परस्परता के सिद्धान्त पर कुछ विचार


रोहित धनकर

कुछ दिन पहले मैंने अपने फेसबुक पृष्ठभूमि (background) पर दो चीजें लिखदीं। एक कुछ भी मानने या विश्ववास करने से में सावधानी रखने के बारे में थी, जो नीचे दे रहा हूँ।

“कुछ मानने से पहले , पूछो:

  1. इसका अर्थ क्या है?
  2. आपको कैसे पता कि यह सही/सच है?
  3. यह मानने के पीछे आपकी पूर्व मान्यताएँ क्या हैं?
  4. आप की बात मानने के निहितार्थ क्या हैं? (अर्थात यह मानने से और क्या मानना और करना जरूरी हो जाएगा?)

दूसरी बात कुछ करने में सावधानी रखने से संबन्धित थी। वह भी नीचे लिख रहा हूँ।

“कुछ करने से पहले याद रखिए:

न तत्परस्य संदाद्यातात्प्रतिकूलम यदात्मन: ।

एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ (महाभारत १३.११४.०८)

दूसरों के साथ वह मत करो जो स्वयं के प्रतिकूल समझते हो। संक्षेप में यही धर्म (न्याय-संगत व्यवहार) है। इस से अलग व्यवहार कामना जनित (अधर्म) है।”

हमारे एक पुराने मित्र श्री दीपेंद्र बघेल को यह दूसरी बात नागवार गुजरी। उनहों ने तुरंत आपत्तियों की एक लंबी फेहरिस्त टिप्पणी में लिखदी। इन दिनों मैं कुछ लिखने के काम में उलझा हुआ था, अतः उस गति से बघेल साहब की आपत्तियों का निराकरण नहीं कर सका जिस से उन्होने ने तुरंत लिख दिया था। वैसे भी वे जवान आदमी हैं, ऊर्जावान हैं, अतः उनकी बुद्धी भी बहुत गति से चलती है। बुढ़ापे में सोचना, बोलना, चलना, लिखना सब धीरे होने लगता है। इन दो कारणों से उनकी आपत्तियों पर लिखने में समय लगा। अब समय मिला है तो लिख रहा हूँ। आशा है उनकी रुची अभी खत्म नहीं हुई होगी इस बात में। एक बात और, उनकी आपत्तियाँ इतनी सारी और इतनी गहरी हैं की मैं उन पर फेसबुक टिप्पणी के रूप में नहीं लिख सकता। मुझे एक नया ब्लॉग लिखना पड़ रहा है। इस भूमिका के बाद अब बघेल साहब की आपत्तियों पर बात करते हैं।

आपत्तियाँ और निराकरण की कोशिश

बघेल साहब ने अपनी टिप्पणियाँ एक अनुच्छेद के रूप में लिखी हैं। मुझे लगता है उन पर ठीक से ध्यान देने के लिए अलग-अलग दर्ज करें तो उनकी बात भी बेहतर समझ में आएगी और मेरे लिए जवाब देना भी कुछ सरल हो जाएगा। अतः में उन्हें अलग-अलग ले रहा हूँ, पर ध्यान रखूँगा की इस सुलझाने के प्रयत्न में उनके मंतव्य के साथ कोई छेड़-छाड़ न हो।

बघेल साहब की टिप्पणी का पहला हिस्सा निम्न प्रकार है, इस में मैंने कोष्ठक में संख्याएं लिखने के अलावा कोई बदलाव नहीं किया है:

“(1) यह तो दूसरों को अपनी छवि में संकुचित करना हो गया और (2) दूसरे की स्वायत्तता में अनिधिकृत अतिक्रमण भी हुआ।(3) इस नैतिक आदर्श में , स्वयं के प्रति व्यवहार को ही आदर्श मान लिया गया है।(4) दूसरे की भिन्नता और अद्वित्यता का इसमे ज्ञानात्मक सम्मान ही नहीं है।(5) बल्कि अहम केंद्रित मनो श्लाघा है , जो अन्य पर फैसले सुना सकती है।”

