इन्हें नियंत्रित करना जरूरी है

March 27, 2020

रोहित धनकर

कोविड-19 की मार को कम करने के लिए लागू लोकडाउन के पहले ही दो दिन में कई गैरजिम्मेदाराना घटनाएँ हुई हैं। उन में से कुछ पर छोटी टिप्पणिया हैं इस आलेख में। हमें इस महामारी से पार पाना है तो समूहिक रूप से जागरूक प्रयत्न करने होंगे। और उन प्रयत्नों में बाधा डालने वालों की निंदा भी करनी होगी और उन्हें नियंत्रित भी करना होगा।

एक गैरजिम्मेदार धर्मांध मुख्यमंत्री

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और सारे स्वस्थय संस्थानों ने बार-बार अपने घरों में रहने और एक-दूसरे से दूरी बनाए रखने की सलाह दी है। पूरे देश में लोकडाउन घोषित है। लोकडाउन के दिशानिर्देशों की अनुपालना ना करने वालों को आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 की धारा 51 से 60; और भारतीय दंड संहिता की चारा 188 के अनुसार दंडित करने का प्रावधान है। सारे देश के लोगों को विभिन्न कठिनाइयों के बावजूद घर के अंदर रहने और सामाजिक-दूरी (social distancing) बनाए रखने का कड़ाई से पालन करने की हिदायतें केंद्र और राज्य सरकारों ने दी हैं। लोकडाउन दिशानिर्देश क्रम 9 के अनुसार “सभी उपासना स्थल जनता के लिए बंद रहेंगे। बिना किसी अपवाद के किसी भी धार्मिक सम्मेलन की अनुमति नहीं दी जाएगी।”

इस  पृष्ठभूमि में 26 मार्च 2020 के द हिन्दू की खबर के अनुसार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी श्री आदित्यनाथ ने राम की मूर्ती को एक स्थान से हटा कर दूसरे स्थान पर स्थापित करने के लिए लोगों के समूह को एकत्रित किया, इस समूह में:

  • अयोध्या के मजिस्ट्रेट थे,
  • जिले के पुलिस अधीक्षक थे,
  • अतिरिक्त गृहसचिव उत्तर प्रदेश थे, और
  • यहाँ श्री आदित्यनाथ ने 11 करोड़ रुपये का चेक भी भेंट किया।

इस में सब से पहले तो मुख्यमंत्री ने सरकार की घोषणा की अवमानना की। अर्थात धार्मिक कार्यक्रम वे स्वयं तो आयोजित कर सकते हैं पर दूसरे नहीं कर सकते। ये अवमानना वे अकेले नहीं पूरे सरकारी लवाजमें के साथ करके यह बता रहे हैं की कानून और दिशानिर्देश उनके लिए नहीं, केवल औरों के लिए हैं।

द हिन्दू की खबर पढ़ने से यह साफ नहीं होता की 11 करोड़ रूपए उन्होने सरकारी खजाने से दिये या अपने व्यक्तिगत धन में से? पर चेक देना और मूर्ती को स्वयं लेकर चलना क्या एक मुख्यमंत्री के लिए उपयुक्त है? वे अपने निजी धार्मिक विश्वासों में ये सब कर सकते हैं, पर इस आयोजन में तो उन्होने ये सब एक चुने हुए मुख्यमंत्री के रूप में किया। मेरे विचार से यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त के विरुद्ध है। वे दीपावली पर सरकारी धन से अयोध्या में लाखों दिये भी जलवा चुके हैं। उनके ये सब काम जहां तक मेरी समझ है संविधान और पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध हैं। वैसे भी उनके बहुत से भाषण विडियो उपलब्ध है जो उन्हें नितांत धर्मांध व्यक्ति साबित कराते हैं।

इस सब के बाद वे लोगों को यह सलाह भी देते हैं की अन्य लोग अपनी पूजा आदि घर में ही करें। वे यह भूल गए की गुड़ खाने वाला बाबा दूसरों को गुड़ न खाने की सीख नहीं दे सकता। उनके इस व्यवहार का न कोई स्पस्टिकरण देखने में आया, ना ही केंद्र सरकार की तरफ से कोई वक्तव्य मैंने देखा। प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री के उनकी हिदायतों की अवमानना करने पर दूसरों के लिए उनका क्या नैतिक महत्व रह जाता है?

यहाँ  मैं यह साफ करना चाहूँगा की किसी मुख्यमंत्री के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को बहाना बना कर हम लोग उसी तरह की गैर ज़िम्मेदारी नहीं कर सकते। उन के व्यवहार की निंदा और आलोचना का अर्थ यह नहीं है की वही निंदनीय व्यवहार दूसरे भी करने लगें। मैंने ऊपर हिदायतों के “नैतिक महत्व” पर टिप्पणी की है, कानूनी महत्व पर नहीं। साथ ही जो लोग समाज के प्रति जागरूक हैं और उसके भले के लिए प्रतिबद्ध हैं, इन के लिए नैतिक महत्व काम के औचित्य से आता है, किसी अंतर-विरोधी व्यवहार करने वाले मुख्यमंत्री से नहीं।

कुछ गैरजिम्मेदार कथित बौद्धिक

अब यह आम तौर पर माना जाने लगा है कि सामाजिक-माध्यम (social media) जन-मानस को प्रभावित करने वाला शायद सब से बड़ा कारक बन गया है। मुद्रित समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का प्रचार भी अब सामाजिक-माध्यमों से ही होने लगा है। इनमें कुछ माध्यमों—जैसे ट्वीटर, फ़ेसबुक और कुछ व्हाट्सअप्प समूह, आदि—को देखने से लगता है अपने आप को प्रबुद्ध मानने वाले कोई लोग इस संकट की घड़ी में बहुत गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर रहे हैं। एक उदाहरण ले कर बात को समझते हैं।

एक महामारी से बचने के लिए पूरे देश में लोकडाउन की घोषणा हुई है। इसकी सफलता के लिए  राज्य सरकारें और अब केंद्र सरकार भी बहुत कोशिशें कर रही है। लोकडाउन को महामारी की रोकथाम के लिए उपलब्ध जानकारी के अनुसार एक बेहतर उपाय माना जा रहा है। यह मानना सरकार में बैठे किसी आत्म-मुग्ध हाकिम का नहीं, बल्कि भारतीय और वैश्विक स्वस्थय संगठनों का है। अर्थात इस विषय पर जिनके पास सर्वाधिक आधिकारिक जानकारी हो सकती है, उन निकायों की लोकडाउन के लिए सहमती ही नहीं, अनुषंशा भी है।

अब मान लीजिए कि मैं न तो इसको कारगर उपाय मानता हूँ, नाही इस से सहमत हूँ। और मैंने एक प्रबुद्ध नागरिक होने (या अपने आपको ऐसा मनाने के कारण) कुछ पढ़ा है जिस से मेरा यह मत बना है। तो क्या मुझे अपने मत की अभिव्यक्ती इस तरह से करनी चाहिए कि लोग सामाजिक-दूरी के दिशानिर्देशों को हल्के में लेने लगें, उनको मानने में ढिलाई बरतने लगें?

यहाँ मैं अपने विचारों की भिव्यक्ती पर रोक लगाने या झिझकने की बात नहीं कर रहा हूँ। पर उनको कैसे अभिव्यक्त करें इस पर ज़ोर दे रहा हूँ। मैंने योगेंद्र यादव का एक ट्वीट देखा जो जिम्मेदार अभिव्यक्ती का उदाहरण लगा मुझे। उन्होने कुछ ऐसा कहा: कि वे मानते हैं ही लोगों की मदद की व्यवस्था में कमियाँ हैं, वे यह भी मानते हैं कि लोकडाउन पर विशेषज्ञों के दो मत हैं। पर यह जानते हुए भी लोकडाउन का पूरी तरह से पालन करने की सलाह देते हैं। और इसे हम सब की ज़िम्मेदारी बताते हैं। इसमें वे अपने विचारों को बिना छुपाए महामारी की रोक-थाम में सम्पूर्ण सहयोग के लिए प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं।

यदि किसी के पास इस उपाय के उनुपयुक्त होने के बहुत ही पक्के और पूर्ण सबूत हैं तो भी उस में इतनी विनम्रता तो होनी चाहिए कि (1) स्वस्थय संगठनों के मत के महत्व को भी समझे, और (2) यह याद रखे कि वैज्ञानिक ज्ञान में—अपने स्वयं के भी—गलत होने की गुंजाइश सदा रहती है। इसे “fallibility” कहते हैं। अतः महामारी से पार पाने के उपायों को अपने मत की सम्पूर्ण सत्यता के घमंड में कमजोर न करे।

कुछ गैरजिम्मेदार आम लोग

पिछले दो दिनों में बहुत से आम लोग भी बाहर आते-जाते-घूमते देखे गए हैं। शायद इन को कई समूहों में बांटा जा सकता है। एक प्रयास नीचे दिया है:

