कक्षा में उद्देश्य 2: गणित और जादू

May 25, 2020

रोहित धनकर

[शिक्षक साथियों से बात करते हुए बहुत बार एक सवाल उठता है कि कक्षा में पढ़ाते समय—खास कर प्राथमिक स्तर पर—हमारा ध्यान सिर्फ विषय-वस्तु पर ही रह सहता है। अधिक से अधिक निर्धारित शिक्षण बिन्दुओं पर, जो स्वयं आम तौर पर विषय-वस्तु पर अधिककर, अर्थात पुस्तक में दिये प्रश्नों का सही जवाब सीखने, तक ही सीमित होते हैं। अतः प्राथमिक कक्षाओं में अपने काम को शिक्षा के सामान्य या व्यापक उद्देश्यों से जोड़ने की कोशिश करना संभव नहीं है।

आजकल इंटरनेट पर बहुत से विडियो अपलोड किए जा रहे हैं, शिक्षकों के ही बनाए हुए। इन में से कई विडियो देख कर लगता है कि शिक्षक के पास (1) समझ है, (2) विषय क्या ज्ञान है, (3)  शिक्षण-विधि भी है, (4) बच्चों का स्तर भी जो चाहिए वह है, और (5) बच्चों की रुची भी या तो है या बनाई जा सकती है; फिर भी शिक्षक अपनी विषय-वस्तु को बच्चों के विवेक के विकास या development of reason—जो कि शिक्षा का शायद सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य है—से जोड़ने से सिर्फ एक कदम पहले रुक जाते हैं।

जैसा मैंने ऊपर कहा बच्चों और शिक्षक की समझ/ज्ञान संबंधी सारी बौद्धिक शर्तें तो पूरी होती हैं। फिर शिक्षक साथी रुक क्यों जाते हैं? एक कदम पहले? शायद समझते हों कि आगे का कदम बच्चे स्वयं पूरा कर लेंगे? या शायद उन्हें इस बात का कोई खास महत्व नहीं लगता? यह छोटा लेख इसी चीज को रेखांकित करने के लिए है।]

इंटरनेट पर एक बहुत छोटा-सा और रोचक विडियो मिला। इस में एक शिक्षक गणित में रुची जगाने के लिए एक बच्ची को गणित का कथित “जादू” सीखा रहे हैं। विडियो सफाई से बनाया हुआ है। जहां तक देखने से पता चलता है बच्ची समझ भी रही है। मुझे ऐसा भी लगता है कि इस विडियो से जैसा “जादू” यहाँ सिखाया है उसमें रुची भी बन सकती है। यहाँ यह देखते हैं इस “जादू” का (1) गणित में वास्तविक रुची जगाने के लिए, (2) गणित की प्रकृति समझने के लिए, (3) गणित में शोध-विधि (हाँ, ठीक पढ़ा, प्राथमिक स्तर पर गणित में शोध-विधि) के लिए आधार बनाने में, (4) गणितीय चिंतन के विकास में, और इस तरह (5) विवेक के विकास में कैसे योगदान दे सकता था। पर एक कदम पहले ही रुक गया।

विडियो का वर्णन

ठीक से समझने के लिए मुझे विडियो का कुछ वर्णन करना पड़ेगा। यह  आम बात है, और सब जानते हैं। पर इस वर्णन के बिना मैं जो कहना चाह रहा हूँ वह संभव नहीं लगता। अतः कुछ आम और ऊबाऊ वर्णन यहाँ जरूरी है। (विडियो यहाँ देख सकते हैं।)

इस विडियो में शिक्षक गणित के जादू के नाम से एक आम ट्रिक सीखा रहे हैं। ट्रिक कुछ ऐसे है:

शिक्षक ने एक 1 से 9 तक की कोई एक संख्या एक कागज पर लिख कर सब के सामने रख दी। इसी तरह जिस बच्ची को सिखा रहे हैं उसे से भी 1 से 9 तक की कोई एक संख्या कागज पर लिख कर सब के सामने रखवादी। बच्ची ने 6 लिखा, जो सब को दिखा दिया। लेकिन सिखाने वाले शिक्षक को नहीं। अर्थात शिक्षक नहीं जानता कि बच्ची ने क्या लिखा, और बच्ची नहीं जानती कि शिक्षक ने क्या लिखा। फिर बच्ची से निम्न संक्रियाएँ करने को कहा गया:

  1. अपनी लिखी संख्या को 2 से गुणा करो: 6X2=12
  2. जो परिणाम आया उस में 2 जोड़ो: 12+2=14
  3. जो परिणाम आया उस को 5 से गुणा कर दो: 14X5=70
  4. जो परणाम आया उस में से 2 घाटा दो: 70-2=68

इस के बाद शिक्षक बताते हैं कि यह “जादू” कैसे हुआ। इसके लिए वे एक और उदाहरण लेते हैं, जिसमें अपनी तरफ से 3 और बच्ची की तरफ से 4 लिखा हुआ मानते हैं। और फिर कहते हैं की यह जादू करने के लिए हम पहले तीन चरण वही रखेंगे, अर्थात:

  1. 4X2=8
  2. 8+2=10
  3. 10X5=50

अब चौथा चरण समझाने के लिए वे बताते हैं कि उनहों ने जो संख्या ली (3) उसे 10 में से घटाएँ (10-3=7) और अब इस 7 को 50 में से घटाएँ:

  1. 50-7=43

यह संख्या बच्ची की लिखी संख्या को पहले और उसके बाद शिक्षक लिखी संख्या को दाईं तरफ लिखने से बनती है। आखिर में कहते हैं:

“इस तरह से आप देख सकते हैं कि मथेमटिक्स जो है वह समझने की चीज है। उसको अगर हम लर्न करते हैं तो वह नहीं आएगा। अगर हम उसको एंजॉय करते हैं उसके साथ खेलते हैं अंकों के साथ, तो मथेमटिक्स जो है बहुत ही आसान विषय है।”

विश्लेषण और संभावनाएं  

इस विडियो का पहला भाग एक कलन-विधि (algorithm) है। कलन-विधि या algorithm एक या अधिक संक्रियाओं या/और प्रक्रियाओं की शृंखला होती है जिन्हें एक निश्चित क्रम में लागू करना होता है। भाग करने की विधी, गुना करने की विधी, जोड़ करने की विधि आदि जो हम कक्षाओं में सिखाते हैं, वे कलन-विधियाँ (alogoriths) ही हैं।

इस प्रक्रिया में दो व्यक्ती हैं। निर्देश देने वाला और उनका पालन करने वाला। यह एक ऐसी कलन-विधि है जिसमें दोनों एक-एक अंक लिखते हैं। फिर निर्देश देने वाला संक्रियाओं की एक ऐसी शृंखला करवाता है जिस से वह संख्या मिल जाये जो निर्देशों का पालन करने वाले के लिखे अंक को दहाई का अंक और निर्देश देने वाले के लिखे अंक को इकाई के अंक के रूप में लिखने से बनती है। कहने का तात्पर्य यह की गुणा-भाग आदि की कलन-विधियों और इस कलन-विधि में चरणों (अर्थात संक्रियाओं) का अंतर तो है, पर कोई अवधारणात्मक अंतर नहीं है।

यह सब इस लिए लिखा की कलन-विधियों के पीछे तार्किक कारण अर्थात तर्क होता है। कलन-विधियों को उन के पीछे के तर्क को समझे बिना रटा जा सकता है, जिसे यहाँ हमारे शिक्षक “लर्न करना” कह रहे हैं। बिना तर्क समझे रटी हुई कलन-विधियों का उपयोग भी सफलता पूर्वक किया जा सकता है। और आम तौर पर यही हम हमारे विद्यालयों में करवाते हैं। सवाल यह है कि क्या बिना तर्क के कलन-विधि को याद कर लेना और  लागू करना सीखने को समझना कह सकते हैं?

यहाँ हमारे शिक्षक बंधु कह रहे हैं कि “इस तरह से आप देख सकते हैं कि मथेमटिक्स जो है वह समझने की चीज है।” क्या उन्हों ने समझाया या केवल कलन-विधि बताई? उन्हों ने ना तो बच्ची को और ना ही  दर्शकों को इस कलन-विधि के पीछे का तर्क समझाया। अतः उन्हों ने समझाया तो कुछ नहीं।

वे गणित के अध्यापक लग रहे हैं। अतः इस कलन-विधि के पीछे के तर्क को समझते तो होंगे, ऐसा हम मान सकते हैं। तो फिर उन्हों ने बच्ची को क्यों नहीं समझाया? कई कारण हो सकते हैं। पर एक कारण का संकेत उनकी इस मान्यता में मिलता है कि “अगर हम उसको एंजॉय करते हैं उसके साथ खेलते हैं अंकों के साथ, तो मथेमटिक्स जो है बहुत ही आसान विषय है”।

यह “खेलने” को परम-शिक्षण-विधि मानने का प्रचार हमारे यहाँ कुछ ना समझ कथित शिक्षण-शास्त्रियों ने डीपीईपी (डिस्ट्रिक्ट प्राइमरी एडुकेशन प्रोग्राम्म) के मध्याम से बहुत किया था। वे और उन से सीखे हुए शिक्षक-अध्यापक यह भूल गए कि खेलना बिना समझे भी संभव है। खेलना रुचि और अभ्यास की दृष्टि से तो बढ़िया शिक्षण-शस्त्र हो सकता है, पर यह समझ भी पैदा करदेगा यह जरूरी नहीं है।

जिन लोगों ने यह लेख यहाँ तक पढ़ा है, मैं मानता हूँ कि वे सब समझते हैं की उपरोक्त कलन-विधि में निर्देशक निर्देशित की लिखी संख्या को 10 से गुणा करवा कर उस में 10 जुड़वाता है। (पहले चरण में 2 से गुणा, तीसरे में 5 से गुणा, 2X5=10। दूसरे चरण में 2 जोड़ना, फिर योग को पाँच से गुणा करने पर ये जुड़ा हुआ 2 भी 5 से गिना हो गया, अर्थात 10 जुड़ गया।) अब इस तरह मिली संख्या से वह संख्या घटवाना जो निर्देशक की अपनी लिखी संख्या को दस में से घटाने पर मिलती है, अर्थात इकाई की जगह अपनी संख्या लाने की संक्रिया करवाता है।

सामान्य ढंग से उसे हम ऐसे दिखा सकते हैं:

मान लीजिये निर्देशित ने a लिखा, और निर्देशक ने b लिखा। अब:

  1. aX2=2a (2 से गुणा)
  2. 2a+2 (गुणनफल मेन 2 जोड़ना)
  3. (2a+2)X5=(10a+10) (योग को 5 से गुणा)
  4. (10a+10)-(10-b)=10a+10-10+b=10a+b (इस बार के गुणनफल से (10-b) घटना)

10a+b में साफ तौर पर दहाई का अंक a है, और इकाई का अंक b।

इस लकन-विधि को समझने का अर्थ है इस तर्क को समझना। पर शिक्षक ने तो यह नहीं समझाया। अर्थात उन्हों ने एक रोचक कलन-विधि बिना तर्क के बताई। जिस चीज के पीछे के कारणों और तर्क को हम नहीं समझते वह हमें जादू जैसी लगती है। गणित पढ़ाना जादू सिखाना नहीं होता, यह तो जादू को खत्म करना होता है। जादू खत्म होता है उसके पीछे के कारण या तर्क को समझाने से। जादू और तर्क का बैर है। गणित और जादू का भी बैर है।

गणित में रुची जगाने के लिए यह ट्रिक सिखाना तो ठीक है। पर यदि इसके पीछे का तर्क नहीं समझाया तो बच्चों के मन में गणित को एक रहस्य के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। अर्थात बच्चों के दिमाग में गणित की प्रकृती का गलत रूप स्थापित कर रहे हैं।

यहाँ शिक्षक बहुत कुछ पूछ/कर सकता था, जो गणित के सही स्वरूप को समझने में, विवेक के विकास में और शिक्षा के उद्देश्यों से इस गति-विधि को सरलता से जोड़ ने में मददगार हो सकता था। नीचे कुछ संकेत दिये हैं:

  1. यह पूछना (बच्चों से) कि क्या यह 1-9 के बीच की सभी संख्याओं के लिए किया जा सकता है?
  2. इस के पीछे तर्क क्या है?
  3. क्या तुम ऐसी ही कलन-विधि कोई और भी बना सकते हो?
  4. ऐसी कितनी कलन-विधियाँ बन सकती है?
  5. क्या उन सब में 4 ही चरण होने जरूरी हैं?
  6. इस कलन-विधि में गुणा, जोड़, और घटाव का उपयोग है। क्या ऐसी ही कलन-विधि चारों संक्रियाओं को काम में लेकर बनाई जा सकती है?
  7. क्या 1 से 20 तक की संख्याएं ले कर भी ऐसी विधि बनाई जा सकती है?
  8. इसी विधि में 10 से 20 तक की संख्याएँ लेने से क्या होगा?