इस टिप्पणी को गंभीरता से लेने का एक कारण यह भी है कि और भी बहुत लोगों ने इस नैतिक सिद्धान्त के बारे में कुछ ऐसी ही बातें कही हैं। यह बहुत पुराना सिद्धान्त है, लगभाग सभी पुरानी संस्कृतियों में पाया जाता है। अधिकतर दार्शनिकों ने इसे कुछ-कुछ वैसे ही कारणों से अनदेखा किया है जैसा ऊपर बघेल साहब ने दिये हैं। इम्मानुएल काँट ने अपने आदेशात्मक-अनिवार्यता (Categorical Imperative) के सिद्धान्त को समझाने में फूट-नोट के रूप में इस सिद्धान्त पर कुछ ऐसी ही टिप्पणी की है। काँट की आपत्ति मूल रूप से यह है की इस सिद्धान्त में स्वयं और दूसरों के प्रती कर्तव्यों की अनदेखी होती है। इस में तो कोई जो दूसरों की मदद के कर्तव्य से बचना चाहता है वह कह सकता है की दूसरे भी मेरी मदद न करें। काँट यह भी कहते हैं की इस सिद्धान्त के तहत तो कोई अपराधी न्यायाधीश के विरुद्ध भी तर्क कर सकता है।[1] मजेदार बात यह है की स्वयं काँट के आदेशात्मक-अनिवार्यता के सिद्धान्त को शोपेनहार[2] एक आत्मकेंद्रित अहम-जनित सिद्धान्त घोषित कर देते हैं। जब की बेचारे काँट बहुत विस्तार में यही सिद्ध करना चाहते हैं कि उनका सिद्धान्त आत्म-प्रेम (सेल्फ-लव) से प्रेरित नहीं है। तो बघेल साहब निसंदेह महान संगत में हैं।

पर क्या यह महान संगत सही भी है? काँट और शोपेनहार से पंगा लेने को तो बाद के लिए छोड़ते हैं, क्यों की बहुत लिखना और उद्धरण देने पड़ेंगे। अभी तो बघेल साहब की आपत्तियों की जांच करके काम चला लेते हैं। आप ने ध्यान दिया होतो मैं ने फेसबुक पर दो बातें काही थी। एक नैतिक, जिस पर विचारधीन टिप्पणी है; और दूसरी ज्ञांमीमांसात्मक जांच संबंधी, 4 सवालों के रूप में। तो विचारधीन आपत्तियों पर उन्हीं सवालों में से कुछ को काम में लेते हुए कुछ समझने की कोशिश करते हैं।

“दूसरों के साथ वह मत करो जो स्वयं के प्रतिकूल समझते हो” के सिद्धान्त पर पहली आपत्ति यह है कि “यह तो दूसरों को अपनी छवि में संकुचित करना हो गया”

दूसरों को अपनी छवि में संकुचित करने का क्या अर्थ हो सकता है? कि स्वयं को जैसा समझते हो, दूसरे को भी उसी से आंकना, जबकि दूसरे की समझ, भावनाएं और दुख-दर्द भिन्न हो सकते हैं। क्यों कि “संकुचित” करने की भी बात है, अतः दूसरे का आत्म अधिक व्यापक होने की तरफ भी इशारा लगता है। यहाँ कई सवाल उठाते हैं। उनमें सब से सरल व्यापकता वाला है। यह बहुत मुश्किल हो जायेगा कि व्यापकता के मापदंड क्या होंगे, और यह हम कैसे मान सकते हैं कि ‘कर्ता’ की अपेक्षा ‘कर्म’ लजामी तौर पर अधिक व्यापक स्व वाला ही होगा? उलटा क्यों नहीं होस अकता? तो व्यापकता का आशय शायद कोई और है। शायद भावना यह है कि जिस परिस्थिति में दूसरा है उसे तो वही ज्यादा स्पष्टता और गहराई से महसूस कर सकता है। तो बात दूसरे के दुखदर्द और भावनाओं के ठीक-ठीक आंकलन की (बौद्धिक सटर पर) और महसूस करने की (संवेदना के स्तर) पर हो सकती है।

