सड़कों पर दुर्भाव


रोहित धनकर

आज कई बहुत चिंताजनक विडियो क्लिप्स देखे। कई जगह पर लोग सब्जी आदि का ठेला लगाने वालों से नाम पूछ रहे हैं, उन्हें आधार कार्ड दिखाने को कह रहे हैं। मुसलमान पाये जाने पर उन्हें अपनी गली-मुहल्ले से चले जाने को कह रहे हैं। नहीं जाने पर मार-पीट कर रहे हैं। एक में तो एक व्यक्ति माँ-बहन की गंदी गालियां दे रहा है और डंडे से मार रहा है। इतने और सहज आम जगहों पर बने विडियो गलत खबर होंगे यह भी नहीं लगता।

यह सब बहुत चिंता जनक है। जो लोग भौतिक-दूरी (मुझे social-distance शब्द आज और भी बुरा लगाने लगा है) बनाए रखते हुए, जरूरत की चीजें बेच रहे हैं, वे लोगों की मदद कर रहे हैं। और यही उनके लिए रोजगार का साधन भी है। इस में धर्म के आधार पर यह घोर-नीचता पूर्ण व्यवहार है। इस शब्द के लिए और सीधे निर्णय सुना देने के लिए माफी चाहता हूँ  पर और किसी चीज से अभिव्यक्ती का संतोष नहीं हो रहा। संभव है ये बदसलूकी करने वाले भी बीमारी से डर कर कर रहे हों। पर इसमें धर्म के आधार पर भेद करने का और धर्म के आधार पर मुसलमान के प्रती दुर्भाव भी साफ दीख रहा है।

इन लोगों के पास न तो मुसलमान फेरी वालों को इस तरह मारने-पीटने का हक है, ना ही उन्हें रोकने का। यह सीधा फेरीवालों के नागरिक से रूप में मूल अधिकारों को गुंडागिर्दी के बल पर छीनना है। आश्चर्य की बात है की एक जगह तो सरीफ़ और माध्यम उम्र के समझदार लगाने वाले लोग इस पर समूहिक निर्णय लेते भी दीख रहे हैं।

निसंदेह कोरोना के फैलाव और मरकज़ की घटना के आपसी संबंध का भी इस में योगदान है। पर तबलिगी जमात के मौलाना साद वाले घटक के सब लोगों को कोरोना संक्रमण से नहीं जोड़ा जा सकता। और सब मुसलमान तो जमात से संबन्धित भी नहीं हैं। संक्रमण का अकेला कारण जमात के कार्यक्रम में भागीदारी भी नहीं है। और भी बहुत लोग हैं जिनका जमात से कुछ लेने-देना नहीं और संक्रमित हुए हैं। यदि कुल संख्या संक्रमित लोगों की देखी जाये तो लग-भग तय है हिन्दू अधिक होंगे, क्यों की संख्या में हिन्दू अधिक हैं। तो मुसलमान फेरीवालों के साथ इस व्यवहार का कोई आधार नहीं है।

साथ ही, यदी कोई व्यक्ती संक्रमित है तो भी किसी का यह हक नहीं बनाता की उसे गलियाँ देते हुए मार पीट करे। यह सरकार और पुलिस का काम है कि लोगों को इस तरह की गुंडागर्दी से बचाए।

लेकिन असली समस्या मन में दुर्भावना की है। जो लोग अपने ही मन की गंदगी के इस तरह से शिकार हो रहे हैं वे समाज में विखंडन कर रहे हैं। स्वयं अमानवीय हो रहे हैं। यदी यह कोरोना से बचाने का तरीका हो भी—जो कि यह नहीं है—तो भी यह तो अपनी ही मानवता को मार कर बचना हुआ। क्या यह कीमत बहुत ज्यादा नहीं है? इसवक्त हमें ऐसे टीवी चनेल्स और अखबारों की जरूरत है जो इस तरह की सामाजिक विघटन की घटनाओं पर लोगों को ठीक से समझा सकें। धर्म के नाम पर नहीं, बल्कि मानवता, सभ्यता, नागरिकता और अधिकारों के आधार पर।

ऐसी घटनाओं को तुरंत और शख्ती से पुलिस के द्वारा रोका जाना चाहिए। बाकी समझाइस के तरीकों में समय लगता है। जब तक लोगों की अक्ल और इसानियत पर काम शुरू हो तब तक और कोई रास्ता नहीं है। साथ ही अक्ल और इंसानियत के तरीके सब के व्यवहार को कभी नहीं सुधार सकते। कुछ लोग सदा रहेंगे जो मौका मिलने पर दूसरों को परेशान करेंगे, उनपर अन्याय करेंगे। इन्हें राज्य का व्यवस्था तंत्र ही रोक सकता है।