  • जिनके लिए घर से निकालना जरूरी होगया, दावा-दारू, भोजन या कोई अन्य निहायत ही आवश्यक चीज के लिए।
  • बिना किसी विशेष कारण के।
  • किसी धार्मिक या राजनैतिक मान्यता/उपक्रम को लोकडाउन की पालना से अधिक महत्वपूर्ण मानना।

कुछ ऐसी घटनाएँ हुई हैं जब उपरोक्त (अ) समूह के लोगों को पुलिस के हाथों कठिनाई उठानी पड़ी या किसी पुलिसवाले ने बदतमीजी की या पीट दिया। यह बहुत गलत है। कोई तरीका होना चाहिए लोगों की मजबूरी को समझने का, और पुलिस को ऐसी परिस्थिति में निर्देशों की अनुपालना के साथ संवेदनशील भी होना चाहिए। सही या गलत, मैं यह भी मानता हूँ कि पुलिस अधिकतर ऐसे मामलों में संवेदनशील रहती है। पर सामाजिक-माध्यमों पर छाया सक्रिय तबका ऐसे मामलों में पुलिस को पूरा खलनायक दिखाने की कोशिश करता है। ऐसी कुछ घटनाओं को ही समान्यकृत करके उसे पुलिस का आम व्यवहार करार देदेता है। मैं नहीं कह रहा कि जहां पुलिस की गलती है, उसने ज्यादती की है, उसकी निंदा न करें, उसे दंड देने के लिए ना कहें या उस की अनदेखी कर दें। बस इतना कि इन कुछ घटनाओं के आधार पर पुलिस के आम चरित्र और व्यवहार को इसी रंग में ना रंगें। पुलिस को भी बहुत से आत्ममुग्ध लोगों के कारण बहुत कठिनाइयां झेलनी पड़ रही हैं।

पुलिस को खलनायक बना देने की बहुत बड़ी समस्या यह होगी की समूह (आ) और (इ) वाले लोग अपनी जन-विरोधी हरकतों को छुपाने के लिए पुलिस की इस छवि का सहारा लेंगे। समूह (आ) में अधिकतर अपने आप को बहुत कुछ समझने वाले बदतमीज मध्यमवर्गीय लोग होते हैं। जो एक गरीब पुलिस के सिपाही के सामने अकड़ दिखा कर अपने आप को बहुत शक्तिशाली समझने लगते हैं। ऐसे लोगों को कानून के मुताबिक शख्त सजा मिलनी चाहिए।

इस में तीसरा, (इ) समूह, बड़ी परेशानी करता रहा है अभी तक। इस समूह में बाहर निकालने का कारण न तो जरूरत होती है, ना ही व्यक्तिगत अकड़। यह एक सैद्धान्तिक, धार्मिक, और राजनैतिक मसाला होता है। इसका एक उदाहरण ऊपर योगी आदित्यनाथ के व्यवहार में देख चुके हैं हम। मेरा अपना मानना है की इस समूह के लोगों के साथ बहुत कड़ाई से पेश आने की जरूरत है।

मैंने इस के जितने उदाहरण देखे हैं (इंटरनेट पर, सामाजिक माध्यमों पर) उन में, साफ कहूँ तो, हिन्दू-धर्म के आधार कर ऐसी सामूहिक-अकड़ और सामाजिक-शत्रुता की सिर्फ एक घटना देखी है। वही योगी वाली, और उसकी बहुत लोगों ने निंदा की है। मेरा मानना है उसे दंड भी मिलना चाहिए। आप हिंदुओं के ऐसे क्रियाकलाप जानते हैं तो कृपया सप्रमाण मुझे भी भेजें। सिख, ईसाई, जैन और फारसी धर्मों को मानने वालों के ऐसे कोई वक्तव्य या क्रियाकलाप मेरे देखने में नहीं आए। पर मुसलमान मौलवियों और आम-जन के ऐसे कथन और क्रियाकलाप दर्जनों में हैं।[1] कई बार आम सरीफ़ इंसान कह रहे हैं कि इनके लिए उनका धर्म ही सर्वोपरी है, कोई बीमारी हो, कोई सरकारी आदेश हो, समाज को कोई खतरा हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता; वे तो समूहिक नमाज़ पढ़ेंगे ही। वे तो सीएए विरुद्ध प्रदर्शन करेंगे ही, वे तो किसी आदेश को नहीं मानेंगे। नहीं, सब मुसलमान ऐसा नहीं कहते। निश्चित तौर पर ऐसा कहने और करने वाले मुसलमानों में अल्पमत में ही हैं। पर बहुत हैं, कोई छोटी संख्या नहीं है।

यह न तो सिर्फ कट्टरता है, न किसी डर या भय के कारण है, न ही किसी सामयिक आक्रोश का नतीजा है। यह एक धार्मिक विशिष्टता-वाद और धार्मिक-अकड़ की अभिव्यक्ती है। ऐसा कहने वाले लोग यह कह रहे हैं कि हम अपने धर्म के लिए सम्पूर्ण भारतीय समाज को खतरे में डालेंगे। सरकार की सिर्फ वही बात मानेंगे जो हमारा धर्म मानने की इजाजत देता है, वह भी धर्म की हमारी अपनी समझ के अनुसार। बाकी लोगों को हमारे इसी व्यवहार के साथ जीना पड़ेगा। इन में बहुत से लोग एकदम आम इंसान और निहायत ही सरीफ़ लोग हैं। व्यक्तिगत तौर पर आप उनके व्यवहार को बहुत शालीन और सभ्य पाएंगे। वे बुरे लोग भी नहीं हैं, किसी भी अर्थ में शायद। पर उन्हें सभी चीजों पर, सामाजिक रूप से प्रदर्शित व्यवहार में, धर्म को तरजीह देने की आदत हो गई है। वे इसी को ठीक व्यवहार मानते हैं। और बहुत बार समझ तक नहीं पाते की दूसरों को इस में गलत क्या लगता है।

यह बात में इतना ज़ोर दे कर इस लिए कहा रहा हूँ की बाकी सब चीजों की आलोचना होती है। जो नियम तोड़ते हैं उनकी निंदा होती है। चाहे वह आदित्यनाथ हो, चाहे आम जन या पुलिस। पर इस्लाम के नाम पर ऐसे रवैये को सिर्फ नजर-अंदाज़ किया जाता है। थोड़े ज्यादा बुद्धिमान लोग इसे स्पष्टीकरण के साथ उचित ठहराते भी मिल जाएंगे। मुझे नहीं लगता की वर्तमान संकट में भी विचारवान लोगों को इस ढोंस-पट्टी की अनदेखी करनी चाहिए।

मैंने ऊपर भी कहा है, धर्म के नाम पर ऐसी अकड़ बहुत जगह मंदिरों या अन्य मौकों पर हिंदुओं ने भी दिखाई हो सकती है। मेरे देखने में नहीं आई। आप जानते हैं तो जरूर भेजें। पर असल मुद्दा यह है कि सब सोचने-समझने वाले लोगों को इस मानसिकता और इन क्रियाकलापों का बिना भेदभाव और बिना “राजनैतिक-चालाकी”[2] के विरोध करना चाहिए। नहीं तो कुछ भी सामाजिक रूप से सफल नहीं हो पाएगा।

अच्छी बात यह है की मैंने ऊपर जिस तरह के लोगों का जिक्र किया है वे कुछ ही हैं। चाहे वे राजनीतिज्ञ हों, कथित-बौद्धिक हों, आमजन हों, या धर्म के सिपाही हों; सौभाग्य से अभी तक भारतीय जनसमुदाय में वे बहुमत में नहीं हैं। यह लिखा इस लिए है कि संकट की धड़ी में, खास कर बीमारी फैलाने में; बहुत थोड़े लोग बहुत बड़ी खराबी कर सकते हैं। बस इसी लिए इनकी हानि पहुंचाने की क्षमता देखते हुए, इनके नागरिक अधिकारों के पूरे सम्मान के साथ, इन्हें नियंत्रित करना जरूरी है।

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27 मार्च 2020

[1] मैं जनता हूँ की धर्मों का नाम लेकर सीधे ऐसे लिखने का रिवाज नहीं है। इसे बुरा माना जाता है। यह भी माना जाता है की ऐसे व्यवहार के कारण धर्मों में नहीं होते; बल्की लोगों के व्यक्तिगत  चिंतन में, या सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों में होते हैं। पर मैं इसे नहीं मानता। ऐसे व्यवहारों के कारण चाहे वे हिंदुओं की तरफ से हों चाहे मुसलमानों की तरफ से धार्मिक-विचार में ही होते हैं। झूठी मान्यताओं की आड़ में उनके स्रोत के ना देखना समस्या को बढ़ावा देना होगा। होता रहा है।

[2] “पॉलिटिकल कोरेक्ट्नेस” का सही अनुवाद मेरे विचार से “राजनैतिक-औचित्य” नहीं “राजनैतिक-चालाकी” है।


Personal freedom and public responsibly

March 24, 2020

Rohit Dhankar

Professor Jean Dreze made an important argument in his lead article in The Hindu on 23rd March 2020. Not much attention seems be paid to this angle of precautionary measures, especially, of self-isolation. I quote his argument below, with emphasis added.