उद्धृत श्लोक के भाव को ठीक से समझने के लिए इस से पहले और बाद के कुछ श्लोक देखते हैं, उस से शायद पता चले की यह आपत्ति कितनी उचित है। उद्धृत श्लोक से ठीक पहले का श्लोक (13.114.07) कहता है कि “जो सब प्राणियों को अपनी ही आत्मा का हिस्सा मानता है उसके कर्मों की गति पहचानने में तो देव भी स्तब्ध रह जाते हैं”, अर्थात वह तो नैतिकता और अच्छे कर्मों में बहुत उन्नत है। अब कोई तर्क यह कर सकता है की “सब को अपनी आत्मा का हिस्सा मानना” अर्थात अपनी आत्मा को सब से बड़ा समझ कर दूसरों को उसमें समाहित करना, मतलब उनको संकुचीत करना। पर आत्मा को हम सामान्य अर्थ में “चेतना” (consciousness या mind) समझें तो यह चेतना कोई भौतिक ससीम क्षेत्र नहीं बल्कि संवेदना की अनुभूती की सामर्थ्य है। यहाँ बात सब को अपनी अनुभूति में जकड़ने की नहीं बल्की अपनी चेतना को इतना विस्तार देने की हो रही है कि वह वो सब भी महसूस कर सके जो कर्ता स्वयं के जीवन में तो महसूस नहीं कर रहा पर जिनको अपनी चेतना का हिस्सा मान रहा है वे महसूस कर रहे हैं। बात दूसरों की छवि को संकुचित करके अपने में समेटने की नहीं, आत्म को इतना विस्तृत कर लेने की है की दूसरे की पीड़ा अपनी लगे।

बात को समझने के लिए हम एक काल्पनिक कथा का सहारा ले सकते हैं, जो शायद भारत में एक से अधिक संतों के लिए कही जाती है। कथा में बैल की पीठ पर किसी ने कोड़ा मारा तो निशान संत की पीठ पर पड़ गए, अर्थात संत ने बैल की पीड़ा महसूस की। इसे अङ्ग्रेज़ी में empathy कहते हैं। हिन्दी में शायद संवेदाना। इस काल्पनिक कथा में संत ने बैल की पीड़ा को संकुचित करके अपनी अनुभूती में नहीं बांधा, बल्की अपनी संवेदना के माध्यम से चेतना का विस्तार करके बैल की पीड़ा को महसूस किया। अतः संदर्भ को ठीक से समझें तो दूसरों की छवी को संकुचित करने की नहीं, बात अपनी चेतना (आत्म) को विस्तार देने की है। तो यह आपत्ति तो गलत व्याख्या का नतीजा लगती है।

दूसरी आपत्ति यह है कि यह तो “दूसरे की स्वायत्तता में अनिधिकृत अतिक्रमण भी हुआ”। कैसे? कुछ समझ में नहीं आया।

अभी मैं बघेल साहब की आपत्तियों का सार्वजनिक रूप से जवाब दे रहा हूँ। और इस जवाब में उनकी कई बातों को असिद्ध या गलत कहने वाला हूँ, जैसे ऊपर कहा। इस पर “दूसरों के साथ वह मत करो जो स्वयं के प्रतिकूल समझते हो” का सिद्धान्त लगा कर देखने की कोशिश करते हैं। मैं इसको कई तरह से देख सकता हूँ। उदाहरण 1: मैं यह सोचूँ की कोई मुझे सार्वजनिक रूप से गलत कहेगा तो यह मेरे प्रतिकूल होगा, (मुझे इस से दुख होगा)। अतः मुझे किसी को सार्वजनिक रूप से गलत नहीं कहना चाहिए। उदाहरण 2: मैं यह सोचूँ की नैतिक नियमों की समझ समाज में सभी के लिए जरूरी है। और इसका विकास सार्वजनिक विमर्श से ही हो सकता है। अतः मैंने कोई बात गलत कही और कोई अपने पास समय होते हुए भी उस पर अन्य मत मुझे न समझाए, तो वह मेरी मदद करने से इंकार कर रहा है। अतः मुझे सार्वजनिक रूप से समझाने में मेरी गलती न बताना मेरे प्रतिकूल होगा।

