डर हमें मूर्ख और दब्बू बना रहा है (2)


रोहित धनकर

… कल आए आगे

भाग 2: सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी

हमारे कथित-उदारवादी और बहुत से राजनीतिज्ञ लगातार कह रहे हैं कि देश में मुस्लिम हिंसक प्रदर्शनों और उदयपुर में कन्हैया लाल की हत्या के लिए नूपुर शर्मा जिम्मेदार है। और अब तो इस चिंतन पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी मौखिक मुहर लगा दी। न्यायालय ने कहा “The way she has ignited emotions across the country. This lady is single handedly responsible for what is happening in the country.” (मेरे द्वारा काम चलाऊ अनुवाद: “जिस तरह से उस ने (नूपुर ने) देशभर में भावनाएं भड़काई हैं, देश में जो कुछ हो रहा है उस के लिए यह महिला अकेली जिम्मेदार है।”) न्यायाधीशों ने और भी बहुत कुछ कहा, पर मैं अपना ध्यान इस लेख में इसी कथन पर केन्द्रित करना चाहता हूँ।

सब से पहले हम यह समझलें कि किसी से यह आग्रह कि “दूसरों को बुरी लगाने वाली बात नहीं बोलनी चाहिए”, सभ्य समाज में व्यवहार कुशलता का और नैतिकता का आग्रह है। जहां तक हो सके इस को मानने में मुझे कोई आपत्ति नहीं लगती। हालांकि इस की भी सीमा होती है। पर “अ” के कथन को “ब” की करणी के लिए “जिम्मेदार” मानना बिलकुल अलग बात है, और इस के निहितार्थ बहुत खतरनाक हैं। यदि यह बात सर्वोच्च न्यायालय में पीठासीन न्यायाधीश कहता है, तब यह एक कानूनी चोला धारण कर लेती है। हमारे सभी कथित-उदारवादी बुद्धिजीवी इस कथन का पक्ष ले रहे हैं। और तो और वकीलों की संस्था बार असोशिएशन भी इस का पक्ष ले रही है। ये सब बहुत खुश हो रहे हैं और उसे सरकार और पुलिस को न्यायालय की लताड़ बता रहे हैं।

यही कारण है की इस छोटी सी बात का मैं यहाँ लंबा विश्लेषण कर रहा हूँ। मेरे पास इस पर न कोई गहन ज्ञान है न कोई महान नैतिक सिद्धान्त, पर इस के तार्किक निहितार्थों को एक साथ देखना मुझे जरूरी लगता है। तभी हम इस विचार और टिप्पणी की गंभीरता और उस से संभव नुकसान को ठीक से देख पाएंगे। यह विश्लेषण भी मैं सिर्फ एक दिशा मेन कर रहा हूँ, इस के निहितार्थ समझने की दिशा में। नूपुर शर्मा के मुकदमे पर इस का क्या प्रभाव हो सकता है यह इस लेख का विषय नहीं है। बस इस कथन या लताड़ के निहितार्थ भर समझना चाहता हूँ।