“To assess the case for various precautionary measures, we must bear in mind the dual motive for taking precautions. When you decide to stay at home, there are two possible motives for it: a self-protection motive and a public-purpose motive. In the first case, you act out of fear of being infected. In the second, you participate in collective efforts to stop the spread of the virus.

Some people think about precautions as a matter of self-protection. What they may not realise is that the individual risk of getting infected is still tiny — so small that it is hardly worth any self-protection efforts (except for special groups such as health workers and the elderly). Four hundred thousand people die of tuberculosis in India every year, yet we take no special precautions against it. So why do we take precautions when seven people have died of COVID-19? The enlightened reason is not to protect ourselves, but to contribute to collective efforts to halt the epidemic.”

Taking the same argument forward, when you ignore the efforts for ‘self-imposed isolation’ you are being negligent of your public duty as a citizen. And when you deliberately oppose and hinder the national efforts of isolation, you are acting against the public interest. You are deliberately endangering others. You are being an anti-social and enemy of the public.

I saw a few videos on that same day (23rd March) as this article was published which are very disturbing from this point of view. And I have not seen any comments from our enlightened commentators on this betrayal of the public interest.

I am referring only to three of them here. One is perhaps from Indore (not certain) where supporters of PM Modi’s call for Janata-curfew undo the effect of their own day log efforts as at 5 pm when they go out in the form of a procession beating their thalis and other utensils. (Video here) They think that they are supporting Modi, and are feeling proud of this. While actually they are being idiots and going against whole idea of Janata-curfew. And being public enemies in the bargain. There must have been many such incidents in the country, in which right after the self-imposed isolation people undid whatever small benefit that effort might have given. Modi should think carefully, he does not need enemies as long as he has such blind supporters.

Two another videos, as a sample, from among hosts of such videos are here Video1 and Video2. The people in these videos claim it to be a matter of their faith to congregate for namaz in mosques, in spite of dangers of spread of the virus. No fear of COVID-19 can shake their faith in Allah and they will defy any order to continue to follow their faith. Of course, they are within their rights to ignore personal risk and do as their Allah might be telling them. (Personally, I don’t think that if the Allah is a reality, he can be that stupid.) But they are also part of a society where others, who are not protected by that Allah as they do not believe in Him, also live. In the name of their faith they proclaiming loud and clear, that they will not participate in any self-isolation effort, they will rather hinder such efforts. And continue to endanger other people’ lives in the name of their faith or politics.

There have been furious debates and really mean and barbed tweets on Modi’s thali-taali event. Many rightly so, as some people actually did behave foolishly and claimed that it will help kill the virus. Some deliberately misinterpreted that it is fooling the public, giving them circus rather than safety. However, the same critical thinkers have been completely silent on this arrogant display of public animosity in the name of faith in Allah.

There also have been gau-mitra parties to contain the virus. As far as collective enjoyment of consuming gau-mutra according to their faith goes, it is their right. I think there are six-gavayas rather than five. The traditional five are: milk, curds, ghee, cow-umbrine and cow-dung. I would add one more to make it six: milk, curds, ghee, beef, gau-mutra and gobar. It is a matter of personal taste how many of them you consume or do other things with them. Personally, I will restrict myself to the first four as far as consumption goes; but have absolutely no objection to those who want to widen their scope and consume all six. Having said that, organising parties (gathering together for the joy of collective consumption of cow-urine) in the time of COVID-19 is concerned, this is an act of public betrayal. This is not only about the party-goers; it is about you and me, with whom they are highly likely to come in contact.

By the acts of holding parties, taking out processions and congregating for namaz in the name of personal, political and religious freedom, these people are being public enemies. They are endangering yours and my safety as well. They should be condemned by sane public without any consideration of political correctness. Our liberties can not endanger others’ lives. Yes, they have their constitutional rights of personal, political and religious freedoms; but only as far as they do not risk other innocent and law-abiding citizens’ lives and liberties. Also, those who go red in the face and stretch themselves to their full hight in arrogance on hearing the sound of a thali and conch-shell, but whose spine becomes jelly in the face of collective namaz these days, are being irresponsible backbone-less hypocrites. We can not rely on these double standard people; the straight-thinking silent majority has to speak.

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24th March 2020


Foundations of Education Programme

March 12, 2020

This post is to communicate some information about a Digantar programme. Links for downloading the brochure and report of the last year are given at the end.

Please read both.

The programme is not terribly popular, but those who have attended always find it very useful.

It is costly but since we have to make it self sustaining we have no choice.

It is neither spectacular nor colourful; keeps concentration on clear and critical thinking on educational theory and practice. Enjoyment comes from grasping ideas and logic; not from catchy phrases and ready-made so-called take homes.

Recommended for organizations working in the field as well as for individuals who want to participate in rigorous dialogue on education.

It is taught, often looks dull but pays in terms of understanding.

Those who are looking for easy capsules to improve education will be disappointed; this is an invitation only to those who are serious regarding education and can take pain in understanding it.

I request all the participants in the past batches to comment about their experiences candidly, share this post as widely as possible and encourage people and organisations to send participants.

Dates given in the brochure for Hindi and English batches may have to be re-scheduled depending on participants convenience; but we will stick to the announced dates as far as possible.

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For REPORT click here Digantar_FOE2019

For BROCHURE click here Report FOEBrochure2020.


My Take 2020-03-10

March 10, 2020

Rohit Dhankar

Every day a host of disturbing news are reported in the papers that one feels distraught about the prevailing conditions. Maintaining a clear picture of what is going on and who are the wrong doers is becoming really difficult. No one can keep a full list of misdeeds of the government and different sections of the people. This is my partial attempt to point out some of them.

Arresting people without indicating suspected crimes

The Hindu of 10th March 2020 reports that three people (Muslims) are arrested by Delhi police. Two of them were guarding the colony, especially a temple, during the night. The families are not informed why they are being arrested. The Hindu news paper could not contact police officers to clarify the issue.

This kind of arrests will certainly aggravate the feeling of being persecuted among Muslims. Yes, the people who have taken part in the riots and/or have committed other crimes should be arrested. But, is there a law to inform the family members regarding the reasons behind such arrests? If yes, the family members should be informed. If the police have the legal provisions of arresting without telling reasons for a certain time period, the press should be patient till such a time.

Does any one know about the legal provisions in this regard? Please inform.  

Yogi Adityanath and hoardings of accused

The UP government on directions from its hate spouting CM Yogi Adityanath has put hoardings in Lucknow displaying names of riot accused from whom he wants to recover cost of property destroyed during unrest/riots. I am not sure if there is any legal provision for recovering costs of destroyed property from rioter. (1) if it is legally possible, and (2) if it happens through just court judgment its certainly is a positive step.

But displaying names of accused on hoardings before conviction in the appropriate court is certainly malicious and unjust. UP CM is known for hate speech against Muslims and this act of his is completely illegal as far as I understand. The motive behind it is certainly to shame defame people ahead of court cases against them. All right-thinking people should oppose and condemn such acts.

Shaheen Bagh

It seems there are about three hundred protests like Shaheen Bagh are going on in the country. They certainly indicate a wide spread opposition to CAA, NPR and NRC. The people who do see these as unjust and against the constitution, rightly or wrongly, have the right to protest, and as long as they please.

The government, of course, should open a dialogue with them and arrive at some conclusion. They should be listened to and their arguments should be publicly examined. Of course, I personally think that the protesters are wrong; but that does not matter. They should be heard and their genuine fears/grievances should be addressed.

But blocking roads for months should be allowed under no circumstances. It seems there are about 200 shops which had to close their business due to Shaheen Bagh protest. The owners of these businesses have suffered heavy loss, in addition to public inconvenience. A section of public can not hold at ransom and inflict losses on another section of public to get their perceived grievances addressed.

If this kind of protests are going on at 300 places in India, as a news channel claimed on authority of some report, then the situation is really grave and dangerous. The protests remain peaceful only because the public held on ransom is peaceful. Blocking roads and businesses in the name of protest is certainly an action designed to instigate violence. It might be a good strategy to instigate the inconvenienced public to through the first stone; but the real reason for violence, in case it irrupts, would be the manner of so-called peaceful protest.

Therefore, the government should suggest and provide alternative spaces for all such protests and clear the roads. The protesters, who claim to be saving the constitution, should show respect to others constitutional rights even if they do not support their ill-advised protest.

Kapil Mishra’s tweet

I saw a tweet by Kapil Mishra declaring that they have identified Hindu victims of Delhi riots and will organise help only for them. It is shameful if BJP does not stop such people. Having sympathy for one section of riot victims, Hindus, and ignoring others, Muslims who are more numerous, is certainly shows ill-will for the Muslims.

The one-sided narratives of Muslim pogrom by Hindus and one-sided help by politicians will create a permanent divide and distrust between the communities. Through these they may get accolades from their desired supporters but will harm the country. What is needed after this madness is healing touch to all sufferers.

Importance of speedy justice

The instigators and perpetrators of these riots should be brought to book with complete transparency and impartiality. There are accusations of partiality in arrests and FIRs registered. Also, partisan politicians are trying to defend their supporters and accusing others. The police have to do an impartial and thorough job of the investigation and bringing all culprits to book; irrespective of their religion and political affiliations.