यहाँ 1 से 4 तक के सवाल जो बच्ची विडियो में दिखाई है उस के समकक्ष बच्चों से पूछे जा सकते हैं और उन पर आगे काम करवाया जा सकता है। 5 से 8 तक के सवाल थोड़े अधिक गणित जानने वालों के लिए उपयुक्त होंगे।

कुछ सहज निष्कर्ष

उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर शायद हम कुछ शिक्षा में उपयोगी निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

एक, इस तरह की गतिविधियों और आम गणित शिक्षण को गणितीय-चिंतन, गणित की प्रकृती, विवेक के विकास, कुछ मानने से पहले जांच और समझने का आग्रह, और शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों से सहज ही जोड़ सकते हैं। यह गणित का उपयुक्त शिक्षण होगा। ट्रिक्स भर सिखाना गणित में नहीं गणित की ट्रिक्स में रुची पैदा करता है।

दो, यह सब करने के लिए शिक्षक को स्वयं गणित की प्रकृती, उस की अवधारणात्मत संरचना, विवेक का अर्थ, विवेक के विकास का अर्थ, गणितीय चिंतन और शिक्षा के उद्देश्यों को समझना पड़ेगा। जो आम तौर पर या तो शिक्षक समझते हैं या बहुत ही थोड़े प्रयत्न से समझ सकते हैं।

तीन, इस के लिए शिक्षक को अपने स्वयं के दिमाग में यह बात साफ करनी होगी कि कुछ भी सिखाने में समझ और तर्क पर बल देने से वह शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों से स्वयं जुड़ जाती है। तर्क और समझ पर बल नहीं देने से जो सिखाया जाता है वह निस्क्रिय रहता है और व्यापक मानसिक विकास से नहीं जड़ पाता। अतः समस्या समाधान और आगे सीखने में मदद नहीं कर सकता।

चार, बच्चों की सोचने, तर्क करने और समझने की क्षमता पर विस्वास करना होगा। बच्चों में ये क्षमताएं हम जितना मानते हैं उस से ज्यादा होती हैं। हम यदि उनका इस तरफ ध्यान दिलवाएँ, इन क्षमताओं की सराहना करें और उन्हें उनका अभ्यास करने का मौका दें तो वे स्वयं ये सब करने लगेंगे। हाँ, इस में कुछ समय लग सकता है।

यह लेख उक्त विडियो की आलोचना या बुराई के लिए नहीं लिखा गया है। जहां तक इस में काम हुआ है वह बहुत बढ़िया हुआ है। लेख इस तरफ ध्यान दिलवाने के लिए है कि इतनी बढ़िया गतिविधी में थोड़ी-सी और मेहनत से हम कितना कुछ पा सकते हैं। और यह भी कि ये सब हमारी और बच्चों की क्षमताओं के भीतह ही है। बस हमारे विवेकशील-रुझान (rational disposition) और जागरूकता भर का सवाल है।

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25 मई 2020


Teaching Grammar: what do you think?

May 24, 2020

Rohit Dhankar

I watched an hour-long video of teaching tenses in English language. The teacher was very clear, systematic and to my mind spoke at a speed and volume that should be comfortable for students to follow; unhurried, clear pronouncement and right volume. His use of white board with green and red markers was very efficient. It seemed tenses also had been dealt with in some earlier lessons. His over all purpose seemed to be to explains present, past and future tenses with three of their forms: simple, continuous and perfect; fourth form, which he did not name was left to be treated in future.

His basic methodology was to put all the rules regarding tense forms in the following chart and then explain in detail:

His explanation as I said earlier was clear and unhurried, a rough account of it’s beginning  is as follows: टेन्स एक राजा था। उसके तीन बेटे थे, प्रेजेंट, पास्ट और फूचर। पहले बेटे प्रेजेंट के तीन बेटे हुए, उसने नाम रख दिया: सिम्पल, कंटीनुअस और पर्फेक्ट। दूसरे बेटे पास्ट के भी तीन बेटे हुए, उसने भी वे ही नाम रख दिये: सिम्पल, कंटीनुअस और पर्फेक्ट। तीसरे बेटे के भी तीन बेटे हुए और उसने भी वेही नाम रख दिये। अब इनको नंबर लगा देते हैं। (1 से 9 तक नंबर लगा दिये)

फिर उनहों ने बताया की अंतिम कॉलम (पर्फेक्ट) में तीनों जगह वर्ब की थर्ड फोरम आती है। दूसरे कॉलम कंटीनुअस में वर्ब की फ़र्स्ट फोरम प्लस “ing” आता है। और फ़र्स्ट कॉलम में वर्ब की फ़र्स्ट, सेकंड, फ़र्स्ट फोरम इस क्रम में आती है।

Then he goes on to illustrate the kind of sentence structures these rules will generate. He completes the chart taking all the nine forms one by one. Then summarise and does some assessment. It is a good video lesion in the approach he assumed.

However, this set me thinking regarding the approach and mythology of teaching tenses or grammar in English. I will not get into the debate whether it is needed or not here. I do think that grammar taught through right approach can give huge educationally worthwhile benefits. Further down I will talk about this approach and one more approach before requesting English teachers to help me understand a few things. But before that I must share two things.

One, I am not an English teacher. I never studied English as a language after my 10th standard and that did not teach me much. My English is largely self-learnt primarily by reading and writing, and I never referred to grammar. Therefore, my English has gaps in it, is often sounds completely ‘uneducated’, but I manage to think, read, write, listen and speak alright in this language; or so I believe.

Two, I am not evaluating or passing judgment on the teacher’s method. I am trying to understand the approach and requesting English teachers’ opinion on an alternative approach, not necessarily suggesting the alternative approach to be used. It is only a preliminary discussion.

The overall approach in the video

It seems to me that this approach takes the language as a ‘rule governed system’ and wants to teach those rules in their pre-abstracted generalised form. Here what is being dealt with is tense. Let’s remember that “tense” is not the same thing as time. It is a “grammatical category of verbs used to express distinctions of time”. That is, it is a marker of the time of an event or occurrence, and not the “time itself” of the event. In this stage the above-mentioned chart is constructed to capture rules of how the verbs are used in sentences.

Then sentences are analysed to see the examples of these rules. Thus, showing low language can be “created” by applying these rules; together with others in grammar which are either already taught or will be taught in future. But the language is being shown as created through rules.

Lets also pay attention to the fact that a sentence is not the reality or the event happening in the world, it is only a “representation” of that reality.

The language is assumed as rule governed system, which it actually is. Learn the rules, learn means “remember” only. Then create or analyse the language with the rules already “remembered”, thus giving them some cognitive content. But this cognitive content remains only in the form of sentences and forms of verbs. Their actual meaning or connection with the reality (the world as it is and is behaving) is assumed to have understood.

In brief:

[Abstract generalised rules without explaining connection with the reality or meaning]à[Examples of application of those rules on sentences]à[Assuming the meaning to be understood]

Is an alternative approach possible?

I will try to outline an alternative approach below. It is neither new nor any kind of fantastic innovation. Quite well known for a long time. Here I am only describing it may be in somewhat different terms, and creating an example to use in the classroom. Only to elicit opinion of English teachers particularly, and of all teachers generally.

Let’s take the reality (the world as it appears to the child) and child’s consciousness of this reality as the primary ground for all learning including a foreign language, i.e. English here. Let’s take a simple definition of “meaning” as “cognitive awareness of a person of the reality and its understanding”. Let’s take “understanding” as “conceptual representation of the reality in a person’s mind, with all connections s/he can make with the totality of her cognitive content; conceptual as well as emotive and psychomotor”.

Let’s take language as a human capability which is primarily verbal and emerges only in a community. It is used, first and foremost, to help us make meaning of our experienced reality, in other words helps us create our understanding of the reality and situates ourselves in that reality. Which means helps us becoming self-aware. Secondly, it helps us in communicating our understanding created through it to others like us. This communication goes back and forth, thus helping us create a shared (objective, if you like) meaning or understanding of the reality; in other words, helps us create objectivity on the basis of our subjectivity by comparing and relating our subjectivity with other subjectivities who use our shared language.

If we accept these concepts, definitions and slice of general scenario of human situation in the world, then it may indicate an approach to teach language and grammar, which might be substantially different from the approach used in the above-mentioned video.

In a nutshell the suggested approach inverts the above-mentioned approach, or stands the above-mentioned approach on its head:

[Bringing to consciousness (reminding) some known reality]à[Expressing that reality in language to be taught (English)]à[Analysing the language, continuously keeping the meaning in mind, to abstract or generalise rules the language uses to describe the reality]à[formulating the rules with clarity and generalised form]à[Applying the rules to describe similar slices of reality in language].

Let’s try to create an example of this approach which can be used in the classroom. I am out of practice in elementary school teaching and am rather a non-creative person, therefore, my examples may not be that good. You can create your own and/or improve upon what I describe below. In this article my focus is on illustration of a general approach, so think from that perspective, and ignore particular issues in the example.

Any teaching requires some basis of understanding, the new learning can become possible only upon that existing understanding. In other words, we always assume some knowledge and capabilities as basis on which we try to teach new things. Here, I am assuming that students can read and understand some spoken English, even if they can not write and speak at the same level. “Reading” is used here for “reading with comprehension”, not mechanical sound producing.

With this assumption lets imagine a classroom. I am leaving the preliminaries of warming up and mention of what is to be learnt etc. for your imagination. Coming straight to the point to save space and time.

Teacher: अच्छा बताओ क्या राजबीर संतरा खाता है?

Student(s): हाँ, खाता है।

Teacher: “संतरा खाता है” का क्या अर्थ होता है? “आज खाया?”, “कल खाया था?”, “आने वाले कल खाएगा?” या कुछ और?

Student(s): मिले तब खा लेता है। मना नहीं करता।

Teacher: अच्छा, तो यह सामान्य बात है, राजबीर संतरा खाता है मतलब वह हमेशा ही खा सकता है, मिल जाये तो।

Student(s): हाँ।

Teacher: मान लो कोई बच्चा संतरा खाने से माना नहीं करता, मिले तो खालेता है। तो क्या हम किसी भी बच्चे के बारे में यह भी कहा सकते हैं कि “बच्चा संतरा खाता है”?

Student(s): हाँ, कह सकते हैं।

Teacher: ठीक है तो बताओ यही बात कि “बच्चा संतरा खाता है” अङ्ग्रेज़ी में कैसे कहेंगे?

Student(s): (संभव है कुछ छात्र बतादें, हमारे assumption के अनुसार) “A child eats orange”।

Teacher: (बोर्ड पर लिख देते हैं, “A Child eats orange”) ठीक, और यदि यह कहना हो कि “बच्चे संतरा खाते हैं” तो?

….

In this manner, with variations in questions the teacher writes the following sentences on the board:

  1. A child eats
  2. A child eats
  3. Children eat
  4. Children eat
  5. A child does not eat
  6. A child does not eat
  7. Children do not eat
  8. Children do not eat
  9. Does a child eat oranges?
  10. Dos a child eat oranges?
  11. Do children eat orange?
  12. Do children eat oranges?

Now the teacher can draw students’ attention to the underlined words in the sentences. Can ask various questions to elicit general but at this moment tentative rules. For example: does the form of underlined words change with singular or plural of “orange”? Does the form of underlined words change with singular or plural of “Child”? does it change with negation? Does it change with interrogation? In all these cases how does it change? And so on.

After this perhaps the best thing will be to give children a sentence “बंदर केला खाता है”. Ask children to translate it into English and generate all the kinds of sentences as above out of this. Note again that the verb and helping verb change form and place in the sentence according to the subject and not according to the object.

Keeping these sentences in mind can introduce the ideas of subject, object, verb, helping verb, sentence structure, forms of verb, and with this terminology general rules of verb behaviour in simple present tense. Note that rules hare are being formulated in the classroom from the base of English already known to the children. Similar exercises can be used to formulate the rules for simple past and simple future and so on. I have a strong hunch that if good practice is given in formulating rules in simple present and simple past tenses, the children can be given the task of formulating rules for simple present on their own. I somehow believe that most of them will be able to do it well, in not alone in small groups of 3-5.

