कविता पर बेबुनियाद बवाल

May 22, 2021

रोहित धनकर

पिछले 3-4 दिन से राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की पहली कक्षा की हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में एक छोटी-सी कविता को लेकर विवाद मचा हुआ है, कथित सामाजिक माध्यमों पर। सामाजिक माध्यम आजकल बहुत महत्वपूर्ण हो चलें हैं। बहुत लोगों के पास किसी बिन्दु पर गहनता में जानने का समय और रुची नहीं होती। विषय भी उनके चिंतन और कर्म क्षेत्र से हट कर हो सकता है, अतः हर एक से हर विषय पर समय लगाने की मांग भी नहीं की जा सकती। दूसरी तरफ इस प्रकार की सतही जानकारी और बहस के आधार पर लोग अपने विश्वास भी बनाते ही हैं। और हर नागरिक का हर विश्वास लोकतन्त्र की दिशा और दशा को प्रभावित भी करता ही है। इस लिए इन बहसों को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता। यही कारण है सामाजिक माध्यमों के बढ़ते महत्व का।

खैर, कविता यहाँ दी हुई है। इसे पढ़ें और इसके नीचे दिये गए पढ़ाने के निर्देश भी पढ़ें।

कविता

यह कविता बच्चों से बातचीत करने, कल्पना करने का मौका देने और सोचने के लिए काम में ली जा सकती है। भाषा की कई क्षमताओं के लिए उपयोग की जा सकती है।

बवाल इस में आए शब्द “छोकरी”, “चूसना” और कथित द्विआर्थकता को लेकर उठाया जा रहा है।

“छोकरी” शब्द पर ऐतराज मुझे शिक्षक के नाते देखूँ तो हिन्दी में पूरानी वर्चश्वशाली मान्यताओं का हिस्सा लगता है। यह शुद्धता-वादी मानसिकता का और शुद्धता या मानकता एक छोटे तबके की खड़ी बोली में निहित होना मानने का परिणाम है। यह सोच बच्चों की पढ़ाई और हिन्दी की समृद्धी दोनों की जड़ें काटती है। एक बड़े ग्रामीण तबके की भाषा को केवल हिन्दी से बाहर नहीं करती, बल्कि उस को गँवारू-बोली का खिताब भी देती है। ऐतराज करने वाले लोग यह नहीं समझते की बच्चे नई चीज अपनी पुरानी समझ से जोड़ कर ही सीख सकते हैं। और जब विद्यालय आते हैं तो उनकी पूरी समझ अपनी भाषा में ही होती है। अतः छोकरी जैसे शब्दों को पुस्तकों से निकाल कर हम उनकी भाषा को नकारते हैं और उनकी समझ की जड़ें काट कर सीखने को मुश्किल बनाते हैं।

शैक्षिक दृष्टि से यह ऐतराज प्रतिगामी है। इस में संस्कृति की रक्षा का नारा शामिल करने से यह गैरबराबरी और वर्चश्व की राजनीती को भी बल देता है। और सामाजिक राजनैतिक नजर से भी प्रतिगामी हो जाता है।

“चूसना” शब्द पर ऐतराज कविता में द्विआर्थकता देखने का परिणाम लगता है। इस में भी “मेरी भाषा शुद्ध और शालीन भाषा” का दंभ है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में बहुत से कथन ऐसे होते हैं जो एक तबके के लिए सामान्य और किसी दूसरे के लिए ऐतराज करने काबिल हों। पर यहाँ तो मुझे कुछ ऐसा भी नहीं लगता। कविता में वैसे भी द्विआर्थकता खोजना बहुत आसान है। क्योंकि कविता बनती ही भावों की समृद्धता से है। मुझे लगता है यहाँ द्विआर्थकता ऐतराज करने वाले पाठकों के मन में उपजती है। और उसे वे इस कविता पर आरोपित कराते हैं।