अभी मुद्दा यह नहीं है की इन में से कौनसी व्याख्या सही है। मुद्दा यह है कि पहली व्याख्या के अनुसार चलूँ तो मैं सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहूँगा। दूसरी के अनुसार चलूँ को अपने विचार सार्वजनिक रूप से रखूँगा, जिसमें बघेल साहब की व्याख्याओं को गलत कहना ही नहीं बल्कि सिद्ध करना भी शामिल है। सवाल यह है की इन में से किसी भी स्थिति में बघेल साहब की स्वायत्तता पर अतिक्रमण कहाँ हुआ? मैं तो स्वयं क्या करूँ यह निर्णय कर रहा हूँ। वे क्या करें इस में तो कोई बाध्यता उपस्थित नहीं कर रहा। तो ये कैसा अतिक्रमण है जो मेरे अपने लिए किए गए निर्णय से भी हो जाता है? कहा जा सकता है की मैं इन को अपनी व्याखा छोड़ कर मेरी व्याख्या मानने के लिए तर्क दे रहा हूँ। यदि तर्क के लिए यह मान भी लें कि मैं चाहता हूँ कि वे मेरी बात मान लें, (वैसे मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता, सिर्फ एक सार्वजनिक विमर्श में अपनी बात रख रहा हूँ) तो भी मैं सिर्फ तर्क रख रहा हूँ। इन तर्कों के मूल्यांकन की, उन्हें स्वीकार अस्वीकार करने की, उनकी स्वायत्तता का अतिक्रमण कहाँ हो रहा है?

पर ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिन में मुझे (या किसी को भी) दूसरे के काम में सक्रिए बाधा डालनी पड़ें। उदाहरण के लिए: मान लीजिये की कोई किसी अपने से कमजोर व्यक्ती को अकारण सार्वजनिक रूप से पीट रहा है। आप को पता है कि यह पिटाई अकारण और निर्दोष व्यक्ती की हो रही है। आप उसे बलपूर्वक रोकने में समर्थ हैं। अब आप को सोचना पड़ेगा। यदि आप स्वयं की अकारण पिटाई में मदद ना मिलने को अपने प्रतिकूल समझते हैं तो निसक्रिये नहीं रहेंगे, मदद करेंगे। यदि आप यह समझते हैं की आप किसी को अकारण पीटें और कोई आप को बल पूर्वक रोके तो यह आप के प्रतिकूल होगा तो आप नहीं रोकेंगे। यहाँ आप पहली बात मानते हैं तो पीटने वाले की ‘स्वायत्तता’(?) का अतिक्रमण कर रहे होंगे। यह मूल्यों की टकराहट का मामला है। पहले विचार के अनुसार पीटने वाला अपनी स्वायत्तता का अनधिकृत उपयोग करके किसी और की स्वायत्तता और मर्यादा को भंग कर रहा है। अतः आप उसकी स्वायत्तता का अतिक्रमण नहीं कर रहे, बल्कि उसके अनधिकृत उपयोग को बाधित कर रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह की इस सिद्धान्त के तहत आप किसी की स्वायत्तता का अतिक्रमण नहीं कर सकते।

तीसरी आपत्ति यह है की “इस नैतिक आदर्श में , स्वयं के प्रति व्यवहार को ही आदर्श मान लिया गया है”। यदि पहली आपत्ति का जवाब स्वीकार्य हो तो यह व्याख्या गलत है। दूसरी बात यह कि यहाँ किसी भी व्यवहार को आदर्श के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है। व्यवहार को तय करने के लिए अपने स्वयं के चिंतन, अनुभूति, संवेदना, वेदना और दूसरे को अपने समान मानने को मापदण्डों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। व्यवहार तो है ही नहीं, चिंतन आदि भी आदर्श नहीं मापदंड हैं। और नैतिक सिद्धान्त है बराबरी, समानता, equality; बहुत बलपूर्वक रेखांकित।

