रोहित धनकर
कल संजय लीला भंसाली को थप्पड़ मारा गया और उनके बाल खींचे गए. यह झूठी रजपूती शान के रखवाले एक संगठन करणी सेना के लोगों ने किया. आरोप यह कि उन्हों ने अपनी नई फिल्म में पद्मावती के साथ अल्लाहुद्दीन खिलजी के प्रेम दृश्य दिखाए हैं. पर फिल्म तो अभी बनी ही नहीं है. इन गुंडों का कोई नेता नारायण सिंह कहता है कि गलत तथ्य न दिखाए जाएँ और “यदि” कोई प्रेम दृश्य फिल्म में दिखाने हैं तो भंसाली उन्हें निकाल दे. “यदि” पर ध्यान दीजिये; इस का अर्थ यह है कि किसी गुंडा समूह को “शक” हो जाए तो उसपर भी लोगों की पिटाई की जा सकती है और उनके उपकरणों को तोड़ा-फोड़ा जा सकता है. और सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती. वैसे भी राजस्थान में इस वक़्त रजपूती-सरकार ही है, हालाँकि वह प्रजातांत्रिक तरीकों से चुनी गई है.
इस में मूल सिद्धांत यह है कि: “सत्य वह है जो हम मानते हैं. जो कोई भी इसके विरूद्ध मानता है, बोलता है, अभिव्यक्त करता है; उसे दंड देने का हमें हक़ है.” यह “हम” कोई जातीय-समूह हो सकता है, धार्मिक-समूह हो सकता है या राजनैतिक-समूह हो सकता है.
यही सिद्धांत है जिसके चलते राजस्थान में जोधा-अकबर पर बवाल हुआ था. कल तक जो राजपूत जोधा बाई के सलीम की माँ और अकबर की पटरानी होने पर गर्व करते थे आज बदलती राजनैतिक और जातीय अस्मिता के चलते उसी जोधाबाई को दासी-पुत्री घोषित करना चाहते हैं.
इसी सिद्धांत के चलते तीन-चार वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से अहिल्या प्रकरण वाला रामानुजन का लेख निकाला गया था. वास्तव में वाल्मीकि रामायण में अहल्या इंद्र से जानते-बूझते प्रेम करती है, और रामानुजन इस प्रसंग को उदृत करते हैं अपने लेख में. विचित्र बात है, वाल्मीकि रामायण को सत्य-ग्रन्थ मानाने वाले लोग ही उस के उद्धरणों का विरोश भी करते हैं.
इस भावना के तहत १९५१ में औब्रुए मेनन की रामायण पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा था. जिस में सीता स्वीकार करती है कि वह रावण के साथ एक समझौते के तहत अपनी मर्जी से गई थी, और बिना बाध्य किये उसे से दैहित सम्बन्ध बनाये थे.
यही सिद्दांत है जिसके चलते मुहम्मद को समलैंगिक संबंधो को पसंद करने वाला कहने पर कमलेश तिवारी जेल में है (शायद?) अभीतक और बिजनौर के एक मौलवी ने उसका सर कलम करने के लिए एक करोड़ के इनाम की घोषणा की थी.
बेचारे रुश्दी को एक दसक से ज्यादा छुपे रहना पड़ा मुहम्मद के इल्हाम पर संदेह करने के लिए और उसकी बीबियों के नामों पर गणिकाओं के नाम रखने पर.
तसलीमा पर आक्रमण हुए मुहम्मद के अपनी बीबियों के साथ हुए करार को तोड़ने की बात कहने के लिए, जिसमें मुहम्मद के उसकी एक गुलाम से योन-संबंधों की बात है.
इन में और इस तरह की सब घटनाओं में यह तो है ही कि ये हिंसक समूह दूसरों की विचार-शक्ति को ख़त्म करके अपना वर्चश्व बनाना चाहते हैं. और इस पर बहुत कुछ लिखा भी जाता रहता है. पर कुछ और पहलू भी हैं इस के जिनपर शायद बहुत विचार नहीं हो रहा है.
इन पहलुओं में से एक तो यही है कि विचार की स्वतंत्रता पर हिंसक आक्रमण करने वाले समूह अपने आप को कम-अक्ल के रूप में स्वीकार करते हैं. चाहे वे करणी सेना जैसे जातीय समूह हों, मंगलौर की राम सेना हो, बम्बई की शिव सेना हो, मुसलामानों के उग्र समूह हो, या कोई और; वे यह सार्वजनिक तौर पर स्वीकारते हैं अपनी हिंसा के माध्यम से कि विचार का बौद्धिक विरोध करने की क्षमता उनमें नहीं है. वे विवेक और प्रमाण के आधार पर लोगों को सहमत नहीं कर सकते, कि वे दूसरे विचार समूह की तुलना में मूर्ख है. पर तुलनात्मक रूप मूर्ख होने के बावजूद अपनी बात मनवाना चाहते हैं.
