लोकतंत्र को ख़तरा किस से है?


रोहित धनकर
लोकतंत्र के समाप्त होने के, संविधान ख़त्म करने के और अधिनायकवाद या फासीवाद स्थापित होने के नारे पिछले १० साल में बार बार लगते रहे हैं। मैं नहीं मानता कि उन नारों में कुछ सच्चाई थी। वे सब झूठ के पुलिंदे थे। मैं बीजेपी समर्थक कभी नहीं रहा हूँ, अब भी नहीं हूँ। पर मुझे लगता है सत्य, स्वतंत्रता और समानता पार्टियों और मज़हबों से बड़े मूल्य हैं। और जहां वे ख़तरे में होते हैं तब हमें सचेत हो जाना चाहिए। पर स्वतंत्रता और उच्छृंखलता में फ़र्क़ भी होता है। स्वतंत्रता किन्ही सार्वस्वीकृत नियमों (संविधान, क़ानून) के दायरे में स्व-निर्देशित व्यवहार को कहते हैं; और उच्छृंखलता नियमों को ताक पर रख कर अपनी मनमर्ज़ी करने का नाम है। स्वतंत्रता लोकतंत्र का प्राण है, आधार है। उच्छृंखलता लोकतंत्र की बीमारी है, जो हद से गुजर जाने पर लोकतंत्र का अंतिम क्रियाकर्म कर सकती है। लोकतंत्र को ख़तरा स्वतंत्रता के बाधित होने से भी आ सकता है और उच्छृंखलता को बढ़ावा देने से भी। मैं समझता हूँ कि इस वक्त लोकतंत्र को दूसरे प्रकार का ख़तरा है।
प्लेटो के रिपब्लिक में नीचे दिया संवाद इसी उच्छृंखल स्थिति के बाद तानाशाही ख़तरे की बात करता है, इसे थोड़ा ध्यान से पढ़िये:
[“क्या इसी प्रकार जनतंत्र के विनाश का कारण भी उसी वस्तु की अत्यधिक वासना नहीं है जो जनतंत्र का लक्षण बतलाई जाती है तथा जो उस (जनतंत्र) की दृष्टि में श्रेय की कसौटी है?”
“तुम इसका लक्षण या कसौटी किसको कहते हो?”
मैंने उत्तर दिया, “स्वतंत्रता को। क्यों कि तुम कहा जाता हुआ सुनोगे कि यह स्वतंत्रता अपने सुंदरतम रूप में जनतांत्रिक राष्ट्र में ही उपलब्ध होती है, अतएव स्वतंत्र प्रकृति का व्यक्ति केवल जनतांत्रिक शासन में ही रहना स्वीकार करेगा।”
उसने कहा, “सो क्यों नहीं, यह कथन तो तुम सर्वत्र सुन सकते हो।”
मैंने कहा, “तो, जैसा कि मैं अभी कहने वाला था, क्या इसी की अतिशय वासना और अन्य सब वस्तुओं की अवहेलना ही वह चीज नहीं है जो इस शासन प्रणाली में भी क्रांति उत्पन्न कर के तानाशाही की आवश्यकता के लिए पथ प्रशस्त करने वाली है।”
उसने पूछा, “कैसे?”
“मैं समझता हूँ कि जब स्वतंत्रता पान करने के लिए तृषित जनतंत्र राष्ट को नेताओं के स्थान में बुरे चषकवाहक (साक़ी) मिलजाते हैं, तथा जब वह राष्ट्र इस अविमिश्रित शुद्ध मदिरा (स्वतंत्रता) से छक कर मदमस्त्त हो उठता है तो यदि उस के तथाकथित शासनकर्ता उसके प्रति अतिशय मृदुलता और विनम्रता का व्यवहार नहीं करते तथा उसके प्रति स्वतंत्रता का अत्यधिक मात्रा में वितरण नहीं कराटे तो यह यह उनको दंड देता है और उनके ऊपर अभिशप्त ऑलीगार्क (बनियाशाह) होने का दोषारोपण करता है।”
उसने उत्तर दिया, “हाँ, वे ऐसा ही करते हैं।”
मैंने कहा, “यह तो है ही। और जो लोग शासकों की आज्ञा मानते हैं उनका यह राष्ट्र, इन को स्वेच्छादास और निरर्थक व्यक्ति कह कर निरादर करता है, किंतु जो शासक प्रजाओं के समान होते हैं अथवा जो प्रजाजन शासकों के सदृश होते हैं इनको वह सार्वजनिक और व्यक्तिगत रूप में प्रशंसा और आदर प्रदान करता है। क्या यह बात अनिवार्य नहीं है कि ऐसे राष्ट्र में स्वतंत्रता की भावना मर्यादा के छोर तक पाँच जाये?”