यह तो हुई इस कविता पर ऐतराज की बात। पर मेरे मन में इस पर कुछ लिखने को लेकर झिझक भी थी। उस का कारण यह है की मुझे यह ऐतराज तो बेसमझी या फालतू विवाद उठाने की मानसिकता का नतीजा लगता है; पर मैं इस कविता को कोई बहुत अच्छा पाठ (text के अर्थ में) नहीं मानता। मेरी कविता की समझ तो बहुत ही सीमित है, पर अध्यापक के नाते मुझे इस में एक बड़ी समस्या लगती है। यह एक अकैडमिक बिन्दु है, शिक्षणशास्त्र से संबन्धित। इस को लेकर उपरोक्त प्रकार का विवाद नहीं उठाया जा सकता, ना ही इस विचार में से इस तराह के विवादों के लिए समर्थन मिल सकता है।

भाषा शिक्षण में मेरा मानना यह है कि टैक्स्ट की एक आंतरिक तार्किक-संगती होती है। वह सदा सामान्य अर्थों में सार्थकता और आम तर्क से जुड़ी हो यह जरूरी नहीं। बच्चों के लिए बिना अर्थ के शुद्ध तुकबंदी मात्र भाषा की शब्दावली और ध्वनी विन्यास का आनंद लेने के लिए बहुत जरूरी है। तो मैं यहाँ सामान्य अर्थ में सार्थकता की बात नहीं कर रहा। टैक्स्ट की आंतरिक तार्किक-संगती का उदाहरण आप अक्कड़ बक्कड़ में देख सकते है:

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो, अस्सी नब्बे पूरे सौ। सौ में निकाला धागा चोर निकाल कर भागा।

सामान्य अर्थों में इस में कोई सार्थक-तार्किकता और संगती नहीं है। बहुत शब्द अर्थहीन भी हैं। पर इस में विचारों और बिंबों का एक तारतमयपूर्ण प्रवाह है। जिस कविता पर बात चल रही है उसमें इस का अभाव है। मेरे विचार से भाषा के दुनिया को समझने में समार्थ उपयोग के लिए इस में ‘विचारों और बिंबों के तारतम्यपूर्ण प्रवाह’ के प्रती सचेतता और लगाव सीखना जरूरी है। अतः यह कविता मुझे बहुत बढ़िया कविता नहीं लगती बच्चों के लिए।

पर इस पर जिन बिन्दुओं पर ऐतराज उठाए जा रहे हैं वे निश्चित रूप से शिक्षा और राजनीती दोनों की दृष्टि से प्रतिगामी हैं। और उनको सिरे से नकार देना चाहिए। जिस मानसिकता से वे ऐतराज उपजे हैं उस का विरोध होना चाहिए।

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22 मई 2021


Why are we helpless in the face of this pandemic?

May 18, 2021

Rohit Dhankar

I don’t have all the data and needed information. But whatever information I get through newspapers and social media, I seem to be making forming beliefs, mostly with help from some speculation. Just wanted to share some of those half-formed beliefs, in order to prevent serious mistake through public scrutiny.

This is well recognized that we know much less about the pandemic than is needed to contain or stop it. But that is the character of pandemics and calamities, it cannot be sighted as a ‘reason why’ for helplessness. Containing a pandemic simply means containing an unknown evil.

The first and foremost reason is the ineptness, inefficiency and wrong priorities of the central government, and state governments as well. And that is irrespective of which party is in power. This is natural for the citizens to apportion the largest share of the blame on the central government, and that is justified at the moment. The central government is the biggest culprit.

The second reason to my mind is the abysmal state of our health and all other governing systems. In normal times all government systems function more on tokenism and pretension than actually realizing the professed goals. The work is done mostly on the paper, and the real world remains as it was. That has been the character of government departments. Then they suddenly want to start serious real work when the calamity hits them. And, as is natural, everything collapses. The present central government is in power for more than 6 years and was expected by many people to change this character at the least of the central government departments. It completely failed in doing it. One wonders if they ever wanted to make them better functioning.