  1. देश में क्या हो रहा है? नूपुर की टिप्पणी के बाद हुई कुछ चीजें (सब नहीं)
    1. मुसलमानों द्वारा उग्र प्रदर्शन हुए हैं, हिंसक दंगा हुआ है, पुलिस की गोली से दो ( शायद ?) लोग मरे हैं, “सिर तन से जुदा” के नारे लगे हैं, लोगों ने नूपुर को मारने की कासमें खा कर उनके विडियो सामाजिक माध्यमों पर प्रसारित किए हैं, मारने के लिए दूसरों को उकसाया है, इनाम घोषित किए हैं, नूपुर के समर्थन करने वाले एक व्यक्ती की जघन्य हत्या हुई है, उस का विडियो वाइरल करके और लोगों को मारने का आग्रह किया है, एक और व्यक्ती की हत्या भी नूपुर के समर्थन से जुड़ी है या नहीं इस की जांच चल रही थी। अब यह सामने आया है कि यह भी इसी कड़ी का हिस्सा है, अर्थात दो हत्याएँ हो चुकी हैं।
    1. हिंदुओं द्वारा “कट्टर मुल्लों” को “काटने” ने नारे लगे हैं, श्री राम को नबी का बाप घोषित करने वाले नारे लगे हैं। नूपुर के समर्थन में जुलूस निकले हैं।
  2. सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि इन सब के लिए “अकेली” नूपुर जिम्मेदार है। इसे हम कैसे समझें?
    1. निहितार्थ 1:
      1. मुहम्मद के बारे में ऐसी टिप्पणी से जिसे मुसलमान पसंद नहीं करते, (चाहे वह उन्हीं के शास्त्रों के अनुसार सत्य हो), मुसलमान भड़काते हैं। यह भड़काना या तो एक यांत्रिक क्रिया है, जो बिना सोचे समझे होती है; या स्वाभाविक है। पर दोनों स्थितियों में इस प्रतिक्रिया पर उनका बस नहीं है। क्यों कि उनका बस होता तो भड़कने या ना भड़कने का चुनाव वे खुद कर सकते थे। और ऐसे में ज़िम्मेदारी नूपुर की नहीं भड़कने वाले मुसलमानों की भी होती। इस का अर्थ यह हुआ कि मुसलमान अपने ऊपर बिना नियंत्रण वाले मतारोपित (indoctrinated) व्यक्ति हैं, जिन की व्यक्तिगत चुनाव और अपने कर्मों की ज़िम्मेदारी की योग्यता या तो विकसित नहीं हुई या फिर खत्म हो गई है।
      1. भड़काने के बाद हिंसा और हत्याएँ भी स्वचालित, बिना आत्म-नियंत्रण के होती हैं, उन पर भी मुसलमानों का कोई बस नहीं हैं। अतः वे जिम्मेदार नहीं हैं।
      1. पर मुसलमान तो हम सब के समान अधिकारों वाले भारतीय नागरिक हैं। और नागरिकता सिर्फ आत्म-नियंत्रण और स्वयं के लिए जिम्मेदार व्यक्ति की ही होती है। ऐसा नहीं हो तो नागरिक को किसी अभिभावक की जरूरत होती है जो उस के लिए जिम्मेदार हो, उसके लिए निर्णय ले। वयस्क मुसलमान तो स्वतंत्र नागरिक है, हम सब मानते हैं। हम उनके समान अधिकारों की बात कराते हैं, अधिकार बिना ज़िम्मेदारी के नहीं होते।
      1. नूपुर की ज़िम्मेदारी होने की टिप्पणी का यह अर्थ तो कोई भी भारतीय नागरिक नहीं मानेगा, कोई भी मुसलमान नहीं मानेगा। कोई भी कथित-उदारवादी भी नहीं मानेगा, वे तो सदा मुस्लिम अधिकारों की ही बात करते रहते हैं। और मुसलमानों को स्वयं के कर्मों की ज़िम्मेदारी से इस अर्थ में मुक्त करना तो उनके अधिकारों को भी छीन लेगा। जहां तक मैं समझता हूँ, यह अर्थ तो सर्वोच्च न्यायालय भी नहीं मानेगा।
      1. अतः सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी का यह निहितार्थ तो नहीं हो सकता कि मुसलमान अपने कामों के बारे में सोच कर निर्णय नहीं ले सकते, कि उनका अपनी प्रतिक्रिया पर नियंत्रण नहीं है।
    1. निहितार्थ 2
      1. मुसलमानों में अपने कामों और कथनों का चुनाव करने की और उनपर नियंत्रण की योग्यता तो सभी इंसानों, भारतीय नागरिकों सहित, जैसी ही है। पर मुहम्मद पर टिप्पणी से उनको गुस्सा आता है, गुस्से में वे हिंसा करते हैं, हत्याएँ भी करते हैं।
      1. ये हत्याएँ और हिंसा उन के धर्म-शास्त्रों के अनुसार जायज ही नहीं बल्की अनिवार्य हैं। इस लिए उनको यह करने का हक़ है। तो ज़िम्मेदारी उस व्यक्ति की (नूपुर की) हुई जिसने इस जायज गुस्से, हिंसा और हत्या को आरंभ करने वाली टिप्पणी की। यही हिंसा करने वाले मुसलमानों की भी मान्यता है।
      1. यदि यह निहितार्थ मान्य है तो 1929 (?) में राजपाल की हत्या से लेकर आज तक नबी और इस्लाम की शान में गुस्ताखी के नाम पर जितनी हत्याएँ हुईं वे सब जायज हैं, उन में मुसलमानों का कोई दोष नहीं है। आगे यदि मुसलमान किसी बात/कथन पर नाराज हो जाते हैं, और कथन करने वाले या उस को समर्थन देने वाले की हत्या कर देते हैं, तो यह उस व्यक्ति की स्वयं की ज़िम्मेदारी है। मुसलमानों की नहीं।
      1. अर्थात भारत के नागरिकों को इस्लाम से संबन्धित वही बात कहनी चाहिए जिसकी इजाजत मुसलमान देते हैं। भारतीय संविधान इस क्षेत्र में मुसलमानों की इच्छा के आधीन है।
      1. पर मुसलमान तो सिर्फ इस्लाम पर कुछ कहने से ही नाराज नहीं होते; वे तो मस्जिद के आगे संगीत से, सड़क रोक कर नमाज पढ़ने से माना करने पर, मस्जिद से अजान के शोर की शिकायत करने पर, और आम जीवन की ऐसी बहुत सी चीजों पर नाराज होते हैं। तो अर्थ यह हुआ की भारत के बाकी नागरिकों को अपना जीवन मुसलमानों की मान्यताओं के अनुसार जीना चाहिए। नहीं तो मारे जाएंगे, और यह मारा जाना जायज होगा।
  3. निहितार्थ 2 को मानने के कारण:
    1. ऐसा लगता है की कथित-उदारवादियों और न्यायालय की मान्यता कि “देश में जो हो रहा है उस के लिए अकेली नूपुर जिम्मेदार है” की परतों को तर्क से उधेड़ते जाएँ तो अंत में निहितार्थ 2 पर आकार टिकेगी। वे साफ तौर पर इसे स्वीकार तो नहीं कराते, शायद इतने कड़े ढंग से मानते भी ना हों, पर अर्थ तो यही निकलता है।
    1. पर यह तो बहुत खतरनाक मान्यता है। इसे अपने होशो-हवास में नातो कथित-उदारवादी स्वीकारेंगे ना ही न्यायालय। हालांकि उनका व्यवहार और उन के कथन यही सिद्ध करते हैं।
    1. तो फिर उन के ऐसे खतरनाक सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार करने, भाषण देने, पर दूसरों के सामने बोल कर स्वीकार ना करने के क्या कारण हो सकते हैं? मैं नहीं जनता।
    1. पर एक अनुमान यह हो सकता है कि वे जानते हैं कि कुछ मुसलमान मुहम्मद, कुरान और इस्लाम पर कुछ कहने से नाराज होंगे। कि वे हिंसा करेंगे, हत्या भी कर सकते हैं।
    1. पर भारतीय राज्य में, न्याय व्यवस्था में और समाज में इतना साहस और ताक़त नहीं है कि वे मुसलमानों की इस हिंसा को रोक सकें। वे सब इन मुसलमानों के सामने असहाय हैं।
    1. जब किसी बुराई को रोक नहीं सको तो जीवन बचाने के लिए, व्यवस्था बचाने के लिए, देश बचाने के लिए उसे स्वीकार करलो। मुझे लगता है असली सिद्धान्त यह है। बाकी लफ्फाजी है।
    1. इस का अर्थ यह है की समाज, देश, हमारा चिंतन और हमारी जुबान; मुसलमानों के पास बंधक है।
    1. यह हद दर्जे की कायरता है।

