रोहित धनकर
मैंने 13 मई 2021 को अपने फ़ेसबुक पृष्ट पर यह लिखा था: “किसी को कोई ऐसी खबर कहीं से मिलजाए की कुछ हिन्दुस्तानी इस महामारी से एक जुट हो कर लड़ रहे हैं और अपने दुश्मनों के लिए भी शुभेच्छा रखते हैं; तो मेरहरबानी करके बताना। लगता है हम दो महामारियों से एक साथ लड़ रहे हैं। पर लड़ रहे हैं या सिर्फ ‘ग्रस्त’ हैं?”
इस पर दो महत्वपूर्ण सवाल उठे।
- हिन्दुस्तानी की जगह भारतीय कहना चाहिए था।
- क्या त्योहारों का कोई शुद्ध सांस्कृतिक, जिसमें मजहब शामिल ना हो, स्वरूप हो सकता है?
इन सवालों पर विचार करने की जरूरत है। मैं यहाँ सिर्फ पहले सवाल पर कुछ विचार रख रहा हूँ, दूसरे पर फिर कभी।
‘हिन्दुस्तानी’ से ऐतराज
इस मुद्दे पर विचार करने से पहले मैं एक छोटे से किस्से का जिक्र करना चाहता हूँ, क्यों कि जिस मूल से यह ऐतराज उठ रहा है उसे पहचानना जरूरी है। हम लोग एक बार केरल किसी अध्ययन के सिलसिले में गए थे। त्रिवेन्द्रम में हमारे पास एक दिन खाली था। इस लिए हम लोग कुछ दर्शनीय स्थान और बाजार आदि भी गए। उन स्थानों में एक वहाँ का प्रसिद्ध पद्मनाभास्वामी मंदिर भी था। हमारी टोली में एक बहुत सुलझे हुए, सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित और प्रबुद्ध मित्र भी थे। मैं उनके विचारों और प्रतिबद्धताओं की तब भी बहुत इज्जत करता था और आज भी करता हूँ। वे मेरे कुछ गिने चुने मित्रों में हैं। वे यह भी जानते थे कि मैं मजहबी आस्थाओं वाला व्यक्ति नहीं हूँ, और ईश्वर तो—चाहे वह पद्मनाभास्वामी के रूप में हो या अल्लाह मियां के रूप में—मुझे मानव बुद्धि को लकवा-ग्रस्त करने वाला विचार लगता है।
तो हुआ यह कि मुझे पद्मनाभास्वामी मंदिर में जाकर उसे अंदर से देखना था। मैंने उत्तर भारतीय मंदिर तो देखे थे, पर दक्षिण भारत के मंदिरों की वास्तु, कलापक्ष और अन्य बातों से अनजान था। और इन्हें देखना समझना मेरी सांस्कृतिक रुची का हिस्सा था। पर मंदिर में जाने के लिए नहा कर धोती पहननी पड़ती थी। यह उनका रिवाज था, शायद अब भी हो। नहाने की व्यवस्था वहाँ द्वार पर ही थी। मैंने वहीं एक दुकान से धोती खरीदी (मजहब और व्यापार का सदा ही गहरा रिश्ता रहा है)। नहाया और मंदिर में गया। हमारे मित्र नहीं गए मंदिर में।
जब मैं बाहर आया तो उनकी आखों में और जो कुछ उन्हों ने कहा (मैं भूल गया हूँ वास्तविक वाक्य क्या थे) उस में उलाहना तो था ही, एक तरह की हिकारत भी थी। कुछ ऐसा कहते हुए जैसे कि मेरा मजहब में रुची ना होना बस एक दिखावा है। मुझे तब से आज तक इस प्रतिकृया पर आश्चर्य है। और यह भी आश्चर्य है कि बहुत संवेदनशील और प्रबुद्ध लोग भी इस तरह की भावनाओं के शिकार हो सकते हैं, चाहे कभी-कभार ही सही।
