ऋषि सुनक और हिन्दू होना

October 28, 2022

रोहित धनकर

श्री अपूर्वानंद ने ऋषि सुनक पर अपने लेख के साथ ट्वीट किया “ऋषि सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री होना विनायक दामोदर सावरकर के ‘पितृ भूमि-पुण्य भूमि’ वाले सिद्धांत को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है. अब हिंदू धर्म को भारत की क्षेत्रीयता से मुक्त करने का क्षण आ गया है.” यह हिस्सा लेख का अंतिम और कम महत्वपूर्ण भाग है। पर लेख के प्रचार के लिए अपूरवानन्द ने इसे चुना। पूरा लेख बहुत सी ठीक बातें कहता है, जैसे यह उद्धरण: “ऋषि सुनक का प्रधानमंत्री होना ब्रिटेन के लिए अवश्य गौरव का क्षण है क्योंकि इससे यह मालूम होता है कि ‘बाहरी’ के साथ मित्रता में उसने काफ़ी तरक्की की है. इसमें हिंदू धर्म या उसके अनुयायियों का कोई ख़ास कमाल नहीं है.” यह साफ ही है और सभी जानते भी हैं। ऐसी ही और भी बहुत सी बातें ठीक हैं। पर लेख की ध्वनी लताड़ की है, अपने आप को बहुत विज्ञ मानते हुए सुनक की उपलब्धी पर नाचने वाले हीन प्राणियों के प्रति हिकारत की। यह सिर्फ उनके मत का विरोध या उन्हें सही रास्ता दिखाना नहीं, बल्कि गरियाना अधिक है। पर यह उन की मर्जी, जो हिन्दू इस बात पर नाच रहे हैं उन हों ने अपने आप को इस लताड़ के लिए प्रस्तुत किया है, इस मौके का फायदा उठा कर कुछ लोग उन्हें रोशनी दिखा देते हैं तो उन्हें बहुत दोष नहीं दिया जा सकता।

मेरी इस टिप्पणी का उद्देश्य अपूर्वानंद के कुछ गलत नतीजों और गलत बयानी की तरफ इशारा करना है।

सोनिया और सुनक

अपूर्वानंद को लगता है कि कुछ हिंदुओं (क्या सिर्फ हिंदुओं द्वारा?) द्वारा सुनक और सोनिया कि तुलना को ‘असंगत’ मानना गलत है। उन के अनुसार सोनिया का वैसे ही स्वागत होना चाहिए जैसे ब्रिटेन ने सुनक का किया। (वैसे यह बता दें कि ब्रिटेन में सुनक पर बहुत नस्ल वादी आक्रमण भी हो रहे हैं।) सोनिया के प्रधानमंत्री बनाने का विरोध संविधान की दृष्टि से गलत है। पर सोनिया और सुनक की तुलना भी गलत है। सुनक ब्रिटेन में पैदा हुए, पाले-बढ़े-पढ़े। और शायद उस ने ब्रिटेन की राजनीति और अर्थव्यवस्था में योगदान दे कर अपनी योग्यता भी सिद्ध की। सोनिया इटली में जन्मी, नागरिकता सिर्फ तब ली जब राजीव गांधी के राजनीति में आने के लिए जरूरी हुआ। योगदान कुछ नहीं। अतः, दोनों की कोई तुलना नहीं। यह तुलना सच में असंगत है। पर दोहरा दूँ, यह लोगों में स्वीकार्यता के लिए है। जहां तक संविधान का सवाल है, सोनिया को भारत के नागरिक के नाते कोई भी पद प्राप्त करने का उतना ही हक है जैसा किसी और भारतीय को।

हिन्दू चुने हुए जन?

“हिंदुओं में अच्छी खासी संख्या है जो हिंदू धर्म को विशेषाधिकार प्राप्त धर्म मानती है और खुद को चुने हुए जन. इसलिए वह शेष को उन अधिकारों के योग्य नहीं मानती जो उसे मिलने चाहिए. जो श्रेष्ठतावाद गोरे ईसाइयों में पाया जाता है, हिंदू भी उससे ग्रस्त हैं, इसमें संदेह नहीं.”

यह नितांत कुप्रचार है। आजकल कई हिन्दू अपने धर्म को श्रेष्ठ मनाने की बात जरूर करते हैं। पर वे अपने आपको चुने हुए जन नहीं मानते। “चुने हुए जन” की धारणा ही हिन्दू-धर्म में अनुपस्थित है। यह यहूदी धारणा है जो आगे ईसाइयत और इस्लाम में आई। और आज की दुनिया में मुसलमान इस भाव से सर्वाधिक ग्रसित हैं। कुछ हिंदुओं को अपने धर्म को बेहतर मानने का आधार वे उस की सहिष्णुता और खुलेपन को मानते हैं। यह चुंने हुए जन मानना नहीं है। कहा जा सकता है कि फिर भी कुछ लोग हिन्दू-धर्म को श्रेष्ठ तो मानते ही हैं। पर सोचने की बात यह है कि अपूर्वानंद एक बाहरी अवधारणा को, जो दुनिया में बहुत बड़े खून-खराबे का आधार रही है, हिन्दू-धर्म पर चस्पा करके उसे बदनाम कर रहे हैं।

सुनक का भोजन और गोपूजा

सुनक क्या खाते हैं क्या नहीं, इस से हमें कोई लेना देना नहीं है। बहुत से हिन्दू गौमांस खाते हैं। यह उनकी मर्जी। पर श्री अपूर्वानंद का यह कहना कि “स्वयं सुनक को अपने भोजन के अभ्यास और गोपूजा में अंतर्विरोध न नज़र आए, यह भी स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए” ठीक नहीं है। यह इस बात की तरफ इशारा है कि सुनक गौमांस भी खाते हैं और गौपूजा भी करते हैं, और उन्हें यह अंतर्विरोध नजर नहीं आता। मुझे नहीं पता अब सुनक गौमांस खाते हैं या नहीं। पर उनके अगस्त 2015 में दिये गए एक साक्षात्कार में अंजलि पूरी लिखती हैं “मैं हिन्दू होने के बारे में स्पष्ट हूँ”, वे कहते हैं। उदाहरण के लिए कहा कि वे गौमांस नहीं खाते, “और यह कभी कोई समस्या नहीं बनी।” (“I am open about being a Hindu,” he says. He points out, for instance, that he doesn’t eat beef “and it has never been a problem”.)[1] तो अपूर्वानंद ही जानें वे किस अंतर्विरोध की बात कर रहे हैं।

सुनक, सावरकर और हिन्दू-धर्म

आगे जो अपूर्वानंद जी कह रहे हैं उसकी उन जैसे विज्ञ व्यक्ति से अपेक्षा नहीं थी। उन का कहना है “ऋषि सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री होना विनायक दामोदर सावरकर के ‘पितृ भूमि-पुण्य भूमि’ वाले सिद्धांत को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है. अब हिंदू धर्म को भारत की क्षेत्रीयता से मुक्त करने का क्षण आ गया है.”

सब से पहली बात तो यही है कि सावरकर हिन्दू-धर्म और हिन्दुत्व में फर्क करते हैं। “हिन्दुत्व हिन्दू-धर्म का समानार्थी नहीं है” (“Hindutva is not identical with Hindu Dharma”)[2] (121) अपूर्वानंद “हिंदू धर्म को भारत की क्षेत्रीयता से मुक्त करने का क्षण आ गया” बताते हैं। लगता है उनके लिए यह क्षण बहुत देर से आया, सावरकर ने तो हिन्दू धर्म को भारत की भौगोलिक सीमा में कभी बंधा ही नहीं। सावरकर के लिए हिन्दू-धर्म उन सभी वैदिक और अवैदिक पंथों को समाहित करता है जिनका उद्भव भारत में हुआ। और पंथ में सावरकर की समझ के अनुसार कोई न कोई मजहबी विचार या रूढ़ी (dogma) जरूर होती है, जो कि हिन्दुत्व की धारणा में जरूरी नहीं है। सावरकर के लिए हिन्दू-धर्म भारतीय-पंथों की समग्रता (Indic religions) है। और वे विश्व में कहीं भी हो सकते हैं। ऋषि सुनक यदि मंदिर जाते हैं, गाय की पूजा करते हैं, तो उनके विश्वास कुछ भी हों उन का आचरण हिन्दू-धर्म के दायरे में है, बिना किसी “क्षेत्रीयता से मुक्त” करने की मुहिम के।