चौथी आपत्ति यह है कि “ दूसरे की भिन्नता और अद्वित्यता का इसमे ज्ञानात्मक सम्मान ही नहीं है”। इस में दूसरे की भिन्नता या अद्वितीयता पर कोई टिप्पणी नहीं है। यह अपने ज्ञान, चिंतन, अनुभूति और संवेदना के बल पर दूसरे की स्थिति का अनुमान लगाने का सिद्धान्त है। इस पर हम आगे और बात करेंगे। पर यहाँ यह कहना जरूरी है की इसमें दूसरे को स्वयं के जितना ही सम्मान और महत्व दिया गया है। यदि कोई स्वयं की दूसरों से भिन्नता को महत्वपूर्ण मानता है, दूसरों से अपनी अद्वितीयता का सम्मान चाहता है तो इसमें यह निहित है कि उसे दूसरों को भी यह सम्मान देने पड़ेगा, वरना वह अनैतिक आचरण कर रहा होगा। अतः, इस सिद्धान्त पर यह आपत्ति भी गलत है।

पाँचवीं आपत्ति यह है कि यह सिद्धान्त  “अहम केंद्रित मनो श्लाघा है, जो अन्य पर फैसले सुना सकती है”। अहम-केन्द्रित मनोश्लाधा पर आगे विचार करेंगे। पर इस सिद्धान्त के आधार पर अन्य पर फैसला सुनाने के लिए स्वयं पर अन्यों द्वारा फैसले सुनाये जाने को अपने प्रतिकूल मानने से इंकार करना पड़ेगा। यदि स्वयम पर अन्यों के फ़ैसले कोई अपने प्रतिकूल मानता है तो वह उस स्थिति में अन्यों पर फैसले नहीं सुना सकता।

पर एक बड़ी समस्या है इस आपत्ति में। वह यह कि किसी भी समाज में अन्यों पर फैसले सुनना, करना, लागू करना लजमी होता है; समाज में रहना हो तो। जब बघेल साहब ने इस सिद्धान्त को कई तरह से गलत कहा तो उनहों नें अन्य पर फैसला सुनाया। मैं उनकी आपत्तियों को गलत कह रहा हूँ तो मैं अन्य पर फैसला सुना रहा हूँ। जब आप मोदी सरकार पर मजदूरों की अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं तो अन्य पर फैसला सुना रहे हैं। जब कोई शिक्षक विद्यार्थी के काम का आंकलन करता है तो अन्य पर फैसला सुना रहा है। जब एक न्यायाधीश हत्यारे को आजीवन कारावास का दंड देता है तो अन्य पर फैसला सुना रहा है। जो नैतिक सिद्धान्त अन्य पर फैसला सुनाने की मनाही करदेगा वह समाज में रहने को असंभव करदे गा। नैतिक सिद्धान्त का काम अन्य पर फैसला सुनाने को अमान्य करना नहीं, फैसले के लिए समुचित एवं न्यायसंगत आधार प्रस्तुत करना होता है।

इस से आगे बघेल साहब अपनी टिप्पणी में जो कुछ लिख रहे हैं वे अपने और दूसरे में परस्पर निर्भरता की बातें कर रहे हैं। बात कुछ उलझी-पुलझी सी लग रही मैं मुझे, फिर भी मैं उनकी पूरी बात को नीचे समझने की कोशिश कर रहा हूँ। बीच में उनहों ने शायद Emmauel Levinas की On Thinking-of-the-other entre nous का जिक्र किया है। पर अपनी बात को सिर्फ प्रतिश्रुत कह रहे हैं, कोई स्पष्ट उद्धरण नहीं है, अतः पुस्तक की बात मैं एकदम छोड़ रहा हूँ।