Thus, rules for all tense forms can be tentatively formulated in the classroom. When all this work is done one can conclude the topic by putting them in the kind of chart that is drawn in the beginning in the video.

It seems to me there are some benefits of the proposed approach over the approach taken in the video. I am not sure, nor do have any empirical evidence to site in favour benefits I expect. They are worked out purely at the speculative level.

  1. The language is used to remind of a slice of some known reality, and then slight variations in that reality are suggested/imagines. English language is used to describe this reality and slight changes in it. This keeping the connection of reality and language all the time very firm. This should help the child in developing an attitude of always looking for the meaning of sentences and resist memorisation of meaningless sentences across the curriculum. If that happens it’s a very important achievement in education.
  2. The rules are generalised from the known part of language. This should develop analytical capabilities of the children if practiced frequently. Help them develop the idea that grammar does not come from the God and is not a structure of mechanical rules. But is created out of analysis of language by human beings, and she herself can also have a go at it.
  3. It should develop the child’s capability to generalise grammar even when not taught by the teacher or the book.
  4. It should make the child become aware of variations in language making her a keen observer in occasions of language use.
  5. It establishes in the child’s mind an understanding of language as a capability to think, analyse, arrive at judgments and describe reality.

These are some views on the approach illustrated through example of teaching tenses, but to my mind generalisable to teaching of whole of grammar and also general analysis and understanding of language. This later might be very useful in use of language across the curriculum. And particularly in understanding literature in future.

All this is not written as some final theory and practice of grammar or English teaching. The purpose here is to seek teachers’ opinion on this approach.

So, what do you say? Your opinion, criticism, questions etc. all are invited.

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23rd May 2020

 

 

 

 

 

 


इस्लामोफोबिया-हिन्दुफोबिया

May 20, 2020

रोहित धनकर

भारतीय मुख्यधारा संचार माध्यमों में और कथित सामाजिक माध्यमों में इस्लाम या मुस्लिम विरोधी टिप्पणियों के लिए खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीयों की जेल या नोकरी से निकालने की खबरें इन दिनों कई बार आई हैं। यह भारत के अंदर और बाहर यहाँ इस्लामोफोबिया  फैल जाने की खबरों के बाद शुरू हुआ है। सभी संचार माध्यमों की एक बड़ी समस्या मुझे यह लगती है की वे खबर पूरी नहीं देते। उदाहरण के लिए यह तो बताएंगे की अमुक व्यक्ती की सामाजिक-संचार माध्यमों में टिप्पणी के कारण नोकरी चली गई। पर उसकी वह टिप्पणी जिसके कारण नोकरी गई बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिलती, मिलती है तो बड़ी मुस्किल से। इसका अर्थ यह हुआ की आप नोकरी से निकालने वाले और खबर देने वाले माध्यम के निष्कर्ष (कि टिप्पणी इस्लामोफोबिक है) को मानने के लिए बाध्य हैं। आप तथ्यों के आधार पर अपना निष्कर्ष नहीं निकाल सकते, क्यों की तथ्य आपको उपलब्ध ही नहीं होते। खैर अभी मुद्दे पर आते हैं।

हाल ही में एक भारतीय डॉक्टर नीरज बेदी को उसके सऊदी अरबी विश्वविध्यालय ने कथित इस्लामोफोबिक टिप्पणी के लिए नोकरी से निकाल दिया। मुझे एक ट्वीटर वाले की मदद से वे टिप्पणियाँ मिली। थोड़ा यह देखना चाहते हैं की ऐसी टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिक हैं क्या? और इनपर किसी की नोकरी जानी चाहिए क्या?

टिप्पणियाँ निम्न प्रकार हैं:

  1. नीरज बेदी: “If all Muslims majority countries are Islamic only and not Secular why Hindus majority nation not to be Hindus nation only. Main concept behind to hate RSS and Hindus. A Truth and Fact I Challenge if any reply back.” (यदि सारे मुस्लिम-बहुल देश इस्लामिक राष्ट्र हैं और पंथ-निरपेक्ष नहीं हैं, तो हिन्दू-बहुल देश हिन्दू राष्ट्र क्यों नहीं होना चाहिए? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुओं से घ्रणा के पीछे मुख्य रूप से इसी धारणा है। यह एक तथ्य और सच्चाई है, मैं चुनौती देता हूँ यदि कोई जवाब देता है तो।”
  2. मोहम्मद शान: “कनिका कपूर मुसलमान है? डिलीवेरी बॉय जिसकी वजह से 70 घरों (को) क्वारेंटाइन किया गया वे (वो) मुसलमान है? दिल्ली में और महाराष्ट्र में जितने भी मजदूर सड़कों पर आए वे सब मुसलमान हैं? जिसने अपनी माँ की तेरहवीं में लोगों को खाना खिलाया और जिसकी वजाह से 3000 घरों की बस्ती सील हुई वह मुसलमान है? [Angry emoji]”
  3. नीरज बेदी: “60% cases belong to Jamaati only”. (60% केस तो सिर्फ जमातीयों वाले हैं।”

तीसरी टिप्पणी मोहम्मद शान की टिप्पणी है। यह स्पष्ट नहीं है की मोहम्मद शान की टिप्पणी नीरज बेदी की पहली टिप्पणी का जवाब है या किसी और टिप्पणी का। नीचे की दो टिप्पणियाँ ऊपर की चर्चा के सातत्य में नहीं हैं, नाही शायद उसी व्यक्ती को संबोधित हैं।

  1. नीरज बेदी: “This is typical redical indian Islamic terrorism mind set as evidenced in Syria and ISIS” (यह अतिवादी इस्लामिक आतंकवादी मानसिकता जो सीरिया और ISIS में दिखती है उसका का भारती नमूना है।) [मुझे नहीं पता यह किस कथन के लिए कहा गया है। अनुमान है भारत में(?) किसी मुसलमान के व्यवहार या कथन पर कहा गया होगा।)
  2. नीरज बेदी: “Truth and Fact is Redical Islamic terrorism exists in one form or other. Your perception Is wrong.” (सच्चाई और तथ्य यह है कि अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद का इस या उस रूप में अस्तित्व है। आपका सोचना (perception) गलत है।)

हम यहाँ पहले इन टिप्पणियों से संबन्धित कुछ सवालों पर सोचेंगे:

  1. इन टिप्पणियों में किए गए दावों की सत्यता-असत्यता की जांच कैसे करेंगे?
  2. क्या ये टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिक हैं?
  3. क्या ऐसी टिप्पणियों पर बंदिश होनी चाहिए?

 

इन टिप्पणियों में किए गए दावों की सत्यता-असत्यता की जांच कैसे करेंगे?

नीरज बेदी की टिप्पणी नंबर 1 भारत में हिन्दू-वृचश्ववादियों की तरफ से दिये जाने वाला एक भ्रामक पर आम तर्क है। इस से आप असहमत हो सकते हैं, और लगभग हर संविधान का सम्मान करने वाला भारतीय इस से असहमत है भी, पर सार्वजनिक रूप से यह तर्क देने पर और यह प्रश्न पूछने पर बंदिश कैसे लगाई जा सकती है? यह तो हमें संविधान में दी गई अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता का सार्वजनिक उपयोग भर है। इस में इस्लाम के विरुद्ध या घ्रणा फैलाने वाली बात कहाँ है? क्या अधिकतर मुस्लिम बहुल देश इस्लामिक राष्ट्र नहीं हैं?

शरजील इमाम के अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता के हक के समर्थन में एक से अधिक भारतीय बुद्धीजीवियों ने लेख लिखे थे, विद्यार्थियों ने जुलूस निकाले थे। ट्वीटर और फेसबुक पर पाठकों ने उसके पक्ष में तर्क दिये थे। जिन्हें याद ना हो उनके लिए: बहुत सारी बातों में इमाम ने एक बात यह भी कही थी कि हिन्दू मुसलमानों की दुश्मन कौम है। कि संविधान ने इस दुश्मन कौम को मुसलमानों के सिर पर बैठा दिया है। और उन्हें मुस्लिम वृचश्व स्थापित करने के लिए संविधान से बाहर निकाल कर अपनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। यदि यह अभिव्यक्ती सतंत्रता के दायरे में आता है तो नीरज की टिप्पणी क्यों नहीं? उसमें तो दुश्मनी की और संविधान को तोड़ने की लड़ाई की बात भी नहीं है।

मुझे नीरज बेदी के उक्त तर्क से न सहानुभूती है न मैं इस से सहमत हूँ। मुस्लिम बहुल देश अपनी कट्टरपंथी आस्था और अन्य धर्मों के प्रती घोर असहिष्णुता में अपने देशों का क्या करते हैं यह उनका अपना मामला है। भारत एक समानता और स्वतन्त्रता पर आधारित संवैधानिक राष्ट्र है। यही इस की संस्कृति से मेल खाता है। यही मानवता की मांग है। यही यहाँ के निवासियों का बहुमत है। अतः भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं बनेगा, स्वयं हिन्दू ही इसे हिन्दू-राष्ट्र नहीं बनाने देंगे। पर इसी राष्ट्र की संस्कृति और संविधान के अनुसार नीरज को यह कहने का हक भी है। साथ ही जब तक यह सवाल सार्वजनिक तौर पर खुल कर नहीं पूछा जाएगा, और इसका जवाब सार्वजनिक तौर पर साफ, असत्य-आधारित और खुल कर नहीं दिया जाएगा; तब तक यह सवाल खत्म नहीं होगा। और इस सवाल का जिंदा रहना भारत के हित में नहीं है। अतः इस सवाल को खत्म करने के लिए इसका पूछा जाना और जवाब दिया जाना जरूरी है।

नीरज की दूसरी टिप्पणी मेरी जानकारी के अनुसार तथ्यात्मक रूप से गलत है। जहां तक मुझे पता है कोरोना के फैलाव में जमात का योगदान अधिकतम 43% एक-दो दिन के लिए रहा है। 60% कभी नहीं हुआ पूरे भारत में। हालांकि विशिष्ट प्रान्तों में शायद रहा हो। यह इस्लामोफोबिक है या नहीं इस पर आगे विचार करेंगे।

चौथी टिप्पणी में नीरज बेदी किसी व्यवहार या कथन को “अतिवादी इस्लामिक आतंकवादी मानसिकता जो सीरिया और ISIS में दिखती है उसका का भारती नमूना” बता रहा है। हमें नहीं पता वह व्यवहार या मानसिकता क्या है, जिस की तरफ नीरज इशारा कर रहा है। पर सीरिया में और ISIS की “अतिवादी इस्लामिक आतंकवादी मानसिकता” की अभिव्यक्ती और व्यवहार खुलकर हुआ है, इस से तो इंकार करना संभव नहीं लगता। और इस मानसिकता पर भारत में भी खुलकर व्यवहार हुआ है, हो रहा है। इसकी अभिव्यक्ती भी होती रहती है। और तुर्रा यह की इस की अभिव्यक्ती करने वालों को ‘उदार लोकतन्त्र’ का समर्थक भी घोसित किया जाता है। बल्कि उनकी इसलामपरस्त और हिन्दू-घृणा से ओतप्रोत मानसिकता की तरफ इशारा करने वालों को सांप्रदायिक और इस्लामोफोबिक भी कहा जाता है। यह भी ध्यान देने की बात है की जहां तक हम जानते हैं नीरज सब मुसलमानों को इस अतिवादी इस्लामिक मानसिकता का शिकार नहीं बता रहा। किसी विशिष्ट घटना, व्यक्ती या विचार को बता रहा है।

पाँचवीं टिप्पणी में वह कह रहा है: “सच्चाई और तथ्य यह है कि अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद का इस या उस रूप में अस्तित्व है। आपका सोचना (perception) गलत है।” आज के भारत और आज की दुनिया में “अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद” के अस्तित्व से कौन इंकार कर सकता है? इस सच्चाई से आँखें मूँदने से क्या हाशिल होगा? हालांकि यह कहना की सारे मुसलमान ऐसे हैं निसंदेह गलत और दुर्भावना पूर्ण होगा। पर अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद है, वह इस्लामिक धर्म-ग्रन्थों की एक व्याख्या से समर्थित है, और बहुत सारे मौलाना उस व्याख्या को समर्थन देते हैं। कोई चाहे तो इस पर बहस और शोध हो सकता है, पर वह समय की बरबादी होगी।

तो नीरज की टिप्पणियाँ सत्यता और अभिव्यक्ती स्वतन्त्रता के दायरे की दृष्टि से तो ट्वीटर जैसी जगह चलने वाले विमर्श में गलत नहीं काही जा सकती। पर कुछ लोगों की आपत्ति यह हो सकती है कि इन टिप्पणियों पर नोकरी से तो सऊदी अरब में निकाला गया है, और मैं सारी विवेचना भारतीय संदर्भों में कर रहा हूँ। यह महत्वपूर्ण बात है, इस पर विचार आगे करेंगे। अभी यह देखते हैं कि क्या ये टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिक हैं?