पर क्या सावरकर के लिए भारत की भौगोलिक सीमाएं हिन्दुत्व की भी सीमाएं हैं? उनकी पुस्तक “हिन्दुत्व” के अनुसार तो नहीं। वे इसे स्पष्ट रूप से नकारते हैं। भारत से बाहर रहने वाले हिंदुओं के बारे में वे कहते हैं (मेरा काम चलाऊ अनुवाद) “क्या हिंदुस्थान की सीमाओं से बाहर के देशों में रहने भर से कोई गैर-हिन्दू हो जाता है? निश्चय ही नहीं। क्यों कि हिन्दुत्व की पहली शर्त यह नहीं है कि कोई भारत भूमि से बाहर न रहता हो, बल्कि यह है कि वह या उसके वंशज जहां कहीं भी रहते हों, वे सिंधुस्थान को अपने पूर्वजों की भूमि मानते हों।” (“But will this simple fact of residence in lands other than Hindusthan render one a non-Hindu? Certainly not; for the first essential of Hindutva is not that a man must not ‘reside in lands outside India, but that wherever he or his descendants may happen to be he must recognize Sindhusthan as the land of his forefathers.”[3]

सावरकर के अनुसार तो सुनक सिर्फ हिन्दू-धर्म के दायरे में ही नहीं आते, बल्कि हिन्दुत्व के दायरे में भी आते हैं। यहाँ यह साफ कर दें कि सुनक ने ऐसा कुछ नहीं कहा है, ना उनको हिन्दुत्व का हिस्सा साबित करना यहाँ उद्देश्य है। हम तो बस सुनक ने जो कहा उस पर सावरकर की धारणा लगा कर देख रहे हैं। ऊपर बताए गए साक्षात्कार में सुनक कहते हैं: “मैं जनगणना में ब्रिटिश-भारतीय पर निशान लगाता हूँ, इस के लिए हमारे यहाँ एक वर्ग (category) है। मैं पूरी तरह ब्रिटिश हूँ, यही मेरा घर और मेरा देश है, पर मेरी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत भारतीय है, मेरी पत्नी भारतीय है। मैं हिन्दू होने के बारे में स्पष्ट हूँ,” उन्होने कहा। उन्होने बताया, उदाहरण के लिए कि वे गौमांस नहीं खाते, “और इस से कभी कोई समस्या नहीं हुई।” (“British Indian is what I tick on the census, we have a category for it. I am thoroughly British, this is my home and my country, but my religious and cultural heritage is Indian, my wife is Indian. I am open about being a Hindu,” he says. He points out, for instance, that he doesn’t eat beef “and it has never been a problem”.)

तो सुनक कहते हैं कि वे पंथिंक रूप से हिन्दू हैं, अर्थात उन की कथित पुण्य-भूमि भारत है। उनके पूर्वज भारत भूमि से आए हैं, उनकी सांस्कृतिक विरासत भारतीय है। भारत से बाहर रहने वाले हिंदुओं के लिए सावरकर की यही तीन शर्तें हैं।

हिन्दुत्व की धारणा और हिन्दू-वर्चश्व की राजनीति

(इस लेख का आगे का हिस्सा अपूर्वानंद जी के लेख से संबन्धित नहीं है, क्यों की हम सावरकर की बात कर रहे हैं इस लिए लगे हाथ कुछ और टिप्पणियाँ है।)

