कविता पर बेबुनियाद बवाल


रोहित धनकर

पिछले 3-4 दिन से राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की पहली कक्षा की हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में एक छोटी-सी कविता को लेकर विवाद मचा हुआ है, कथित सामाजिक माध्यमों पर। सामाजिक माध्यम आजकल बहुत महत्वपूर्ण हो चलें हैं। बहुत लोगों के पास किसी बिन्दु पर गहनता में जानने का समय और रुची नहीं होती। विषय भी उनके चिंतन और कर्म क्षेत्र से हट कर हो सकता है, अतः हर एक से हर विषय पर समय लगाने की मांग भी नहीं की जा सकती। दूसरी तरफ इस प्रकार की सतही जानकारी और बहस के आधार पर लोग अपने विश्वास भी बनाते ही हैं। और हर नागरिक का हर विश्वास लोकतन्त्र की दिशा और दशा को प्रभावित भी करता ही है। इस लिए इन बहसों को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता। यही कारण है सामाजिक माध्यमों के बढ़ते महत्व का।

खैर, कविता यहाँ दी हुई है। इसे पढ़ें और इसके नीचे दिये गए पढ़ाने के निर्देश भी पढ़ें।

कविता

यह कविता बच्चों से बातचीत करने, कल्पना करने का मौका देने और सोचने के लिए काम में ली जा सकती है। भाषा की कई क्षमताओं के लिए उपयोग की जा सकती है।

बवाल इस में आए शब्द “छोकरी”, “चूसना” और कथित द्विआर्थकता को लेकर उठाया जा रहा है।

“छोकरी” शब्द पर ऐतराज मुझे शिक्षक के नाते देखूँ तो हिन्दी में पूरानी वर्चश्वशाली मान्यताओं का हिस्सा लगता है। यह शुद्धता-वादी मानसिकता का और शुद्धता या मानकता एक छोटे तबके की खड़ी बोली में निहित होना मानने का परिणाम है। यह सोच बच्चों की पढ़ाई और हिन्दी की समृद्धी दोनों की जड़ें काटती है। एक बड़े ग्रामीण तबके की भाषा को केवल हिन्दी से बाहर नहीं करती, बल्कि उस को गँवारू-बोली का खिताब भी देती है। ऐतराज करने वाले लोग यह नहीं समझते की बच्चे नई चीज अपनी पुरानी समझ से जोड़ कर ही सीख सकते हैं। और जब विद्यालय आते हैं तो उनकी पूरी समझ अपनी भाषा में ही होती है। अतः छोकरी जैसे शब्दों को पुस्तकों से निकाल कर हम उनकी भाषा को नकारते हैं और उनकी समझ की जड़ें काट कर सीखने को मुश्किल बनाते हैं।

शैक्षिक दृष्टि से यह ऐतराज प्रतिगामी है। इस में संस्कृति की रक्षा का नारा शामिल करने से यह गैरबराबरी और वर्चश्व की राजनीती को भी बल देता है। और सामाजिक राजनैतिक नजर से भी प्रतिगामी हो जाता है।

“चूसना” शब्द पर ऐतराज कविता में द्विआर्थकता देखने का परिणाम लगता है। इस में भी “मेरी भाषा शुद्ध और शालीन भाषा” का दंभ है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में बहुत से कथन ऐसे होते हैं जो एक तबके के लिए सामान्य और किसी दूसरे के लिए ऐतराज करने काबिल हों। पर यहाँ तो मुझे कुछ ऐसा भी नहीं लगता। कविता में वैसे भी द्विआर्थकता खोजना बहुत आसान है। क्योंकि कविता बनती ही भावों की समृद्धता से है। मुझे लगता है यहाँ द्विआर्थकता ऐतराज करने वाले पाठकों के मन में उपजती है। और उसे वे इस कविता पर आरोपित कराते हैं।