“अवश्यमेव।”]
यह उद्धरण मैं इस लिये नहीं दे रहा हूँ कि प्लेटो ने रिपब्लिक में जो कुछ लिखा वह सब सही है, पर वर्तमान स्थिति को समझने के लिए ये सटीक उदाहरण है।
लोकतंत्र क्यों कि स्वतंत्रता, समानता और व्यक्ति-गरिमा पर टिका होता है; इस लिये इस के बने और विकसित होने के लिए लोगों का व्यवस्थाओं में भरोसा होना ज़रूरी है। भरोसे का अर्थ यह नहीं होता कि व्यवस्था के हर अंग (संसद, चुनाव आयोग, उच्चतम न्यायालय, आदि) को हर बात में एकदम सही माना जाये। ये संस्थाएँ ग़लतियाँ कर सकती हैं, इनका दुरुपयोग भी संभव है सत्ता के द्वारा। पर ज़िम्मेदार नागरिक, राजनैतिक दल, राजनेता और कथित बुद्धिजीवियों (यदि इन में अभी भी बुद्धि बची हो) का यह कर्तव्य होता है कि वे इनकी ग़लतियों को सत्य और विवेक के आधार पर बिना इन पर भरोसा ख़त्म किए सुधारें, सुधारने की कोशिश करें। ना कि झूठ फैलाकर इन संस्थाओं में भरोसा ही ख़त्म कर दें।
अभी तजा बात है इस लिये हम सभी जानते हैं कि कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने वोटिंग मशीन में भरोसा तोड़ने की भरपूर कोशिश की। चुनाव आयोग में भरोसा तोड़ने की भरपूर कोशिश की। जब इन को कुछ हद तक अच्छे नतीजे मिले तो अब पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अवैध बताने की कोशिश ज़ोरों पर है। बड़े नेता (जयराम रमेश और ममता बैनर्जी) बीजेपी की आज सपथ लेने वाली सरकार को अवैध कह रहे हैं। योगेन्द्र यादव का फ़रमान है कि इस सरकार के पास जनादेश नहीं है, और नाही इक़बाल (सरकार चलाने के लिये ताक़त)। यह पूरी प्रक्रिया को अवैध ठहराना है। और एक पूरी फ़ौज इन आप्त-वचनों को फैलाने में लगी है।
इन से पूछा जाना चाहिए कि संवैधानिक तरीक़े से चुनी हुई सरकार अवैध कैसे है? यदि गठबंधन के बहुमत से कांग्रेस की कई सरकारों के पास जनादेश माना गया था तो इस सरकार के पास क्यों नहीं? जनादेश चुनाव में बहुमत के अलावा और कहाँ से आता है? इस का वह गुप्त स्रोत क्या है जो श्री रमेश, सुश्री बैनर्जी और श्री यादव जानते हैं, पर भारतीय जनता नहीं जानती? यह कोई आध्यात्मिक चीज़ है क्या को नेहरू परिवार के पास ही सुरक्षित रहती है? इक़बाल है कि नहीं यह तो सरकार बनाने के बाद पता चलेगा।
ये दावे और इस तरह के आख्यान (narratives) लोगों के मन में देश के ढाँचे के प्रति अविश्वास फैलाते हैं। विदेशों में लोगों को यह कहने का आधार देते हैं कि भारत में लोकतंत्र नहीं है। जिस देश में ६० करोड़ से ऊपर लोगों ने मतदान किया हो, हिंसा बहुत कम हुई हो, आराम के अगली सरकार बन रही हो, विपक्षियों को अपनी सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ (जो दसकों से करते रहे हैं) की स्वतंत्र हो; वहाँ वैधता ना होने, जनादेश ना होने के क्या अर्थ हो सकते हैं? शिवाय इसके कि ‘वैधता और जनादेश वह है जो हम चाहते हैं, जो हमें ना पसंद है वह सब अवैध’। इस के अलावा जनता ने कोई निर्णय किया तो यातो वह मूर्ख है या उस के निर्णय की वैधता नहीं है। अजीब बात है, इस प्रकार के आत्मकेन्द्रित विचार रखने वाले और लोक के निर्णय को अवैध बताने वाले लोकतंत्र की बात करते हैं!