हो सकता है मैं गलत होऊं, पर मेरे विचार से यह एक प्रकार की विचारधारतमक प्रतिबद्धता का रूप है। जो संस्कृति और इतिहास में जो कुछ उस विचार के प्रतिकूल है उसे हिकारत से देखती है और उसका उच्छेद करना चाहती है। हमारे मित्र में तो सौभाग्य से यह प्रवृती उनके समग्र चिंतन में (उनका चिंतन बहुत सुलझा हुआ है) व्याप्त नहीं है। पर बहुत लोगों में यह अन-समझी विचारधारा को गटक लेने से उत्पन्न अंधता होती है। ऐसे भी लोग हैं, जो विचारधाराओं को समझने में कम रुची रखते हैं और किसी फैशन के चलते उनके मानने वालों में अपना नाम दर्ज करवाने में अधिक।
अब, ‘हिंदुस्तानी’ पर ऐतराज पर आते हैं। फेशबुक बातचीत में तो ऐतराज करने वाले व्यक्ति ने “हिंदुस्तान” और “हिंदुस्थान” शब्दों को भी अदला-बदली करके काम में लिया है। पता नहीं दोनों में कोई फर्क देखते हैं या नहीं।
इस बात को समझने के लिए हमें देखना पड़ेगा की यह भारत आखिर चीज क्या है? हम सभी जानते हैं की एक संवैधानिक लोकतन्त्र के रूप में तो भारत 1947 में ही बना। पर क्या एक राष्ट्र या देश के रूप में भी यह 1947 में ही बना? राष्ट्र के कुछ उलझे मशले को अभी बाद के लिए रखते हुए मैं ‘भारत एक देश के रूप में’ पर ही ध्यान दूंगा, और इसके विभिन्न नामों पर भी। यहाँ मैं लगभग सारी बात प्रोफेसर इरफान हबीब के एक भाषण से ले रहा हूँ जो उनहों ने 2015 में अलीगढ़ विश्वविद्यालय में दिया था, भाषण का शीर्षक “Building the Idea of India” (भारत के विचार की निर्मिति) है। प्रोफेसर हबीब ही क्यों? एक तो वे इस भाषण में मूल-स्रोतों का जिक्र करते हैं, और दूसरे जिस वैचारिक पृष्ठभूमि से उपरोक्त ऐतराज आता है वहाँ हबीब साहब की बात को तवज्जो मिलने की अधिक संभावना है।[1]
प्रोफेसर हबीब के अनुसार “एक देश के रूप में भारत का विचार पुरातन है। पेरी एंडर्सन का अपनी पुस्तक द इंडियन आइडियोलॉजी में यह आग्रह (assertion) कि इंडिया विदेशियों द्वारा, विषेशरूप से योरोपीयों द्वारा आधुनिक काल में दिया गया नाम है, पूर्णतया भ्रामक है।”[2] वे यह भी कहते हैं कि “पूरे भारत को पहली बार एक देश के रूप में मौर्य साम्राज्य में देखा गया।”[3] तब इसे जंबुद्वीप कहा जाता था। भारत नाम का उपयोग उनके अनुसार पूरे देश के लिए सब से पहले कलिंग के राजा खारवेल के शिलालेख में मिलता है, जो कि ईसा से एक शताब्दी पहले का है। तो बात यह है कि देश के रूप में भारत की अवधारणा दो हजार वर्षों से ज्यादा पुरानी है, वह 1947 में नहीं बना। इसके नाम कई रहे हैं, जंबुद्वीप और भारत उन नामों में से हैं।