क्या ये टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिक हैं?

इस सवाल का जवाब देने से पहले हमें यह समझना पड़ेगा कि “इस्लामोफोबिया” और “इस्लामोफोबिक” के अर्थ क्या हैं? इस्लामोफोबिक तो वह चीज होगी जिसमें इस्लामोफोबिया के गुण पाये जाएँ। तो फिर हमें इस्लामोफोबिया का अर्थ समझना पड़ेगा।

ऑक्सफोर्ड, कॉलिन्स शब्द कोषों और इंटरनेट पर बहुतायत से काम में लिए जाने वाले वर्डवेब का सहारा लें तो इस्लामोफोबिया इस्लाम, मुसलमानों और मुस्लिम-राजनीति के प्रति एक रवैय्या या मनोभाव (attitude) है। इस मनोभाव में कुछ उपमनोभाव समाहित लगते है: भय, विरूचि, घ्रणा, प्रतिकूल-पूर्वधारणा, और नापसंदगी। इस्लामोफोबिया बनने के लिए इन में से कुछ भाव तीव्र और विवेकविहीन या तर्क-विहीन होने चाहिएं।

लगता है अभी इस शब्द पर समाज-शास्त्रियों ने बहुत ध्यान नहीं दिया है। क्योंकि मुझे यह समाज-शास्त्रों के अंतरराष्ट्रीय कोष में और ब्रिटन्नीका में नहीं मिला। पर विकिपीडिया में है। विकिपेडिया में इस के बारे में जो लिखा है उसका अर्थ कुछ निम्न प्रकार है:

“शब्द के अर्थ पर बहस जारी है, और कुछ इसे समस्याग्रस्त मानते हैं। कई विद्वान इस्लामोफ़ोबिया को ज़ेनोफ़ोबिया या नस्लवाद का एक रूप मानते हैं, हालांकि इस परिभाषा की वैधता विवादित है। कुछ विद्वान इस्लामोफोबिया और नस्लवाद को आंशिक रूप से अंतर्व्यापी घटना के रूप में देखते हैं, जबकि अन्य लोग इस रिश्ते पर विवाद करते हैं, मुख्य रूप से इस आधार पर कि धर्म एक नस्ल नहीं है। इस्लामोफोबिया के कारण और विशेषताएं भी बहस का विषय हैं। कुछ टिप्पणीकारों ने 11 सितंबर के हमले, इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवेंट के उदय और इस्लामिक चरमपंथियों द्वारा यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में अन्य आतंकवादी हमलों के परिणामस्वरूप इस्लामोफोबिया में वृद्धि दर्ज की है। कुछ लोगों ने इसे संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ में मुसलमानों की बढ़ती उपस्थिति के साथ जोड़ा है, जबकि अन्य इसे एक वैश्विक मुस्लिम पहचान के उद्भव के रूप में देखते हैं।”

विचित्र बात यह है कि इस्लामोफोबिया के कारणों का जिक्र कराते हुए विकिपीडिया को योरोप और अमेरिका में इस्लामिक आतंकवाद की घटनाएँ तो याद आती हैं, पर भारत में दसकों से हो रहे आतंकवादी हमले याद नहीं आते। पर यह तो लिखने वाले का अपना झुकाव और पक्षपाती रवैय्या है। हमारे लिए काम की बात यह है की लोगों के मन में इस्लामोफोबिया का भाव बैठने में आतंकवादी हमलों की भूमिका का महत्व है। साथ ही और भी बातें हैं या होने का दावा किया जाता है।

मैं गलत हो सकता हूँ, पर नीरज की उपरोक्त बातों में इस्लाम या सभी मुसलमानों के प्रती कोई “भय, विरूचि, घ्रणा, प्रतिकूल-पूर्वधारणा, और नापसंदगी” तो मुझे नहीं लगी। बात को ठीक से समझने के लिए मान लीजिये कि कोई कहे कि “कट्टर हिंदुवाद की राजनीति मुसलमानों के जनसंहार की तैयारी या/और उनको दबाकर दोयम दर्जे के नागरिक बनाने के लिए मुसलमानों पर अत्याचार कर रही है”। (आगे इस कथन को दोहराने के बजाय, कथन-1 कह कर इंगित करेंगे।)  आप जानते हैं कि ऐसा भारत में आए दिन बहुत से बुद्धिजीवी कहते हैं। आप में से भी बहुतों ने ऐसा कहा होगा, और कहते भी हैं। अब कुछ सवालों पर विचार करते हैं:

  1. क्या इस कथन में सब हिंदुओं के लिए कहा जा रहा है? या सिर्फ “कट्टर हिंदुवाद की राजनीति” करने वालों के बारे में?
  2. क्या इस कथन में सब हिंदुओं के लिए “भय, विरूचि, घ्रणा, प्रतिकूल-पूर्वधारणा, और नापसंदगी” अभिव्यक्त हो रही है? (आप में से जो इस प्रश्न का उत्तर “हाँ” में दे रहे हैं उन्हें परिभाषा के अनुसार इस कथन को हिन्दुफोबिक मानना पड़ेगा।)
  3. क्या आप ऊपर उदाहरण के लिए हिन्दू कट्टरवाद की राजनीति के बारे में जो कहा उसे उचित मानते हैं? (यदि आपका उत्तर “हाँ” है, और दूसरे प्रश्न का उत्तर भी आपने “हाँ” में दिया है, तो आप अपने हिन्दुफोबिक होने को उचित मानते हैं।)

नीरज की टिप्पणी वैसे ही ‘अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद’ की विचारधारा को मानने वालों के लिए है, जैसे उपरोक्त कथन-1 केवल कट्टर हिंदुवाद की राजनीति करने वालों के लिए। यदि कथन-1 सब हिंदुओं के लिए नहीं है, तो नीरज की टिप्पणियाँ भी सब मुसलमानों के लिए नहीं हैं। यदि कथन-1 जो हर रोज यहाँ के प्रबुद्ध लोग और उनके बाहर के दोस्त दोहराते हैं हिन्दुफोबिक नहीं है तो नीरज की टिप्पणियाँ भी इस्लामोफोबिक नहीं है। और मैं मानता हूँ कि नीरज की टिप्पणियाँ कथन-1 के बजाय ज्यादा सही है, तथ्यों के आधार पर ज्यादा साफ तरीके से सिद्ध की जा सकती हैं।

क्या ऐसी टिप्पणियों पर बंदिश होनी चाहिए?

यदि कथन-1 जैसी टिप्पणियों पर हमारे देश में बंदिश लगादी जाये तो हमारे बौद्धिक दुनिया भर में जो कोहराम मचाएंगे उस का आप अंदाजा लगा सकते हैं। मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है। सौभाग्य से हमारे यहाँ एक संविधान है, उसमें अभिव्यक्ती की आजादी है, और एक उच्चतम न्यायालय है। इस लिए सारे दुसप्रचार के बावजूद आप का ऐसा ही मत है तो आप इसको अभिव्यक्त कर सकते हैं। मजेदार बात यह है की हमारे यहाँ जो लोग कथन-1 देहराते थकते नहीं और इस देहरान को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं, वेही लोग “इस्लामिक पक्षधरता की राजनीति के चलते जिहादी मानसिकता को संरक्षण मिल रहा है और इस्लामिक आतंकवाद को बल मिल रहा है” (कथन-2) यह कहदेने पर रोक लगाना चाहेंगे और इस कथन को इस्लामोफोबिक मानेंगे। कथन-2 उतना ही सत्य है जितना कथन-1, और कथन-2 को साबित करने के लिए उतने ही प्रमाण दिये जा सकते हैं, जीतने कथन-1 को साबित करने के लिए। हम यह नहीं देख पा रहे कि सत्य में पक्षपात न्याय और सद्भाव की हत्या कर देता है, और हमारे बौद्धिक हमें यह नहीं देखने दे रहे। यह हमारा दुर्भाग्य है।

अब इस बात पर आते हैं कि नीरज बेदी की नौकरी तो सऊदी अरब में वहाँ के कानून के अनुसार गई है, उसका विश्लेषण भारतीय संदर्भ में भारतीय कानून के अनुसार करना कहाँ तक उचित है।

जहां तक मैं जानता हूँ (इस अनुच्छेद में सऊदी अरब के बारे में जो कहने वाल हूँ वे सब बातें मैंने अभी पक्की तौर पर जाँची नहीं हैं, अब जांच करूंगा। अतः मैं गलत हूँ तो बताएं, दुरुस्त करलूँगा): सऊदी अरब एक इस्लामिक राज्य है। वहाँ आप मंदिर नहीं बना सकते। वहाँ आप मंदिर की आरती को ध्वनी विस्तार यंत्र से प्रसारित नहीं कर सकते। वहाँ आप किसी मुस्लिम को हिन्दू बनाने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते। कोई मुसलमान हिन्दू बन जाये तो उसे दंड मिलेगा, शायद मृत्यु दंड। वहाँ रोज दिन में पाँच बार कई मस्जिदों से ध्वनी विस्तार यंत्रों से यह घोषणा होती है कि “अल्लाह के अलावा और कोई इबादत के काबिल नहीं है” और “अल्लाह सब से महान है”, और वहाँ आप “शिव के अलावा और कोई इबादत के काबिल नहीं है” और “शिव सब से महान है” की घोषणा नहीं कर सकते। वहाँ मुस्लिम के अलावा और किसी को बराबर के नागरिक अधिकार नहीं मिल सकते। अब इसके बाद आप कहते हैं कि “हमारे यहाँ कोई किसी दूसरे के धर्म (मजहब) की बुराई नहीं कर सकता, कोई विभेदकारी वक्तव्य नहीं दे सकता”। यदी दूसरों के धर्मों पर बंदिश लगाना उनकी बुराई और बेइज्जती नहीं है तो फिर वह होती क्या है?

पाठकों को लग रहा होगा कि मैं यहाँ अब सऊदी अरब की क्यों ‘बुराई’ कर रहा हूँ, इस से हमारा क्या लेना देना। एक, मैं बुराई नहीं कर रहा, कुछ तथ्य रख रहा हूँ। दो, मैं भी यही मानता हूँ कि सऊदी अरब के आंतरिक कानून से हमारा कुछ लेना-देना नहीं। वे अपना देश कैसे चलना चाहते हैं, किस धर्म के आधार पर चलाना चाहते हैं, यह उनके तय करने की बात है। पर अब कई कारण बन रहे हैं कि शायद हमें सोचना पड़े, उनकी आंतरिक व्यवस्था के संदर्भ में नहीं, उनकी बाहरी नीतियों के संदर्भ में।

एक तो, इस का यहाँ सिर्फ जिक्र कर रहा हूँ बिना विस्तार में जाये, यह जग-जाहिर है कि भारत में सऊदी अरब से बहुत पैसा कट्टर इस्लाम को फैलाने के लिए आ रहा है, और उस से हमारा समाज और लोकतन्त्र प्रभावित हो रहा है। पर आज के लेख में इस के जिक्र का कारण कुछ और है।

दूसरी और आज के संदर्भ की बात यह है: हमारे देश के एक संवैधानिक पद पर अशीन जिम्मेदार मुसलमान नागरिक ने अपने फेसबुक और ट्वीटर के माध्यम से कहा कि भारतीय मुसलमानों ने अभी तक मुस्लिम और अरब दुनिया से शिकायत नहीं की है, करेंगे तो हिमस्खलन (avalanche) आजाएगा, अर्थात तुम्हारे ऊपर बर्फ का पहाड़ टूट पड़ेगा। इसे आप एक अकेले व्यक्ति के किसी गुस्से में उपजे विचार के रूप में देख रहे हैं तो मेरे मत से इसे ठीक से नहीं समझ रहे। यह उसी वैश्विक-इसलामवाद की अभिव्यक्ती है जो भारत में जब-जब हिन्दू-मुसलमान तनाव होता है तो अभिव्यक्त होती है। मैं यहाँ इस के विस्तार में नहीं जाऊंगा, लेकिन इस का इतिहास उपलब्ध है, दस्तावेजी साक्ष्यों के साथ। यह धमकी भारत और हिंदुओं को संयुक्त अरब अमीरात (UAE) में कुछ भारतीयों पर इस्लाम विरोधी ट्वीटर टिप्पणियों के कारण कारवाई के बाद दी गई।

