Dharma in principle is no ethical wasteland: A rejoinder to Mr. Pavan Varma

November 25, 2022

Rohit Dhankar

This little piece is an initial rejoinder to Mr. Pavan K. Varma’s article in Asian Age. (https://www.asianage.com/opinion/columnists/030922/pavan-k-varma-whither-dharma-in-an-ethical-wasteland.html )

I am no scholar of Hindu-dharma, and Mr. Varma certainly understand these issues much better than I do. I am also not sure if Mr. Varma is writing this in full seriousness. But his piece actually tells us that our civilization is at best amoral if not completely immoral. Presently I do not believe that. However, will try to check proper sources in next week or so if his analysis is rationally sustainable. As it stands, it justifies nepotism (kuladharma), and power play (one’s station). One does not know what “conduct right for one’s age” (ashram-dharma) means? It we take producing children as dharma of a grihastha, it may result in particularly obnoxious conclusion of marital rape if the wife is unwilling!

The problem with his piece is not its claim that too many Indians today seem to behave in a manner that violates dharma, they of course do, and that is condemnable. The problem with his piece is that Mr. Varma claims that ‘that is our civilizational morality’. The puerile question whether a starving to death man taking an apple from another’s orchard is guilty of theft or not, ignores fundamental nature of moral dilemma. A moral dilemma by its very nature is a situation in which a moral agent is forced to choose one of two mutually contradictory values in that situation. In his example these values are ‘preservation of human life’ and ‘not stealing’ (asteya). One has to judge which value is of higher order in the moral code and conduct oneself with minimum transgression of that code. Preserving life here is of greater importance, therefore, the man certainly committed theft, and is guilty of theft in this example. But maybe he saved the greater value ‘human life’, therefore, his conduct is morally justified. It is not justification of theft; it is justification of conduct in a moral dilemma.  

All example he takes from Mahabharata can be explained with the use of ‘preserving dharma’ (let’s say ‘rule of law and righteous conduct by the king’) in the society and telling lies (Yudhishthira), breaking rule (Krishna in killing Karna), and so on. The preserving dharma in the society is higher value than one emergency instance of telling lie or breaking a rule. It is something like shooting a terrorist before he presses the trigger to kill hundred innocent people by a bomb-blast. This is everywhere in the world, not only in Indian civilisation. It is higher duty of a kshatriya to protect innocents from injustice than following a rule which itself is formulated as a practical guide to preserve the same higher duty.

As I said, I am no scholar of dharma, and will try to investigate the issue further. But Mr. Varma’s understanding of dharma in this piece as ‘that which achieves success’ in whatever goal one might have set is not rationally sustainable. The goal itself has to pass the test of dharma. “Preserving right conduct by the king” in case of Mahabharata examples and “preserving human life” in the case of stealing an apple in his example of a starving man, constitute higher order values than the values which were violated. That does not sanction any which goal in the name of kuladharma, varna-dharma or ashram-dharma etc. This is a flowed interpretation.

Similarly, the conclusion that “means need not be morally sanctioned” to achieve a “morally sanctioned goal” is flowed. The means which have lesser degree of moral transgressions that the ‘adharma’ likely to result from a failure in achieving the goal can be justifiably used; according to the same principle of resolving moral dilemma by choosing preservation of higher value. It does not sanction all means. Only those which have lesser moral transgression than the non-achievement of the goal.

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विश्वसनीयता का झण्डा और सच्चाई

November 13, 2022

रोहित धनकर

भाई ये तो क्रेडिबल हिस्ट्री करने का तरीका ना हुआ!

एक अङ्ग्रेज़ी नाम वाली मुख्यतः हिन्दी वेब-साइट है: क्रेडिबल हिस्ट्री (https://thecrediblehistory.com/)। इस पर कई काम की और अच्छी चीजें हैं, जिनकी आज हमारे देश में जरूरत है। यह साइट श्री अशोक कुमार पांडे चलाते हैं। और इस पर उनके बहुत से वीडियो हैं। अशोक जी ट्वीटर पर भी बहुत सक्रिय हैं और उनका एक बहुत बड़ा अनुयायियों (followers) का समूह है, आज कोई 1,70,000 के करीब। अशोक जी ने यह शोहरत मूलतः द कश्मीर फाइल्स का विरोध करते हुए पाई है। अशोक जी के अनुयायी उन्हें सत्य की प्रतिमूर्ती मानते हैं। मुझे इस में कोई शक नहीं की वे अपने वीडियो-दर्शकों, पुस्तक-पाठकों और ट्वीटर अनुयायियों (मैं भी उन में हूँ) को इतिहास संबंधी बहुत से तथ्य उपलब्ध करवाते हैं। और उनका यह काम श्लाघनीय है। इस से उनको विश्वसनीयता (क्रेडिबिलिटी, जो की उन का घोषित लक्ष्य है) मिलती है।

पर यह लेख उनकी इस प्रकार पाई विश्वसनीयता के शूक्ष्म दुरुपयोग के बारे में हैं। उन्हें अर्ध-सत्य परोसने में और निहायत ही अतार्किक और गलत व्याख्या करने से कोई परहेज नहीं है, बशर्ते यह उनके उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो। साथ ही उनके अनुयायियों की बढ़ती संख्या और उनके वीडियो की सराहना के चलते वे ट्वीटर पर बहुत ही घमंडी और कई बार बदतमीजी के साथ जवाब भी देते हैं। मैं समझ सकता हूँ कि बार-बार मूर्खता पूर्ण ट्रोल करने वाले को ट्वीटर पर उसी की भाषा में, जो असभ्य या गर्वीली भी हो सकती है, जवाब देने की जरूरत पड़ सकती है। पर अशोक जी, अपना घमंड और अपनी सभ्यता की सीमा कोई ट्रोल ना करने वाला कठिन सवाल पूछले तब भी, या शयद तब ही अधिक, दिखाते हैं। मैं आगे उपरोक्त सभी आरोपों के उदाहरण दूंगा। पर पहले यह साफ करना जरूरी है कि किसी की व्यक्तिगत कारस्तानियों पर टिप्पणी के लिए, छोटे ही सही, लेख की क्या जरूरत है?

ट्वीटर एक सामाजिक-माध्यम (social media platform) है। यह एक लोकतान्त्रिक समाज में चिंतन के मुद्दे उठाने और उनपर अपना मत रखने के लिए काम में लिया जाता सकता है। किसी भी समाज में विचार-विमर्श की जरूरत के पीछे कई मान्यताएँ (assumptioins) हो सकती हैं। मेरे विचार से निम्न तीन मान्यताएँ सर्वाधिक महत्व पूर्ण हैं:

  • यह की समाज में हर विषय पर एकाधिक मत होंगे।
  • यह कि हर कोई दूसरों को अपना मत अभिव्यक्त भी करना चाहेगा और उन्हें अपना मत स्वीकारने के लिए प्रेरित भी करना चाहेगा।
  • यह की यह प्रेरणा किसी दबाव, भय, लालच के बिना विवेक आधारित ही होनी चाहिए, खास कर एक लोकतान्त्रिक समाज में।

अर्थात ट्वीटर पर एक संवाद चलता है, और यह संवाद विवेकशील रहे तभी लोकतान्त्रिक समाज की मदद कर सकता है। संवाद में दो और चीजों की जरूरत होती है: सत्य के लिए प्रतिबद्धता और प्रतिपक्षी से सहृदयता। ट्वीटर क्यों की एक सार्वजनिक माध्यम है और इसमें अनाम भागीदारी की खुली छूट है, अतः यह बहुत असभ्य और झूठ का भी बड़ा आखाड़ा बन जाता है। तो इसे ठीक रास्ते पर रखना यहाँ पर प्रसिद्ध और समझदार लोगों की ज़िम्मेदारी बनती है। क्यों कि उनके लिए समझदारी पूर्ण संवाद चलाना ट्वीटर पर आने की पूर्व मान्यता है। मैं गलत हो सकता हूँ, पर मुझे लगता है कि एक समझदार लोकतान्त्रिक नागरिक के लिए यह जरूरी है। हाँ, कोई सिर्फ अपना अजेंडा चलाने भर के लिए, दूसरों को भ्रमित करने के लिए, अपना अहम तुष्ट करने के लिए या सिर्फ बदतमीजी के लिए आता है तो उसके लिए ये शर्तें जरूरी नहीं है। पर मैं समझता हूँ कि अशोक जी इन ओछे उद्देश्यों के लिए ट्वीटर पर नहीं है। उनका उद्देश्य, जहां तक मैं समझता हूँ, इतिहास को एक अधिक संतुलित और विवेकसम्मत नजर से देखने की वकालत करना और उसके लिए संसाधन उपलब्ध करवाना है। और यदि मेरा यह मानना सही है तो उनका घमंड, तथ्यों की तोड़-मरोड़ और असभ्य जवाब उनके ही उद्देश्यों के विरुद्ध है। तो समस्या हो जाती है कि उन्हें किस श्रेणी में रखें? इस लेख पर मेहनत करने के मेरे ये कारण हैं, पता नहीं उचित हैं भी या नहीं, पर यह शंका तो मन में रहती ही है। इन विचारों को सब के साथ साझा करने में यह शंका आड़े नहीं आना चाहिए।