तो फिर ‘हिंदुस्तान’ कब आया? और क्यों? हबीब साहब आगे कहते हैं कि ईरनियों ने सब से पहले हमें ‘हिन्दू’ नाम दिया। और ‘हिन्दू’ सिंधु नदी के लिए ईरानी नाम है। तो सिधु नदी के पूर्व के सभी क्षेत्र प्राचीन ईरान में हिन्दू कहे जाते थे। हबीब साहब के अनुसार “स्थान” और “स्तान” में भेद है। उनके अनुसार संस्कृत में “स्थान” एक विशिष्ट छोटी जगह (spot) के लिए काम में आता है, जब की “स्तान” फारसी में क्षेत्र (region) के लिए।[4] तो ‘हिंदुस्थान’ और ‘हिंदुस्तान’ एक चीज नहीं हैं।
पर यहाँ असली मुद्दा तो ‘हिन्दू’ शब्द लगता है। तो देखते हैं इस देश को ‘हिंदुस्तान’ कौन कहते थे। हबीब साहब कहते हैं कि अमीर खुसरो ने फारसी में एक लंबी कविता लिखी है जिसमें वह भारत की सब चीजों की बहुत सराहना कराते हैं। यहाँ कई लोगों को आश्चर्य हो सकता है, पर हबीब साहब के अनुसार खुसरो इस में बहुत अन्य चीजों के साथ ब्राह्मणों और संस्कृत की भी सराहना कराते हैं। ब्राह्मणों की भी उनके ज्ञान के लिए और संस्कृत की उस के विज्ञान और ज्ञान की भाषा होने के लिए। वे सभी भारतीय भाषाओं के नाम लिखते हैं, भारत को मुसलमानों का भी देश बताते हैं, और यह भी कहते हैं कि यहाँ तुर्की और फारसी भी बोली जाती हैं। वे कश्मीरी से लेकर मलाबारी तक सब भारतीय भाषाओं को ‘हिंदवी’ भाषाएँ कहते हैं। हबीब साहब ने साफ जिक्र नहीं किया है कि खुसरो भारत के लिए ‘हिंदुस्तान’ शब्द काम में लेते हैं या कोई और। पर क्योंकि कविता फारसी में हैं, जुबानों को ‘हिंदवी’ कह रहे हैं, तो बहुत संभावना है कि भारत को ‘हिंदुस्तान’ ही कह रहे होंगे। (मैं कविता ढूंढ रहा हूँ।) खुसरो मुसलमान थे, वे इस देश को मुसलमानों का भी देश बताते हैं, यहाँ की भाषाओं को हिंदवी भाषाएँ बताते हैं। और कम से कम मुझे पूरा विश्वास है इस देश को ‘हिंदुस्तान’ कहते थे। और इन नामों में ‘हिन्दू’ शब्द है।
मैं इतिहासकार नहीं हूँ, और इस वक़्त संदर्भ देखने का समय भी मेरे पास नहीं है, पर मुझे लगता है कि मुगल साम्राज्य में और दिल्ली सल्तनत में भी इस देश को ‘हिंदुस्तान’ कहा जाता था। तब तक तो, और खुसरो के काल में भी, हिन्दू शब्द “हिन्दू-धर्म” के साथ भी जुड़ गया था। और हिन्दू-धर्म इस्लाम से भिन्न है। और मुग़ल साम्राज्य में और दिल्ली सल्तनत में सत्ता मुसलमान राजाओं के हाथ में थी। इकबाल का ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ तो सबने सुना-गाया ही होगा। तो खुसरो और इकबाल को (इकबाल को केंब्रिज जाने पहले तक 😊) तो कोई परेशानी नहीं थी, इस देश को हिंदुस्तान कहने से।
अब यह भी आम समझ है कि जहां संवैधानिक और कानूनी जरूरत होगी वहाँ तो हमें भारत ही कहना चाहिए इस देश को, पर आम बात-चीत में, लेखन में, साहित्य में ‘हिंदुस्तान’ शब्द से आपत्ती क्यों और क्या है?