साथ ही वे यह भी स्वीकारते हैं की दूसरे इंसानों की सत्य की परख की क्षमता पर भी उन्हें भरोसा नहीं है. वे यह मानते हैं की जो भी विचार अभिव्यक्त होगा उसे दूसरे लोग बिना जांचे मान लेनेगे, कि दूसरों के पास विचार के जांचने की अक्ल नहीं है. इस लिए वे उन्हें बिना जांचे, बिना प्रमाण के मानने पर बाध्य करना चाहते हैं.
लगता है की ऐसे सभी हिंसक समूह सत्य के निरपेक्ष हो सकने की संभावना से इनकार करते हैं और इंसान के दिमाग की सत्य-शोधन क्षमता पर संदेह करते हैं. इन दो बुनियादी मान्यताओं में इन हिंसक समूहों की सामाजिक-ज्ञानमीमांसा (social epistemology) में कुछ धारणाओं से गहरी सहमति लगती है. यह मान्यता की ज्ञान की निरपेक्षता असंभव छलावा है. कि ज्ञान तो सदा सामाजिक-मोलभाव और सत्ता के बल पर ही स्थापित होता है. खाश कर इतिहास जैसे समाज-विज्ञानों में. किस चीज को सत्य माना जाए और किसे असत्य यह सामाजिक-राजनैतिक मशाला है, इसके कोई ज्ञान-मीमंसकीय (epistemological) और निरपेक्ष आधार नहीं हो सकते. और जो लोग निरपेक्ष ज्ञान-मीमंसकीय आधारों और मापदंडों की बात करते हैं वे भी अपना वर्चश्व बनाने की ही कोशिश कर रहे होते हैं. यह भी कि सत्य और ज्ञान के निरपेक्ष मानदंड सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के हितों के विरुद्ध जाते हैं. की विवेक-सम्मता की बात गैर-बराबरी को बढ़ावा देती है. ये मान्यताएं आजकल उदारवादी विचारकों में बहुत प्रचलित है.
एक सवाल यह उठता है कि जब सत्य और ज्ञान के कोई निरपेक्ष ज्ञान-मीमंसकीय आधार होते ही नहीं, जब सत्य का निर्धारण सामाजिक-मोलभाव और सत्ता के आधार पर ही होता है अंततः; तो फिर करणी सेना, शव सेना, राम सेना, मौलवीयों के गुट्ट और मुहम्मद की इज्जत बचने के लिए इकट्ठी की गई उग्र भीड़ गलत क्यों हैं? वे सब भी तो यही कर रहे हैं कि ज्ञान के कोई निरपेक्ष आधार नहीं होते, और हम सत्य का निर्धारण हिंसा की ताकत पर करेंगे? यह कहा रहे हैं कि अपना तर्क-वितंडा बंद करो, लफ्फाजी बंद करो, ताकत हमारे पास है अभी, तो हमारी बात मनो. नहीं तो ….
यह कहा जा सकता है की अकादमिक तौर पर ज्ञान को सामाजिक समजौते से स्वीकृत मान्यताएं मानाने वाले और उसकी निरपेक्षता को अस्वीकार करने वाले लोग यह चाहते हैं कि सब अपने विचार रखें और अकादमिक और सामाजिक बहस में उस समझौते को उभरने दें. पर क्यों? जब निरपेक्षता है ही नहीं सत्य की, जब उसे अंततः सत्ता के दबाव में ही रूप लेना है, जब वह अंततः सत्ता और वर्चाश्व का हथियार मात्र ही है तो इस लफ्फाजी में समय क्यों बर्बाद करें? ताकत का सीधा उपयोग क्यों न करें?
सीधा सवाल यह बनता है: क्या ज्ञान की निरपेक्षता (objectivity) को सिरे से अस्वीकार करने वाले और उसकी सत्ताधीनता को स्वीकार करने वाले लोग करणी सेना जैसी करवाई के विरोध का कोई विवेक-सम्मत आधार प्रस्तुत कर सकते हैं? यदि नहीं तो शायद वे करणी सेना से ज्यादा खतरनाक है: क्यों कि करणी सेना की इच्छा और तरीके साफ़ और जग जाहिर है; जब की उनकी इच्छा और तरीके दोनों में छुपे अजेंडा होने की बहुत संभावना है.
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