The distrust being created in the machinery of state, the police and the courts by some people encourages the mischief makers to create doubts in every single act of the state and judiciary. Complete loss of trust in them is too dangerous for all of us. That however does not mean that one should not write about and protest where injustice and partiality is done. But those who claim partiality and injustice also have to make evidence-based arguments.

The police and state have to make efforts to win public confidence in the face of a deliberate propaganda war.

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डरा-धमाका कर दबाना लोकतान्त्रिक नहीं होता

March 7, 2020

रोहित धनकर

मेरे एक पूर्व विद्यार्थी ने हाल ही में लिखा कि उसके मन में अभी देश में चल रही बहस और सीएए आदि पर चल रहे आंदोलनों को लेकर बहुत सवाल हैं। वह कोई पक्का मन नहीं बना पा रहा। वह अपने कुछ विवेकशील लगने वाले साथियों से बात करने की कोशिश करता रहा है। पर नतीजे के तौर पर या तो उन्होने संबंध ही तोड़ लिए या उसे शर्मिंदा करने के लिए विभिन्न लेबल (name-calling) लगने लगे। इस से वह डरने लगा है और चुप रहना ही ठीक समझता है।

पिछले कुछ महीनों में छह-सात व्यक्तियों ने मिलती-जुलती बात कही है। इन लोगों में से शायद एक-दो ही बीजेपी और मोदी समर्थक हों। वह भी मैं पूरी तरह से नहीं जानता। पर ये सब सीएए, एनपीआर, और एनआरसी को एक बड़ी और दुष्ट मुहिम का हिस्सा मान कर अस्वीकार करने से पहले इन्हें इनके गुण-दोषों के आधार पर समझना चाहते थे। इन सब को समूह में अस्वीकार करके या शर्मिंदा करके डरा दिया गया।

यह वही प्रक्रिया है जो बीजेपी और मोदी समर्थक सरकार से सवाल पूछने पर चलाते हैं। कोई मोदी सरकार से आर्थिक दुर्दशा के बारे में सवाल पूछे तो उसे देश-द्रोही कह देते हैं।  या गाय के नाम पर भीड़ द्वारा मारे जाने पर सरकार की जिम्मेदारियाँ याद दिलाये तो उसे हिन्दू विरोधी कह देते हैं। या बीजेपी नेताओं के बेहद असभ्य और मुसलमानों पर आक्रमण करने वाले भाषणों पर सवाल पूछे उसे पाकिस्तान जाने का फरमान हो जाता है। ठीक इसी तरह कथित-उदारवादी लोग सीएए में समस्याएँ पूछने पर प्रश्न करने वाले को गैर-धर्म-निरपेक्ष कह देते हैं। सीएए के नाम पर इस्लामिक वर्चश्ववादी नारे लगने पर ऐतराज करे तो उसे सांप्रदायिक कह देते हैं। दोनों में से कोई भी मुद्दे की बात नहीं करता, मुद्दा उठाने वाले को कठघरे में खड़ा कर के शर्मिंदा करने की कोशिश करते हैं। यह एक लोकतन्त्र में दो उग्र समूहों द्वारा ढुल-मुल और कुछ हद तक भीरू बहुमत को डरा कर चुप करने की कोशिश है।

ऐसे में चुप रहने वाले बहुमत को अपने विचार बनाने पड़ेंगे, बोलना पड़ेगा, खतरे उठाने पड़ेंगे। किसी भी पार्टी या राजनैतिक दल या धार्मिक समूह को दूध के धुले का प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता। नाही किसी को खालिस दुष्टता का फरमान दे कर अंध विरोध किया जा सकता है। अंध-विरोध किसी भी मायने में अंध-भक्ति से बेहतर नहीं है। हर नीती की, हर योजाना की निष्पक्ष जांच करनी होगी। उसके दूरगामी परिणाम बुद्धि और तर्क के आधार पर देखने होंगे, उर्वर कल्पना के आधार पर नहीं। और ये सब लोकतान्त्रिक ढांचे को सुदृढ़ करते हुये करना होगा। उसे खारिज करके या कमजोर करके नहीं।

इस अंदर्भ में हर्ष मंदर का इन दिनों प्रसिद्ध विडियो-भाषण बात को समझने के लिए एक अच्छा उदाहरण है। कुछ लोग इस भाषण को हिंसा भड़काने वाले भाषण के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। शायद उच्चतम न्यायालय ने भी इस पर सवाल पूछे हैं। मेरे विचार से यह भाषण किसी भी मायने में हिंसा भड़काने वाला या दंगों के लिए प्रेरित करने वाला नहीं है। यह शांति, सद्भाव और प्यार की बात करता है। लेकिन यह भाषण तथ्यात्मक रूप से गलत जानकारी देता है, इस में कई विरोधाभास हैं और यह लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं अस्वीकार करता है।

इस भाषण के एक हिस्से को जरा ध्यान से देखते हैं। हर्ष मंदर कहते हैं: “इसे [संविधान और संविधान की आत्मा को] बचाने के लिए हम लोग सब सड़क पर निकले हैं और निकलते रहेंगे. देखिए, यह लड़ाई संसद में नहीं जीती जाएगी क्योंकि हमारे जो राजनीतिक दल हैं, जो खुद को सेकुलर कहते हैं, उनमें लड़ने के लिए उस तरह का नैतिक साहस ही नहीं रहा है.

यह लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में भी नहीं जीती जाएगी क्योंकि हमने सुप्रीम कोर्ट को देखा है. पिछले कुछ वक्त से एनआरसी के मामले में, अयोध्या के मामले में और कश्मीर के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने इंसानियत, समानता और सेकुलरिज्म की रक्षा नहीं की.

पर हम कोशिश जरूर करेंगे क्योंकि वह हमारा सुप्रीम कोर्ट है. लेकिन फैसला न संसद न सुप्रीम कोर्ट में होगा।

इस देश का क्या भविष्य होगा, आप नौजवान हैं, आप अपने बच्चों को यह देश कैसा देना चाहते हैं, यह फैसला कहां होगा?

सड़कों पर होगा. हम सब लोग सड़कों पर निकले हैं. लेकिन सड़कों से भी बढ़ के इसका फैसला होगा. कहां होगा? अपने दिलों में, आपके और मेरे दिलों में.”

मैंने उद्धृत भाषण के कुछ हिस्सों को रेखांकित किया है। उन्हें ध्यान से पढ़ें। लोकतन्त्र में नियम कानून बनाने के लिए संसद का गठन होता है। यह संसद संविधान में निर्धारित प्रक्रियाओं और नियमों के आधार पर बहुमत से चुनी जाती है। संसद नियम-कानून बहस के बाद बहुमत से बनती है। अर्थात देश के अधिकतर लोग जिस से (अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से) सहमती रखते हैं वैसे ही कानून बनते हैं। इसी संसद ने भारी बहुमत से, संविधान के नियमों का पालन करते हुए सीएए को स्वीकार किया। अर्थात यह (1) बहुमत की मानसा है, और (2) संविधान सम्मत है, यहाँ तक।

पर कई बार संसद कुछ ऐसे कानून भी बना सकती है जो बहुमत तो चाहता हो, पर वास्तव में संविधान के मूल सिद्धांतों के विरोध में हों। तो उस के उन सिद्धांतों की रखवाली के लिए उच्चतम न्यायालय है। उसका काम है कि वह ऐसे क़ानूनों को निरस्त करदे जो संविधान के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध हों। और जागरूक नागरिकों का काम है की ऐसे क़ानूनों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दें। न्यायिक तरीकों में उच्चतम न्यायालय से आगे कुछ नहीं है। संवैधानिक तरीकों में जनता को समझाना और अपने पक्ष में करना है, जिस से अगले चुनाव में बेहतर संसद चुनी जाए। गैर-संवैधानिक तरीकों में हिंसक क्रांति है। बस, आगे गली बंद है।

श्री मंदर संसद और उच्चतम न्यायालय दोनों को संविधान की रक्षा में असमर्थ घोषित कर रहे हैं। उच्चतम न्यायालय के कुछ फैसलों को “इंसानियत, समानता और सेकुलरिज्म” के विरुद्ध बता रहे हैं। और फिर इस गलती को कुछ नौजवानों की सड़क पर ताकत के बल पर दुरुस्त करना चाहते हैं। इस में समस्या हिंसा और दंगों की नहीं है। समस्या यह है की यदि बहुमत और उच्चतम न्यायालय वह नहीं करता जो “हम” चाहते हैं तो वे गलत है। संविधान और न्याय के मामले में; इंसानियत, समानता और सेकुलरिज्म के मामले में; उच्चतम प्राधिकारी उच्चतम न्यायालय नहीं हम हैं। हम अल्पमत में हैं, पर हमारा ज्ञान अधिक है, हमारी समझ अधिक गहरी है, हमारी आत्मा अधिक शुद्ध है; न्याय वह है जो हम कहें। श्री मंदर यह कह रहे हैं।

गांधी ऐसी बातें कहते और करते थे। और देश ने उनका साथ दिया। श्री मंदर को आज का सब से बड़ा गांधीवादी कहा जाता है। तो वे अपने रास्ते पर तो सही ही हैं। पर गांधी ये बातें एक विदेशी आलोकतांत्रिक तरीके से सत्ता जमाये बैठी सरकार के विरुद्ध कहते और करते थे। श्री मंदर भारत में वयस्क मतदान द्वारा चुनी संसद और भारतीय संविधान द्वारा गठित उच्चतम न्यायालय के विरुद्ध कह रहे हैं। संविधान की आत्मा की रक्षा उनके अनुसार उसी संविधान से गठित उच्चतम न्यायालय नहीं कर सकता। वे अपने युवा साथियों के साथ करेंगे। किस अधिकार से?