अशोक जी के कुछ जवाबों की जांच

मेरा यह दावा नहीं है कि आशिक जी के सारे जवाब ऐसे ही होते हैं, यह भी नहीं है कि उनका बहुतांश ऐसा होता है। पर जितने होने स्वाभाविक माने जा सकते हैं उन से ज्यादा होते हैं। तो अभी सब से ताजा इदाहरण से आरंभ करते हैं।

घमंड

ट्वीटर पर @news24tvchannel की तरफ से राजनाथ सिंह की यह टिप्पणी आई: “सुभाष चंद्र बोस अविभाजित भारत के पहले प्रधानमंत्री थे”।

@Ashok_Kashmir : “अगर Government in Exile को पहली सरकार मानना है तो फिर राजा महेंद्रप्रताप पहले राष्ट्रपति और हबीबुल्लाह पहले प्रधानमंत्री थे। दूसरी निर्वासित सरकार जो बनी सुभाष उसके प्रमुख हुए। प्रोफ़ेसर रहे हैं आप फ़िज़िक्स के, तो हिस्ट्री में भी WhatsApp तथ्यों की उम्मीद आपसे नहीं की जाती।” [मेरी टिप्पणी: अशोक जी ठीक याद दिलवा रहे हैं कि पहली निर्वासित सरकार राजा महेंद्रप्रताप की थी। पर इस नतीजे पर भी पहुँच गए हैं कि राजनाथ सिंह WhatsApp तथ्यों पर चल रहे हैं। साथ ही प्रोफ़ेसोर रहने पर कटाक्ष भी। पर यह सब ट्वीटर पर चलता है, कुछ बुराई नहीं।]

@dhankar_r : Replying to @Ashok_Kashmir “Asking because I am not aware. I think Govt in Exile of Subhas Bose was recognized by some countries. Did Raja Mahendrapratap’s govt recognized by any country?” [मेरी टिप्पणी: यह सहज जिज्ञासा का प्रश्न है। क्यों कि कोई किसी के भी द्वारा मान्यता प्राप्त और कतई गैर मान्यता प्राप्त सरकारों में फर्क कर सकता है। अशोक जी ने कोई जवाब नहीं दिया।]

@Ashok_Kashmir : “Typo : बरकतुल्लाह पढ़ें।” [मेरी टिप्पणी: इस ट्वीट को देख कर मुझे अपना सवाल फिर याद आगया, अतः मैंने फिर पूछा।]

@dhankar_r : Replying to @Ashok_Kashmir “आपने अभी तक बताया नहीं उस सरकार को कितने देशों की सरकारों ने मान्यता दी थी? साथ में संदर्भ भी बताएगा।”

@Ashok_Kashmir : Replying to @dhankar_r “मेहनत करो थोड़ी। राजा महेंद्रप्रताप की जीवनी छपी है। उसमें सब डिटेल है।” [मेरी टिप्पणी: यह जवाब नहीं घमंड की अभिव्यक्ति है। और क्यों कि टालने की कोशिश है।]

@dhankar_r : Replying to @Ashok_Kashmir “आप का बात करने का अंदाज घमंडी और अपमान पूर्ण है, पर मुझे जानकारी चाहिए इस लिए पूछ रहा हूं। थोड़ा जीवनी कहां से कब छपी और पृष्ठ बता देंगे तो मदद मिलेगी।”

@dhankar_r : Replying to @Ashok_Kashmir “और मेहरबानी करके जीवनी का लेखक भी बतादें।”