कथित-उदारवादी आपनी विचारधारा के चलते और उस विचारधारा से मिलने वाली प्रशंसा के फ़ायदों के लिए इस कायरता को स्वीकार कर सकते हैं। वे ऐसा भी मान रहे हो सकते हैं कि वास्तव में अल्पसंख्यकों का यह अधिकार होता ही है। पर ऐसा लगता नहीं। क्यों की हिंदुओं के इस अधिकार को वे पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान में स्वीकार नहीं करते। वे अपनी भारतीयता और हिन्दू को दोषी मानने की आदत के चलते यह भी मान सकते हैं की सारा दोष है ही हिंदुओं का। पर इस के लिए उन्हें पूरी तरह मतारोपित (indoctrinated) या मूर्ख मानना होगा। मेरे विचार से वे विवेचना शक्ति रखने वाले औसत से ज्यादा बुद्धिमान लोग हैं, तो कारण मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ। पर शायद वे यह मानते हैं कि भारत के लिए बहुसंख्यक हिंदुओं का सांप्रदायिक हो जाना, अल्प संख्यक मुसलमानों की सांप्रदायिकता से ज्यादा खतरनाक है। अतः हिंदुओं को लगातार दोष दे कर, अपराध बोध के सहारे उनकी सांप्रदायिकता को नियंत्रित करना चाहते हों। इस पर कभी फिर लिखूंगा जब मुझे कुछ और ठीक से समझ आ जाएगा। यहाँ सवाल यह है की भारतीय समाज इस कायरता को क्यों स्वीकार करे? भारतीय समाज में मैं सभी मजहबों और धर्मों को मानने वालों की बात कर रहा हूँ। एक कारण यह हो सकता है की मजहबी-अंधे मुसलमानों की मुख्य टकराहट हिंदुओं से है। अतः बाकी अपने आप को या तो निरपेक्ष मान रहे हैं या सुरक्षित। इस लेख में उनको मैं बस बाकी दुनिया के देशों को देखने भर की सलाह दूंगा।