यह सैद्धान्तिक रूप से संभव है की संसद संविधान सम्मत चुनाव के बावजूद गलत लोगों के हाथों में पड़ जाये। यह भी संभव है की उच्चतम न्यायालय सरकार के दबाव में आजाए। और बहुमत अंधा होजाए, पर आपकी – अल्पमत की – आंखे खुली रहें। तो ऐसी स्थिति में लोकतन्त्र में अंतिम सत्ता को पूकारा जाता है। वह अंतिम सत्ता है जनता, भारत के नागरिक। नागरिकों के पास आप उनका मत परिवर्तन करने के लिए भी जा सकते हैं और उनको डरा कर अपने पक्ष में करने के लिए भी। पहला आपका संविधान सम्मत हक़ है, दूसरा संविधान को तक पर रख कर धोंस-पट्टी चलना है। श्री मंदर का अपना कोई अलग आंदोलन चला होतो मुझे उसकी जानकारी नहीं है। (आप जानते हों तो जरूर बताएं।) इस लिए मैं उनके इस भाषण को अभी चल रहे आम सीएए विरोधी आंदोलन का हिस्सा ही मान रहा हूँ। मेरी यह मान्यता गलत है तो जानकारी मिलने पर इसे दुरुस्त करने के लिए खुले दिमाग के साथ।

अभी जो आंदोलन चल रहा है उसमें बहुत सारी धोंस-पट्टी है। उदाहरण के लिए शाहीन बाग के धरने को लें। इसे सब शांतिपूर्ण मानते हैं। मैं भी जितनी जानकारी है उसके अनुसार इसे शांतिपूर्ण ही मानता हूँ। पर मैं यह मानता हूँ कि पहले 1-2 दिन यह सड़क रोकना लोगों की सीएए से असहमती की जायज अभिव्यक्ति थी। पहले 1-2 दिन भी सड़क रोकना कानून सम्मत तो नहीं था, पर लोकतन्त्र में लोगों को अपनी तीव्र असहमती दिखाने के लिए ऐसे प्रदर्शनों को जगह मिलनी चाहिए। अतः 1-2 दिन ठीक था। पर महीनों तक एक बड़े शहर की प्रमुख सड़कों में से एक को रोक कर रखना कानूनी और नैतिक दृष्टि से गलत है। यह बहुमत को बंधक बनाने का तरीका है। बहुमत को धोंस-पट्टी से चुप कराना है। इसे शांतिपूर्ण तरीका कहा जा रहा है, पर ध्यान देने की बात यह है कि यह इस में शांति बनाए रखने की ज़िम्मेदारी उस पर है जिसका हक़ मारा जा रहा है। मान लीजिये मैं आप के घर का रास्ता रोक कर बैठ जाऊँ। न कोई कड़वी बात कहूँ, न आप पर हाथ उठाऊँ; पर आप को घर से निकलने की जगह भी ना दूँ। तो मैं कितना शांतिपूर्ण हूँ? यहाँ शांति बने रहने का श्रेय आपको मिलना चाहिए या मुझे? शाहीन बाग प्रदर्शन बस इतना ही शांतिपूर्ण है। प्रदर्शन गलत नहीं है, यह तो उनका हक़ है। पर सड़क रोकना हक़ नहीं है। यह धोंस-पट्टी है। और ऐसी धोंस-पट्टी पूरे देश में कई जगह चलाने की कोशिश की गई है। श्री मंदर अपनी समझ का उपयोग बहुमत को धोंस-पट्टी से मनवाने के लिए करना चाहते हैं।

ये सब क्यों? श्री चिदम्बरम और श्री मनमोहन सिंह काँग्रेस के बड़े नेता हैं। दोनों कह चुके हैं कि सीएए वापस लो तो सब आंदोलन समाप्त हो जाएँगे। और भी कई लोग और नारे यही कहते लग रहे हैं। अर्थात एक अल्पमत बंधक बना कर बहुमत से बने कानून को निरस्त करने की बात कर रहा है। इस में सीएए विरोध के मंचों से उठने वाले नारों और देश के किसी हिस्से को काट देने को उकसाने वाले भाषणों को और शामिल कर लीजिये। यह अल्पमत में होने के बावजूद बहुमत पर अपनी मन-मानी चलाने की कोशिश साफ दिखने लगेगी।

पर तस्वीर अभी पूरी नहीं है। देश में बहुमत को न दबाया जा सके तो पूरी दुनिया में बदनामी का डर दिखाने का तरीका अभी बाकी है। श्री उमर खालिद अमेरिकी राष्ट्रपती की यात्रा के वक़्त उन्हें यह बताने का आह्वान करते हैं कि भारत की जनता भारत की सरकार के साथ नहीं है। कि भारत की सरकार देश को तोड़ने की कोशिश कर रही है। जरूर बताएं, यह उनका हक़ है। पर इन चीजों का असर सरकार की बदनामी तक सीमित नहीं रहता। बहुत आगे तक जाता है। देश की आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। देश की दुनिया में कैसी तस्वीर बनती है इस पर पड़ता है। कानूनी और संवैधानिक तौर पर यह आपका हक़ है। करिए। पर बहुमत को झुकाने के लिए आप कितनी कीमत चुकाने को तैयार है यह आप की प्रतिबद्धताओं को भी उजागर करता है।

दिल्ली के दंगों को सारी दुनिया में मुस्लिम-जनसंहार के रूप में प्रचारित करना इसी शृंखला की एक कड़ी है। इस के लिए इसे हिंदुओं द्वारा शुरू करना बताना जरूरी था। नहीं तो वह आख्यान नहीं बन सकता जो भारत पर अल्पमत की बात मानने पर बहुमत को मजबूर करने के लिए दुनिया भर से दबाव बना सके। एक जानकारी के अनुसार (यह गलत है तो बताएं) दिल्ली दंगे में पहला आक्रमण सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों द्वारा दिल्ली पुलिस पर हुआ। इस में एक पुलिस कर्मी मारा गया और दो गंभीर रूप से घायल हुए। फिर भी आख्यान यह बना की दंगा हिंदुओं ने शुरू किया। मैं अपने अन्य ब्लोगस में कह चुका हूँ की मेरे विचार से इसके लिए दोनों समुदाय दोषी हैं।

इस आख्यान के प्रचार के चलते ईरान जैसे देश भी भारत को हिन्दू उग्रवाद को नियंत्रण में लाने की नशीहत और अलग-थलग करने की धमकी देने लगे। ईरान की धार्मिक कट्टरता और अपने ही लोगों को हजारों की संख्या में मारने की कहानी जग जाहिर है। सलमान रश्दि के सर पर दो करोड़ डॉलर का फतवा सभी को याद होगा। पर यह कम लोग जानते हैं की धर्म की शिक्षा के नाम पर दुनिया भर में जिहादी भेजने की फक्ट्रियां भी चलाता है ईरान। अमेरिका की कोई कमेटी में भी एक भारतीय मूल के विद्वान ने बताया कि भारत में मुसलमानों का सफाया हो रहा है। यही कहानी इंगलेण्ड में भी सुनाई गई। और इसे सब मान भी रहे हैं।

अब इस पूरी कहानी को एक साथ मिला कर देखिये। अकेले व्यक्तियों को सवाल पूछने पर लेबल देकर, हिंदुवादी कह कर शर्मिंदा करके चुप करवाना। देश के स्तर पर संसद को और उच्चतम न्यायालय को नकार कर, बहुमत को धोंस-पट्टी से कानून वापस लेने के लिए बाध्य करने की कोशिश। दुनिया के स्तर पर हिन्दू-उग्रवाद और मुस्लिम प्रताड़ना का आख्यान बना कर पूरे देश को कानून वापस लेने के लिए बाध्य करने की कोशिश। यह लोकतन्त्र नहीं, अपनी चलाने का प्रयत्न है।

यदि सीएए और अन्य योजनाएँ गलत साबित होती हैं, तो उन्हें वापस लेना चाहिए। यदि मुसलमानों के अधिकारों का हनन हो रहा है तो उसे रोकना चाहिए। पर यह निर्णय भारत के नागरिकों का है या भारत की संसद और उच्चतम न्यायालय का है। यह अमेरिका की संसद की कोई कमेटी या ब्रिटानिया की संसद या ईरान के दबाव में बिलकुल नहीं होना चाहिए। भारत के अंदर यह निर्णय खुली और बेबाक जन-बहस से करने का है। व्यक्तियों को शर्मिंदा करके चुप कराना और बहुमत को बंधक बना कर यह निर्णय नहीं किया जा सकता।