यदि आप सारे भारतीय नागरिकों की समानता को दरकिनार करके हिन्दू-वर्चश्व[5] की राजनीति करने वालों की सुनें तो वे इस के मूल में हिन्दू धर्म, संस्कृति, आदि से घ्रणा, दुराव या उस को खत्म करने की साजिश की बात करेंगे। पर मेरे विचार से यह गलत है, जो लोग ऐसे ऐतराज करते हैं उन में से अधिकतर के मन में हिन्दू-धर्म या संस्कृति से कोई घ्रणा, बैर या दुराव नहीं होता। ना ही वे इनको खत्म करने पर आमादा हैं। बात कुछ और है।
मैं ठीक से नहीं जानता, पर मेरी दो काम-चलाऊ परिकल्पनाएं हैं।
पहली परिकल्पना है पंथ-निरपेक्षता (secularism) को गलत समझ कर उसका झण्डा उठाना। जहां तक मैं समझता हूँ पंथ-निरपेक्षता राज्य-नीति के रूप में सिर्फ इतनी मांग करती है कि राज्य की नीतियाँ, नियम-कानून बनाने में और उनके क्रियान्वयन में नागरिकों की पांथिंक आस्थाओं का कोई दखल न हो। वे इस दुनिया के विवेकशील ज्ञान और मानवीय नैतिकता पर आधारित हों। सभी नागरिक राज्य और कानून की नजर में समान हों। व्यक्ति के स्तर पर भी यह अपनी आस्थाओं से विमुख होने की मांग नहीं करती। केवल यह मांग करती है कि नागरिक एक-दूसरे से पांथिक आस्था के आधार पर भेदभाव ना करें। पर इसे गलत समझलेने वाले कुछ और ही सोचते हैं। वे लोगों के चिंतन में से पांथिक आस्था को निकालने पर आमादा हो जाते हैं, या उनको हिकारत की नजर से देखने लगते हैं। बल्कि उस से आगे जा कर हमारी भाषा, संस्कृति और सामाजिक-व्यवहार से कुछ शब्दों, विचारों और क्रियाकलापों को बहिष्कृत करना चाहते हैं। उनके विचार से जो कुछ भी पांथिंक आस्था से कभी इतिहास में निर्मित हुआ है या विकसित हुआ है, वह सब निकाल फेंकना चाहिए। भारत में इसका एक इस से भी अधिक विकृत रूप है। वह यह की जहां भी भारतीय संस्कृति, पंथ, हिन्दू-धर्म का जिक्र आता है, वह विषेशरूप से ताज्य है। इस लिए नहीं की हिन्दू-धर्म से कोई बैर है, बल्कि इस लिए कि भाषा और समाज में सब मजहबों संबंधी शब्दावली का बराबर का उपयोग होना जरूरी है, इन लोगों के विचार से। बहुमत यदि अपनी सांस्कृतिक शब्दावली काम में लेगा तो इन लोगों के विचार से समाज की बोल-चाल में बहुमत की शब्दावली अधिक सुनाई देगी। और यह तो अन्याय होगा!!
यह भ्रामक धारणा है। और संस्कृति, भाषा और पंथ-निरपेक्षता की गलत धारणाओं का परिणाम है। भाषाएँ और सामाजिक व्यवहार संस्कृतियों के वैचारिक और नैतिक विकास की छाप लिए चलते हैं। उन्हें अपनी संकुचित दृष्टि से शुद्ध करना चाहेंगे तो वे नकली हो जाएंगी और अपनी वैचारिक धार खो देंगी। और इसकी लोगों में प्रतिकृया होगी, जो कि जायज होगी, वह अलग।
मेरी दूसरी परिकल्पना यह है कि कुछ लोग पंथ-निरपेक्षता के अर्थों और सिद्धांतों से उतने संचालित नहीं होते जितना ‘ठप्पाकांक्षी पंथ-निरपेक्षता’ (certificate seeking secularism) से। उन्हें किसी समूह विशेष में मान्यता चाहिए कि ‘ये भी पंथ-निरपेक्ष हैं’। ये बार बार ऐसा कहेंगे या करेंगे जिससे लोगों का, खाशकर ठप्पा-व्यापारियों का, ध्यान जाये, जैसे कि कह रहे हों “मुझे देखो-देखो, मुझे देखो, मैं भी पंथ-निरपेक्ष हूँ”। यह प्रवृती हमारे यहाँ बहुत ज़ोर पकड़ रही है। कड़ी बात है, पर यह प्रवृत्ती पंथ-निरपेक्षता को बिना समझे गटक लेने से पैदा होती है।