बघेल साहब का लिखा रेखांकित है। मेरा जवाब सामान्य है।

मैं, इसलिये हूँ कि दूसरे है और मेरे होने का अर्थ दूसरे से ही पूर्ण होता है।

एक खास अर्थ में यह सही है। जीवशास्त्रीय स्तर पर भी हमारा अस्तित्व दूसरों के होने से ही अस्तित्व में आया है। हम मानव के रूप में समाज में ही संभव हैं। अतः अन्यों का मानव होना हमारे मानव हो पाने की शर्त भी है, और हमारी मानवता तो परिभाषित भी करती है। मैं नहीं जानता “मेरे होने का अर्थ” को बघेल साहब किस तरह समझते हैं। पर यदि यह मेरी आत्म-चेतना, आत्म-छवि, मेरी आकांक्षाओं और ब्रह्मांड में अपना स्थान देखने आदि की समग्रता है, तो बात सही है। ये सब दूसरों के बिना संभव नहीं है। और “दूसरों के साथ वह मत करो जो स्वयं के प्रतिकूल समझते हो” का सिद्धान्त इसी लिए अपनी चेतना को इतना विस्तार देने की बात करता है कि उसमें दूसरे का सुख-दुख महसूस हो सके। इसी लिए दूसरे भी मेरे जैसे अर्थात मेरे समान हैं, अधिकार में, सम्मान में, मर्यादा में और स्वयात्तता में; इन सब पर बल भी इसी लिए हैं। इस का उक्त सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं है। अगर बघेल साहब इन दोनों बातों में विरोध मान रहे हैं, तो गलत मान रहे हैं।

 दुसरो को समझ पाने का ज्ञानमीमांसत्मक दावा, मेरे प्राधिकार का ही विस्तार है।

मुझे इसमें “प्राधिकार” शब्द समझ में नहीं आ रहा। पर दूसरों को समझने की संभावना—जितनी भी वह है—मेरी अनुभूतियों, चिंतन और चेतना के आधार पर ही संभव है। हमारी सारी व्यष्ठीनिष्ठता (inter-subjective objectivity) हमारी व्यक्ति-निष्ठ चेतना, समझ और अनुभूतियों के दूसरों पर विस्तार पर ही आधारित है। इसके अलावा हमारे पास दूसरों को समझने का कोई आधार नहीं  है। जिस श्लोक पर बघेल साहब ने आपत्तियाँ की हैं उस से अगला ही श्लोक निम्न है:

परत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे परियाप्रिये।

आत्मौपम्येन पुरुषः समाधिम अधिगच्छति।। (९)

अर्थात: “मांगने पर देने या इंकार करने में, सुख और दुख में, प्रिय और अप्रिय में जैसा स्वयं को महसूस होता है उसे ही दूसरों को कैसा महसूस होगा इस का प्रमाण मानना चाहिए।” यहाँ फिर दूसरे को आत्मवत्त मानने की बात कही गई है। साथ ही “स्वानुभूती” (subjective experience) को सामान्यीकृत करके “व्यष्ठिनिष्ठता” (inter-subjective objectivity) तक पहुँचने का रास्ता बताया गया है। दूसरे के मन और बुद्धि तक पहुँचने के हमारे रास्ते स्वयं से हो कर ही जाते हैं। मैं जानता हूँ की इस पर कई लोगों को ऐतराज हो सकता है, कि यह तो अपनी अनुभूति दूसरों पर आरोपित करने की विधि है। पर यदि इसे संवेदना और चेतना के विस्तार के ऊपर विवेचित सिद्धांतों की रोशनी में देखें तो यह ठोस अनुभविक आधार पर दूसरे की चेतना में अंतर्दृष्टी देने की विधि है, अपनी मान्यताएँ और अनुभूतियाँ आरोपित करने की नहीं। और मानवीय सीमाओं में हमारी समस्या यह है कि दूसरे की चेतना तक पहुँचने का हमारे पास और कोई भी रास्ता नहीं है। यह रास्ता सर्वांगसमपूर्ण और सर्वांग-शुभ नहीं है, पर एक मात्र जरूर है। अतः इसी को संवेदना से पुष्ट करके काम चलना पड़ेगा।

हम दूसरे को अपनी अवधरणा में संकुचित कर अपने और दूसरे, दोनो के अर्थ को बाधित करते है।