पर यह रोकना केवल बाहरी होगा। सामाजिक समरसता के लिए हमें अपने मन में यह समझना होगा की धार्मिक-दुर्भावना स्वयं के लिए, दूसरों के लिए और समाज के लिए केवल बुरा ही कर सकती है। इस वक्त ऐसी सामाजिक चीजों के लिए समर्पित टीवी कार्यक्रम और अखबार में लेखों की जरूरत है। एक बड़ी मुश्किल यह है की बिना पार्टी-पॉलिटिक्स के ऐसा कुछ बचा ही नहीं है। राजनीती का जागरूकता, संवैधानिक मूल्यों वाला रूप खत्म हो गया है। बस पार्टी-बाजी या विचार-धारा-बाजी बची है। विचार-धारा-बाजी मैं किसी राजनैतिक विचार धारा के प्रती अंध-समर्पण के आधार पर चिंतन और कर्म को कह रहा हूँ। सामाजिक समरसता के लिए समझ का काम इस से ज्यादा गहरे मानसिक स्तर पर होने की जरूरत है। जहां इंसान को केवल इंसान के रूप में देखा जाये।

गलत खबरें भी बहुत नुकशान कर रही हैं। इस वक़्त देश में कोई निकाय, व्यक्ती, या संचार माध्यम नहीं बचा है जिस पर पूरा भरोसा किया जा सके। बहुत से गलत खबरें बना कर चलाते हैं, जो बनाते नहीं वे बिगाड़ कर चलते हैं, जो बिगाड़ते नहीं वे कुछ को तरजीह देते हैं और कुछ को अनदेखा करते हैं। इस वक़्त कोई भी हमारे देश के सामाजिक और राजनैतिक चेहरे की असलयत नहीं जानता। सब अपने चश्मे और अपने समूह के रंग में देख रहे हैं। सामाजिक माध्यमों के भरपूर दुरुपयोग का शमा बना हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में एक से अधिक सही पत्रकारिता का दावा करने वाले मैदान में आए और कुछ ही महीनों में अपना असली रंग दिखाने लगे। मन में खयाल आता है की लोगों को ही मिलकर सही जानकारी सबतक पहुंचे इस की कोई व्यवस्था करनी चाहिए। पर कैसे? कुछ पता नहीं।

एक बहुत बड़ी जरूरत इस धार्मिक दुर्भावना के कारणों को ठीक से समझने की भी है। इसे पूरी तरह अभी की खबरों के कारण मानलेना या हिन्दुत्व के नारे से समझने की कोशिश बहुत सतही है। मानवीय संवेदनाओं और सम्बन्धों के बिखरने की कहानी ऐसे घड़े-घड़ाए औजारों से समझ में नहीं आएगी। बार बार सोचने पर भी समझ नहीं आ रहा कि कोई व्यक्ती किसी ठेले वाले को केवल दूसरे धर्म का होने के कारण मारना और गाली देना कैसे शुरू कर सकता है? उस के मन में क्या होगा? वह अपने आप को क्या समझता होगा? दूसरे को क्या समझता होगा? लगता है समाज में जो संवाद सहज रूप से रोज-मर्रा की जिंदगी में चल रहा है उस में कहीं कोई बड़ी विकृती आ गई है। लगता है की आम आदमी के विचार, विश्वास, भाव, और कर्म किसी बनाए हुए सिद्धांतों से नहीं जीवन जीने की प्रक्रिया में अनजाने ग्रहण किए गए प्रतीकों और संस्कारों से चलते हैं। और जीवन की उस मूल स्वयंभू घारा में किसी ने कुछ बिगाड़ कर दिया है। क्या साधन हो हो सकते हैं जो समाज में चलने वाली ऐसी असंख्य जीवन-धाराओं तक पहुँच बना सकें, उन्हें समझ सकें, और वहाँ पर इस दुराव की काट ढूंढ सकें?

इस दुर्भावना की धारा को रोकने के दूरगामी तरीके जो भी हों, इस वाक़ई तो इसे गली-मोहल्ले में बचे हुए सहृदय लोग और पुलिस ही रोक सकती है। और यदि यह नहीं रुकती है तो यह हमारे समाज और सरकार दोनों की असफलता होगी। इस के दूरगामी परिणाम बहुत भयावह हो सकते हैं।

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11 अप्रैल 2020

4 Responses to सड़कों पर दुर्भाव

  1. Anonymous says:

    नफरत का जहर दिलो और दिमाग मे ऐसा भरा गया कि सोचने और समझने की ताकत भी नही बची।

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  2. Tr Gaytri Devi says:

    Sir lgta h hum log corona se ladayi ko hindu muslim ki ladayi ka rup de lenge….Glt ho tha hn …

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  3. सर यहाँ की लोगो की एक खासियत है जो की ‘in-build’ है वो ये कि हरेक चीज़ या मुद्दे को धर्म के लेंस से देखना

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  4. […] सड़कों पर दुर्भाव […]

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