इस के साथ अब कुलविंदर कौर के दुष्कृत्य को मिलने वाले समर्थन, उसे दंड से बचाने के लिए चलाई जाने वाली मुहिम और विपक्षी दलों तथा कथित बुद्धिजीवियों की इस मामले पर चुप्पी को मिलाकर देखिए। एक तरफ़ सरकार को अवैध बताना, जनादेश विहीन और इक़बाल-हीन बताना; और दूसरी तरफ़ जातीवाद (जाट वाद) और किसान-वाद के नाम पर ऐसा महोल बनाना कि सरकार को कुलविंदर के साथ नरमी बरतनी पड़े। कुलविंदर को विधि सम्मत दंड ना देपाने पर सरकार इक़बाल-हीन सिद्ध हो जाएगी। दंड दिया तो जाट किसान-वाद के नाम पर झूठा आंदोलन खड़ा हो जाएगा। इस आंदोलन में ख़लिस्तानी तत्व मुखर रूप से सामने आयेंगे (पिछला किसान आंदोलन याद करिए)। इसे देखते हुए सरकार को कड़ाई करनी पड़ेगी। कड़ाई की तो, लोगों को आंदोलन की स्वतंत्रता नहीं है के नारे लगेंगे। साथ ही चुनी हुई सरकार के अवैध होने और उसके पास जनादेश ना होने का आख्यान आपने चला ही रखा है। तो आप अराजकता और झूठे आख्यानों के आधार पर लोकतंत्र की जड़ों पर कुठाराघात करेंगे।
यह ज़िम्मेदार नागरिकों, दलों और बुद्धिजीवियों का व्यवहार तो नहीं है। सत्ता के लिए ललचाये हुए, और उसे किसी भी क़ीमत पर हथियाने की कोशिश करने वालों का ज़रूर है।
इधर कुछ अतिउदारों को यह बात समझ में नहीं आरही कि ड्यूटी पर तैनात सुरक्षा-कर्मी का अपने व्यक्तिगत, या सामूहिक, आक्रोश के आधार पर किसी पर आक्रमण (१) भारतीय नागरिक के नाते अपराध है, और (२) सुरक्षा-कर्मी के नाते अनुशासनहीनता है। उन्हें अपने भावनात्मक लगावों के कारण यह नहीं दिख रहा कि कुलविंदर और सातवंत सिंह के दुष्कृत्यों में फ़र्क़ सिर्फ़ मात्रा (डिग्री) का है, श्रेणी (category) या गुण-अवगुण (quality) का नहीं। आप थोड़े आक्रोश (धरने पर बैठने वालों को पैसे के लिए आये बताना) के लिए थप्पड़ मारने को जायज़ बतायेंगे तो बड़े आक्रोश (धर्म पर आक्रमण) के लिए हत्या को भी जायज़ बताना पड़ेगा। या फिर विवेक का पल्ला छोड़िए और यह कहिए कि आप के लिये आपकी भावना ही अंतिम कसौटी है। पर याद रखिए, यह कहते ही बाक़ी सभी को भी सिर्फ़ भावना के आधार पर निर्णय और कर्म का अधिका मिल जाता है। आप ऐसा समाज चाहते हैं तो ज़रूर उस के लिये कोशिश करें, आप का हक़ है। पर फिर बौद्धिक होने, सुविचारित बात कहने, नागरिकता और समानता आदि की लफ़्फ़ाज़ी बंद कर दीजिए। ये दोनों वैचारिक धाराएँ एक साथ नहीं चल सकती।
दूसरी तरफ़ बीजेपी और उसकी सरकार है। इन के पास १० वर्ष थे। इस दस वर्षों में उस ने बार बार सिद्ध किया कि उसके पास वैचारिक दृढ़ता नहीं है। वह डरपोक है, सुविधा के अनुसार निर्णय लेती है; न्याय और सत्य के अनुसार नहीं। इस में कुछ अच्छे निर्णय लिये: धारा ३७० हटाना, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (Citizenship (Amendment) Act), मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, आदि। भारतीय कृषि अधिनियम 2020 सरकार में हिम्मत की कमी के कारण वापस लेना पड़ा। यह मैं इस लिये कह रहा हूँ कि उसे वापस लेने के बजाय सुधार बेहतर रहता। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (जो कि निहायत ज़रूरी है) के मामले में इतना डर गई सरकार कि उसकी बोलती ही बंद हो गई।