मैं इसका अर्थ नहीं समझता। दूसरे को अपनी अवधारणा में संकुचित करने का क्या अर्थ है? मानव होने में और दुसरे को मानव मानने में हम उसे आत्म-बोध के आधार पर चेतन और परिपूर्ण करते हैं। संकुचित कहाँ हो रहा है? और उपरोक्त सिद्धान्त में तो संकुचित करने की बात ही नहीं है।

 गांधी अपने को सनातनी हिन्दू कहने के बावजूद, अपनी आत्म रचना, दूसरे को संशलिष्ट करके ही करते थे।

मुझे पता नहीं है। वैसे दूसरे को समाहित किए बिना, दूसरे को उनकी संपूर्णता में देखने की कोशिश किए बिना, अपनी आत्म रचना होती ही नहीं। शायद बघेल साहब यहाँ ज्ञान, नैतिकता और आकांक्षाओं (आध्यात्मिक सहित) में मानवीय विविधता को स्वीकारने और सम्मान करने की बात कर रहे हैं। यह यहाँ अभी विवेचित नैतिक सिद्धान्त की आवश्यक शर्त है। यह सिद्धान्त इसका विरोध नहीं करता, बल्कि इस पर आचरण के लिए इस विविधता का सम्मान एक आवश्यक शर्त है।

 शायद, जरूरत इस बात की है कि इस बात को स्वीकारा जाय कि आत्म सृजन दुसरो पर ही निर्भर है और दूसरे जरूरी इसलिए है कि हम अपनी सीमाएं और संकुचनों को जान सकते है।

पता नहीं यह क्यों लिख रहे हैं। उक्त सिद्धान्त में कहीं भी इसका विरोध नहीं है। इसके दूसरे हिस्से का, अर्थात “दूसरे जरूरी इसलिए है कि हम अपनी सीमाएं और संकुचनों को जान सकते है” का अर्थ मुझे पता नहीं। जब आत्म-सृजन ही दूसरों पर आधारित है तो यह कहने की क्या जरूरत है? साथ ही इस से तो नया सवाल उठता है: दूसरे इस लिए जरूरी हैं की हम अपनी सीमाएं और संकुचनों को जान सकें। ठीक। और “अपनी सीमाएं और संकुचनों को” जानने की जरूरत क्यों है? जवाब देने की कोशिश करिए, मेरा अनुमान है थोड़ी देर में गोल-गोल घूम रहे होंगे।

 मेरा व्यवहार अपने प्रति भी इस बात पर निर्भर करता है कि मैं अपने क्षितिज से बाहर स्थित अन्यता को कैसे संबोधित करता हूँ।

ठीक बात है। पर इस में ऐसा क्या है जो यहाँ विवेचित सिद्धान्त से बाधित होता हो?

बघेल साहब ने एक अन्य मित्र की टिप्पणी पर भी टिप्पणी की है। अब जब देख ही रहे हैं तो उसे भी देख लें।

इस बात में स्वयं और अन्य की बुनियादी समझ ही गलत है।

क्यों गलत है? क्या गलती है? कहीं नहीं बताया गया। जो बताया गया वह ऐसी व्याख्या पर आधारित है जो विवेचना में टिकती ही नहीं। अर्थात स्वयं ही कोई गलत अर्थ दे कर उसे काटना। इसे अङ्ग्रेज़ी में “creating a straw man” कहते हैं। अर्थात एक डरावां बना कर उस पर आक्रमण करना। या पवन चक्कियों को दुश्मन मान कर उन पर आक्रमण करने वाला डॉन क्विक्सोट।

इसमे परोपकारिता की अहमजन्यता भी दिखती है।

कैसे? कहाँ? परोपकार तो कोई बुराई है भी नहीं। हाँ, अहमन्यता हो तो समस्या होगी। पर उस के होने को तो सिद्ध करना पड़ेगा। केवल घोषणा तो नहीं चलेगी। इस में न परोपकार है न अहमन्यता।

 मेरा अर्थ इस बात पर भी है कि दूसरे है और यही अन्यता मेरे होने के अर्थ को सॅवारती है।