तो फिर हिन्दू इस को क्यों स्वीकार करें? और जो लोग इस कायरता को स्वीकार नहीं करना चाहते उनके पास तरीका क्या है? आरिफ़ मुहम्मद खान आरती टिक्कू के साथ एक वार्तालाप (https://www.youtube.com/watch?v=wsCO2Dt5hUE) में इस भय से निजात पाने का और इस पर हत्याएं करने वालों को जवाब देने का और सरकार की आँख खोलने का एक तरीका बताते हैं। इस विडियो को 13 से 16 मिनट तक सुनें। वे कुछ भिन्न परिस्थितियों में स्पेन का उदाहरण देते हैं। पर वह तरीका वर्तमान भारतीय परिस्थिति में और सामाजिक माध्यमों को काम में लेते हुए यहाँ भी सफ़ल हो सकता है। श्री खान का स्पेन में ईसाई युवकों द्वारा अपनाया तरीका तो आप स्वयं सुनलें। यहाँ उसका परिवर्तित रूप नीचे लिखे कुछ बिन्दुओं के आधार पर बनाया जा सकता है:

  • पहले यह समझें की ईशनिन्दा को सामान्यकृत किसी एक मजहब के लिए नहीं किया जा सकता। छूट लेनी है तो सब से लेनी होगी।
  • आज कल हिन्दू भी ईशनिन्दा (यह उनकी अवधारणा ही नहीं है, वे प्रतिकृया में मुसलमानों की नकल कर रहे हैं) के लिए गिरफ्तार और दंडित करने की बात करने लगे है। उन्हें समझना चाहिए कि यह गलत दिशा है।
  • इस मुहिम में भाग लेने वालों को पहले चरण में मुहम्मद और देवी-देवताओं को अपमान जनक रूप से पेश नहीं करना चाहिए। बल्कि आज के सहृदय व खुश इंसान के रूप में पेश करना चाहिए।
  • उदाहरण के लिए मान लीजिये हो सामाजिक माध्यमों पर हजारों-लाखों लोग एक साथ कृष्ण के साथ या काली के साथ बातचीत करने हुए, हँसते हुए और हाथ में मदिरा का पात्र और सामने स्टीक रखी हुई दिखाएँ। दृश्य बैठक व्यवस्था आदि की दृष्टि से महाभारत कालीन हो सकता है।
  • इसी तरह मुहम्मद को भी हाथ में मदिरा के गिलास और सामने सलामी या सोसजेज़ के साथ दिखाएँ। दृश्य मुहम्मद के जमाने की अरब संस्कृति के अनुसार हों सकता है।
  • ये दृश्य दोनों तरह के कट्टर लोगों को आपत्ति जनक लगेंगे। पर हजारों (कम से कम 50 हजार) एक दिन में एक साथ पोस्ट होंगे तो न कट्टर पंथी कुछ कर पाएंगे, ना ही सरकार। फिर बात-चीत भी ऐसी दिखाई जा सकती है जो सम्मान जनक पर सवाल करने वाली है।
  • यदि यह चरण सही-सलामत पार हो जाये तो आगे सोचा जा सकता है।

यह मैं किसी को चिड़ाने के लिए करने की बात नहीं कर रहा, बल्की मजहब और धर्म पर आलोचना की स्वतन्त्रता, जो कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हिस्सा है, को समाज में सहज मान्यता दिलवाने के लिए करने की बात कर रहा हूँ। शालीनता पर दृढ़ता के साथ। पर इस के लिए एक अच्छी मजबूत रीढ़ की हड्डी, तथा साफ और ईमानदार दिमाग की जरूरत है। मैं नहीं जनता भारत में ये चीजें जरूरी मात्रा में उपलब्ध हैं या नहीं।

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2 जुलाई 2022

रोहित धनकर

यहाँ अभिव्यक्त विचार मेरे हैं। मैं जिन संस्थाओं से जुड़ा हूँ उनके नहीं, नाही वे संस्थाएं इन विचारों का समर्थन करती हैं।

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