यह तो हुई इस कविता पर ऐतराज की बात। पर मेरे मन में इस पर कुछ लिखने को लेकर झिझक भी थी। उस का कारण यह है की मुझे यह ऐतराज तो बेसमझी या फालतू विवाद उठाने की मानसिकता का नतीजा लगता है; पर मैं इस कविता को कोई बहुत अच्छा पाठ (text के अर्थ में) नहीं मानता। मेरी कविता की समझ तो बहुत ही सीमित है, पर अध्यापक के नाते मुझे इस में एक बड़ी समस्या लगती है। यह एक अकैडमिक बिन्दु है, शिक्षणशास्त्र से संबन्धित। इस को लेकर उपरोक्त प्रकार का विवाद नहीं उठाया जा सकता, ना ही इस विचार में से इस तराह के विवादों के लिए समर्थन मिल सकता है।

भाषा शिक्षण में मेरा मानना यह है कि टैक्स्ट की एक आंतरिक तार्किक-संगती होती है। वह सदा सामान्य अर्थों में सार्थकता और आम तर्क से जुड़ी हो यह जरूरी नहीं। बच्चों के लिए बिना अर्थ के शुद्ध तुकबंदी मात्र भाषा की शब्दावली और ध्वनी विन्यास का आनंद लेने के लिए बहुत जरूरी है। तो मैं यहाँ सामान्य अर्थ में सार्थकता की बात नहीं कर रहा। टैक्स्ट की आंतरिक तार्किक-संगती का उदाहरण आप अक्कड़ बक्कड़ में देख सकते है:

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो, अस्सी नब्बे पूरे सौ। सौ में निकाला धागा चोर निकाल कर भागा।

सामान्य अर्थों में इस में कोई सार्थक-तार्किकता और संगती नहीं है। बहुत शब्द अर्थहीन भी हैं। पर इस में विचारों और बिंबों का एक तारतमयपूर्ण प्रवाह है। जिस कविता पर बात चल रही है उसमें इस का अभाव है। मेरे विचार से भाषा के दुनिया को समझने में समार्थ उपयोग के लिए इस में ‘विचारों और बिंबों के तारतम्यपूर्ण प्रवाह’ के प्रती सचेतता और लगाव सीखना जरूरी है। अतः यह कविता मुझे बहुत बढ़िया कविता नहीं लगती बच्चों के लिए।

पर इस पर जिन बिन्दुओं पर ऐतराज उठाए जा रहे हैं वे निश्चित रूप से शिक्षा और राजनीती दोनों की दृष्टि से प्रतिगामी हैं। और उनको सिरे से नकार देना चाहिए। जिस मानसिकता से वे ऐतराज उपजे हैं उस का विरोध होना चाहिए।

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22 मई 2021

6 Responses to कविता पर बेबुनियाद बवाल

  1. SANDEEP KUMAR says:

    भाषा लोक का संसार भी है। उसी संसार के दो शब्द छोकरी और चूसना भी है। मुझे मेरे घर में और हमारे शिक्षकों ने कुछ चीजों जैसे – आम और गन्ना के लिए चूसना शब्द ही बताया। और तर्क भी दिया कि गन्ने को हम खा नहीं सकते चूस सकते हैं। इसी तरह मेरे लोक (हिंदी पट्टी) में आम को टपका बोलते हैं और उसके लिए चूसना शब्द ही उपयोग किया जाता है।
    रही बात उपरोक्त शब्दों को भद्दा और अश्लील मानने को लेकर वह तो विरोध करने वालों की मानसिक परिकल्पना का परिणाम भी है। बच्चों के लोक में इन दोनों शब्दों की खूबसूरत यादें और कहानियां जुड़ी है। हमारी दोस्ती की कहानियां जुड़ी हैं और यही शब्द हम आज भी दोहराते हैं।
    दूसरी बात कविता पर जो सवाल खड़े हो रहे हैं वह न तो शिक्षणशास्त्र और न ही मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के आसपास खड़े होते हैं। इन दोनों दृष्टियों से परे जो मुद्दा उठता है वह पोलिटिकल सिनेरियो बदलने का भी परिणाम है। जिसमें तर्क और विमर्श न होकर बिना बहस का विरोध है जो वर्तमान में अक्सर देखने को मिलता है।
    तीसरी बात कुछ लोग लिख रहे हैं कि इसमें बाल मजदूरी को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसा बिल्कुल नहीं है। कविता बच्चों को विचार करने को कह रही है कि आपके आसपास कोई बच्चा जो स्कूल न जाता हो और इस तरह के काम करता हो या कोई बच्चा जो स्कूल के साथ साथ घर के कामों में हाथ बंटाता हो।
    यह कविता परिवेश के उन बच्चों को कक्षा के विमर्श से जोड़ती है जो स्कूल नहीं आते। साथ ही बच्चों के साथ मिलकर संभव समाधान खोजती है कि स्कूल न आने वाले बच्चों को स्कूल का हिस्सा कैसे बनाया जा सकता है?
    भारत में बहुत सारे ऐसे बच्चे मिल जाएंगे जो मौसमी काम करते हैं क्योंकि उनकी परिस्थितियां इसकी मांग करती हैं। हो सकता है बच्चों के घरों के आसपास कोई लड़की आम या अन्य सामान बेचने आती हो और वह अपना नाम न बताती हो।