The third reason, we are a divided country and society. We are not putting all efforts for defeat the pandemic, simply because we first want to defeat a hated man, who is the prime minister. There is a ring in the air from some quarters, particularly on the social media, that the worst the situation, more the opportunity to heap abuse on Modi and BJP, irrespective of the cost to people. Some people will object to it. But there are too many people who are attacking it for everything for justified and unjustified reasons, and attacking viciously. Using completely unjustified terminologies like ‘deliberate genocide’ etc. to poison public mind. Another set of people is continuously defending government irrespective of its failure, however big its blunders might be. Neither of these sets is using their energy to help the society in containing the pandemic. The opposition is much more interested in ‘Modi should go’ than putting the issue on the back burner and fighting the problem for the time being. The opinion makers and intellectuals—supposed to be the conscience keeper of the society—are the worst afflicted by this morally crippling intellectual disease. Most of them seem to be incurable by now.

Fourth, we as a society lack civic responsibility. Many still don’t get it that preventive precautions in a pandemic is not entirely a personal choice. It has a selfish side of personal safely and survival. But also has a moral side of not becoming a danger to others. Behaviour of many people in public spaces is proof enough that the second aspect has not registered in the social consciousness yet.  

Above I said that the government is the biggest culprit because in a democracy the government is also responsible for all the other problems in the society. Improving the system, taking the opinion making intellectuals along and developing civic responsibility are also government’s responsibilities, up to a certain extent. However, there always be some people in the society who will act on the evil thought that “my enemy should definitely become blind even if I have to lose one eye in the bargain”. The government’s responsibility for such people is double edged. One, it should try to bring them to reason through persuasion. It they are too bent upon this evil idea; they should be exposed to the public. Here a war of perception may be necessary. If a government fails in both then it has only itself to blame, and the common citizen bears the burnt of its failure.

And at the end, a small story from black rustic humour, even if it is somewhat inappropriate in such a situation. In Hindi, don’t want to translate it into English.

दो जाट (जाटों से माफी चाहते हुए) भाइयों में बहुत प्रतिस्पर्धा और झगड़ा चल रहा था। दोनों ही बहुत धनवान नहीं थे। किसी कारण से एक के पास शिव आए। (क्यों आए थे कहानी में मैं भूल गया हूँ।) शिव ने जाट से कहा की तुम तीन वरदान मांग सकते हो। जो कुछ भी तुम चाहो। पर शर्त यह है कि तुम्हारे भाई को जो तुम अपने लिए मांगोगे उस से दुगुना मिलेगा। जाट मान गया, और नीचे लिखे तीन वरदान मांगे:

  1. “भगवन, मेरे लिए एक बड़ा-सा महल बनादे, जिसके चारों और बहुत ऊंची दीवार हो और उस में सिर्फ एक फाटक हो।” (शिव ने तुरंत ऐसा ही महल उसे के लिए बना दिया, पर उसके भाई के लिए दो बना दीते।)
  2. “भगवन, मेरे महल के फाटक में एक 400 फीट गहरा कुआं खोद दे।” (शिव ने तुरंत उसके फाटक को पूरा कवर कराते हुए एक कुआं खोद दिया। पर उसके भाई के दोनों महलों के फाटकों में दो-दो खोद दिये।)
  3. आखिर में जाट ने कहा, “भगवन, मेरी एक आँख फोड़ दे।” (शिव ने तुरंत जाट की एक आँख फोड़ दी, पर उसके भाई की दोनों ही फोड़ दी।)

Rest of the story depends on your imagination. But look around you if you find many of us being governed by this kind of Jaat-buddhi.

(I gain apologize to Jaats. I have neither any malice towards them, not do I think that they have this kind of buddhi. Here I retained the caste name as I have heard this story or joke originally simply because it seems to me that a better way to grow beyond casteism etc. is without attempting to exorcise our literature of its time-stamps. We have to rationally grow out of the biases without wiping out signs of historical wrongs, as they also record our history of moral and intellectual development as a society.)

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18th May 2021


‘हिंदुस्तान’ शब्द पर आपत्ती?

May 17, 2021

रोहित धनकर

मैंने 13 मई 2021 को अपने फ़ेसबुक पृष्ट पर यह लिखा था: “किसी को कोई ऐसी खबर कहीं से मिलजाए की कुछ हिन्दुस्तानी इस महामारी से एक जुट हो कर लड़ रहे हैं और अपने दुश्मनों के लिए भी शुभेच्छा रखते हैं; तो मेरहरबानी करके बताना। लगता है हम दो महामारियों से एक साथ लड़ रहे हैं। पर लड़ रहे हैं या सिर्फ ‘ग्रस्त’ हैं?”

इस पर दो महत्वपूर्ण सवाल उठे।

  1. हिन्दुस्तानी की जगह भारतीय कहना चाहिए था।
  2. क्या त्योहारों का कोई शुद्ध सांस्कृतिक, जिसमें मजहब शामिल ना हो, स्वरूप हो सकता है?

इन सवालों पर विचार करने की जरूरत है। मैं यहाँ सिर्फ पहले सवाल पर कुछ विचार रख रहा हूँ, दूसरे पर फिर कभी।

हिन्दुस्तानी से ऐतराज

इस मुद्दे पर विचार करने से पहले मैं एक छोटे से किस्से का जिक्र करना चाहता हूँ, क्यों कि जिस मूल से यह ऐतराज उठ रहा है उसे पहचानना जरूरी है। हम लोग एक बार केरल किसी अध्ययन के सिलसिले में गए थे। त्रिवेन्द्रम में हमारे पास एक दिन खाली था। इस लिए हम लोग कुछ दर्शनीय स्थान और बाजार आदि भी गए। उन स्थानों में एक वहाँ का प्रसिद्ध पद्मनाभास्वामी मंदिर भी था। हमारी टोली में एक बहुत सुलझे हुए, सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित और प्रबुद्ध मित्र भी थे। मैं उनके विचारों और प्रतिबद्धताओं की तब भी बहुत इज्जत करता था और आज भी करता हूँ। वे मेरे कुछ गिने चुने मित्रों में हैं। वे यह भी जानते थे कि मैं मजहबी आस्थाओं वाला व्यक्ति नहीं हूँ, और ईश्वर तो—चाहे वह पद्मनाभास्वामी के रूप में हो या अल्लाह मियां के रूप में—मुझे मानव बुद्धि को लकवा-ग्रस्त करने वाला विचार लगता है।

तो हुआ यह कि मुझे पद्मनाभास्वामी मंदिर में जाकर उसे अंदर से देखना था। मैंने उत्तर भारतीय मंदिर तो देखे थे, पर दक्षिण भारत के मंदिरों की वास्तु, कलापक्ष और अन्य बातों से अनजान था। और इन्हें देखना समझना मेरी सांस्कृतिक रुची का हिस्सा था। पर मंदिर में जाने के लिए नहा कर धोती पहननी पड़ती थी। यह उनका रिवाज था, शायद अब भी हो। नहाने की व्यवस्था वहाँ द्वार पर ही थी। मैंने वहीं एक दुकान से धोती खरीदी (मजहब और व्यापार का सदा ही गहरा रिश्ता रहा है)। नहाया और मंदिर में गया। हमारे मित्र नहीं गए मंदिर में।

जब मैं बाहर आया तो उनकी आखों में और जो कुछ उन्हों ने कहा (मैं भूल गया हूँ वास्तविक वाक्य क्या थे) उस में उलाहना तो था ही, एक तरह की हिकारत भी थी। कुछ ऐसा कहते हुए जैसे  कि मेरा मजहब में रुची ना होना बस एक दिखावा है। मुझे तब से आज तक इस प्रतिकृया पर आश्चर्य है। और यह भी आश्चर्य है कि बहुत संवेदनशील और प्रबुद्ध लोग भी इस तरह की भावनाओं के शिकार हो सकते हैं, चाहे कभी-कभार ही सही।

हो सकता है मैं गलत होऊं, पर मेरे विचार से यह एक प्रकार की विचारधारतमक प्रतिबद्धता का रूप है। जो संस्कृति और इतिहास में जो कुछ उस विचार के प्रतिकूल है उसे हिकारत से देखती है और उसका उच्छेद करना चाहती है। हमारे मित्र में तो सौभाग्य से यह प्रवृती उनके समग्र चिंतन में (उनका चिंतन बहुत सुलझा हुआ है) व्याप्त नहीं है। पर बहुत लोगों में यह अन-समझी विचारधारा को गटक लेने से उत्पन्न अंधता होती है। ऐसे भी लोग हैं, जो विचारधाराओं को समझने में कम रुची रखते हैं और किसी फैशन के चलते उनके मानने वालों में अपना नाम दर्ज करवाने में अधिक।

अब, ‘हिंदुस्तानी’ पर ऐतराज पर आते हैं। फेशबुक बातचीत में तो ऐतराज करने वाले व्यक्ति ने “हिंदुस्तान” और “हिंदुस्थान” शब्दों को भी अदला-बदली करके काम में लिया है। पता नहीं दोनों में कोई फर्क देखते हैं या नहीं।

इस बात को समझने के लिए हमें देखना पड़ेगा की यह भारत आखिर चीज क्या है? हम सभी जानते हैं की एक संवैधानिक लोकतन्त्र के रूप में तो भारत 1947 में ही बना। पर क्या एक राष्ट्र या देश के रूप में भी यह 1947 में ही बना? राष्ट्र के कुछ उलझे मशले को अभी बाद के लिए रखते हुए मैं ‘भारत एक देश के रूप में’ पर ही ध्यान दूंगा, और इसके विभिन्न नामों पर भी। यहाँ मैं लगभग सारी बात प्रोफेसर इरफान हबीब के एक भाषण से ले रहा हूँ जो उनहों ने 2015 में अलीगढ़ विश्वविद्यालय में दिया था, भाषण का शीर्षक “Building the Idea of India” (भारत के विचार की निर्मिति) है। प्रोफेसर हबीब ही क्यों? एक तो वे इस भाषण में मूल-स्रोतों का जिक्र करते हैं, और दूसरे जिस वैचारिक पृष्ठभूमि से उपरोक्त ऐतराज आता है वहाँ हबीब साहब की बात को तवज्जो मिलने की अधिक संभावना है।[1] 

प्रोफेसर हबीब के अनुसार “एक देश के रूप में भारत का विचार पुरातन है। पेरी एंडर्सन का अपनी पुस्तक द इंडियन आइडियोलॉजी में यह आग्रह (assertion) कि इंडिया विदेशियों द्वारा, विषेशरूप से योरोपीयों द्वारा आधुनिक काल में दिया गया नाम है, पूर्णतया भ्रामक है।”[2] वे यह भी कहते हैं कि “पूरे भारत को पहली बार एक देश के रूप में मौर्य साम्राज्य में देखा गया।”[3] तब इसे जंबुद्वीप कहा जाता था। भारत नाम का उपयोग उनके अनुसार पूरे देश के लिए सब से पहले कलिंग के राजा खारवेल के शिलालेख में मिलता है, जो कि ईसा से एक शताब्दी पहले का है। तो बात यह है कि देश के रूप में भारत की अवधारणा दो हजार वर्षों से ज्यादा पुरानी है, वह 1947 में नहीं बना। इसके नाम कई रहे हैं, जंबुद्वीप और भारत उन नामों में से हैं।

तो फिर ‘हिंदुस्तान’ कब आया? और क्यों? हबीब साहब आगे कहते हैं कि ईरनियों ने सब से पहले हमें ‘हिन्दू’ नाम दिया। और ‘हिन्दू’ सिंधु नदी के लिए ईरानी नाम है। तो सिधु नदी के पूर्व के सभी क्षेत्र प्राचीन ईरान में हिन्दू कहे जाते थे। हबीब साहब के अनुसार “स्थान” और “स्तान” में भेद है। उनके अनुसार संस्कृत में “स्थान” एक विशिष्ट छोटी जगह (spot) के लिए काम में आता है, जब की “स्तान” फारसी में क्षेत्र (region) के लिए।[4] तो ‘हिंदुस्थान’ और ‘हिंदुस्तान’ एक चीज नहीं हैं।