ये दोनों कोई पक्के दावे नहीं है, बस काम-चलाऊ परिकल्पनाएं हैं अभी। और यह पहचानना बहुत मुश्किल होता है कि कहाँ बे-समझी पंथनिरपेक्षता बोल रही है और कहाँ उसकी ठप्पकांक्षी बहन। माफ करिए, यहाँ कोई जेंडर संबंधी दुराग्रह नहीं है, आप चाहें तो इसे ‘उसका ठप्पाकांक्षी भाई’ कह सकते हैं।
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16 मई 2021
[1] यहाँ एक बात साफ करने जरूरी है। मैं इतिहास का अध्यता या विद्वान नहीं हूँ। और जब मैं किसी तर्क के लिए किसी विद्वान के विचार काम में लेता हूँ तो इस का अर्थ यह नहीं है कि उसकी कही हर बात के लिए प्रतिबद्धता जाहिर कर रहा हूँ। एक ही विद्वान के निष्कर्ष बहुत प्रमाण-सिद्ध और विवेकशील भी हो सकते हैं और उससी के दूसरे निष्कर्ष गलत भी हो सकते हैं। तो मैं जो चीजें प्रमाणित लग रही हैं वेही ले रहा हूँ।
[2] यह इसी लेख के लिए किया गया फौरी अनुवाद है। ““the concept of India as a country was ancient, the assertion made by Perry Anderson in his book The Indian Ideology that the India is a name given by foreigners particularly Europeans in modern times, is a totally misleading statement.”
[3] “The first perception of the whole of India as a country comes with the Mauryan Empire.”
[4] Sthan always means in Sanskrit a ‘particular spot’. But ‘stan’ in Persian is a territorial suffix…”
[5] यहाँ मैं यह साफ करदूं कि मुझे “हिन्दू-वर्चश्व की राजनीति” को “हिन्दुत्व की राजनीति” कहने से ऐतराज है। क्यों कि मेरे विचार से सावरकर के बावजूद ‘हिन्दुत्व’ का अर्थ हिंदूपना या hinduness से अधिक कुछ नहीं है। और हिन्दू होने भर से वर्चश्व चाहने की तोहमत से मुझे ऐतराज है। इसे पारिभाषिक शब्दावली मनाने से भी यह समस्या खत्म नहीं होती।
‘हिंदुस्तान’ या ‘हिंदोस्तान’ या ‘हिंदोस्ताँ’ या ‘हिंदोसताँ’ का सहज प्रयोग हमें शायरी में ख़ूब मिलता है। वहाँ किसी को आपत्ति नहीं तो आप द्वारा इस्तेमाल में क्यों? मेरी राय में यह आपत्ति पिछले कुछ अरसा से ‘वर्चस्ववादी हिंदू’ राजनीति के दौर में ही उभर कर आई है। ‘भारत’ को सेक्युलर मानना क्योंकि उस में धर्म (= हिंदू धर्म) नहीं झलकता एक दलील हो सकती है मगर यह प्रवृत्ति भी शायद इसी दौर की उपज है। मज़ेदार बात यह भी है कि जो लोग ख़ुद को सेक्युलर मानते हैं उन में शायद ‘हिंदुस्तान’ का प्रचलन अधिक मिलेगा। बहरहाल, ऑल ऑव व्हट आइ से इज़ इम्प्रेश्निस्टिक।
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रमणीक जी, एक तो ‘सेकुलर’ हैं, और दूसरे ‘उन से सेकुलर का ठप्पा चाहने वाले’। यह ठप्पा चाहने वालों की आपत्ती है। पर मुझे यह वर्चष्व-वादी हिन्दू राजनीति की प्रतिकृया नहीं लगती। बल्कि उन सैकड़ों चीजों में से लगती है जिन के कारण वर्चष्व-वादी हिन्दू राजनीति को बल मिलता है। समस्या यह भी है की सेकुलर और सेकुलर-ठप्पा-व्यापारी इन को कभी झिड़कते नहीं बल्कि स्वयं ऐसी मूर्खता ना कराते हुए भी अपने चेलों की ऐसी मूर्खता को बल देते हैं।
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