इस का अभी तक कोई जवाब नहीं है। शायद आयेगा भी नहीं आयेगा। पर यह कोई बात नहीं, इतने ट्वीट्स में इस पर ध्यान जाना मुश्किल ही है। पर इस छोटे से संवाद में विश्वसनीय इतिहास (Credible History) की कुछ विवेचना की जरूरत है। शुरू से देखते हैं:

1. एक नागरिक (राजनाथ सिंह, मंत्री होने से कुछ फर्क नहीं पड़ता) की टिप्पणी को ऐतिहासिक दृष्टि से दुरुस्त करने की कोशिश। [यह इतिहासकार का काम है और जरूरी है।]

2. दूसरे नागरिक (धनकर) की कुछ और सूचना के लिए प्रार्थना। [ऊपर ट्वीटर की भूमिका की विवेचना मानें तो यह आम बात है, और उपयोगी है; अशोक जी के अपने क्रेडिबल हिस्ट्री करने के लिए भी।]

3. जवाब देने के बजाय अस्पष्ट (vague) संकेत और घमंड। जीवनी छपी है: जीवनी या आत्मकथा? किसने लिखी? किसने छापी? पृष्ठ? कुछ नहीं।

[अर्थात इन की बात को बिना प्रमाण के मानलो और आप के पास समय, संसाधन या आवश्यक दक्षता नहीं है तो आप को चुनौती दे कर चुप करवाने की कोशिश। हमारे इतिहास को और उस पर मत को एक दिशा में लेजाने का यही तरीका पिछले कई दसकों से चल रहा है। इतना लंबा लेख इस छोटी सी बात पर लिखने का यही कारण है।]

अब इस घमंड के पीछे का ज्ञान देखते हैं। मैं यहाँ यह स्पष्ट करदूं कि मैं इतिहासकार नहीं हूँ; न क्रेडिबल, नाही डिस्क्रेडिटेड। और मेरी जांच अभी अधूरी है। पर मेरे विचार से ऐसे मुकाम पर है कि औरों की मदद के लिए साझा कर सकूँ।

मैंने राजा महेंद्र प्रताप सिंह की अङ्ग्रेज़ी में लिखी आत्मकथा My Life Story of Fiftyfive years (December 1886 to December 1941) देखी। पुस्तक राजा ने खुद अपनी संस्था World Federation, Dehradoon UP के लिए 1947 में प्रकाशित की। इस पुस्तक में जर्मनी, तुर्की और अफगानिस्तान के शासकों द्वारा उन्हें भारतीय राजाओं के नाम समर्थन (महेंद्र प्रताप सिंह का) पत्र देने का जिक्र है। अफगानिस्तान में आकार उन्होंने 1 दिसम्बर 1915 को प्रोविजनल गोवर्नमेंट ऑफ इंडिया (Provisional Government of India) की स्थापना की। अफगानिस्तान द्वारा चीन, जापान, जर्मनी, रूस, तुर्की, नेपाल और भारतीय राजाओं के लिए वैसे ही पत्र देने का भी जिक्र है। पुस्तक से यह भी स्पष्ट है की अफगानिस्तान का चीन को पत्र उन्होंने चीनी धिकारियों को सरकार के पास पहुंचाने के लिए देदीया। उन्हें चीन में अंदर नहीं जाने दिया गया। उन्हें नहीं पता की पत्र चीनी सरकार तक पहुंचा या नहीं। रूस के लोगों से वे मिले। पर ना तो पुस्तक पत्र देने के बारे में कुछ कहती है, और वहाँ उनकी निराशा को देखते हुए उनकी सरकार को मान्यता देना तो बिलकुल संभव नहीं लगता। इस सारे प्रकरण में उनको परिचय पत्र देने का तो जिक्र है, पर किसी भी देश की सरकार द्वारा मान्यता का जिक्र नहीं है। एक जगह अफगानिस्तान के शासक के साथ किसी संधि पर हस्ताक्षर की बात है, पर उस संधि में क्या था इस पर एक शब्द भी नहीं है। और आखिर में तो अफगानिस्तान सरकार ने उनको विदा ही कर दिया। पुस्तक में पत्रों में क्या लिखा था, लोगों के साथ उनकी क्या बात हुई, कुछ भी नहीं है।