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  2. Anonymous says:

    सही कहा रोहित जी। कविता की गुणवत्‍ता पर भाषा के संदर्भ में बात की जा सकती है। बाकी आपत्तियां जो उठ रही हैं और उठती रही हैं वे वर्चस्‍व को स्‍थापित करने और अपने भीतर मौजूद विकृतियों का प्रतिफल हैं।
    मानकता और शुद्धता का जो मुद्दा बनाया जा रहा है इसे भाषा शिक्षण और भाषाविज्ञान दोनों स्‍तरों पर खारिज किया जा सकता है। अश्‍लीलता के मुद्दे को विकृत सामाजिक-सांस्‍कृति चेतना के आधार पर खारिज किया जा सकता है। यह सिवाय विकृति के कुछ नहीं है। द्विअर्थी वैसे भी कुछ नहीं होता वह हमारे भीतर पैदा होने वाला विकृत अर्थ है जिससे सारे अश्‍लील चुटकुले भरे पड़े होते हैं। अश्‍लीलता कुछ साम्‍य स्‍थापित करने पर पैदा होती है या पैदा की जाती है। इस संदर्भ में ‘आम’ और ‘चूसना’ शब्‍दों से इसे जबरन पैदा किया जा रहा है। आम के लिए ‘चूसना’ के अलावा ‘खाना’ शब्‍द इस्‍तेमाल किया जा सकता है मगर वह उतना सटीक नहीं बैठता क्‍योंकि ‘चूसना’ शब्‍द आम के रसीले होने का द्योतक है जबकि ‘खाना’ शब्‍द आम को काटकर खाने का आभास कराता है, यानी आम रसीला नहीं है अत: उसे चूसने के बजाय काटकर खाया जा रहा है। रही बात ‘छोकरी’ शब्‍द पर आपत्ति की तो इस तर्ज पर ‘छोरी’, ‘मोंड़ी’, ‘टूरी’ तमाम शब्‍दों को खारिज किया जा सकता है। और आपने सही कहा है यह बच्‍चे की भाषा का अस्‍वीकार है और उस पर वर्चस्‍व को जबरन थोपना है। आपको जब ‘लड़की’ शब्‍द के पर्यायवाची चाहिए तब आपको ‘बालिका’ शब्‍द के बाद यही सब शब्‍द याद आने लगते हैं, मगर आप इन्‍हें सहजरूप से टैक्‍स्‍ट में आने से रोकना चाहते हैं। यह एक शुद्धतावादी नज़रिया है जो इससे पैदा होता है कि मैं और मेरा छोटा सा समूह जो बोलते हैं वही शुद्ध है। वैसे हिन्‍दी को आप ब्रज, मैथिली, अवधि, उर्दू आदि आदि भाषाओं के मेल से उपजी भाषा कहते रहते हैं मगर उपयोग करते वक्‍त आपकी जुबान ठिठक जाती है। तब आप उसी संकुचित कोष का इस्‍तेमाल करते हैं और कोई इसे विस्‍तार देना चा‍हे तो उस पर मानक का डंडा चलाते हैं। अंग्रेजी में ‘करी’ या ‘लूट’ जैसे शब्‍द शब्‍दकोश में शामिल हो जाने पर गर्व महसूस करना चाहते हैं (जो कि थोथा गर्व है क्‍योंकि उन्‍हें अंग्रजी शब्‍दकोश में शामिल करने का निर्णय अंग्रेजी भाषी समाज का है उसमें आपका क्‍या है) और छोकरी शब्‍द (जो कि बिल्‍कुल आपका ही है) सुनते ही कानों में सीसा घुलने लगता है। इसी के चलते हमारे यहां बैं‍क या किसी सरकारी विभाग के फॉर्म इतनी मरी हुई भाषा में तैयार होते हैं कि उसके बजाय अंग्रेजी में उन्‍हें समझना आसान होता है। यह दरअसल भाषा में untouchability का मुद्दा है। इससे भाषा का ही नुकसान होता है वह सम्‍पन्‍न होने की बजाए विपन्‍न होने लगती है।