पर यहाँ असली मुद्दा तो ‘हिन्दू’ शब्द लगता है। तो देखते हैं इस देश को ‘हिंदुस्तान’ कौन कहते थे। हबीब साहब कहते हैं कि अमीर खुसरो ने फारसी में एक लंबी कविता लिखी है जिसमें वह भारत की सब चीजों की बहुत सराहना कराते हैं। यहाँ कई लोगों को आश्चर्य हो सकता है, पर हबीब साहब के अनुसार खुसरो इस में बहुत अन्य चीजों के साथ ब्राह्मणों और संस्कृत की भी सराहना कराते हैं। ब्राह्मणों की भी उनके ज्ञान के लिए और संस्कृत की उस के विज्ञान और ज्ञान की भाषा होने के लिए। वे सभी भारतीय भाषाओं के नाम लिखते हैं, भारत को मुसलमानों का भी देश बताते हैं, और यह भी कहते हैं कि यहाँ तुर्की और फारसी भी बोली जाती हैं। वे कश्मीरी से लेकर मलाबारी तक सब भारतीय भाषाओं को ‘हिंदवी’ भाषाएँ कहते हैं। हबीब साहब ने साफ जिक्र नहीं किया है कि खुसरो भारत के लिए ‘हिंदुस्तान’ शब्द काम में लेते हैं या कोई और। पर क्योंकि कविता फारसी में हैं, जुबानों को ‘हिंदवी’ कह रहे हैं, तो बहुत संभावना है कि भारत को ‘हिंदुस्तान’ ही कह रहे होंगे। (मैं कविता ढूंढ रहा हूँ।) खुसरो मुसलमान थे, वे इस देश को मुसलमानों का भी देश बताते हैं, यहाँ की भाषाओं को हिंदवी भाषाएँ बताते हैं। और कम से कम मुझे पूरा विश्वास है इस देश को ‘हिंदुस्तान’ कहते थे। और इन नामों में ‘हिन्दू’ शब्द है।

मैं इतिहासकार नहीं हूँ, और इस वक़्त संदर्भ देखने का समय भी मेरे पास नहीं है, पर मुझे लगता है कि मुगल साम्राज्य में और दिल्ली सल्तनत में भी इस देश को ‘हिंदुस्तान’ कहा जाता था। तब तक तो, और खुसरो के काल में भी, हिन्दू शब्द “हिन्दू-धर्म” के साथ भी जुड़ गया था। और हिन्दू-धर्म इस्लाम से भिन्न है। और मुग़ल साम्राज्य में और दिल्ली सल्तनत में सत्ता मुसलमान राजाओं के हाथ में थी। इकबाल का ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ तो सबने सुना-गाया ही होगा। तो खुसरो और इकबाल को (इकबाल को केंब्रिज जाने पहले तक 😊) तो कोई परेशानी नहीं थी, इस देश को हिंदुस्तान कहने से।

अब यह भी आम समझ है कि जहां संवैधानिक और कानूनी जरूरत होगी वहाँ तो हमें भारत ही कहना चाहिए इस देश को, पर आम बात-चीत में, लेखन में, साहित्य में ‘हिंदुस्तान’ शब्द से आपत्ती क्यों और क्या है?

