उचित मुकाम की तलाश में अध्यापन


हरिभूमि में प्रकाशित https://www.haribhoomi.com/full-page-pdf/epaper/pdf/raipur-full-edition/2021/09/05/raipur-raipur-main/49541 , पृष्ठ 4

रोहित धनकर

अध्यापन दुनिया के सब से पुराने पेशों में से एक है। और यहाँ मैं रूपकों में बात नहीं कर रहा हूँ, जैसे हम किसी से भी कुछ सीखें उसे गुरु या शिक्षक कह देते हैं। मैं अध्यापन के काम को एक पेशे के रूप में देख रहा हूँ। ऐसा काम जो उस के करने वाले की रोजी-रोटी का प्रमुख जरिया हो और उसकी सामाजिक पहचान का प्रमुख द्योतक हो। इस लेख का मुख्य विषय अध्यापन के पेशे की वर्तमान दशा और उसका अध्यापकों के जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव है।

अध्यापन के पेशे की दशा

जब भी अध्यापक की बात करते हैं तो आम भारतीय के मन में “गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु , गुरुर देवो महेश्वरः …” गूंजने लगता है। अध्यापन को महान पेशा, देश-समाज का निर्माण करने वाले काम की बात की जाती है। अध्यापन को देवत्व के स्तर तक उठा दिया जाता है। ये सब मुझे हमेशा मनुस्मृति के श्लोक “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।” की याद दिलाता है। यहाँ सवाल यह नहीं है कि मूलग्रन्थों में श्लोकों को किस तरह देखा जाता था। सवाल यह है कि हमारे समाज में आज जब ये या इस तरह के उद्गार परकट किए जाये हैं तो वे वास्तविक हैं या छलवा?

यदि शिक्षकों की सामाजिक हैसियत पर विचार करें तो पाएंगे की उन्हें वकील, डाक्टर, इंजीनियर जैसे पेशों से कम आँका जाता है। अधिकतर उनकी आमदनी भी पेक्षाकृत कम होती है। उनकी काम करने की परिस्थितियाँ बहुत सुधार के बावजूद अब भी साधन विहीन, ऊबाऊ और कठिन हैं। इन परिस्थितियों के बावजूद बच्चों के ठीक से ना सीखने के लिए और उनके सरकारी स्कूल छोड़ कर निजी स्कूलों में जाने के लिए दोष भी शिक्षकों को ही दिया जाता है।

ये सब देखकर लगता है कि “आचार्य देवोभव” और “गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु …” जैसी प्रशास्तियां सिर्फ दिखावे के लिए हैं, समाज शिक्षकों का जो वास्तविक मूल्य आँकता है वह तो उनको दी गई सुविधाओं, वेतन, और समाज में इज्जत में ही देखा जा सकता है।

अध्यापन के लिए आवश्यक योग्यतायें

जिस तरह से यह पेशा बहुत पुराना है ऐसे ही इस के लिए ज्ञान, मूल्य, दक्षताओं और चारित्रिक विशेषताओं पर भी पुराने जमाने से ही सोचा और लिखा जा रहा है। कई लोगों को आश्चर्य होगा कि चरक संहिता चिकित्सा सीखना आरंभ करने से पहले छात्र को सलाह देती है की गुरु का चुनाव सोच-समझ कर करे। और उस चुनाव के लिए जो मानदंड बताती है उन में से अधिकतर आज भी हम शिक्षकों की योग्यताओं और चारित्रिक विशेषताओं में रूप में स्वीकार करते हैं। स्थान कम होने के बावजूद मैं यहाँ चरक संहिता में आचार्य के गुणों को विस्तार से उद्धृत कर रहा हूँ:

शिष्य “शास्त्र की परीक्षा करने दे बाद आचार्य की परीक्षा करे। यथा वह निर्मल शास्त्रज्ञान से सम्पन्न हो। जिसने कर्म को उचित रीति से देखा हो, केवल शास्त्र पढ़ा ही न हो, प्रत्युत वह कर्म में कुशल, शूची (पवित्र) हो। शस्त्र आदि क्रिया में वशी, सिद्धहस्त, नाना उपकरणों वाला, सब इंद्रियों से युक्त, रोगी की प्रकृति को पहचानने वाला, उत्तम सूझ वाला, रोगी की चिकित्सा को समझने वाला, अन्य शास्त्रों के ज्ञान से प्रकट स्वच्छ विद्या वाला, अभिमान से रहित, गुणों में दोष न देखने वाला, क्रोध से रहित, क्लेश सहन करने वाला, शिष्य से प्रेम-भाव रखने वाला, शास्त्र के तत्व को बताने में समर्थ आचार्य होना चाहिए।” स्पष्ट ही यहाँ  ज्ञान, दक्षताओं, मूल्यों और चारित्रिक विशेषताओं का पूरा वर्णन किया गया है।