पर बीजेपी सरकार ने ग़लतियाँ भी की हैं। राम मंदिर को अत्यधिक महत्व देना और प्रधानमंत्री का पद पर रहते हुए अतिशय धार्मिकता का प्रदर्शन। सभी गौहत्या बंदी संबंधी अधिनियम (राज्यों में) और गौ-हत्या पर होने वाले बवालों को ना रोक पाना, आदि। लेकिन इन से ना तो संविधान को कोई ख़तरा था नाहीं लोकतंत्र को। संविधान में अब तक सौ से कुछ ऊपर संशोधन हो चुके हैं। इन में से निन्नावे तो २०१३ से पहले ही हो चुके थे। यदि इन सशोधनों के बावजूद संविधान और लोकतंत्र ज़िंदा रहे तो कुछ और हो जाने पर भी रहते, और रहेंगे; क्यों की संशोधन तो होंगे।
बात का लब्बो-लबाब (वह जो कुछ भी होता हो) यह है कि सरकार के नूर्णयों और कार्यों के गुण-अवगुण देखे बिना हर निर्णय का विरोध लोकतंत्र को ठप्प करने की साजिस होती है। संस्थानों के हर उस निर्णय का विरोध जिसे आप ना पसंद करते हैं, उन संस्थानों के प्रति विश्वास को कम करता है। यह लोकतंत्र की जड़ों में तेल देना है; और ऐसा करने वालों की अलोकतांत्रिक मानसिकता को उजागर करता है। जनता और प्रक्रियाओं का अपमान है। देश की छवि को अकारण धूमिल करता है, जिसका नुक़सान हर भारतीय को होता है।
इस वक़्त भारत में दोनों बड़े राजनैतिक दल बुरे हैं, कोई भी अच्छा नहीं है। बीजेपी में बुराइया हैं, उसमें मुसलमान विरोध का स्वर भी है। पर वह मुसलमानों को दोयम दर्जे के नागरिक नहीं बनाना चाहती। बस उन्हें विशेष रियायतें देने से उसे परहेज़ है। और मुसलमानों में एक बड़े तबके की उग्र-आक्रामकता को वह सहन नहीं करना चाहती। कांग्रेस में भी बुराइयाँ है। वह रीढ़विहीन चापलूसों की अधिनायकवादी पार्टी है, जो नेहरू-गांधी परिवार की जेब में बैठी है। उस का हिंदू विरोध अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का नतीजा है; जो कि कांग्रेस की १९२० के बाद की स्थाई नीति है। लंबी अवधि में भारत में लोकतंत्र को हिंदुत्व से नहीं तुष्टिकरण से ख़तरा है। अभी कांग्रेस का आख्यान (narrative) संचालन में पलड़ा भारी है; इस लिये नहीं की उसकी नीतियाँ बेहतर हैं। बल्कि इस लिये की उस के पास आख्यान-संचालन को समझने वाले बौद्धिक है। अतः आम जनता यह सब ठीक से देख-समझ नहीं पा रही। बीजेपी को अपने ही छिछारों में और स्पष्टता की ज़रूरत है, उसे अभी अपनी सैद्धांतिकी दुरुस्त करनी है; और इस काम के लिए उस के पास बौद्धिक-क्षमता नहीं है। तो हम भारतीय नागरिक अभी बहुत ख़तरे में हैं। इस लिये हमें बहुत सावधानी की ज़रूरत है।
हम नागरिक के नाते अपनी विचारधारा के अनुसार समर्थन-विरोध करें, खुल कर करे; पर व्यवस्था में अविश्वास और अराजकता का साथ ना दें। बाक़ी दो या अधिक विचार धाराओं में वैचारिक संघर्ष लोकतंत्र के लिए शुभ ही है।


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