क्या हिन्दुत्व की धारणा में गैर हिंदुओं से भेद-भाव की भी धारणा शामिल है? यह सवाल पूछना महत्वपूर्ण है क्यों कि एक पूरी जमात है जो हिन्दुत्व की धारणा पर संसार भर में आक्रमण कर रही है। उसे समूल नष्ट करने के लिए गोष्ठियाँ आयोजित करती है। देखते हैं।

सावरकर की बहू-उद्धृत परिभाषा यह है:

आसिन्धु सिन्धु-पर्यन्ता यस्य भारत-भूमिकाः।

पितृभू पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः ॥

(अर्थ: प्रत्येक व्यक्ति जो सिन्धु से समुद्र तक फैली भारतभूमि को साधिकार अपनी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि मानता है, वह हिन्दू है।)

सावरकर अपनी पुस्तक हिन्दुत्व में इस का संदर्भ बार बार देते हैं। कुछ लोग यह भी कहते हैं की यह श्लोक सावरकर ने लिखा है। रामसाद गौड़ अपनी पुस्तक “हिन्दुत्व”[4] में इसे उपयुक्त परिभाषा मानते हैं और साथ ही इस बात का भी जिक्र कराते हैं की कुछ लोगों के अनुसार यह श्लोक लोकमान्य तिलक ने रचा है। जो भी हो, यह सावरकर के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है। 

इस पर विस्तार करते हुए सावरकर “पुण्यभूमि” में दो पहलू देखते हैं। एक, मजहबी या पांथिक; कि भारत भूमि पांथिक दृष्टि से उस व्यक्ति की पुण्यभूमि हो, अर्थात उसके तीर्थ स्थान भारत में हों। दो, उसकी सांस्कृतिक भूमि भारत हो। अर्थात भारतीय संस्कृति को अपनी संस्कृति मानता हो।

भारतीय संकृति को अपनी संस्कृति ना मानने के कारण और तीर्थ स्थान बाहर होने के कारण ही सावरकर मुसलमानों और ईसाइयों को ‘हिन्दू’ नहीं मानते। जहां तक संस्कृति की बात है, यह सिर्फ हिन्दू मानने की बात नहीं है, और ना ही मुसलमानों में बहुतों के इस संस्कृति को अपनी संस्कृति ना मानने का सवाल सिर्फ सावरकर के मन में था। यहाँ तक कि बहुत से मुसलमानों के भारतीय संस्कृति के प्रति रुख को लेकर जवाहर लाल नेहरू भी पाशोपेश में थे। नहीं तो वे 1948 में अलीगढ़ विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में यह सवाल नहीं उठाते। नेहरू ने कहा कि वे भारतीय संस्कृति पर गर्व कराते हैं। और पूछा कि क्या अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छत्र भी इसे अपनी ही संस्कृति मानते हैं या वे इसमें अजनबी महसूस कराते हैं? (“I have said that I am proud of our inheritance and our ancestors who gave an intellectual and cultural pre-eminence to India. How do you feel about this past? Do you feel that you are also shares in it and inheritors of it and, therefore proud of something that belongs to you as much as to me? Or do you feel alien to it and pass it by without understanding it or feeling that strange thrill which comes from the realization that we are the trustees and inheritors of this vast treasure?”[5]) हम सब जानते हैं कि बहुत से मुसलमान आज भारतीय संस्कृति के वारिस मानते हैं अपने आप को। पर यह भी सच है कि ज़्यादातर मौलाना और मुस्लिम राजनीतिज्ञ इस संस्कृति को कुछ पराई सी ही मानते हैं। और मुस्लिम समाज के दिमाग पर उनकी पकड़ बहुत मजबूत है। नेहरू के यह सवाल पूछने का अर्थ है कि सिर्फ हिन्दुत्व को परिभाषित करने के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्रीय समरसता और विकास के लिए भी सांस्कृतिक जुड़ाव जरूरी है।