ऊपर बात हो चुकी।

मेरा अपने प्रति व्यवहार भी ‘दूसरों को मैं कैसे समझता हूँ,’ से संचालित होता है।

ऊपर बात हो चुकी।

 मेरी आपत्ति यही है कि ‘मैं’, परस्परता और सह अस्तित्व आधारित है . इसलिए मैं, दुसरो को महसूसने का यत्न करूँगा उतना ही मैं अपने आप को रच पाऊंगा।

बघेल साहब शायद नहीं जानते कि इस सिद्धान्त को दर्शन में “reciprocity” (परस्परता) का सिद्धान्त भी कहा जाता है। दूसरों को महसूसने की कोशिश इस सिद्धान्त के लिए लाजिमी है। यह ऊपर इसके आगे पीछे के श्लोकों से स्पष्ट कर दिया गया है।

 मैं कोई स्थिर इकाई नही है, जिसका अर्थ पूर्व मौजूद है बल्कि मैं रचा जाता हूँ, दुसरो के होने के अहसास से और दूसरों पर अपने सोच से।

सही बात है। पर वर्तमान संदर्भ में पूर्णतया अप्रासांगीक है। या उतनी ही प्रासांगीक है जितना मेरा अभी यह कहदेना की धरती गोल है। जरूर है। तो क्या करें?

उपसंहार

मेरे यह सब लिखने के पीछे दो मन्तव्य रहे हैं। एक, मैं इस सिद्धान्त पर सोचता रहा हूँ। मेरे विचार से यह जीवमात्र में उपस्थित परस्परता की सहजवृति (instinct of reciprocity) के के मूल से विवेकशील चिंतन के द्वारा सूत्रबद्ध हुआ है। इसमें सहज-वृति, मनोवैज्ञानिक आकर्षण, और मानवीय संवेदना को विवेक के धागे से एक सूत्र में पिरोया गया है। काँट का सिद्धान्त मेरी दृष्टि में नैतिक विकास का इस से अगला चरण है। दार्शनिक इस की सरलता से भ्रमित हो कर इसकी पूर्ण विवेचना को बचकाना काम मानते रहे हैं। अतः इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। वे पूरी तरह सही नहीं थे। अब इसमें फिर से कुछ लोगों की रुची बन रही है।

दो, बघेल साहब ने इस में अपनी तरफ से ही अकारण दूसरों पर अपने सिद्धान्त आरोपित करना पढ़ लिया। वास्तव ने बघेल साहब उसी गलती के दोषी हैं जिसे वे इस सिद्धान्त पर आरोपित कर रहे हैं। अर्थात अपना चिंतन दूसरे पर आरोपित करना। इस सिद्धान्त की पैरवी करने वाले सब लोग पहली शर्त ‘दूसरे की नजर’ से देखना रखते हैं। जिसे अङ्ग्रेज़ी में “standing in other man’s shoes” कहते हैं। इस सिद्धान्त को इस नजर से देखना पूर्व के चिंतन में कन्फ़ुसियस, बुद्ध और महाभारत के जमाने से ही है, नया नहीं है। और कन्फ़ुसियस, बुद्ध और महाभारत तीनों इस सिद्धान्त का जिक्र करते हैं।

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18 मई 2020

 

 

 

 

 

 

 

 

[1] Immanuel Kant, Groundwork of the Metaphysics of Morals, Cambridge University Press 1997, page 38. Full footnote: “Let it not be thought that the trite quod tibi non vis fieri etc. can serve as norm or principle here. For it is, though with various limitations, only derived from the latter. It can be no universal law because it contains the ground neither of duties to oneself nor of duties of love to others (for many a man would gladly agree that others should not benefit him if only he might be excused from showing them beneficence), and finally it does not contain the ground of duties owed to others; for a criminal would argue on this ground against the judge punishing him, and so forth.”

[2] Arthur Schopenhauer, The World as Will and Representation, Vol. I, Dover Publications, New York, (1969), page 525: “desire for well-being, in other words egoism, remains the source of

this ethical principle”

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