इसी तरह बल्लाल सेन का दानसागर भी सीखने के लिए पढ़ कर सुनाने वाले, अर्थात, शिक्षक के गुण विस्तार से लिखता है। “पाण्डुलिपियों की व्याख्या करने वाला पाठक एक अनुभवी, जानकार और बुद्धिमान ब्राह्मण होना चाहिए। …पढ़ने में अच्छा होना चाहिए, शास्त्रों को जानना चाहिए, और शब्दों के अर्थ स्थापित करने की प्रणाली (जानने वाला), … मेहनती, विनम्र, बुद्धिमान … राजनीतिक व्यवस्था को जानने वाला, एक अच्छा वक्ता होना चाहिए, और उसकी आवाज ऐसी होनी चाहिए जिसे आसानी और स्पष्टता से सुना जा सकता है। ज्ञान की सभी प्रणालियों पर अधिकार होना चाहिए, तर्क की भ्रांतियों को जानना चाहिए, एक सुसंगत अर्थ बनाने में सक्षम होना चाहिए, ज्ञान का सम्मान करना चाहिए। कठिन ज्ञान से निपटते हुए भी सरल शब्दों में व्याख्या करने में सक्षम होना चाहिए…… शब्दों, वाक्यों, अध्यायों और संपूर्ण ग्रंथ का अर्थ जानना चाहिए। ग्रंथ के विभिन्न भागों को सुसंगत बनाना चाहिए, उन विषयों को भी विस्तृत करने में सक्षम होना चाहिए जिनका मूल लेखक ने केवल संक्षेप में उल्लेख किया है। वह अर्थ समझाने के लिए संदर्भ और उदाहरण देने में सक्षम होना चाहिए।”

समाज में उस जमाने में भी अध्यापक का क्या स्थान था कहना मुश्किल है। पर शास्त्रों में उसे दिये गए समान और उसमें चाही गई योग्यताओं में समंजस्य लगता है।

अध्यापन का पेशा

यहाँ “पेशा” शब्द आङ्ग्रेजी के “प्रॉफ़ेशन” के समानार्थक के रूप किया जा रहा है। एक पेशेवर (प्रॉफेश्नल) व्यक्ति की योग्यताओं के एक शिक्षा-दार्शनिक द्वारा किए विश्लेषण को अध्यापन के पेशे पर लगाएँ तो नतीजे कुछ निम्न प्रकार होंगे।

एक अध्यापक के पास बहुत-सी दक्षताओं और विशेषज्ञता होती है, जो बहुत विस्तृत ज्ञान के आधार पर पैदा होती हैं। अर्थात जैसा चरक-संहिता और दानसागर कहते हैं उसका ज्ञान विस्तृत और गहरा होना चाहिए और उसकी कक्षा में काम की दक्षतायें उस ज्ञान-आधार का सुविचारित परिणाम होनी चाहिएं, ना की केवल क्रियाओं के रूप में सीखी हुई। वह अपने विद्यार्थियों की मदद करने का इच्छुक और ईमानदारी से उनके विकास की चिंता करने वाल होना चाहिए। और अध्यापक और छत्र का रिश्ता सद्भाव और स्नेह का पर संस्थानिक होना चाहिए।

एक पेशेवर के नाते शिक्षक की ज़िम्मेदारी है कि वह शिक्षा से संबन्धित विषयों पर अपनी निष्पक्ष राय समाज को दे। और समाज में उस की राय का सम्मान उसकी योग्यताओं, ज्ञान और समझ के आधार पर होता है, नाकि उसके पद के आधार पर। और एक अध्यापक अपनी सामाजिक और संस्थागत जिम्मेदारियों को तभी ठीक से निभा सकता है जब शिक्षा संबंधी विषयों पर उस की राय अपने ज्ञान के आधार पर, और राजनैतिक और आर्थिक कारणों से प्रभावित ना हो। अध्यापन के पेशे के लिए जरूरी है की इसकी तैयारी केवल संकुचित प्रशिक्षण द्वारा ना हो कर मूल्यों और स्वतंत्र चिंतन का विकास करने वाली व्यापक शिक्षा के रूप में हो। ये गुण ही अध्यापन के पेशे को नैतिक प्रभाव और वजन दे सकते हैं।

अध्यापक-शिक्षा

हमारे लिए सवाल यह है कि क्या हम अपने बी.एड. कालेजों और अध्यापक-शिक्षा के विभागों से अध्यापक शिक्षा की ऐसी व्यवस्था कर पाये हैं जो चरक-संहिता, दानसागर या पेशेवर अध्यापक के गुणों को विकसित करने वाली शिक्षा दे सके? या क्या हम अपने सेवाकालीन प्रशिक्षणों में ऐसी व्यवस्था कर पाये हैं? उपलब्ध जानकारी के अनुसार तो नहीं। क्या हम ऐसा शिक्षा तंत्र बना पाये हैं जो स्वतंत्र चिंतक और सक्षम अध्यापक को रोकने के बजाय उस की मदद करे? यह भी नहीं। अध्यापन के पेशे की दशा में सुधार और पेशेवर ज्ञान और विशेषज्ञताओं वाले अध्याकाओं की कमी तभी पूरी हो सकती है जब हम अध्यापक-शिक्षा और शिक्षा-तंत्र में ये क्षमाताएँ विकसित कर सकेंगे। जब तक यह नहीं होगा हम शिक्षक दिवसों पर बस ““आचार्य देवोभव” और “गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु …” जैसे झूठे दिखावे ही करते रहेंगे।

******

4 सितंबर 2021

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

%d bloggers like this: