Some thoughts on The Kashmir Files


Rohit Dhankar

It is neither a review nor a properly written article, but only some bullet points.

1. The people who consider themselves guardians of democracy and harmony are saying again and again that films should be made on other unfortunate riots and atrocities as well. THEY ARE RIGHT.

2. But they forget that there are many films on such issues. Mostly fictitious and to build a narrative that every time Hindus are aggressors and Muslims are at the receiving end. Any other views, even for the sake of discussion, are derided and blocked.

3. The Kashmir Files goes against this narrative. Its value is not in its cinematic merit, even if it is there. Its value is not even in bringing new information to light.

4. It’s value is in connecting the dots which brings out in the open the sinister elements of Islamism and one-sided narrative. The film might be faulted on several counts, yes. But it breaks a taboo.

5. The taboo that anyone hinting at the possible concerns of the majority community, even if they are misguided, is attacked ferociously to shut-up. An open dialogue is made impossible and a politically correct discourse goes on, that is in the liberal sphere.

6. Yes, this film should have talked about the killings of Muslims going on at the same points. AND SHOULD HAVE HIGHLIGHTED THE DIFFERENCE IN INTENTIONS AND NATURE OF KILLING OF HINDUS AND MUSLIMS.

7. The Muslims were killed as traitors to the creations of Islamic state, and needed to be silenced.

8. The Hindus were killed as undesirable elements on the Islamic state and were to be cleansed.

9. One to teach a lesson into submission.

10. Other as hated unbelievers to be given the choice of conversion, or leave or die. But not remain with the religion of their birth.

11. Pointing out this difference would have made the film more authentic and much more potent in challenging the narrative.

12. Not every Muslim in the valley was a party to this genocide. But at one time the powerful section of the community was. Otherwise the use of Mosques in blaring slogans of “convert, leave or die” would not have been possible. This powerful section scared the liberal Muslims into submission. The film should have shown this as well.

13. The most hurting aspect of the film for so-called liberals is the fact that they were a party to this genocide. They used some devices of narrative building that encouraged the bigotry, and they are still being used. Some of these devices are listed below.

14. WHAT ABOUT: repeated mentions of other unfortunate riots etc. like Godhara 2002 etc. It does a double job. One, re-established without going into argument that Godhara 2002 was a similar genocide of Muslims, which it was not. And two, makes a point that these killings are not the only ones, so pointing them out alone is biased.

15. THE MUSLIMS WERE ALSO KILLED: this is used to make the point that there is nothing Islamic and anti-Hindu about it. It hides the intentions of killers and nature of killing.

16. EXPLAINING AWAY: it has two prongs. One, the issue was not Islamic it was political. Hides the fact that any issue involving Muslims very quickly becomes Islamic. And two, that the perpetrators of these heinous crimes were people who faced injustice by the system or by the Hindus. Hinting without saying so that they were justified. This second one is a very specious argument used in all Islamic atrocities all over the world.

17. The real point, for me, of the film is to correct this bias in the present day so-called liberal discourse.

18. The most pernicious part of this discourse is that you can call out Hindu atrocities and criticize all that is deemed bad in Hindus, and I AGREE THAT IS HOW IT SHOULD BE. But as soon as you point out anything in Islam and Muslim politics you are attacked as a bigot.

19. If we want harmony and peace, we need to face truth and be fair. Or we will keep pitting Hindus and Muslims against each other to their mutual destruction.

******

12 Responses to Some thoughts on The Kashmir Files

  1. Ramnik says:

    Sharing a link to a video on this issue, whatever its worth.

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  2. rdhankar says:

    It is an important video Ramnik ji. I have watched it. Have also watched this long video https://www.youtube.com/watch?v=20LIlu7tmek and have asked the following qeestions of Ashok ji, which he has not responded to yet. The questions:

    अशोक जी से कुछ सवाल:
    आप की समीक्षा बहुत अच्छी और जरूरी जनकारी देती है। पर कुछ सवाल भी छोड देती है, जिन पर समझ बनाना जरूरी है। क्यों कि आप कश्मीर के अध्येता हैं और आप के पास आधिकारिक जानकारी है, अतः बात को ठीक से समझने के लिये कुछ सवालों पर आप से सूचना चाहता हूं:
    1. क्या मस्जिदों से कश्मीरी हिंदुओं को चले जाने, या धर्मांतरण करलेने या मारे जाने की धमकियां प्रसारित हुई थीं?
    2. क्या हिंदुओं से कहा गया था की यहां रहना चाहते हो तो तुम भी बंदूक उठा कर हमारा साथ दो?
    3. क्या आतंकी खुले आम घूमते थे और उन्हें जनता का समर्थन प्राप्त था? (यह कराटे कहता है)
    4. क्या इस पहले दौर में, १९९१ तक, मुस्लिम महिलाओं से उनके घर के लोगों के सामने बलात्कार होते थे?
    5. क्या हिंदुओं को पाकिस्तान जिंदाबाद, अल्लाह हू अकबर और निज़ामे मुस्तफा के नारे लगवाए गए?
    6. क्या किसी आतंकी समूह की over ground विंग काश्मीर को इस्लामी राज्य बनाने की घोषणा करती थी?

    अब २ टिप्पणियां:
    1. यदि पहले सवाल का उत्तर हां है तो बात मरने वालों की संख्या की नहीं, मारने वाले की नियत की हो जाती है। मुसलमानों को कंट्रोल करने के लिए मारते थे, और हिंदुओं को मजहबी नफरत और उनका खात्मा करने के लिए। तब यह जेनोसाइड बन जाती है। परभाषा स्वयं देख लें।
    2. आपका का यह सवाल कि २ या ३% लोगों को ९७% मरना चाहें तो क्या वे बच सकते है, अतार्किक है। मारना नहीं भगाना चाह सकते हैं।
    3. यह बडा काम का सवाल है वैसे। बहुत से विद्वान इसे एक और सन्दर्भ में भी पूछते हैं। कि “मुसल्मान सुल्तानों बादशाहों‌ के ८०० साल के राज में वे जबरन धर्म-परिवर्तन करवाते तो क्या इतने हिन्दू बच जाते?”
    आप हिंदी के लेखक हैं, मैंने फोन पर टाइप किया है, और मेरी वर्तनी भी अच्छी नहीं है। तो गलतियों पर नहीं कथ्य पर ध्यान दीजिए।
    *****

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  3. shafiq says:

    very true points. i have observed this all through the years. even those who speak truth are labelled as anti-islamic. the last point signifies a lot. we should accept that atrocities had happenedwith kashmiri pandits who are the indigenous habitants of kashmir valley and had contributed a lot in the development of the valley. a positive atmosphere should be created keeping the kashmiri people in the fold for correcting the wrongs and rehabilitating the kashmiri pandits in their homelands.

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  4. rdhankar says:

    Thanks.

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  5. राजेश चौधरी says:

    यह देखा जाना चाहिए कि फिल्म अंत में क्या प्रभाव पैदा करती है ? फिल्म देखकर दर्शक जो नारे लगा रहे हैं, वे आपको पता होंगे।
    1 इस्लामवाद से आपका क्या आशय है ? शेख अब्दुल्ला मुसलमान ही थे पर भारत के साथ रहना चाहते थे। क्या फिल्म में यह दिखाया गया कि रूबिया सईद के बदले आतंकवादियों को रिहा करने का फारुख अब्दुल्ला ने विरोध किया था जिसे भा ज पा समर्थित जनता दल सरकार ने अनसुना कर दिया।

    2 वे मुसलमान भी मारे गए जो कि भारत समर्थक थे और वे हिंदू भी जिन्हें धर्म के आधार पर भारत समर्थक समझा जाता था।
    3 कुछ मुसलमान नेता इसलिए मार दिए गए कि वे कश्मीरी पंडितों के पक्ष में बोल रहे थे।क्या यह दिखाया गया।
    मस्जिदों से एलान हुआ, यह सच है पर उसका सब मुसलमानों ने पालन नहीं किया।क्या फिल्म में यह है ?

    आर्टिकल 15 और जय भीम देखकर क्या दलितों ने उसी तरह रिएक्ट किया जिस तरह इस फिल्म को देखकर कथित शक्तिशाली वर्ग कर रहा है ? इसलिए कि इन फिल्मों में कुछ सवर्ण पात्र दलितों के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं।
    3 कश्मीरी पंडितों की तकलीफ वाजिब है ।दिखाई जानी चाहिए पर उसका इस्तेमाल तकलीफ बढ़ाने के लिए क्यों हो ?
    पुनुन कश्मीरी के नेता अग्निशेखर का वीडियो देखिए।

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  6. rdhankar says:

    इस पोस्ट पर कुछ सवाल और मेरे जवाब

    प्रश्न: देखा जाना चाहिए कि फिल्म अंत में क्या प्रभाव पैदा करती है ? फिल्म देखकर दर्शक जो नारे लगा रहे हैं, वे आपको पता होंगे।
    जवाब:‌ नारों का नहीं पता। मैं ने देखी थी तब कोई नारे नहीं लगे थे। नाही कोई रोया था। आज कल के प्रचार में मुझे कुछ भी मानने में समय लगता है। पर मुख्य बात यह है कि इस प्रभाव वाली बात से मैं सहमत नहीं हूं। यह मेरी समझ में पोलिटिकल कर्रेक्ट्नेस्स का दुसरा रूप है। ‘सच मत बोलो लोग बेवकूफ़ हैं’। मैं यह नहीं मनता।

    1 इस्लामवाद से आपका क्या आशय है ? शेख अब्दुल्ला मुसलमान ही थे पर भारत के साथ रहना चाहते थे। क्या फिल्म में यह दिखाया गया कि रूबिया सईद के बदले आतंकवादियों को रिहा करने का फारुख अब्दुल्ला ने विरोध किया था जिसे भा ज पा समर्थित जनता दल सरकार ने अनसुना कर दिया।
    उत्तर: इस्लामवाद से अर्थ है कि “इस्लाम सर्वश्रेष्ठ मजहब है, और सब को इस्लामी हुकुमत में रहना चाहिये”। शेख के बारे में आप की बात आधी ठीक है। वे दिल्ली पर दबाव बनाने के लिये कई चीजें करते थे, कश्मीर को अजाद चाहते थे, पर पाकिस्तान के साथ नहीं। अजाद ना होने पर भारत में। पर वे इस्लामवदी नहीं थे, मेरी समझ के अनुसार। अब्दुल्ला और भाजपा के बारे में आपकी बात ठीक हो सकती है, पर इस से कश्मिरी हिन्दुओं‌के नरसंहार पर क्या फ़र्क पदता है?

    2 वे मुसलमान भी मारे गए जो कि भारत समर्थक थे और वे हिंदू भी जिन्हें धर्म के आधार पर भारत समर्थक समझा जाता था।
    उत्तर: सवाल का जवाब मेरी पोस्ट में बिन्दु ६ से ११ तक है। फ़िर पढलें। जवाब ठीक नालगे तो बयायें उस में क्या खामी है।

    3 कुछ मुसलमान नेता इसलिए मार दिए गए कि वे कश्मीरी पंडितों के पक्ष में बोल रहे थे।क्या यह दिखाया गया।
    मस्जिदों से एलान हुआ, यह सच है पर उसका सब मुसलमानों ने पालन नहीं किया।क्या फिल्म में यह है ?
    उत्तर:‌ ऊपर देखें।

    आर्टिकल 15 और जय भीम देखकर क्या दलितों ने उसी तरह रिएक्ट किया जिस तरह इस फिल्म को देखकर कथित शक्तिशाली वर्ग कर रहा है ? इसलिए कि इन फिल्मों में कुछ सवर्ण पात्र दलितों के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं।
    3 कश्मीरी पंडितों की तकलीफ वाजिब है ।दिखाई जानी चाहिए पर उसका इस्तेमाल तकलीफ बढ़ाने के लिए क्यों हो ?
    उत्तर: बिन्दु १२ से १८ पढें वहां जवाब है।
    पुनुन कश्मीरी के नेता अग्निशेखर का वीडियो देखिए।
    उत्तर:‌ देखा है।

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  7. रतन कुमार says:

    @ राजेश चौधरी जी,
    रोहित धनकर जी जैसे तथाकथित तर्कवादी व्यक्ति से इन मामलों पर कोई भी तर्क करना व्यर्थ है। इन्होंने कुतर्क का मार्ग बहुत पहले, संभवतः २०१४ से ही अपना लिया था। वास्तविकता यह है कि इनका का काम धंधा चौपट हो चुका है। तभी वो २०१४ से नफ़रत की खेती करने लगे हैं। यह भी मज़े की बात है कि ऐसा एंटी मुस्लिम व्यक्ति अज़ीम प्रेमजी के पैसों से मज़े कर रहा है, जो ख़ुद एक मुस्लिम है।
    अब रोहित जी का नाम भक्तों की उच्चतम श्रेणी में लिखा जाना चाहिए, और एन सी ई आर टी का ना सही, यू जी सी का अध्यक्ष तो इन्हें बना ही देना चाहिए। हमारी ओर से इनको बहुत शुभ कामनाएं।
    राजेश चौधरी जैसे व्यक्तियों को अपना समय यहां बर्बाद नहीं करना चाहिए। आप को मैं जानता हूं, बढ़िया काम करते हैं, करते रहिए, रोहित जी सठिया गए हैं तो उनका कोई कुछ नहीं कर सकता। इतना साफ़ लिखने के लिए क्षमा चाहता हूं।

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    • Anonymous says:

      रतन कुमार जी, मैं आप को नहीं जानता। मगर यह ज़रूर जानता हूँ कि रोहित जी के मूल लेख या उस लेख पर आई टिप्पणियों पर टिप्पणी का यह सही तरीक़ा नहीं है। आप लेख और उस पर आई टिप्पणियों पर चर्चा को आगे बढ़ाइये न कि व्यक्तिगत टिप्पणियाँ कीजिए। सार्थक चर्चा के माध्यम से रोहित जी द्वारा उठाई गई बातों या उन पर आई टिप्पणियों पर बात रखेंगे तो चर्चा से सार्थक संवाद बनेगा। तर्क की काट, फिर चाहे वह “तथाकथित तर्कवादी व्यक्ति” का ही तर्क क्यों न हो, चर्चा के बिंदुओं के इर्द-गिर्द तर्क से ही दिया जाए तो सब का ज्ञानवर्धन होगा। किसी भी व्यक्ति के बारे में व्यक्तिगत राय हम सब रखते ही हैं – पाठकों को भी स्वतन्त्र रूप से अपनी राय बनाने दीजिए।

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  8. Ratan Kumar says:

    प्रिय अनाम/एनोनिमस महोदय,
    क्षमा चाहता हूं कि बड़ी भावुकता से उपरोक्त टिप्पणी कर दी। जब से यह ब्लॉग पढ़ रहा हूं, तब से शायद पहली बार कोई टिप्पणी की है। वह भी एकेडमिक न होकर व्यक्तिगत!! क्षमा चाहता हूं, आपसे और रोहित जी से। मगर यह मेरे द्वारा अनुभव किए गए एकेडमिक लोगों की गैर जिम्मेदार वक्तव्यों पर निराशा से उत्पन्न क्षोभ का नतीजा है।
    विद्वान नहीं हूं, न तो तर्क शास्त्र पढ़ा है और न ही सभ्य (मगर अंदर से बहुत दोगली) एकेडमिक बहसों की कला में निपुण हूं। फिर भी मेरा उपरोक्त कमेंट भावनात्मक मात्र नहीं है। मैं इनकी “प्रतिउत्पन्न मति” का बड़ा रेगुलर और गम्भीर पाठक हूं। राजस्थान से ही हूं और इनके काम और पृष्ठभूमि से वाकिफ हूं। जब रोहित जी इस फोरम पर लिखते हैं, किसी भी मुद्दे पर, तो इसका आशय महज एक एकेडमिक विमर्श नहीं होता, इनका एक गहरा पॉलिटिकल ओवरटोन होता है! आप २०१४ के बाद इनकी लेखनी को मेरी तरह ध्यान से पढ़िए, देश में जो चल रहा है, उस परिप्रेक्ष्य में रखिए और आपको स्वयं आभास होगा कि हमारे सेल्फ स्टाइल्ड बुद्धिजीवी क्या लिख, बोल रहे हैं।।
    मेरी छोटी समझ यह कहती है कि लिखना एक बहुत जिम्मेदारी का कार्य है, एक योग है। यह केवल एक उदगार नहीं है। आप जिन मामलों के एक्सपर्ट न हों, उन मुद्दों पर नहीं लिखना चाहिए। मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूं और आगे से ऐसी कोई भी टिप्पणी नहीं करूंगा, यह वादा करता हूं।
    बस दुख इस बात का है कि जिस तरह रोहित जी सेकुलर एवम
    “सूडो सेकुलर” में अंतर करते हैं, वैसे ही मैंने “बुद्धिजीवी” और “क्षदम बुद्धिजीवी” में फरक कर लिया, और उनके लेखों से ही पाया कि वह दूसरी श्रेणी के बुद्धिजीवी हैं, जो समाज में व्याप्त हर फॉल्ट लाइन को उधेड़ कर नंगा करना चाहते हैं, मगर ऐसा करने से उत्पन्न हुए वैचारिक एवम मनोवैज्ञानिक प्रभावों की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते। खैर, मेरे जैसे एकाध फॉलोअर को खो देने से उन्हें कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि उनकी लेखनी से जो नुकसान हो रहा है और हो चुका है, वह उनको बहुत अधिक फायदा पहुंचाने वाला है। वर्तनी की अशुद्धि और गैर एकेडमिक शब्दों या विधियों के प्रयोग के लिए एक बार फिर आप सब से क्षमा। रतन

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    • Anonymous says:

      प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया, रतन जी। मुझ से भी एक चूक हुई है – अपनी पोस्ट के अंत में अपना नाम नहीं लिखा। रोहित जी की इस मूल पोस्ट की प्रतिक्रिया में शायद मैंने ही सब से पहली पोस्ट डाली थी एक वीडियो की शक्ल में और तब मेरा नाम पोस्ट के साथ अंकित हुआ था। आप की प्रतिक्रिया में डाली गई मेरी पोस्ट में न जाने क्यों वह अंकित नही हुआ। इस पोस्ट के अंत में नाम लिखूँगा।
      आप के जवाब की प्रतिक्रिया में यह कहना चाहूँगा कि मैं भी रोहित जी से काफ़ी अरसा से वाक़िफ़ हूँ गोकि हो सकता है कि उतने पुराने समय से उन्हें न जानता हूँ जितने समय से आप जानते होंगे। उन के इस ब्लॉग पर पोस्ट की गई सामग्री को मैं भी पढ़ता रहा हूँ और इस में 2014 के बाद की पोस्ट्स भी शामिल हैं। हो सकता है कि मुझे भी कुछ मुद्दों पर रोहित जी द्वारा लिए जा रहे स्टैण्ड से सहमति न हो लेकिन मुझे यह कभी भी महसूस नहीं हुआ कि वे “क्षदम [छद्म] बुद्धिजीवी” हैं – वे अपनी बात तर्क के साथ लिखते हैं और प्रतिक्रिया में आए सवालों या तर्कों का तार्किक जवाब देते हैं और जिस बात की उन्हें पूर्ण जानकारी नहीं होती उस पर अपनी बात रखते वक़्त अपनी तरफ़ से इस कमी को भी दर्ज करते हैं, लिखते हैं कि उन्हें फ़लाँ बात की पूरी जानकारी नहीं है, कोई दे पाए तो देवे।
      मुझे लगता है कि जब हम किसी निष्पक्ष लेखक को निष्पक्ष हो कर नहीं पढ़ते तो वह निष्पक्ष लेखक भी हमें अपना ‘विरोधी’ लगने लगता है जब कि वह न तो तटस्थ होता है और न ही हमारे पक्ष का विरोध करने वाला – उस लेखक की बात को अगर इस नज़रिए से पढ़ेंगे कि वह मेरे विचार की किसी ऐसी कमी या कमज़ोरी की ओर ध्यान दिला रहा है जिस पर मैंने ध्यान नहीं दिया और उस पर ध्यान देने से मेरा पक्ष मज़बूत होगा तो आप शायद निष्पक्ष (लेकिन तटस्थ नहीं, बल्कि मेरे ही पक्ष के) लेखक की बात समझ पाएँगे। मेरी राय में रोहित जी ऐसे ही निष्पक्ष लेखक हैं। मेरा मानना है कि उन की बात पर ध्यान देने से और अपने तर्क या विचार से छूट रही बात पर नज़र डालने से वह पक्ष मज़बूत होगा जो देश के उन वर्तमान हालात में मज़बूत होना निहायत ज़रूरी है जिन हालात की ओर आप ने इशारा किया है। हाँ, यह बात सही है कि वे शायद अपनी बात में उन बातों पर उस तरह से बल नहीं देते जिस तरह से आप या मैं चाहते हों कि वे बल दें – लेकिन यह उन के विवेक की बात है और इस में वे स्वतंत्र हैं कि किस बात पर बल दें या न दें। मुझे तो पाठक के तौर पर वह ग्रहण कर ही लेना चाहिए जो मेरे काम का है और मेरे पक्ष को मज़बूती देने में सहायक भी।
      और भी बात हो सकती है क्योंकि यह मुद्दा गम्भीर और गहन है, मगर फ़िलहाल इतना ही।
      सादर सप्रेम
      -रमणीक

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  9. rdhankar says:

    वर्तमान समय में भारत में यदि कोई सार्वजनिक रूप से लिखता या बोलता है, और अपनी बात को बिना लागलपेट‌के कहना चहता है तो उसे व्यक्तिगत और अपमान जनक टिप्पणियों का सामना तो करना ही होगा। फ़िर चाहे वह किसी भी विचार धारा कोन क्यों न हो। जब मैं विरोधी लोगों की जुबान दबाव से बनंद करवाने की कोशिशों की बात करता हुं‌तो एक तरीका यह भी उसमें गिनता हुं।

    इस छोटिसि पोस्ट पर FB और tweeter पर, और यहां भी, बात को आगे बढाने वाली टिप्पणियां भी आई हैं और अपमान जनक भी। मजेदार बात यह है कि अपमानजनक टिप्पणियां अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कसीदा पढने वालों की हैं।

    मैं इस विश्वास के साथ अपने विचार साझा करता हुं‌ कि:
    1. हर व्यक्ति सोच सकता है।
    2. हर व्यक्ति गलती कर सकता है और एकदम सही भी सोच सकता है।
    3. हर एक को अपनी बात कहने का हक है, संविधान के दायरे में।
    4. विचार पर व्यक्तिगत तिप्पणी और अपमान जनक कुछ कहना उस व्यक्ति को चुप करवाने के लिये लिखा जाता है।
    5. यदि हमारी रुची समरस और न्यायपूर्ण समाज में है तो हमें हर बात को सुनने और उस पर विचार करने की आदत डालनी पडेगी।
    6. अतः यहां आप अपनी बात खुलकर कह सकते हैं। मेरे कथन के विरुद्ध होने से कोई बुराई नहीं है।
    7. गालिगलोच और व्यक्तिगत आक्रमण ना करने की आप से गुजारिश है।
    -रोहित

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  10. Lavanya says:

    Sir, about point 5 and 6, in the movie there is mention (although in a dialogue and not depicted) of liberal muslims being targeted.

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