इसी कड़ी में 13 या 14 मई 2020 को हमारी एक प्रसिद्ध और उदार पत्रकार आरफा खनुम शेरवानी ने अरब के एक प्रसिद्ध और उदार पत्रकार खलेद अलमीना का विडियो साक्षात्कार किया। इस साक्षात्कार में सुश्री शेरवानी के भारत में इस्लामोफोबिया के कारण यहाँ की अर्थव्यवस्था को अरबी नाराजगी से क्या नुकसान हो सकते हैं, यहाँ के जो लोग अरब और खाड़ी देशों में नौकरी करते हैं उनको क्या नुकसान हो सकते हैं आदि पर बात कर रही हैं। यह पत्रकारिता में आमबात है और इसपर किसी को कोई ऐतराज करने की जरूरत नहीं है। समस्या तब पैदा होती है जब अलमीना साहब बार बार यह कहते हैं की भारत में मुसलमानों को मारा जा रहा है, पढ़े लिखे हिन्दू भी इस्लामोफोब हो गए हैं, यहाँ मुसलमानों पर ज्यादती होगी तो अरब देशों में प्रतिकृया होगी। वे इसमें सरकार को दोष देते हैं, बीजेपी और आरएसएस को दोष देते हैं, और एक से अधिक बार कहते हैं की मोदी को बोलना चाहिए की अब बहुत हो गया। अर्थात उसे स्वीकार करना चाहिए की यहाँ मुसलमानों पर एकतरफा ज्यादती हो रही है। यह धीरे-धीरे एक धमकी जैसा बन जाता है, ये करो नहीं तो नौकरियाँ जाएंगी, आर्थिक सहयोग घटेगा। वे कहते हैं की वे स्वयं अब किसी हिन्दू के साथ काम नहीं करना चाहेंगे। और ये बताने की कोशिश करते हैं की उनके यहाँ सब के साथ बिना धार्मिक भेदभाव के व्यवहार किया जाता है। और हमारी उदार पत्रकार इन सब चीजों पर हामी भारती हैं। और यह वह देश है जिसके कुछ नियम-कायदे मैंने ऊपर लिखे हैं। अर्थात हमारी उदार पत्रकार एक अरबी उदार संपादक की हमें यह बताने में मदद कर रही हैं की हमारे यहाँ धार्मिक भेदभाव नहीं होना चाहिए, उनके इस्लामिक देश में तो ऐसा ही होगा और वह उचित है। हमें भारतीयों को धार्मिक भेदभाव नहीं करना, और हम इसे सहन भी नहीं करेंगे। पर पर दूसरे धर्मों को इंचभर जगह ना देने वाले इस्लामिक देश के किसी व्यक्ती से धमकी भरे लहजे में ये सब हम क्यों स्वीकार करें? ये भारतफोबिया और हिन्दुफोबिया है, मैं उनके ही मापदंड काम में लूँ तो।

यह साक्षात्कार 13 या 14 मई का है। 10 मई को और 12 मई को हूगली में मुसलमानों ने हिंदुओं पर पुलिस के अनुसार इस लिए आक्रमण करके उनके घर जलादिए कि उनपर फबती कसी गई थी। हमारी उदार पत्रकार और अरबी उदार पूर्व संपादक एक बार भी इस घटना का या किसी भी घटना का जिक्र नहीं करते जो इस तरफ इशारा करती हो की इस देश में इस्लामिक आतंकवाद है, यहाँ ट्वीटर पर जितनी धमकियाँ और गालिया मूर्ख हिन्दू मुसलमानों को देते हैं, उतनी ही  मूर्ख मुसलमान हिंदुओं को भी देते हैं। यहाँ दंगों की घटनाएँ दुर्भाग्य से हुई हैं, पर वे एकतरफा नहीं रहे हैं।

यह पृष्टभूमि है जिसमें इस्लामिक कट्टरवाद के पोशक और घोर भेदभाव वाले देशों में नीरज जैसों की नौकरियाँ जाती हैं और हमारे प्रबुद्ध लोग उसे उचित ठहराते हैं। भारत में हिन्दू-मुस्लिम तनाव एक यथार्थ है। इसे मिटाने के लिए इस पर विचार करना पड़ेगा। वह विचार किसी काम का नहीं हो सकता यदि एकतरफा इस्लामोफोबिया की ही कहानी चलाये। इस एकतरफा आख्यान से तो यह बढ़ेगा यहाँ तनाव बढ़ेगा। अंतरराष्ट्रीय उम्मा का भय दिखाने की कोशिश जो आरफा खनुम शेरवानी और जफरुल-इस्लाम खान ने की है, और जो समय समय पर होती रहती है, उसका विरोध यदि हमारे बौद्धिक नहीं करेंगे तो समस्या और उलझेगी। और इस प्रक्रिया में बौद्धिक और भी अप्रासांगिक होते चले जाएँगे।

आखिर में एक बात और, जो बहुत लोगों को बहुत नागवार गुजरेगी। ऊपर हमने यह देखा है की फोबिया में ये मनोभाव होते हैं: भय (fear), विरूचि (aversion), घृणा (hate), प्रतिकूल-पूर्वधारणा (prejudice), और नापसंदगी (dislike)। क्या अंबेडकर जब जाती-प्रथा के विरुद्ध लिख रहे थे, और हिन्दू धर्म को मूल रूप से गैर-बराबरी का धर्म बता रहे थे, ऐसा धर्म जो दूसरे को हीन समझता है। तो क्या वे हिन्दुफोबिक थे? या वे अपनी दृष्टि से हुन्दुओं के व्यवहार और मनुस्मृति के विश्लेषण से निकले नतीजों को अभिव्यक्त कर रहे थे? यदि आप इसे हिन्दुफोबिया के नाम से प्रचलित करते हैं तो आप हिंदुधर्म के व्यावहारिक रूप और उसके एक महत्वपूर्ण ग्रंथ की आलोचना पर प्रतिबंध लगाएंगे। अर्थात इन दो में जो बुराइयाँ हैं, कमियाँ हैं, मानवता विरोधी भाव और कर्म हैं, उनका जिक्र नहीं कर सकते। समाज में यह विवेचना बंद होने से जातिप्रथा और मनुस्मृति पर न तो ठीक से विमर्श संभव रह जाएगा न ही उस में सुधार की गुंजाइश। बस उसकी बढ़ोतरी ही होती रहेगी।

यदि यह बात सही है तो आतंकवाद की घटनाओं, उनके इस्लाम से जुड़ाव, इस्लाम के शास्त्रों (कुरान और हदीस) से समर्थन और उलेमाओं के समर्थन वाली व्याख्या की बात करना इस्लामोफोबिक क्यों माना जाना चाहिए? इन चीजों पर चर्चा बंद कर देने से भी वही होगा जो हिन्दू-धर्म पर चर्चा बंद कर देने से। अर्थात इनकी आंतरिक बुराइयाँ पनपती ही रहेंगी। सुधार की नान जरूरत महसूस होगी और न संभावना।

इस लेख में अभिव्यक्त विचारों पर आपके मत आमंत्रित हैं। पर बिना गाली-गलोच और व्यक्तीगत टिप्पणियों के।

कुछ प्रश्न, जिन पर विचार करना हमारे समाज में अब जरूरी हो गया है, इन्हें अतिप्रश्न मान कर दबाते रहने से अंदर ही अंदर इन के गलत उत्तर प्रचारित होंगे। और वे उत्तर समाज में लगातार तनाव पैदा करेंगे। इन का सामना करने से एक बार बहुत डर लगेगा, पर अंततः हम आराम से बात करना सीख जाएंगे, ऐसा मुझे लगता है:

  1. क्या ऊपर आए कथन-1 और कथन-2 जैसी टिप्पणियाँ हमारे संचार माध्यमों में रोज नहीं होती?
  2. क्या ये टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिया या हिन्दुफोबिया की अभिव्यक्ती है?
  3. क्या हमें इन पर कानूनी रोक लगानी चाहिए?
  4. क्या हिन्दू-धर्मशास्त्रों की आलोचना और उनपर कड़ी टिप्पणियाँ हिन्दुफोबिया है?
  5. क्या मुस्लिम धर्मशास्त्रों की आलोचना और उन पर कड़ी टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिया है?
  6. क्या राम की शंबूक-वध, बाली-वध, सीता की अग्नि परीक्षा आदि को लेकर आलोचाना राम का अपमान है, जिसे सहन नहीं कारना चाहिए?
  7. क्या मुहम्मद की विभिन्न चीजों पर आलोचना उस का अपमान है, जिसे सहन नहीं करना चाहिए?
  8. क्या यह लेख सांप्रदायिक और/या इस्लामोफोबिक है?

हम में से हर कोई गलत हो सकता है। मैं भी इस लेख में बहुत जगह गलत हो सकता हूँ। और समझना चाहता हूँ किन जो लोग ऐसी चीजों पर सोचते हों वे किन नतीजों पर किन कारणों (reasons, not causes) से पहुँचते हैं। ठीक से सोच कर बताएँगे तो उपयोगी होगा।

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20 मई 2020


परस्परता के सिद्धान्त पर कुछ विचार

May 18, 2020

रोहित धनकर

कुछ दिन पहले मैंने अपने फेसबुक पृष्ठभूमि (background) पर दो चीजें लिखदीं। एक कुछ भी मानने या विश्ववास करने से में सावधानी रखने के बारे में थी, जो नीचे दे रहा हूँ।

“कुछ मानने से पहले , पूछो:

  1. इसका अर्थ क्या है?
  2. आपको कैसे पता कि यह सही/सच है?
  3. यह मानने के पीछे आपकी पूर्व मान्यताएँ क्या हैं?
  4. आप की बात मानने के निहितार्थ क्या हैं? (अर्थात यह मानने से और क्या मानना और करना जरूरी हो जाएगा?)

दूसरी बात कुछ करने में सावधानी रखने से संबन्धित थी। वह भी नीचे लिख रहा हूँ।

“कुछ करने से पहले याद रखिए:

न तत्परस्य संदाद्यातात्प्रतिकूलम यदात्मन: ।

एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ (महाभारत १३.११४.०८)

दूसरों के साथ वह मत करो जो स्वयं के प्रतिकूल समझते हो। संक्षेप में यही धर्म (न्याय-संगत व्यवहार) है। इस से अलग व्यवहार कामना जनित (अधर्म) है।”

हमारे एक पुराने मित्र श्री दीपेंद्र बघेल को यह दूसरी बात नागवार गुजरी। उनहों ने तुरंत आपत्तियों की एक लंबी फेहरिस्त टिप्पणी में लिखदी। इन दिनों मैं कुछ लिखने के काम में उलझा हुआ था, अतः उस गति से बघेल साहब की आपत्तियों का निराकरण नहीं कर सका जिस से उन्होने ने तुरंत लिख दिया था। वैसे भी वे जवान आदमी हैं, ऊर्जावान हैं, अतः उनकी बुद्धी भी बहुत गति से चलती है। बुढ़ापे में सोचना, बोलना, चलना, लिखना सब धीरे होने लगता है। इन दो कारणों से उनकी आपत्तियों पर लिखने में समय लगा। अब समय मिला है तो लिख रहा हूँ। आशा है उनकी रुची अभी खत्म नहीं हुई होगी इस बात में। एक बात और, उनकी आपत्तियाँ इतनी सारी और इतनी गहरी हैं की मैं उन पर फेसबुक टिप्पणी के रूप में नहीं लिख सकता। मुझे एक नया ब्लॉग लिखना पड़ रहा है। इस भूमिका के बाद अब बघेल साहब की आपत्तियों पर बात करते हैं।

आपत्तियाँ और निराकरण की कोशिश

बघेल साहब ने अपनी टिप्पणियाँ एक अनुच्छेद के रूप में लिखी हैं। मुझे लगता है उन पर ठीक से ध्यान देने के लिए अलग-अलग दर्ज करें तो उनकी बात भी बेहतर समझ में आएगी और मेरे लिए जवाब देना भी कुछ सरल हो जाएगा। अतः में उन्हें अलग-अलग ले रहा हूँ, पर ध्यान रखूँगा की इस सुलझाने के प्रयत्न में उनके मंतव्य के साथ कोई छेड़-छाड़ न हो।