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ के नागरिकों को बीजेपी जैसी पार्टी को चुनना पड़ा। यह हमारी कल-अक्ली है कि हम बेहतर विकल्प नहीं बना पाये। पर इस से इतना शर्मिंदा हों कि अल्पमत की धोंस में आजाएं। कि बंधक बनाने के डर से अनुचित मांगों को मान लें। कि दूसरे देशों की धमकियों में आकार कानून वापस लेलें। यह नहीं करने देना चाहिए। ऐसी धोंस में आएंगे तो हम व्यक्ती के स्तर पर अपनी स्वायत्तता खो देंगे, देश के स्तर पर स्वयं-प्रभुता खो देंगे। जो सीएए कानून और एनपीआर तथा एनआरसी की योजनाओं को गलत मानते हैं उन्हें अपनी बात कहने का और आंदोलन करने का पूरा हक़ है। पर जो इन्हें ठीक मानते हैं, देश के हित में मानते हैं, उन्हें भी अपनी बात पूरी बेबाकी से बिना शर्मिंदा हुए कहने का हक़ है। उन्हें भी आंदोलन करने का हक़ है।  आप जो सोचते हैं वह बोलिए, तर्क और तथ्य दुरुस्त रखिए। जन-बहस में गलती से शर्माने की जरूरत नहीं है, सोचने में गलती हो सकती है। गलती को दुरुस्त करने के लिए दिमाग को खुला रखने की जरूरत है, गलती के डर से चुप होने की नहीं। शर्म की बात उन के लिए है जो अपनी मान्यताओं की फिर से जांच करने की क्षमता खो कर जड़-मति हो चुके हैं और विचार भेद के कारण व्यक्तियों को दबाना चाहते हैं। कहते हैं लोकतन्त्र की ताकत इस में नहीं है कि वह कभी गलती नहीं करता; बल्कि इस में है कि वह अपनी गलती सुधार सकता है। इसी तरह विवेक की महानता इस में नहीं है की वह कभी गलत नहीं हो सकता; बल्कि उसकी महानता इस में है कि वह अपनी गलती कि जांच के बाद सुधारने की तैयारी रखता है।

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7 मार्च 2020

 

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राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर: समझने के लिए एक सर्वेक्षण

March 6, 2020

रोहित धनकर

राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को ले कर बहुत विवाद है। आज, 6 मार्च 2020, के द हिन्दू अखबार में की एक खबर के अनुसार “फ्रीडम इन द वर्ल्ड रिपोर्ट 2020” ने भारत को सबसे कम स्वतन्त्रता वाला लोकतन्त्र घोषित किया है। बहुत सी अन्य चीजों साथ इसमें राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का भी महती योगदान बताया गया है। मैं बहुत दिन से समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि एनपीआर से क्या क्या समस्याएँ आ सकती हैं। यह सर्वेक्षण इसी प्रयास का एक हिस्सा है।

पर सर्वेक्षण पर आने से पहले अभी के बेहद संवेदनशील माहोल में कुछ कहना जरूरी है।

एक, यह बहुत लोग मानते हैं कि बीजेपी की पार्टी के रूप में नीतियों में समस्याएँ हैं। इन नीतियों के अनुसार सरकार चलाने में भी समस्याएँ हैं। उदाहरण के लिए गौरक्षा और राम मंदिर पर जो कुछ चला है और अभी भी चल रहा है वह एक धर्म निरपेक्ष सरकार के लिए और लोकतन्त्र के लिए गलत है। इसी तरह से बीजेपी के बहुत से नेताओं के हिंसा और घृणा फैलाने वाले बयान भी बहुतायत में हैं, और पार्टी ने उन बयानों पर न तो नेताओं को दंडित किया है, न रोका है और नाही उनकी निंदा की है। हिन्दू राष्ट्र का नारा भी संघ और बीजेपी से संबन्धित लोग बार बार देते रहते हैं। ये सब आज के भारत की समस्याएँ हैं। और ये सभी जानने वाले और लोकतन्त्र में आस्था रखने वाले लोग मानते भी हैं।

दो, ऊपर बिन्दु एक में लिखी बातों के सही होने से इस सरकार की हर चीज गलत नहीं हो जाती। बीजेपी के लोकतन्त्र की धारणा में समस्याओं से सरकार के सभी कानून, सभी काम और अभी योजनाएँ स्वतः ही अलोकतांत्रिक और मुस्लिम विरोधी या उनको निशाना बनाने वाली नहीं हो जाती। अतः समग्र तस्वीर देखने के साथ-साथ तस्वीर के प्रत्येक हिस्से को स्वतंत्र रूप में जाँचने की भी जरूरत है। यह जांच हमें अपने स्तर पर भी करनी चाहिए। जिस तरह सरकार की नीतियों को भक्तिभाव से सही मानलेना लेकतंत्र के लिए खतरनाक है वैसे ही लोकतन्त्र के कथित रखवालों के हर निष्कर्ष को सही मान लेना भी लोकतन्त्र के लिए खतरनाक हो सकता है।

तीन, यह सर्वेक्षण का खाका हमारे अपने स्तर पर जांच करने के लिए बनाया गया है। आज कल फैशन में चल रहे विचारों के विरुद्ध कुछ भी कहदेना और पूछलेना लोकतन्त्र और धर्म-निरपेक्षता विरोधी करार दे दिया जाता है। इस तरह के विचार और निर्णय प्रक्रिया बंद दिमाग की निशानी होते हैं। लोकतन्त्र किसी भी विचार को अंतिम सत्य मन कर नहीं सब विचारों को जांच के काबिल मानने पर ही चल सकता है। लोकतन्त्र के मूल मंत्रों में एक संवाद की छूट और खुलापन है। जो लोग संवाद में विचार या मान्यताओं के विवेचन के स्थान पर व्यक्तियों को लेबल करके संवाद बंद करना चाहते हैं वे जिन्हें स्वतंत्र अभिवक्ती का दुश्मन माना जाता है उन से किसी भी मायने में बेहतर नहीं हैं।

चार, यह सर्वेक्षण भारत के उन नागरिकों को अपने विचार अभिव्यक्त करने के लिए आमंत्रित करता है जओ अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता में विशास रखने हैं, विवेक सम्मत निर्णय लेना चाहते हैं और अपने विचारों की खुली अभिव्यक्ती से डरते नहीं हैं। क्यों कि लोकतान्त्रिक निर्णयों में वेही विचार भूमिका निभा सकते हैं जो अभिव्यक्त किए गए हों। अनभिव्यक्त विचार सामूहिक चिंतन में कोई भूमिका नहीं रखते। अतः सर्वेक्षण में अपना नाम अवश्य लिखें।

पाँच, मैंने कई दिन पहले एक सर्वेक्षण किया था। उस के संदर्भ में एक मित्र ने कहा कि उसने इस लिए भाग नहीं लिया कि पता नहीं मैं इस प्रकार एकत्रित सूचनाओं का किस गलत राजनीती के पक्ष में करूंगा। जो लोग चाहेंगे उन सब को मैं सभी आंकड़े और मेरे निष्कर्ष भेजदूंगा। इस पर भी आप को शक है कि इस सर्वेक्षण के आंकड़ों का गलत इस्तेमाल हो सकता है, मेरे द्वारा तो सर्वेक्षण में भाग मत लीजिये।

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एनपीआर में पूछे जाने वाले सवालों की सूची मैंने एक वैबसाइट से उतारी है। उसका पता यह है: https://indiascheme.com/npr-questions-list/ आप कोई अधिक भरोसेमंद साइट जानते हैं तो जरूर बताएं।

सवालों की सूची दो भागों में है, भाग 1 में वे सवाल हैं जो 2010 के एनपीआर प्रारूप में भी थे। भाग 2 में 2020-21 किन लिए नए जोड़े गए सवाल हैं।

राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर 15 सवालों की सूची

कांग्रेस शासनकाल में 2010 में हुई राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को अपडेट करने की प्रक्रिया में पूछे गए 15 सवालो की सूची इस प्रकार हैं:

भाग 1:

  1. व्यक्ति का नाम
  2. घर के मुखिया से सम्बन्ध
  3. पिता का नाम
  4. माता का नाम
  5. पति का नाम (यदि विवाहित है)
  6. लिंग
  7. जन्म की तारीख
  8. वैवाहिक स्थिति
  9. जन्म स्थान
  10. राष्ट्रीयता (घोषित के रूप में)
  11. सामान्य निवास का वर्तमान पता
  12. वर्तमान पते पर रहने की अवधि
  13. स्थायी निवास पता
  14. व्यवसाय / गतिविधि
  15. शैक्षणिक योग्यता

वर्ष 2020 में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर में जोड़े गए सवाल

भाजपा समर्थित एनडीए शासनकाल में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर में जोड़े गए प्रश्नो की सूची इस प्रकार हैं:

भाग 2:

  1. माता-पिता के जन्म का स्थान
  2. निवास का अंतिम स्थान
  3. आधार संख्या
  4. वोटर आईडी कार्ड नंबर
  5. मोबाइल फोन नंबर की जानकारी
  6. ड्राइविंग लाइसेंस नंबर

सर्वेक्षण सिर्फ भाग 2 के सवालों पर है।

यदि इस सर्वेक्षण में आप को कोई ऐतराज न लग रहा हो तो मेहरबानी करके अधिकाधिक लोगों को इसे पूरा करने के लिए प्रेरित करे। आप लिंक कॉपी करके दूसरों को भेज सकते हैं। आशा है मदद करेंगे। यह सर्वेक्षण 15 मार्च 2020 को बंद हो जाएगा।

सर्वेक्षण में भाग लेने के लिए यहाँ क्लिक करें:

https://www.surveymonkey.com/r/XHLGHGW

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6 मार्च 2020

 

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तीन अलोकप्रिय टिप्पणियाँ

March 5, 2020

रोहित धनकर

[एक: अराजकता में किसी का भी भला नहीं है।

दो: सीएए, एनपीआर और एनआरसी की तुरंत जरूरत है।

तीन: हर गलत आख्यान की आपको कीमत चुकानी पड़ेगी, जिस भी दुष्टता को आप पुष्ट करेंगे वही आप को डसेगी, चाहे वह हिन्दू-दुष्टता हो या मुस्लिम-दुष्टता।]

एक: अराजकता में किसी का भी भला नहीं है

हमने अपना प्रातिनिधिक-लोकतन्त्र और इस की संसदीय प्रणाली अंग्रेजों से सीखी है। इस संसदीय प्रणाली की सफलता की एक शर्त की विवेचना अंबेडकर अपनी पुस्तक “पाकिस्तान ओर पार्टिसन ऑफ इंडिया” के पृष्ट 291 पर करते हैं। वे इस संदर्भ में वे लॉर्ड बलफ़ौर (Lord Balfour) का उद्धरण देते हुए कहते हैं कि संसदीय प्रणाली की ताकत सब की “इसे सफल बनाने की नीयत (प्रतिबद्धता) में होती है”। जिन लोगों ने अंग्रेजों से यह पद्धती सीखी है उनके बारे में लॉर्ड बलफ़ौर आगे कहते हैं कि “वे हमारी संसद में रुकावट डालने के तरीके तो सीख लेते हैं, पर यह उन्हें कोई नहीं समझाता कि जब असल बात आती है तो हमारी सब संसदीय पार्टियां इस बात के लिए प्रतिबद्ध होती हैं कि मशीन (अर्थात राज्य-व्यवस्था) बंद नहीं हो (यह चलती रहे)”। (They learn about our parliamentary methods of obstruction, but nobody explains to them that when it comes to the point, all our parliamentary parties are determined that the machinery shan’t stop.) अंबेडकर का मानना है कि चलते रहने, अवरुद्ध हो कर बंद न हो जाने, की प्रतिबद्धता के बिना संसदीय प्रणाली नहीं चल सकती। यह समझना सहज है की किसी राज्य व्यवस्था के भंग हो जाने पर अराजकता आती है और अराजकता सिर्फ संगठित गुंडा-गिरोहों का भला कर सकती है।

कल के द हिन्दू अखबार में बंगाल की संवैधानिक रूप से चुनी हुई, और संविधान की सपथ के कर मुख्य-मंत्री बनी सुश्री ममता बनेर्जी का वक्तव्य है कि “जो बंगलादेश से आए हैं, जिन्हों ने पहचान-पत्र प्राप्त किए हैं, और जो वोट देते रहे हैं, वे भारत के नागरिक हैं। उन्हें फिर से प्रतिवेदन देने की जरूरत नहीं है”। इस देश में नागरिकता के कुछ नियम हैं, नागरिकता कानून में अभी के संशोधन से पहले भी थे। सुश्री बनेर्जी कह रही हैं की जिन लोगों ने जैसे-तैसे भी मतदाता सूची में अपने नाम लिखवा लिए हैं वे अब स्वतः ही नागरिक हैं। उन्हें किसी प्रकार के प्रतिवेदन की जरूरत नहीं है।

मैंने अपने 29 फ़रवरी 2020 के ब्लॉग पोस्ट “व्हेर डज दिस इंडियन बेलोंग?” में यही लिखा है। कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक का विरोध इस लिए नहीं है कि इस से भारतीय मुसलमानों की नागरिकता को कोई खतरा है, बल्कि इस लिए है कि जिन के नाम गैर-कानूनी तरीकों से विभिन्न राजनैतिक पार्टियों ने मतदाता सूची में लिखवा दिये हैं, उन की पहचान न हो सके। सुश्री बनेर्जी यही कह रही हैं। साथ ही वे यह भी कह रही हैं कि धोखे से नागरिकता लेलेना इस देश में उन्हें जायज लगता है। अर्थात वे देश के नियमों से चलाने की पक्षधर तभी तक हैं जब तक की नियम वे हैं जो उन्हें पसंद हैं।

आप ऐसे बहुत से उदाहरण देख सकते हैं जो देश की कानून व्यवस्था को ठप्प करने के लिए खुली चुनौती हैं। ये राजनैतिक पार्टियां कर रही हैं, समाज-सेवी कर रहे हैं, और कथित-बुद्धिजीवी तो इसी को अपनी महानतम उपलब्धी मानते हैं। लोकतन्त्र विधि-विधानों पर चलता है। संसद और उच्चतम न्यायालय इन विधि-विधानों के बनाने वाले और रखवाले होते हैं। जब आप यह घोषणा करते हैं कि न्यायालय और संसद की बात तभी तक मानेंगे जब तक वे आप के मन के अनुसार चलें तब आप निरंकुश हो रहे हैं, तब आप भारत के दूसरे नागरिकों को अपने आप से कमतर मान रहे होते हैं। आप को कोई कानून पसंद नहीं है तो उसे बदलवाने के लिए बहस का, प्रदर्शन का, शांतिपूर्ण संघर्ष का हक़ तो संविधान देता है; पर उस कानून को ना मानने का और जबतक वह कानून है तब तक न्यायालय के निर्णय को न मानने का हक़ नहीं है। यदि आप ऐसा करते हैं तो आरजकता कि निमंत्रण दे रहे हैं।

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दो: सीएए, एनपीआर और एनआरसी की तुरंत जरूरत है

कल एक व्हाटसप्प समूह में किसी ने एक अखबार की कटिंग सब को भेजी। इस का शीर्षक है “मुख्यमंत्री और राज्यपाल के नागरिकता प्रमाण नहीं सरकार के पास, आरटीआई का खुलासा”। यह खबर हरयाणा की है। आगे तर्क दिया गया है कि “जिनके अपने नागरिकता प्रमाण पत्रों का रेकर्ड मौजूद नहीं, वे पूरे प्रदेश और देश की 135 करोड़ जनता से सबूत मांग रहे जो अपने आप में बड़ा ही हास्यास्पद है”।

मैं तो इन महाशय से उलटे नतीजे पर पहुंचता हूँ इस खबर से। मुझे तो इस खबर से यह लगता है देश में नागरिकता के रेकॉर्ड्स की बहुत बुरी हालत है। यहां लोग बिना नागरिकता के सबूत के मुख्यमंत्री और राज्यपाल बनजाते हैं। हमें क्या पता कितने लोग कहाँ-कहाँ से आकार, किस-किस तरह के अतीत के साथ, किन-किन महत्वपूर्ण पदों पर बैठ कर हम पर राज कर रहे हैं? इस परिस्थिति को तो जल्द से जल्द सुधारना चाहिए। हमें शीघ्रातिशीघ्र एनपीआर और एनआरसी पर काम करना चाहिए जिस से ऐसी स्थिति से निकाल सकें।

अभी तक रेकॉर्ड्स और जानकारियों का ठीक से रख-रखाव नहीं हुआ, नियमों के अनुशार काम नहीं हुआ, तो क्या इस का यह अर्थ है कि आगे भी यही अव्यवस्था रहे? अव्यवस्था और नागरिकों के बारे में अज्ञान है, इसी लिए तो एनपीआर और एनआरसी की जरूरत है।

मेरा दिमाग उलटा काम कर रहा है या इन भाई साहब का?