सवाल को साफ करने के लिए हमें अपने आप को हिन्दू मानने में, अर्थात हिन्दुत्व की यह परिभाषा स्वीकार करने में और भारत या विश्व में हिंदुओं का राजनैतिक या धार्मिक वर्चश्व चाहने में फर्क करना होगा। अवधारणा के तौर पर यह सिर्फ परिभाषा है, जो  हिन्दुत्व की तीन (पूर्वजों संबंधी, पंथ संबंधी और संस्कृति संबंधी) शर्तें बताती है, कि कौन हिन्दू है, कौन नहीं। वर्चश्व की राजनीति आगे बढ़ कर इस दृष्टि से जो हिन्दू हैं उनकी सत्ता चाहती है, और दूसरों को उस से बाहर रखना चाहती है। तो हम “हिन्दुत्व” एक धारणा के रूप में और “हिन्दुत्व-वादी” एक राजनैतिक विचारधारा के रूप में फर्क कर सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे “इस्लाम” या “इस्लामिक” और इस्लामिज्म (Islamism) में करते हैं।

सवाल यह है: क्या हिन्दू-वर्चश्व हिन्दुत्व की परिभाषा में अंतर्निहित है? मुझे नहीं लगता। कोई अपने आप को इन तीन शर्तों के अनुसार हिन्दू मान सकता है, इन को हिन्दू को परिभाषित करने के लिए महत्वपूर्ण मान सकता है; और साथ ही राजनीति में पूरी तरह से बराबरी और समान अधिकारों को समर्पित हो सकता है। हिन्दुत्व, सावरकर के लिए हिन्दू होने तीन शर्तें; और हिन्दू-वर्चश्व की राजनीति करना दो अलग-अलग बातें हैं। इस लिए जो लोग आए दिन हिन्दुत्व की लानत-लमानत करते रहते हैं, हिन्दुत्व को जड़ से उखाड़ने की विश्वव्यापी मुहिम चलाते हैं, वे वास्तव में हिन्दू होने पर आक्रमण कर रहे हैं। और सिर्फ हिन्दू होने मात्र को, अपने आप को हिन्दू संस्कृति का हिस्सा मानने भर को “हिन्दू-वर्चश्ववादी” ठहराते हैं।

सावरकर और उन की हिन्दुत्व की धारणा पर और भी बहुत कुछ कहा जाता है। यह ठीक है की सावरकर की राजनैतिक विचारधारा में बहुत चीजें हैं जिन का विरोध जरूरी है। पर कुछ तोहमतें गलत भी लगाई जाती है। अतः तीन सवाल सावरकर को लगतार गलियाँ देने वालों के लिए:

  • सावरकर ने कहाँ कहा है की मुसलमानों या अल्पसंख्यकों को हिंदुओं से कम नागरिक अधिकार दिये जाने चाहियें? संदर्भ पुस्तक और पृष्ठ सहित दीजिये।
  • सावरकर ने कहाँ कहा है कि अल्पसंख्यकों को हिंदुओं से कम राजनैतिक अधिकार दिये जाएँ?
  • सावरकर ने किसी के भी जनसंहार की बात कहाँ की है?

ये तीनों आरोप हमारे प्रबुद्धजन सावरकर पर लगाते ही रहते हैं, अतः कोई संदर्भ बता सकें तो मदद मिलेगी।

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२८ अक्तूबर २०२२

रोहित धनकर


[1] https://www.business-standard.com/article/opinion/lunch-with-bs-rishi-sunak-115080601060_1.html

[2] V. D. Savarkar, Hindutva, VEER SA VARKAR PRAKASHAN Savarkar Sadan, Bombay 28. P.121.

[3] ibid 119

[4] रामदास गौड़, हिन्दुत्व, प्रकाशक शिवप्रसाद गुप्त, सेवा-उपवन, काशी, विक्रम संवत 1995, पृष्ठ 7। 

[5] Jawaharlal Nehru’s Speeches Volume one, Publication Division, Ministry of Information and Broadcasting, Government of India, 1967, p.335