बघेल साहब की टिप्पणी का पहला हिस्सा निम्न प्रकार है, इस में मैंने कोष्ठक में संख्याएं लिखने के अलावा कोई बदलाव नहीं किया है:

“(1) यह तो दूसरों को अपनी छवि में संकुचित करना हो गया और (2) दूसरे की स्वायत्तता में अनिधिकृत अतिक्रमण भी हुआ।(3) इस नैतिक आदर्श में , स्वयं के प्रति व्यवहार को ही आदर्श मान लिया गया है।(4) दूसरे की भिन्नता और अद्वित्यता का इसमे ज्ञानात्मक सम्मान ही नहीं है।(5) बल्कि अहम केंद्रित मनो श्लाघा है , जो अन्य पर फैसले सुना सकती है।”

इस टिप्पणी को गंभीरता से लेने का एक कारण यह भी है कि और भी बहुत लोगों ने इस नैतिक सिद्धान्त के बारे में कुछ ऐसी ही बातें कही हैं। यह बहुत पुराना सिद्धान्त है, लगभाग सभी पुरानी संस्कृतियों में पाया जाता है। अधिकतर दार्शनिकों ने इसे कुछ-कुछ वैसे ही कारणों से अनदेखा किया है जैसा ऊपर बघेल साहब ने दिये हैं। इम्मानुएल काँट ने अपने आदेशात्मक-अनिवार्यता (Categorical Imperative) के सिद्धान्त को समझाने में फूट-नोट के रूप में इस सिद्धान्त पर कुछ ऐसी ही टिप्पणी की है। काँट की आपत्ति मूल रूप से यह है की इस सिद्धान्त में स्वयं और दूसरों के प्रती कर्तव्यों की अनदेखी होती है। इस में तो कोई जो दूसरों की मदद के कर्तव्य से बचना चाहता है वह कह सकता है की दूसरे भी मेरी मदद न करें। काँट यह भी कहते हैं की इस सिद्धान्त के तहत तो कोई अपराधी न्यायाधीश के विरुद्ध भी तर्क कर सकता है।[1] मजेदार बात यह है की स्वयं काँट के आदेशात्मक-अनिवार्यता के सिद्धान्त को शोपेनहार[2] एक आत्मकेंद्रित अहम-जनित सिद्धान्त घोषित कर देते हैं। जब की बेचारे काँट बहुत विस्तार में यही सिद्ध करना चाहते हैं कि उनका सिद्धान्त आत्म-प्रेम (सेल्फ-लव) से प्रेरित नहीं है। तो बघेल साहब निसंदेह महान संगत में हैं।

पर क्या यह महान संगत सही भी है? काँट और शोपेनहार से पंगा लेने को तो बाद के लिए छोड़ते हैं, क्यों की बहुत लिखना और उद्धरण देने पड़ेंगे। अभी तो बघेल साहब की आपत्तियों की जांच करके काम चला लेते हैं। आप ने ध्यान दिया होतो मैं ने फेसबुक पर दो बातें काही थी। एक नैतिक, जिस पर विचारधीन टिप्पणी है; और दूसरी ज्ञांमीमांसात्मक जांच संबंधी, 4 सवालों के रूप में। तो विचारधीन आपत्तियों पर उन्हीं सवालों में से कुछ को काम में लेते हुए कुछ समझने की कोशिश करते हैं।

“दूसरों के साथ वह मत करो जो स्वयं के प्रतिकूल समझते हो” के सिद्धान्त पर पहली आपत्ति यह है कि “यह तो दूसरों को अपनी छवि में संकुचित करना हो गया”

दूसरों को अपनी छवि में संकुचित करने का क्या अर्थ हो सकता है? कि स्वयं को जैसा समझते हो, दूसरे को भी उसी से आंकना, जबकि दूसरे की समझ, भावनाएं और दुख-दर्द भिन्न हो सकते हैं। क्यों कि “संकुचित” करने की भी बात है, अतः दूसरे का आत्म अधिक व्यापक होने की तरफ भी इशारा लगता है। यहाँ कई सवाल उठाते हैं। उनमें सब से सरल व्यापकता वाला है। यह बहुत मुश्किल हो जायेगा कि व्यापकता के मापदंड क्या होंगे, और यह हम कैसे मान सकते हैं कि ‘कर्ता’ की अपेक्षा ‘कर्म’ लजामी तौर पर अधिक व्यापक स्व वाला ही होगा? उलटा क्यों नहीं होस अकता? तो व्यापकता का आशय शायद कोई और है। शायद भावना यह है कि जिस परिस्थिति में दूसरा है उसे तो वही ज्यादा स्पष्टता और गहराई से महसूस कर सकता है। तो बात दूसरे के दुखदर्द और भावनाओं के ठीक-ठीक आंकलन की (बौद्धिक सटर पर) और महसूस करने की (संवेदना के स्तर) पर हो सकती है।

उद्धृत श्लोक के भाव को ठीक से समझने के लिए इस से पहले और बाद के कुछ श्लोक देखते हैं, उस से शायद पता चले की यह आपत्ति कितनी उचित है। उद्धृत श्लोक से ठीक पहले का श्लोक (13.114.07) कहता है कि “जो सब प्राणियों को अपनी ही आत्मा का हिस्सा मानता है उसके कर्मों की गति पहचानने में तो देव भी स्तब्ध रह जाते हैं”, अर्थात वह तो नैतिकता और अच्छे कर्मों में बहुत उन्नत है। अब कोई तर्क यह कर सकता है की “सब को अपनी आत्मा का हिस्सा मानना” अर्थात अपनी आत्मा को सब से बड़ा समझ कर दूसरों को उसमें समाहित करना, मतलब उनको संकुचीत करना। पर आत्मा को हम सामान्य अर्थ में “चेतना” (consciousness या mind) समझें तो यह चेतना कोई भौतिक ससीम क्षेत्र नहीं बल्कि संवेदना की अनुभूती की सामर्थ्य है। यहाँ बात सब को अपनी अनुभूति में जकड़ने की नहीं बल्की अपनी चेतना को इतना विस्तार देने की हो रही है कि वह वो सब भी महसूस कर सके जो कर्ता स्वयं के जीवन में तो महसूस नहीं कर रहा पर जिनको अपनी चेतना का हिस्सा मान रहा है वे महसूस कर रहे हैं। बात दूसरों की छवि को संकुचित करके अपने में समेटने की नहीं, आत्म को इतना विस्तृत कर लेने की है की दूसरे की पीड़ा अपनी लगे।

बात को समझने के लिए हम एक काल्पनिक कथा का सहारा ले सकते हैं, जो शायद भारत में एक से अधिक संतों के लिए कही जाती है। कथा में बैल की पीठ पर किसी ने कोड़ा मारा तो निशान संत की पीठ पर पड़ गए, अर्थात संत ने बैल की पीड़ा महसूस की। इसे अङ्ग्रेज़ी में empathy कहते हैं। हिन्दी में शायद संवेदाना। इस काल्पनिक कथा में संत ने बैल की पीड़ा को संकुचित करके अपनी अनुभूती में नहीं बांधा, बल्की अपनी संवेदना के माध्यम से चेतना का विस्तार करके बैल की पीड़ा को महसूस किया। अतः संदर्भ को ठीक से समझें तो दूसरों की छवी को संकुचित करने की नहीं, बात अपनी चेतना (आत्म) को विस्तार देने की है। तो यह आपत्ति तो गलत व्याख्या का नतीजा लगती है।

दूसरी आपत्ति यह है कि यह तो “दूसरे की स्वायत्तता में अनिधिकृत अतिक्रमण भी हुआ”। कैसे? कुछ समझ में नहीं आया।

अभी मैं बघेल साहब की आपत्तियों का सार्वजनिक रूप से जवाब दे रहा हूँ। और इस जवाब में उनकी कई बातों को असिद्ध या गलत कहने वाला हूँ, जैसे ऊपर कहा। इस पर “दूसरों के साथ वह मत करो जो स्वयं के प्रतिकूल समझते हो” का सिद्धान्त लगा कर देखने की कोशिश करते हैं। मैं इसको कई तरह से देख सकता हूँ। उदाहरण 1: मैं यह सोचूँ की कोई मुझे सार्वजनिक रूप से गलत कहेगा तो यह मेरे प्रतिकूल होगा, (मुझे इस से दुख होगा)। अतः मुझे किसी को सार्वजनिक रूप से गलत नहीं कहना चाहिए। उदाहरण 2: मैं यह सोचूँ की नैतिक नियमों की समझ समाज में सभी के लिए जरूरी है। और इसका विकास सार्वजनिक विमर्श से ही हो सकता है। अतः मैंने कोई बात गलत कही और कोई अपने पास समय होते हुए भी उस पर अन्य मत मुझे न समझाए, तो वह मेरी मदद करने से इंकार कर रहा है। अतः मुझे सार्वजनिक रूप से समझाने में मेरी गलती न बताना मेरे प्रतिकूल होगा।

अभी मुद्दा यह नहीं है की इन में से कौनसी व्याख्या सही है। मुद्दा यह है कि पहली व्याख्या के अनुसार चलूँ तो मैं सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहूँगा। दूसरी के अनुसार चलूँ को अपने विचार सार्वजनिक रूप से रखूँगा, जिसमें बघेल साहब की व्याख्याओं को गलत कहना ही नहीं बल्कि सिद्ध करना भी शामिल है। सवाल यह है की इन में से किसी भी स्थिति में बघेल साहब की स्वायत्तता पर अतिक्रमण कहाँ हुआ? मैं तो स्वयं क्या करूँ यह निर्णय कर रहा हूँ। वे क्या करें इस में तो कोई बाध्यता उपस्थित नहीं कर रहा। तो ये कैसा अतिक्रमण है जो मेरे अपने लिए किए गए निर्णय से भी हो जाता है? कहा जा सकता है की मैं इन को अपनी व्याखा छोड़ कर मेरी व्याख्या मानने के लिए तर्क दे रहा हूँ। यदि तर्क के लिए यह मान भी लें कि मैं चाहता हूँ कि वे मेरी बात मान लें, (वैसे मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता, सिर्फ एक सार्वजनिक विमर्श में अपनी बात रख रहा हूँ) तो भी मैं सिर्फ तर्क रख रहा हूँ। इन तर्कों के मूल्यांकन की, उन्हें स्वीकार अस्वीकार करने की, उनकी स्वायत्तता का अतिक्रमण कहाँ हो रहा है?