    कक्षा में यह एक और तरह से घटित होता है जिसका संंकेत आपने किया ही है। हम बच्‍चे को शब्‍द व संरचना दोनों स्‍तरों पर उसकी भाषा के अमानक होने का बोध करवाते हैं। शब्‍द के स्‍तर पर अमानक ठहराने का उदाहरण यहां इस कविता में आया है। संरचना के स्‍तर पर वाक्‍य संरचना में क्रिया, वचन व कारकों के रूपों के इस्‍तेमाल को अनुचित ठहराकर यह काम करते हैं। बच्‍चे के वाक्‍य को जब अशुद्ध करार दे रहे होते हैं तब हम खड़ी बोली हिन्‍दी (यहां यह माना है कि यह बात हिन्‍दीभाषी कक्षा के संदर्भ में हो रही है) के व्‍याकरण या भाषा संरचना का इस्‍तेमाल बच्‍चे की भाषा संरचना को अशुद्ध ठहराने के लिए कर रहे होते हैं, जबकि बच्‍चे की भाषा की अपनी संरचना या व्‍याकरण होता है जो हो सकता है हिन्‍दी के व्‍याकरण से बिल्‍कुल मेल ना खाए या थोड़ा बहुत मेल खाए (हिन्‍दी के निकट की भाषाओं के संदर्भ में)। बच्‍चे की भाषा के व्‍याकरण की नज़र से वह वाक्‍य ठीक होने की संभावना ही अधिक है (क्‍योंकि तीन-चार साल का बच्‍चा अपनी भाषा को ठीक से बोलना सीख चुका होता है, और यह काम बिना उसकी संरचना पर पकड़ बनाए संभव नहीं है)। इस आधार पर कक्षाओं में स्‍थानीय भाषा बोलते बच्‍चों को जब बार बार यह अहसास करवाया जाता है कि वह अशुद्ध या गलत बोल रहे हैं तब हम उन्‍हें कक्षा में चुप रह जाने को बाध्‍य कर रहे होते हैं, जिसका परिणाम कई बार स्‍कूल छोड़ने के रूप में सामने आता है। यहां भाषा शिक्षण की यह समझ महत्‍वपूर्ण है कि भाषा एक-दो दिनों या एक-दो महीनों में आ जाने वाली चीज नहीं है। उसे सीखने में वक्‍त लगता है। एक transition period होता है। इसलिए बेहतर है कि बच्‍चे को शुरुआत में कक्षा में स्‍कूली भाषा के साथ अपनी भाषा का इस्‍तेमाल करने की छूट हो ताकि उसे स्‍कूली भाषा (इस संदर्भ में हिन्‍दी) सीखने के लिए जरूरी समय मिल सके। सबसे आदर्श स्थिति तो यह हो कि सभी बच्‍चों को आरंभिक स्‍तर पर किताबें उनकी अपनी भाषा में मिलें। मगर किताबें उन भाषाओं में बनी होती हैं जिनके पास सत्‍ता होती है या कहें जो सत्‍ता की भाषाएं होती हैं। स्‍कूल में बच्‍चे की भाषा में किताबें व पाठ्यपुस्‍तकें होना बच्‍चे की भाषा की विपन्‍नता का सवाल नहीं है बल्कि एक भाषाई राजनीति का सवाल है। भाषा की सत्‍ता का सवाल है।

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  3. HANS RAJ KUMHAR says:

    सही लिखा रोहित जी
    जिन बालको को लिये ये कविता लिखी गयी है उनके लिये पूर्वज्ञान से जोड़कर आगे की तरफ बढ़ना है, इससे बच्चों का आत्मविश्वास विकसित होगा क्योंकि उनके द्वारा सीखे गए शब्दो कविता के माध्यम से बतलाया जा रहा है। उनको इन शब्दों से कोई लेना देना ही नही । ये तो अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने के हथकण्डे है। हर वाक्य व शब्द द्विअर्थी होते हैं वो अपनी मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि हम कौनसा अर्थ ग्रहण करते हैं।

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  4. Vaibhao says:

    The criticism is not about specific words. Overall combination of words in the poem does not feel right. It was fine if the poem did not make any sense. But it does.

    It’s not about opposition to specific word छोकरी but the context in which it is used. Famous dialogue from Dangal “म्हारी छोरिया छोरो से कम है के?” was celebrated. It demonstrated equal capability of girls. Same for चुसना, there is no opposition to this word. It’s the whole tone of the poem combining the words that unfortunately give uncomfortable feeling. I am a little worried that if such poem is being defended, which apart from being tainted with double meaning, does not do justice to local language it seeks to defend. I am sure there is much richer children literature in local language than this one.

    You also agree that its not a very good poem overall but you support for freedom to use local words. I am all for it. I studied in Marathi medium in 90’s. In many of Marathi chapters, we had reference to body parts in local language. Such chapters were taken from Marathi novels where they had specific context. Even cuss words feature in award winning books where these words are used specifically for one meaning and there is no ambiguity. There is nothing wrong in reflecting society in literature.

    Also, the meanings of the words are not fixed over time. E.g. “showing finger” will mean very different thing to a generation that is in its 60’s (if anything at all), whereas it has very different meaning for those who know this phrase in western context. Currently, ‘like’ on a Facebook post is more like ‘I acknowledge (you also please acknowledge my posts)’ in addition to actually liking the content.

    Many words/expression over time lose their original meaning and attain commonly understood meaning for better or worse. E.g. ‘childish’ has immaturity connotation, whereas ‘childlike’ is a compliment. ‘Pran’ is a very nice word in Hindi/Marathi but people have stopped naming children Pran, due to an actor with same name played hindi film villain. We have stopped calling people handicapped but ‘differently abled’ , blind, “visually challenged” and so on.

    Hence, even if the words in the poem in question are good in themselves, the construction of the poem is poor and ends on a double meaning connotation and we can not ignore it. We already have millions of movies made with double meaning dialogues and imagery that I hope we keep our textbook away from it. By all means, have content related to romance, appreciation of beauty but the intent has to be clear and not open to interpretation.

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    • Anonymous says:

      I agree with most of the points you have made. I was responding only to two things; 1. there were some tweets demanding standard Hindi words rather than local “boli” words. That is undependable in pedagogy. 2. Double meaning.

      Also, I do not think the poem is of great value. Liking and enjoying by children to select text is only a weak criteria. There are many poems in NCERT books which are note very good. But the criticism for them should not come from a purist stand taken to keep the local words out. That is all I was trying to say.

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  5. Anonymous says:

    There is a long history of attempts of trying to purify language, culture and practices of societies all over the world. History is also witness to their failure – Persian and Arabic words from Hindi and Hindi and Persian words from Urdu closer to home.
    I would just share what Louise Rosenblatt said way back in 1938 in “Literature as Exploration” – it is important for the reader to avoid imposing any “preconceived notions about the proper way to react to any work”.

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