यदि आप सारे भारतीय नागरिकों की समानता को दरकिनार करके हिन्दू-वर्चश्व[5] की राजनीति करने वालों की सुनें तो वे इस के मूल में हिन्दू धर्म, संस्कृति, आदि से घ्रणा, दुराव या उस को खत्म करने की साजिश की बात करेंगे। पर मेरे विचार से यह गलत है, जो लोग ऐसे ऐतराज करते हैं उन में से अधिकतर के मन में हिन्दू-धर्म या संस्कृति से कोई घ्रणा, बैर या दुराव नहीं होता। ना ही वे इनको खत्म करने पर आमादा हैं। बात कुछ और है।

मैं ठीक से नहीं जानता, पर मेरी दो काम-चलाऊ परिकल्पनाएं हैं।

पहली परिकल्पना है पंथ-निरपेक्षता (secularism) को गलत समझ कर उसका झण्डा उठाना। जहां तक मैं समझता हूँ पंथ-निरपेक्षता राज्य-नीति के रूप में सिर्फ इतनी मांग करती है कि राज्य की नीतियाँ, नियम-कानून  बनाने में और उनके क्रियान्वयन में नागरिकों की पांथिंक आस्थाओं का कोई दखल न हो। वे इस दुनिया के विवेकशील ज्ञान और मानवीय नैतिकता पर आधारित हों। सभी नागरिक राज्य और कानून की नजर में समान हों। व्यक्ति के स्तर पर भी यह अपनी आस्थाओं से विमुख होने की मांग नहीं करती। केवल यह मांग करती है कि नागरिक एक-दूसरे से पांथिक आस्था के आधार पर भेदभाव ना करें। पर इसे गलत समझलेने वाले कुछ और ही सोचते हैं। वे लोगों के चिंतन में से पांथिक आस्था को निकालने पर आमादा हो जाते हैं, या उनको हिकारत की नजर से देखने लगते हैं। बल्कि उस से आगे जा कर हमारी भाषा, संस्कृति  और सामाजिक-व्यवहार से कुछ शब्दों, विचारों और क्रियाकलापों को बहिष्कृत करना चाहते हैं। उनके विचार से जो कुछ भी पांथिंक आस्था से कभी इतिहास में निर्मित हुआ है या विकसित हुआ है, वह सब निकाल फेंकना चाहिए। भारत में इसका एक इस से भी अधिक विकृत रूप है। वह यह की जहां भी भारतीय संस्कृति, पंथ, हिन्दू-धर्म का जिक्र आता है, वह विषेशरूप से ताज्य है। इस लिए नहीं की हिन्दू-धर्म से कोई बैर है, बल्कि इस लिए कि भाषा और समाज में सब मजहबों संबंधी शब्दावली का बराबर का उपयोग होना जरूरी है, इन लोगों के विचार से। बहुमत यदि अपनी सांस्कृतिक शब्दावली काम में लेगा तो इन लोगों के विचार से समाज की बोल-चाल में बहुमत की शब्दावली अधिक सुनाई देगी। और यह तो अन्याय होगा!!

यह भ्रामक धारणा है। और संस्कृति, भाषा और पंथ-निरपेक्षता की गलत धारणाओं का परिणाम है। भाषाएँ और सामाजिक व्यवहार संस्कृतियों के वैचारिक और नैतिक विकास की छाप लिए चलते हैं। उन्हें अपनी संकुचित दृष्टि से शुद्ध करना चाहेंगे तो वे नकली हो जाएंगी और अपनी वैचारिक धार खो देंगी। और इसकी लोगों में प्रतिकृया होगी, जो कि जायज होगी, वह अलग।

मेरी दूसरी परिकल्पना यह है कि कुछ लोग पंथ-निरपेक्षता के अर्थों और सिद्धांतों से उतने संचालित नहीं होते जितना ‘ठप्पाकांक्षी पंथ-निरपेक्षता’ (certificate seeking secularism) से। उन्हें किसी समूह विशेष में मान्यता चाहिए कि ‘ये भी पंथ-निरपेक्ष हैं’। ये बार बार ऐसा कहेंगे या करेंगे जिससे लोगों का, खाशकर ठप्पा-व्यापारियों का, ध्यान जाये, जैसे कि कह रहे हों “मुझे देखो-देखो, मुझे देखो, मैं भी पंथ-निरपेक्ष हूँ”। यह प्रवृती हमारे यहाँ बहुत ज़ोर पकड़ रही है। कड़ी बात है, पर यह प्रवृत्ती पंथ-निरपेक्षता को बिना समझे गटक लेने से पैदा होती है।