पर ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिन में मुझे (या किसी को भी) दूसरे के काम में सक्रिए बाधा डालनी पड़ें। उदाहरण के लिए: मान लीजिये की कोई किसी अपने से कमजोर व्यक्ती को अकारण सार्वजनिक रूप से पीट रहा है। आप को पता है कि यह पिटाई अकारण और निर्दोष व्यक्ती की हो रही है। आप उसे बलपूर्वक रोकने में समर्थ हैं। अब आप को सोचना पड़ेगा। यदि आप स्वयं की अकारण पिटाई में मदद ना मिलने को अपने प्रतिकूल समझते हैं तो निसक्रिये नहीं रहेंगे, मदद करेंगे। यदि आप यह समझते हैं की आप किसी को अकारण पीटें और कोई आप को बल पूर्वक रोके तो यह आप के प्रतिकूल होगा तो आप नहीं रोकेंगे। यहाँ आप पहली बात मानते हैं तो पीटने वाले की ‘स्वायत्तता’(?) का अतिक्रमण कर रहे होंगे। यह मूल्यों की टकराहट का मामला है। पहले विचार के अनुसार पीटने वाला अपनी स्वायत्तता का अनधिकृत उपयोग करके किसी और की स्वायत्तता और मर्यादा को भंग कर रहा है। अतः आप उसकी स्वायत्तता का अतिक्रमण नहीं कर रहे, बल्कि उसके अनधिकृत उपयोग को बाधित कर रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह की इस सिद्धान्त के तहत आप किसी की स्वायत्तता का अतिक्रमण नहीं कर सकते।

तीसरी आपत्ति यह है की “इस नैतिक आदर्श में , स्वयं के प्रति व्यवहार को ही आदर्श मान लिया गया है”। यदि पहली आपत्ति का जवाब स्वीकार्य हो तो यह व्याख्या गलत है। दूसरी बात यह कि यहाँ किसी भी व्यवहार को आदर्श के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है। व्यवहार को तय करने के लिए अपने स्वयं के चिंतन, अनुभूति, संवेदना, वेदना और दूसरे को अपने समान मानने को मापदण्डों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। व्यवहार तो है ही नहीं, चिंतन आदि भी आदर्श नहीं मापदंड हैं। और नैतिक सिद्धान्त है बराबरी, समानता, equality; बहुत बलपूर्वक रेखांकित।

चौथी आपत्ति यह है कि “ दूसरे की भिन्नता और अद्वित्यता का इसमे ज्ञानात्मक सम्मान ही नहीं है”। इस में दूसरे की भिन्नता या अद्वितीयता पर कोई टिप्पणी नहीं है। यह अपने ज्ञान, चिंतन, अनुभूति और संवेदना के बल पर दूसरे की स्थिति का अनुमान लगाने का सिद्धान्त है। इस पर हम आगे और बात करेंगे। पर यहाँ यह कहना जरूरी है की इसमें दूसरे को स्वयं के जितना ही सम्मान और महत्व दिया गया है। यदि कोई स्वयं की दूसरों से भिन्नता को महत्वपूर्ण मानता है, दूसरों से अपनी अद्वितीयता का सम्मान चाहता है तो इसमें यह निहित है कि उसे दूसरों को भी यह सम्मान देने पड़ेगा, वरना वह अनैतिक आचरण कर रहा होगा। अतः, इस सिद्धान्त पर यह आपत्ति भी गलत है।

पाँचवीं आपत्ति यह है कि यह सिद्धान्त  “अहम केंद्रित मनो श्लाघा है, जो अन्य पर फैसले सुना सकती है”। अहम-केन्द्रित मनोश्लाधा पर आगे विचार करेंगे। पर इस सिद्धान्त के आधार पर अन्य पर फैसला सुनाने के लिए स्वयं पर अन्यों द्वारा फैसले सुनाये जाने को अपने प्रतिकूल मानने से इंकार करना पड़ेगा। यदि स्वयम पर अन्यों के फ़ैसले कोई अपने प्रतिकूल मानता है तो वह उस स्थिति में अन्यों पर फैसले नहीं सुना सकता।

पर एक बड़ी समस्या है इस आपत्ति में। वह यह कि किसी भी समाज में अन्यों पर फैसले सुनना, करना, लागू करना लजमी होता है; समाज में रहना हो तो। जब बघेल साहब ने इस सिद्धान्त को कई तरह से गलत कहा तो उनहों नें अन्य पर फैसला सुनाया। मैं उनकी आपत्तियों को गलत कह रहा हूँ तो मैं अन्य पर फैसला सुना रहा हूँ। जब आप मोदी सरकार पर मजदूरों की अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं तो अन्य पर फैसला सुना रहे हैं। जब कोई शिक्षक विद्यार्थी के काम का आंकलन करता है तो अन्य पर फैसला सुना रहा है। जब एक न्यायाधीश हत्यारे को आजीवन कारावास का दंड देता है तो अन्य पर फैसला सुना रहा है। जो नैतिक सिद्धान्त अन्य पर फैसला सुनाने की मनाही करदेगा वह समाज में रहने को असंभव करदे गा। नैतिक सिद्धान्त का काम अन्य पर फैसला सुनाने को अमान्य करना नहीं, फैसले के लिए समुचित एवं न्यायसंगत आधार प्रस्तुत करना होता है।

इस से आगे बघेल साहब अपनी टिप्पणी में जो कुछ लिख रहे हैं वे अपने और दूसरे में परस्पर निर्भरता की बातें कर रहे हैं। बात कुछ उलझी-पुलझी सी लग रही मैं मुझे, फिर भी मैं उनकी पूरी बात को नीचे समझने की कोशिश कर रहा हूँ। बीच में उनहों ने शायद Emmauel Levinas की On Thinking-of-the-other entre nous का जिक्र किया है। पर अपनी बात को सिर्फ प्रतिश्रुत कह रहे हैं, कोई स्पष्ट उद्धरण नहीं है, अतः पुस्तक की बात मैं एकदम छोड़ रहा हूँ।

बघेल साहब का लिखा रेखांकित है। मेरा जवाब सामान्य है।

मैं, इसलिये हूँ कि दूसरे है और मेरे होने का अर्थ दूसरे से ही पूर्ण होता है।

एक खास अर्थ में यह सही है। जीवशास्त्रीय स्तर पर भी हमारा अस्तित्व दूसरों के होने से ही अस्तित्व में आया है। हम मानव के रूप में समाज में ही संभव हैं। अतः अन्यों का मानव होना हमारे मानव हो पाने की शर्त भी है, और हमारी मानवता तो परिभाषित भी करती है। मैं नहीं जानता “मेरे होने का अर्थ” को बघेल साहब किस तरह समझते हैं। पर यदि यह मेरी आत्म-चेतना, आत्म-छवि, मेरी आकांक्षाओं और ब्रह्मांड में अपना स्थान देखने आदि की समग्रता है, तो बात सही है। ये सब दूसरों के बिना संभव नहीं है। और “दूसरों के साथ वह मत करो जो स्वयं के प्रतिकूल समझते हो” का सिद्धान्त इसी लिए अपनी चेतना को इतना विस्तार देने की बात करता है कि उसमें दूसरे का सुख-दुख महसूस हो सके। इसी लिए दूसरे भी मेरे जैसे अर्थात मेरे समान हैं, अधिकार में, सम्मान में, मर्यादा में और स्वयात्तता में; इन सब पर बल भी इसी लिए हैं। इस का उक्त सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं है। अगर बघेल साहब इन दोनों बातों में विरोध मान रहे हैं, तो गलत मान रहे हैं।

 दुसरो को समझ पाने का ज्ञानमीमांसत्मक दावा, मेरे प्राधिकार का ही विस्तार है।

मुझे इसमें “प्राधिकार” शब्द समझ में नहीं आ रहा। पर दूसरों को समझने की संभावना—जितनी भी वह है—मेरी अनुभूतियों, चिंतन और चेतना के आधार पर ही संभव है। हमारी सारी व्यष्ठीनिष्ठता (inter-subjective objectivity) हमारी व्यक्ति-निष्ठ चेतना, समझ और अनुभूतियों के दूसरों पर विस्तार पर ही आधारित है। इसके अलावा हमारे पास दूसरों को समझने का कोई आधार नहीं  है। जिस श्लोक पर बघेल साहब ने आपत्तियाँ की हैं उस से अगला ही श्लोक निम्न है:

परत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे परियाप्रिये।

आत्मौपम्येन पुरुषः समाधिम अधिगच्छति।। (९)

अर्थात: “मांगने पर देने या इंकार करने में, सुख और दुख में, प्रिय और अप्रिय में जैसा स्वयं को महसूस होता है उसे ही दूसरों को कैसा महसूस होगा इस का प्रमाण मानना चाहिए।” यहाँ फिर दूसरे को आत्मवत्त मानने की बात कही गई है। साथ ही “स्वानुभूती” (subjective experience) को सामान्यीकृत करके “व्यष्ठिनिष्ठता” (inter-subjective objectivity) तक पहुँचने का रास्ता बताया गया है। दूसरे के मन और बुद्धि तक पहुँचने के हमारे रास्ते स्वयं से हो कर ही जाते हैं। मैं जानता हूँ की इस पर कई लोगों को ऐतराज हो सकता है, कि यह तो अपनी अनुभूति दूसरों पर आरोपित करने की विधि है। पर यदि इसे संवेदना और चेतना के विस्तार के ऊपर विवेचित सिद्धांतों की रोशनी में देखें तो यह ठोस अनुभविक आधार पर दूसरे की चेतना में अंतर्दृष्टी देने की विधि है, अपनी मान्यताएँ और अनुभूतियाँ आरोपित करने की नहीं। और मानवीय सीमाओं में हमारी समस्या यह है कि दूसरे की चेतना तक पहुँचने का हमारे पास और कोई भी रास्ता नहीं है। यह रास्ता सर्वांगसमपूर्ण और सर्वांग-शुभ नहीं है, पर एक मात्र जरूर है। अतः इसी को संवेदना से पुष्ट करके काम चलना पड़ेगा।

हम दूसरे को अपनी अवधरणा में संकुचित कर अपने और दूसरे, दोनो के अर्थ को बाधित करते है।

मैं इसका अर्थ नहीं समझता। दूसरे को अपनी अवधारणा में संकुचित करने का क्या अर्थ है? मानव होने में और दुसरे को मानव मानने में हम उसे आत्म-बोध के आधार पर चेतन और परिपूर्ण करते हैं। संकुचित कहाँ हो रहा है? और उपरोक्त सिद्धान्त में तो संकुचित करने की बात ही नहीं है।

 गांधी अपने को सनातनी हिन्दू कहने के बावजूद, अपनी आत्म रचना, दूसरे को संशलिष्ट करके ही करते थे।

मुझे पता नहीं है। वैसे दूसरे को समाहित किए बिना, दूसरे को उनकी संपूर्णता में देखने की कोशिश किए बिना, अपनी आत्म रचना होती ही नहीं। शायद बघेल साहब यहाँ ज्ञान, नैतिकता और आकांक्षाओं (आध्यात्मिक सहित) में मानवीय विविधता को स्वीकारने और सम्मान करने की बात कर रहे हैं। यह यहाँ अभी विवेचित नैतिक सिद्धान्त की आवश्यक शर्त है। यह सिद्धान्त इसका विरोध नहीं करता, बल्कि इस पर आचरण के लिए इस विविधता का सम्मान एक आवश्यक शर्त है।

 शायद, जरूरत इस बात की है कि इस बात को स्वीकारा जाय कि आत्म सृजन दुसरो पर ही निर्भर है और दूसरे जरूरी इसलिए है कि हम अपनी सीमाएं और संकुचनों को जान सकते है।

पता नहीं यह क्यों लिख रहे हैं। उक्त सिद्धान्त में कहीं भी इसका विरोध नहीं है। इसके दूसरे हिस्से का, अर्थात “दूसरे जरूरी इसलिए है कि हम अपनी सीमाएं और संकुचनों को जान सकते है” का अर्थ मुझे पता नहीं। जब आत्म-सृजन ही दूसरों पर आधारित है तो यह कहने की क्या जरूरत है? साथ ही इस से तो नया सवाल उठता है: दूसरे इस लिए जरूरी हैं की हम अपनी सीमाएं और संकुचनों को जान सकें। ठीक। और “अपनी सीमाएं और संकुचनों को” जानने की जरूरत क्यों है? जवाब देने की कोशिश करिए, मेरा अनुमान है थोड़ी देर में गोल-गोल घूम रहे होंगे।

 मेरा व्यवहार अपने प्रति भी इस बात पर निर्भर करता है कि मैं अपने क्षितिज से बाहर स्थित अन्यता को कैसे संबोधित करता हूँ।

ठीक बात है। पर इस में ऐसा क्या है जो यहाँ विवेचित सिद्धान्त से बाधित होता हो?

बघेल साहब ने एक अन्य मित्र की टिप्पणी पर भी टिप्पणी की है। अब जब देख ही रहे हैं तो उसे भी देख लें।

इस बात में स्वयं और अन्य की बुनियादी समझ ही गलत है।

क्यों गलत है? क्या गलती है? कहीं नहीं बताया गया। जो बताया गया वह ऐसी व्याख्या पर आधारित है जो विवेचना में टिकती ही नहीं। अर्थात स्वयं ही कोई गलत अर्थ दे कर उसे काटना। इसे अङ्ग्रेज़ी में “creating a straw man” कहते हैं। अर्थात एक डरावां बना कर उस पर आक्रमण करना। या पवन चक्कियों को दुश्मन मान कर उन पर आक्रमण करने वाला डॉन क्विक्सोट।

इसमे परोपकारिता की अहमजन्यता भी दिखती है।

कैसे? कहाँ? परोपकार तो कोई बुराई है भी नहीं। हाँ, अहमन्यता हो तो समस्या होगी। पर उस के होने को तो सिद्ध करना पड़ेगा। केवल घोषणा तो नहीं चलेगी। इस में न परोपकार है न अहमन्यता।

 मेरा अर्थ इस बात पर भी है कि दूसरे है और यही अन्यता मेरे होने के अर्थ को सॅवारती है।

ऊपर बात हो चुकी।

मेरा अपने प्रति व्यवहार भी ‘दूसरों को मैं कैसे समझता हूँ,’ से संचालित होता है।

ऊपर बात हो चुकी।

 मेरी आपत्ति यही है कि ‘मैं’, परस्परता और सह अस्तित्व आधारित है . इसलिए मैं, दुसरो को महसूसने का यत्न करूँगा उतना ही मैं अपने आप को रच पाऊंगा।

बघेल साहब शायद नहीं जानते कि इस सिद्धान्त को दर्शन में “reciprocity” (परस्परता) का सिद्धान्त भी कहा जाता है। दूसरों को महसूसने की कोशिश इस सिद्धान्त के लिए लाजिमी है। यह ऊपर इसके आगे पीछे के श्लोकों से स्पष्ट कर दिया गया है।

 मैं कोई स्थिर इकाई नही है, जिसका अर्थ पूर्व मौजूद है बल्कि मैं रचा जाता हूँ, दुसरो के होने के अहसास से और दूसरों पर अपने सोच से।

सही बात है। पर वर्तमान संदर्भ में पूर्णतया अप्रासांगीक है। या उतनी ही प्रासांगीक है जितना मेरा अभी यह कहदेना की धरती गोल है। जरूर है। तो क्या करें?