महेंद्र प्रताप सिंह पहले 1912 (?) में अलीगढ़ विश्वविद्यालय के अपने कुछ मुस्लिम साथियों के साथ डॉक्टर अंसारी के नेतृत्व में तुर्की के पक्ष में लड़ने के लिए स्वयंसेवक के रूप में गए थे। जेहाद में बालकन राज्यों के विरुद्ध ओट्टोमन साम्राज्य की मदद के लिए। पर वहाँ उनके मुस्लिम साथियों को तो युद्धस्थल पर जाने दिया पर उन को मुस्लिम ना होने के कारण नहीं जाने दिया, तो मोहभंग अवस्था में वापस आगए। प्रोविजनल गोवर्नमेंट ऑफ इंडिया उन्होंने अपनी अगली यात्रा में बनाई। इस यात्रा में वे बहुत से देशों में भारत की स्वतन्त्रता के लिए सैन्य कारवाई की संभावना खोजने गए। बाकी देशों से बात अफगानिस्तान को अंग्रेजों के विरुद्ध “जिहाद” घोषित करने में मदद के लिए हो रही थी। प्रोविजनल गोवर्नमेंट ऑफ इंडिया इस समूहिक प्रयास के साथ भारत को आजाद करवाना चाहती थी। इस की योजना में उन को समर्थन मिला। पर सब योजना के स्तर पर ही रहा लगता है। उनकी सरकार को मान्यता का कोई जिक्र नहीं है।

मुझे नहीं लगता कि कोई मान्यता मिली होती तो राजा इतनी महत्वपूर्ण बात का जिक्र अपनी आत्मकथा में नहीं करते। तो अभी तो मैं यही मान रहा हूँ कि उनकी सरकार को कोई मान्यता नहीं मिली। पर मैं और स्रोत भी खोज रहा हूँ। कोई निश्चित स्रोत बता सकें तो मदद मिलेगी। असपष्ट कथन “महेंद्र प्रताप का समग्र साहित्य प्रकाशित हुआ है, उस में है”, “उनकी जीवनी प्रकाशित हुई है उसमें हैं”, “उनके एक लेख में है” आदि तरह के दावे तो मुझे क्रेडिबल हिस्ट्री करने के उचित तरीके नहीं लगते।

घमंड और गलत समझ

@Ashok_Kashmir: “चलिए आँकड़े बताता हूँ। मुग़ल काल को अधिकतम जनसंख्या थी 1691 में 16 करोड़। ये साहब कह रहे हैं यह 35 लाख लोग भुखमरी का शिकार थे। यानी 2.1% 2019 में जनसंख्या थी 120 करोड़। ग़रीबी रेखा के नीचे लगभग 8 करोड़। यानी लगभग 6.7% यानी इनके हिसाब से असल में जनता मुग़लकाल में अधिक सुखी थी” [मेरी टिप्पणी: यह क्रेडिबल हिस्ट्री है, आगे देखिये।]

@dhankar_r : Replying to @Ashok_Kashmir “भुखमरी” और “गरीबी रेखा से नीचे” एक ही बात होती है?

@Ashok_Kashmir: Replying to @dhankar_r “हाँ। आप ग़रीबी रेखा की परिभाषा पढ़िए।”

आगे आप इस ट्वीट में देख सकते हैं। https://twitter.com/dhankar_r/status/1510620574078619649

अशोक जी ने कोई जवाब नहीं दिया।

क्रेडिबल इंटेरप्रेटेसन!!

घमंड और अर्ध-सत्य

एक और उदाहरण इस ट्वीट में देख सकते है। दूसरों को अधूरी बात के लिए दोषी ठहराना और खुद अधूरी बात कहना।

अशोक जी की टाइम-लाइन में आप को ऐसे दर्जनों उदाहरण मिलेंगे। और इसे ये क्रेडिबल हिस्ट्री कहना पसंद करते हैं। मैंने इनका उदाहरण इस लिए लिया है कि इतिहास के साथ चलाने वाली ये विचारधारात्मक व्याख्या चीजों की बहुत अधूरी, कई बार गलत और अपना उद्देश्य पूरा करने वाली व्याख्याएँ सत्य को विकलांग या फिर दफ्न ही कर देती हैं। हमें इस से सावधान रहने की जरूरत है। और यदि आशिक जी किसी शुभ उद्देश्य से इतिहास कर रहे हैं तो उनको भी सावधान रहने की जरूरत है।

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रोहित धनकर

13 नवम्बर 2022