिर भी आख्यान यह बना की दंगा हिंदुओं ने शुरू किया। मैं अपने अन्य ब्लोगस में कह चुका हूँ की मेरे विचार से इसके लिए दोनों समुदाय दोषी हैं।

इस आख्यान के प्रचार के चलते ईरान जैसे देश भी भारत को हिन्दू उग्रवाद को नियंत्रण में लाने की नशीहत और अलग-थलग करने की धमकी देने लगे। ईरान की धार्मिक कट्टरता और अपने ही लोगों को हजारों की संख्या में मारने की कहानी जग जाहिर है। सलमान रश्दि के सर पर दो करोड़ डॉलर का फतवा सभी को याद होगा। पर यह कम लोग जानते हैं की धर्म की शिक्षा के नाम पर दुनिया भर में जिहादी भेजने की फक्ट्रियां भी चलाता है ईरान। अमेरिका की कोई कमेटी में भी एक भारतीय मूल के विद्वान ने बताया कि भारत में मुसलमानों का सफाया हो रहा है। यही कहानी इंगलेण्ड में भी सुनाई गई। और इसे सब मान भी रहे हैं।

अब इस पूरी कहानी को एक साथ मिला कर देखिये। अकेले व्यक्तियों को सवाल पूछने पर लेबल देकर, हिंदुवादी कह कर शर्मिंदा करके चुप करवाना। देश के स्तर पर संसद को और उच्चतम न्यायालय को नकार कर, बहुमत को धोंस-पट्टी से कानून वापस लेने के लिए बाध्य करने की कोशिश। दुनिया के स्तर पर हिन्दू-उग्रवाद और मुस्लिम प्रताड़ना का आख्यान बना कर पूरे देश को कानून वापस लेने के लिए बाध्य करने की कोशिश। यह लोकतन्त्र नहीं, अपनी चलाने का प्रयत्न है।

यदि सीएए और अन्य योजनाएँ गलत साबित होती हैं, तो उन्हें वापस लेना चाहिए। यदि मुसलमानों के अधिकारों का हनन हो रहा है तो उसे रोकना चाहिए। पर यह निर्णय भारत के नागरिकों का है या भारत की संसद और उच्चतम न्यायालय का है। यह अमेरिका की संसद की कोई कमेटी या ब्रिटानिया की संसद या ईरान के दबाव में बिलकुल नहीं होना चाहिए। भारत के अंदर यह निर्णय खुली और बेबाक जन-बहस से करने का है। व्यक्तियों को शर्मिंदा करके चुप कराना और बहुमत को बंधक बना कर यह निर्णय नहीं किया जा सकता।

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ के नागरिकों को बीजेपी जैसी पार्टी को चुनना पड़ा। यह हमारी कल-अक्ली है कि हम बेहतर विकल्प नहीं बना पाये। पर इस से इतना शर्मिंदा हों कि अल्पमत की धोंस में आजाएं। कि बंधक बनाने के डर से अनुचित मांगों को मान लें। कि दूसरे देशों की धमकियों में आकार कानून वापस लेलें। यह नहीं करने देना चाहिए। ऐसी धोंस में आएंगे तो हम व्यक्ती के स्तर पर अपनी स्वायत्तता खो देंगे, देश के स्तर पर स्वयं-प्रभुता खो देंगे। जो सीएए कानून और एनपीआर तथा एनआरसी की योजनाओं को गलत मानते हैं उन्हें अपनी बात कहने का और आंदोलन करने का पूरा हक़ है। पर जो इन्हें ठीक मानते हैं, देश के हित में मानते हैं, उन्हें भी अपनी बात पूरी बेबाकी से बिना शर्मिंदा हुए कहने का हक़ है। उन्हें भी आंदोलन करने का हक़ है।  आप जो सोचते हैं वह बोलिए, तर्क और तथ्य दुरुस्त रखिए। जन-बहस में गलती से शर्माने की जरूरत नहीं है, सोचने में गलती हो सकती है। गलती को दुरुस्त करने के लिए दिमाग को खुला रखने की जरूरत है, गलती के डर से चुप होने की नहीं। शर्म की बात उन के लिए है जो अपनी मान्यताओं की फिर से जांच करने की क्षमता खो कर जड़-मति हो चुके हैं और विचार भेद के कारण व्यक्तियों को दबाना चाहते हैं। कहते हैं लोकतन्त्र की ताकत इस में नहीं है कि वह कभी गलती नहीं करता; बल्कि इस में है कि वह अपनी गलती सुधार सकता है। इसी तरह विवेक की महानता इस में नहीं है की वह कभी गलत नहीं हो सकता; बल्कि उसकी महानता इस में है कि वह अपनी गलती कि जांच के बाद सुधारने की तैयारी रखता है।

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7 मार्च 2020

 

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