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तीन: हर गलत आख्यान की आपको कीमत चुकानी पड़ेगी, जिस भी दुष्टता को आप पुष्ट करेंगे वही आप को डसेगी, चाहे वह हिन्दू-दुष्टता हो या मुस्लिम-दुष्टता

पिछले दो सप्ताह से मैं दो आख्यानों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ।

पहला आख्यान (narrative): इसके अनुसार दिल्ली में जो कुछ हुआ वह:

  1. हिंदुओं ने किया, मुसलमानों के विरुद्ध।
  2. इस में सरकार और दिल्ली पुलिस ने मदद की।
  3. दिल्ली में मुसलमानों का ‘जनसंहार’ (genocide) हुआ।
  4. हिंदुओं ने मुसलमानों की ‘तबाही’ (pogrom) किया।
  5. भारत में मुसलमानों का जनसंहार किया जा रहा है, यह जनसंहार हिन्दू सरकार के सहयोग से कर रहे हैं।
  6. भारत के हिन्दू मुसलमानों से घ्राणा करते हैं और उन्हें खत्म कर देना चाहते हैं।
  7. भारत मुसलमानों के लिए सब से असुरक्षित देश हो गया है।
  8. इस सारी चीज में मुसलमान एकदम निर्दोष हैं, भले हैं, शांतिप्रिय रहे हैं और वे सामान्य तौर पर शान्तिप्रिय हैं।
  9. मुसलमानों के जन संहार का ये दौर कपिल मिश्रा के बयान के कारण शुरू हुआ।

दूसरा आख्यान

  1. दिल्ली का दंगा मुसलमानों ने हिंदुओं पर संगठित आक्रमण के रूप में किया।
  2. मुसलमानों ने बहुत मजबूत पूर्व तैयारी कर रखी थी।
  3. यह देश को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की यात्रा के समय दुनिया भर में बदनाम करने की सजिस थी।
  4. यह हिंदुओं दो डराने और सरकार को बदनाम करने के लिए था।
  5. हिन्दू निर्दोष और शान्तिप्रिय हैं।
  6. मुसलमान सदा आक्रामक और दंगा शुरू करने वाले होते हैं।

मुझे आख्यान शब्द से बहुत प्रेम नहीं है। इस में सदा ही मुझे तर्क और तथ्यों की कमी को काल्पनिक व्याख्याओं से भरने के प्रयत्न की बू आती है। ये काल्पनिक व्याख्याएँ बहुत बार निराधार और गलत आरंभिक मान्यताओं पर चलती हैं, जिन्हें सिद्ध नहीं किया जा सकता। पर यहाँ यह आख्यान शब्द बहुत ही सटीक है। मेरे विचार से इन दोनों आख्यानों में झूठ के साथ-साथ जिसे हैरी फ़्रंकफ़र्ट “बुलशिट” (बकवास?) कहता है उसकी मात्र बहुत अधिक है। फ़्रंकफ़र्ट के अनुसार बुलशिट का सदा ही झूठ होना जरूरी नहीं है। बुलशिटर सच्चाई और झूठ से निरपेक्षा रह कर जो उसे उस वक़्त कामका लगता है वह आख्यान बनाने की कोशिश करता है। और बुलशिट समाज में झूठ के बजाय ज्यादा हानिकारक होती है।

उपरोक्त दोनों आख्यानों के लिए खुदरे ‘प्रमाण’ संचार माध्यमों में, विशेष रूप सेर सोसियल-मीडिया में, बहुतायत से उपलब्ध हैं। उन्हें सिर्फ सुविधा अनुसार या अपने-अपने उद्देश्यों के अनुसार, चुनने की जरूरत होती है। बुलशीटिंग में कथित-लिब्रल बुद्धिजीवियों की महारत मोदी-समर्थकों की तुलना में कहीं ज्यादा है। जब आप सिद्धान्त-निर्माण को आख्यान घड़ने का समानार्थक मान लेते हैं, तो सिद्धान्त निर्माण के नाम पर बुलशिटिंग के अभ्यास के बहुत मौके मिलते हैं। और कथित-लिबरल बुद्धिजीवी अपनी आर्थिक सामाजिक बढ़त के चलते इसके मौके अपेक्षाकृत अधिक पाते हैं। इस लिए पहला आख्यान दुनिया भर में अधिक प्रचलित हो रहा है।

इस बात के कोई भरोसे मंद प्रमाण नहीं हैं कि यह “जनसंहार” या “पोग्रोम” था। पर विदेशी मीडिया यही लिख रहा है, भारतीय बुलशिटर्स की मदद से। इस बात के कोई बरोसेमंद प्रमाण नहीं हैं कि यह एकतरफा दंगा था, पर विदेशी मीडिया यही लिख रहा है। इस में मुसलमानों ने उतनी ही हिंसक-दुर्भावना से हिस्सा लिया है जितना हिंदुओं ने। भारत में शान्तिप्रिय और सबके प्रती सद्भावना रखने वाले लोग मुसलमानों और हिंदुओं दोनों में हैं, पर मीडिया में प्रचार एकतरफा है।

मेरे विचार से उदारवाद के लिए सत्य और न्याय का पक्ष लेना नैतिक ज़िम्मेदारी है। पर भारतीय उदारवादी दुनियाभर में मिथ्या प्रचार का कोई जवाब देने की जरूरत नहीं समझते, जब तक कि वह प्रचार उनके वर्तमान उद्देश्यों की पूर्ति करता रहे। ये हिन्दू को और देश को अशहिष्णु, क्रूर, मुसलमानों के लिए दुर्भावना-ग्रस्त और बहुसंख्यावादी साबित करने वाले आख्यान जीतने ज्यादा सफल होंगे उतना ही जल्दी पलट कर अपने निर्माताओं पर आएंगे। मुस्लिम अशहिष्णुता, आक्रामकता, इस्लामिक-वर्चश्व की भावना और मुस्लिम-वीटो की मुहिम को जितना छुपाया जाएगा उतना ही वह बढ़ेगी।

दिल्ली दंगों में दोनों पक्षों ने भाग लिया है। दोनों ने क्रूरता की है। अमानवीयता की है। शाहीन-बाग जैसे विरोध-प्रदर्शनों के पीछे जितनी धोंसपट्टी आम जनता के लिए है, जितनी ऊग्रता और दुर्भावना साफ दिखती है, बच्चों तक को सिखाई जा रही है, उसे छुपाने से वह मिट नहीं जाएगी। और बढ़ेगी।

इस बुलशिट आख्यान का एक हिस्सा दुनिया भर में प्रचारित यह है कि दंगे कपिल मिश्रा के बयान/भाषण से भड़के। मैंने कपिल मिश्रा के वास्तविक बयान और विडियो ढूँढने की कोशिश की। मुझे जो मिला वह यह है। कपिल मिश्रा ने कहा कि (1) हम ट्रम्प की यात्रा के समापन तक चुप हैं। (2) “हमने दिल्ली पुलिस को तीन दिन की अंतिम-चेतावनी दी है कि जफ्फराबाद और चंदबाग की सड़कें खुलवादे”। (3) पुलिस के सामने खड़ा हो कर कहा कि “नहीं तो (हम खुलवाएंगे) और आप की (पुलिस की) भी नहीं सुनेंगे”। दंगा कपिल मिश्रा और उसके समर्थकों के चले जाने के एक घंटे बाद शुरू हुआ। सवाल यह है की कपिल मिश्रा के बयान में ऐसा क्या है कि तुरंत दंगे हो गए? इस बयान के अलावा तो मुझे कपिल मिश्रा की कोई कारस्तानी इस दंगों के संदर्भ में कहीं मिली नहीं। तो इस आख्यान में कपिल मिश्रा के बयान को दंगों के लिए जिम्मेदार क्यों ठहराया जा रहा है? कोई तर्क? कोई प्रमाण?

यह सवाल मैं दो कारणों से रख रहा हूँ। एक, मैं समझ नहीं पा रहा कि कि दंगों की कड़ी मिश्रा के बयान से कैसे जुड़ती है। मेरी मिश्रा जैसे लोगों को दोषमुक्त करने की या उनके समर्थन की कोई मानसा नहीं है। पर मैं यह नहीं मान पा रहा कि ये बयान अपने आप में दंगा शुरू करने में समर्थ हैं। दो, मिश्रा के बयान को दंगों के आधार के रूप में स्वीकार करना पहले आख्यान के लिए जरूरी है। यही वह कड़ी है जिस के माध्यम से दंगों का पूरा दोष बीजेपी समर्थक हिंदुओं पर मढ़ा जा रहा है। तो इसे समझना जरूरी है। क्यों की आगे का बुलशिट आख्यान इसी आरंभिक मान्यता पर आधारित है।

अपने आप को प्रगतिशील, लिब्रल और धर्मनिरपेक्ष साबित करने की इच्छा रखने वाले सभी, खास कर युवा पीढ़ी के, भारतीयों को शर्मिंदा होने की बहुत आदत है। वे हर बात पर, हिन्दू होते पर, भारतीय होने पर, इस देश में रहने, पर शर्मिंदा होते रहते हैं। शायद इस लिए की शर्मिंदा हैं यह कह देना सब से सरल तरीका है अपने आप को लिबरल बुद्धिजीवी साबित करने का। मेरी बिना मांगी सलाह है की पहले थोड़ा तथ्यों की जांच करें, सब तरफ के आख्यानों को जाँचें; फिर तय करें कि शर्मिंदा होना है या गुस्सा होना है या दुखी होना है, या कुछ और। और फिर शर्मिंदा, गुस्सा, दुखी या कुछ और हो कर बैठ नहीं जाएँ; बल्कि जहां हैं वहाँ आपने काम में इस समस्या से जूझने की कोशिश करें। वरना आप की कई पीढ़ियाँ शिर्फ शर्मिंदा होती रहेंगी; आप पर भी।

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5 मार्च 2020