उपसंहार

मेरे यह सब लिखने के पीछे दो मन्तव्य रहे हैं। एक, मैं इस सिद्धान्त पर सोचता रहा हूँ। मेरे विचार से यह जीवमात्र में उपस्थित परस्परता की सहजवृति (instinct of reciprocity) के के मूल से विवेकशील चिंतन के द्वारा सूत्रबद्ध हुआ है। इसमें सहज-वृति, मनोवैज्ञानिक आकर्षण, और मानवीय संवेदना को विवेक के धागे से एक सूत्र में पिरोया गया है। काँट का सिद्धान्त मेरी दृष्टि में नैतिक विकास का इस से अगला चरण है। दार्शनिक इस की सरलता से भ्रमित हो कर इसकी पूर्ण विवेचना को बचकाना काम मानते रहे हैं। अतः इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। वे पूरी तरह सही नहीं थे। अब इसमें फिर से कुछ लोगों की रुची बन रही है।

दो, बघेल साहब ने इस में अपनी तरफ से ही अकारण दूसरों पर अपने सिद्धान्त आरोपित करना पढ़ लिया। वास्तव ने बघेल साहब उसी गलती के दोषी हैं जिसे वे इस सिद्धान्त पर आरोपित कर रहे हैं। अर्थात अपना चिंतन दूसरे पर आरोपित करना। इस सिद्धान्त की पैरवी करने वाले सब लोग पहली शर्त ‘दूसरे की नजर’ से देखना रखते हैं। जिसे अङ्ग्रेज़ी में “standing in other man’s shoes” कहते हैं। इस सिद्धान्त को इस नजर से देखना पूर्व के चिंतन में कन्फ़ुसियस, बुद्ध और महाभारत के जमाने से ही है, नया नहीं है। और कन्फ़ुसियस, बुद्ध और महाभारत तीनों इस सिद्धान्त का जिक्र करते हैं।

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18 मई 2020

 

 

 

 

 

 

 

 

[1] Immanuel Kant, Groundwork of the Metaphysics of Morals, Cambridge University Press 1997, page 38. Full footnote: “Let it not be thought that the trite quod tibi non vis fieri etc. can serve as norm or principle here. For it is, though with various limitations, only derived from the latter. It can be no universal law because it contains the ground neither of duties to oneself nor of duties of love to others (for many a man would gladly agree that others should not benefit him if only he might be excused from showing them beneficence), and finally it does not contain the ground of duties owed to others; for a criminal would argue on this ground against the judge punishing him, and so forth.”

[2] Arthur Schopenhauer, The World as Will and Representation, Vol. I, Dover Publications, New York, (1969), page 525: “desire for well-being, in other words egoism, remains the source of

this ethical principle”


संवेदना-शून्य सरकार और मजदूर

May 8, 2020

रोहित धनकर

जब 24 मार्च 2020 को देशभर में लोकडाउन शुरू हुआ तब केंद्र सरकार के दिमाग में प्रवासी-मजदूर का अस्तित्व भी नहीं था। सब के विकास का नारा लगाने वाली सरकार ने अपनी योजना में, प्रबंधन में, कहीं भी प्रवासी मज़दूरों के बारे में नहीं सोचा। वे कैसे जीएंगे, क्या करेंगे, किन परिस्थितियों में रहेंगे, क्या खाएँगे, आदि, कोई भी सवाल सरकार ने न अपने आप से पूछा न किसी को उसका जवाब दिया। कानूनी तौर पर शायद प्रवासी मजदूरों की व्यवस्था करना और उनके हित के बारे में सोचना राज्य-सरकारों की ज़िम्मेदारी हो। मैं ठीक से नहीं जानता। पर नैतिक तौर से इनके बारे में सोचना और कोई कारगर योजना बनाना केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी है इस से इनकार नहीं किया जा सकता। पर केंद्र सरकार की तो चेतना में भी भारतीयों का यह समूह नहीं था। हर वाक्य में एक सौ पैंतीस करोड़ भारतीयों का जिक्र करने वाले प्रधानमंत्री के जहन में आधे करोड़ के लग-भाग (शायद ऊपर, मुझे आंकड़े ठीक पता नहीं हैं) भारतीयों का अस्तित्व तक नहीं होना, इस वाक्य को निरर्थक कर देता है। यह संवेदना विहीन और लोगों को भावनात्मक स्तर पर बरगलाने वाला वाक्य बन जाता है। जो आपके जहन में ही नहीं है, उसकी आप क्या रक्षा करेंगे और क्या उसका विकास करेंगे।

तर्क के लिए मान लेते हैं कि उस वक़्त कई तरह के दबाओं और जल्दबाजियों के चलते भूल हो गई। पर प्रवासी मजदूरों की समस्या तो दूसरे ही दिन सामने आगई थी। उसके बाद उनकी कठिनाइयां, असहनीय स्थितियाँ और मजबूरियां जग जाहिर थीं। उनके लिए की गई हर व्यवस्था अपर्याप्त और देर से हो रही थी। न उन्हें उनके घरों में (जैसे भी वे हैं) रहने देने की व्यवस्था हो सकी, ना उनकी मजदूरी मिलती रहे इसकी व्यवस्था हो सकी, ना ही वे अपने-अपने गाँव को जा सकें इसकी कोई व्यवस्था हो सकी। सरकारें और हजार व्यवस्थाएं करती रहीं, पर इन लाखों लोगों के लिए हर व्यवस्था में कमियाँ रही।

तब से दो बार लोकडाउन बढ़ चुका है। दोनों बार में उनके लिए की गई घोषणाएँ और व्यवस्थाएं ना काफी साबित हुई हैं। अब जब इन के लिए रेलगाड़ियां चलाने की बात हुई तो कर्नाटक जैसे राज्यों ने भवन-निर्माण कंपनियों के कहने से वह भी बंद कर दी। इस के लिए तर्क दिया जा रहा है कि रेलगाड़ियां तो फंसे हुए लोगों के लिए चलाने की बात है। प्रवासी मजदूरों के लिए तो भवन-निर्माता और सरकार रहने, खाने और मजदूरी की व्यवस्था कर रही है। अतः ये ‘फंसे हुए लोग’ नहीं हैं। शायद यह बात ठीक है, ये फंसे हुए लोग नहीं हैं। जैसे योगेंद्र यादव कह रहे हैं ये “बांधक-मजदूर” हैं। और बंधकों को कैसे जाने दें!

यदि बंधक नहीं हैं तो रेलगाड़ियां बंद किए बिना, इन्हें काम और मजदूरी का विश्वास दिला कर रोकने की कोशिश करते। उन्हें जिन शहरों में ये हैं वहाँ रहने के लिए मजबूर करने के बाजाय सुविधाएं दे कर मर्जी से रुकने के लिए मनाते। जब रेलगाड़ियों में जाने के लिए कोई नहीं मिलता तो बंद कर देते। 40-42 दिन लोकडाउन का कष्ट भोगने के बाद ये आपके वादों पर भरोसा नहीं कर रहे और अपने गाँव-घर जाना चाहते हैं तो इन्हें कैसे दोष दिया जा सकता है?

मैं दावे से तो नहीं कहा सकता, पर जितना भारतीय समाज और उसमें गरीबी के बँटवारे को जितना समझता-जानता हूँ उस से लगता है कि प्रवासी-मजदूर भारत का सब से गरीब तबका है। शायद शहरों के बेघर लोग ही इन से ज्यादा निर्धन हैं। गाँव में गरीबी की मार और अपने राज्यों में काम की कमी के कारण ही ये लोग दूर-दराज काम की खीज में गए हैं। शायद प्रवासी मजदूरों में बहुत बड़ा प्रतिशत उन जातियों के लोगों का है जिन का भारतीय समाज में सदियों से शोषण होता रहा है। जिन्हें उत्पादन के साधानों की माल्कियत से वंचित रखा गया। अपनी बौद्धिक उन्नति के संसाधनों से जबर्दस्ती वंचित रखा गया। अशिक्षित रखा गया।

अशिक्षा और जानकारी की कमी के कारण यह समूह अफवाहों और बहकावे का शिकार भी आसानी से हो सकता है। पर दूसरी तरफ यह निर्माता और मेहनती समूह भी है। जिस समूह को सरकारों और राज्यों से सहायता के केवल वादे मिले हों (वह भी पिछले 70 साल में ही) वह अपनी समस्याओं को अपने आप हल करने की जीवट भी रखता है। हजारों मील दूर अपने गाँव पैदल चलदेना जीवट की भी निशानी है। यह ठीक है कि यह मजबूरी है, यह भूख और बेघर परिस्थिति से बचाने के लिए मजबूरन उठाया गया कदम है। मैं कोई इस परिस्थिति का महिमा मंडन नहीं करना चाहता। पर जो मेहनती इंसान इस चुनौती को स्वीकार करता है उसकी हिम्मत को भी देखना पड़ेगा।

प्रवासी मजदूरों के लिए रेलगाड़ियां चलाने का काम केंद्र सरकार को करना चाहिए। और उन से किसी तरह का भाड़ा नहीं लेना चाहिए। जो राज्य-सरकारें, निर्माण-कंपनियाँ और कारखाने-दार मजदूरों को अपने यहाँ रखना चाहते हैं उन्हें स्वतंत्र महोल में मजदूरी और अन्य शर्तों पर मोल-भाव करने का अवसर बनाना चाहिए। घर जाने के साधन काट कर जो मजदूरी और शर्तें तय होंगी वे तो भूख का डर दिखा कर सत्ता के बल पर मजबूर करना होगा। सब के विकास, सब के साथ और सब के विश्वास का नारा लगाने वाली सरकार देश के साधन हीन लोगों को बंधक बना कर असमान परिस्थितियों में साधन और सत्ता-सम्पन्न तबके के दबाव में, अपने घर से दूर शहरों में रुकने के लिए नहीं छोड़ सकती। यह शोषण का बहुत नग्न रूप है।

इंटेरप्रेनुएरशिप और ज्ञान आधारित समाज का राग आलापने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए की संपन्नता और जीवन के लिए अंत में भौतिक उत्पाद की जरूरत होती है। पदार्थ के साथ काम करके उसको जीवनोपयोगी रूप देना होता है। और यह काम किसान और यही तबका करता है, जिसे आप अपनी योजनाओं में आखिर में याद करते हैं, और तब भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं कराते।

रेल की पटरी पर सामान्य स्थिति में चलते हुए किसी की दर्दनाक मौत हो जाये तो उसे पटरी पर चलाने वाले की ना समझी का परिणाम माना जा सकता है। पर कल्पना करिए की आप को हजारों मील दूर अपने गाँव जाना है। आप के पास कोई विस्तृत नक्शा नहीं है। आप को शायद नक्शा पढ़ना भी नहीं आता। ऐसी परिस्थिति में रेल की पटरी एक रास्ता दिखाती है। इस लिए, जब किसी को हजारों मील दूर पैदल अपने गाँव-घर का रास्ता खोजने के लिए मजबूर कर दिया जाये तो इस तरह की दर्दनाक मौत सरकारों की नैतिक ज़िम्मेदारी होती है। और पूरे समाज के लिए आत्म-विवेचना की महती जरूरत को रेखांकित करती है।

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8 मई 2020