रोहित धनकर
विद्यालय में की जाने वाली एक प्रार्थना:
“लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
हो मेरे दम से यूंही मेरे वतन की जीनत (खूबसूरती)
जिस तरह फूल से होती है चमन की जीनत
ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत यारब
इल्म की शम्मा से हो मुझको मुहब्बत यारब
हो मेरा काम गरीबों की हिमायत करना
दर्दमंदों से ज़ईफों से मुहब्बत रखना
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझ को”
इस प्रार्थना पर उत्तर प्रदेश में शिक्षकों के विरुद्ध शिकायत दर्जी हुई है, ऐसी खबर है। मुझे पता नहीं कि यह बिलकुल वही प्रार्थना है जिस पर शिकायत हुई है, क्यों कि इस के एक से अधिक रूप इंटरनेट पर उपलब्ध है। पर सब में ये पंक्तियाँ भी है। अतः यह जिस पर ऐतराज हुआ है उस प्रार्थना से बहुत अलग नहीं होनी चाहिए।
इस प्रार्थना में ऐसा क्या है जिस पर ऐतराज हो? मेरे विचार से कुछ भी नहीं। और मैं मानता हूँ की इस पर ऐतराज करना गलत है। मुझे विद्यालयों में सभी प्रार्थनाएं काबीले ऐतराज लगती हैं। कोई भी प्रार्थना नहीं होनी चाहिए। पर यदि होती है, तो यह उतनी ही कबीले ऐतराज है जितनी अन्य प्रार्थनायें। पर असल बात इस प्रार्थना का अर्थ नहीं है। असल बात राजनीति का एक रूप है, जिस के चलते इस पर शिकायत की गई है।
इस समस्या को समझने की कोशिश करते हैं। सब से पहले तो इन पंक्तियों को देखिये: “मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको, नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझ को”। अब इन पंक्तियों की तुलना कुरान की इन आयतों से करिए: 1.6 और 7 “हमें सीधा रास्ता दिखा। उन लोगों का रास्ता जिन पर तूने फ़्ज़्ल किया। उनका नहीं जिन पर तेरा गज़ब हुआ और न उन लोगों का जो रास्ते से भटक गए।” आयात 1.5 पढ़ने से साफ पता चलता है कि यह अल्लाह को मानने और केवल और केवल उसी की इबादत से संबन्धित है। 1.5 “हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझी से मदद चाहते हैं।” मौलाना आज़ाद ने साफ किया है यहाँ अर्थ यह है कि हम किसी भी और की इबादत नहीं करते। यह केवल अल्लाह की इबादत करने की बात नहीं है, बल्की और किसी की भी इबादत करने की मनाही भी है।
तो इस अर्थ में सही राह क्या है? “अल्लाह की और केवल उसी की इबादत करना”। और ये कौन हैं जिन पर गज़ब हुआ अल्लाह का? हिलाली के अनुसार यहूदी और ईसाई। क्यों? क्यों कि उन लोगों ने अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत की। तो ये आखिरी पंक्तियां सिर्फ और सिर्फ अल्लाह को, और किसी को भी नहीं, मानने से संबन्धित हो सकती है।
पर ऐसे तो सभी प्रार्थनाओं को किसी न किसी मजहबी किताब से जोड़ कर, और उस की ऐतराज वाली बातों की तरफ ध्यान दिला कर, अनुचित ठहराया जा सकता है। कोई भी प्रार्थना, चाहे उसमें राम का नाम आए, ईश्वर का या अल्लाह का, इस तरह की समस्याओं से बाहर नहीं होगी। यहाँ हमें यह समझना पड़ेगा कि “अल्लाह”, “गॉड” और “ईश्वर” की धारणाओं में फर्क हैं। आम बोलचाल में हम इन्हें एक ही मानते हैं। पर अल्लाह और गॉड अपने अलावा किसी और की इबादत को दंडित करते हैं। ईश्वर नहीं करता। अर्थात ईश्वर अल्लाह और गॉड को स्वीकार कर सकता है, पर अल्लाह और गॉड ईश्वर को और एक-दूसरे को नहीं। यह भी शास्त्रीय अवधारणा के बारे में हैं। आम लोग तो एक साथ जीना चाहते हैं और उन्हें एक ही मानते हैं। अतः इस पर ऐतराज भी कोई अच्छी बात तो नहीं है।
फिर भी यदि हम इस समस्या को समझना चाहते हैं तो हमें इतिहास में पीछे जाना पड़ेगा। हमें यह देखना होगा कि बहुत से मुसलमानों को “वंदे मातरम” और “भारत माता की जय” से ऐतराज है। ये दोनों ऐतराज एक ही श्रेणी के हैं। यदि आप कुछ मुसलमानों के “वंदे मातरम” और “भारत माता की जय” को बुरा भला नहीं कहते तो आप कुछ हिंदुओं के “मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको” पर ऐतराज को भी बुरा-भला नहीं कह सकते।
मुझे नहीं लगता इन पंक्तियों पर ऐतराज करने वाले हिंदुओं को वास्तव में “पंक्तियों” से ऐतराज है। उन्हें “वंदे मातरम” पर ऐतराज से ऐतराज है। उन्हें हमारे कथित बौद्धिकों के दोगलेपन से ऐतराज है।
अंत में एक बार फिर: मैं इन पंक्तियों पर बवाल को बिलकुल अनुचित और समाज में दुराव पैदा करने वाला काम मानता हूँ। पर मैं “वंदे मातरम” पर ऐतराज को भी अनुचित और समाज में दुराव पैदा करने वाला काम मानता हूँ। और यह भी मानता हूँ कि शुरुआत “वंदे मातरम” (और ऐसी ही अन्य चीजों) पर ऐतराज से हुई है। यह उस की प्रतिकृया है। यदि हम इन चीजों को रोकना चाहते हैं तो हमें दोनों से खुलेपन का आग्रह करना पड़ेगा। इस में भेदभाव शायद अब और नहीं चलेगा।
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24 दिसंबर 2022
I have objection on “इश्वर अल्ला तेरो नाम” used by Gandhiji in the bhajan “रघुपति राघव राजा राम”.
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