ये दोनों कोई पक्के दावे नहीं है, बस काम-चलाऊ परिकल्पनाएं हैं अभी। और यह पहचानना बहुत मुश्किल होता है कि कहाँ बे-समझी पंथनिरपेक्षता बोल रही है और कहाँ उसकी ठप्पकांक्षी बहन। माफ करिए, यहाँ कोई जेंडर संबंधी दुराग्रह नहीं है, आप चाहें तो इसे ‘उसका ठप्पाकांक्षी भाई’ कह सकते हैं।

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16 मई 2021


[1] यहाँ एक बात साफ करने जरूरी है। मैं इतिहास का अध्यता या विद्वान नहीं हूँ। और जब मैं किसी तर्क के लिए किसी विद्वान के विचार काम में लेता हूँ तो इस का अर्थ यह नहीं है कि उसकी कही हर बात के लिए प्रतिबद्धता जाहिर कर रहा हूँ। एक ही विद्वान के निष्कर्ष बहुत प्रमाण-सिद्ध और विवेकशील भी हो सकते हैं और उससी के दूसरे निष्कर्ष गलत भी हो सकते हैं। तो मैं जो चीजें प्रमाणित लग रही हैं वेही ले रहा हूँ।

[2] यह इसी लेख के लिए किया गया फौरी अनुवाद है। ““the concept of India as a country was ancient, the assertion made by Perry Anderson in his book The Indian Ideology that the India is a name given by foreigners particularly Europeans in modern times, is a totally misleading statement.”

[3] “The first perception of the whole of India as a country comes with the Mauryan Empire.”

[4] Sthan always means in Sanskrit a ‘particular spot’. But ‘stan’ in Persian is a territorial suffix…”

[5] यहाँ मैं यह साफ करदूं कि मुझे “हिन्दू-वर्चश्व की राजनीति” को “हिन्दुत्व की राजनीति” कहने से ऐतराज है। क्यों कि मेरे विचार से सावरकर के बावजूद ‘हिन्दुत्व’ का अर्थ हिंदूपना या hinduness से अधिक कुछ नहीं है। और हिन्दू होने भर से वर्चश्व चाहने की तोहमत से मुझे ऐतराज है। इसे पारिभाषिक शब्दावली मनाने से भी यह समस्या खत्म नहीं होती।


Will we ever learn to listen and respond?

May 7, 2021

Rohit Dhankar

The fundamental rights related to expression, association and attempting to shape the society according to one’s ideals are not earned, they are granted just by virtue of being born human. They cannot be alienated. Therefore, democracy has to function on listening to all concerns and all thoughts and responding to them with rational arguments keeping fraternal feelings in heart. No matter how obnoxious in your personal opinion the others’ views are.  

Yes, there is selfishness, bigotry, stupidity and even evil in human heart. But if we want to include all humanity in our dreams of peace, justice, freedom and prosperity; we have to deal with all these things with humility and open mindedness. We have to remain open for dialogue; to listen with benevolence in heart and openness of reason in mind. Even to that which we consider evil. Genuine rational dialogue is the only way if, repeat, we want to include all humanity. If we shut our hearts and minds to those we consider bad, fools, bigoted or even evil, we have become too conceited to think of ourselves as custodians of the only truth and guardians of human morality.

Inclusion means taking everyone’s concerns, aspirations and dreams on board and creating something like the Rig Veda aspires for.

समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥ (Rig Veda, 10:191:4)

“Common is your purpose; common your hearts; let your thought be common, so that it will go well for you together.” (Translated by Stephanie W. Jamison and Joel P. Brereton in The Rigveda: The Earliest Religious Poetry of India. OUP, 2014)

No, our dreams and aspirations are not common. They differ. One sees others dreams and aspirations as unjust and may be bad for humanity. And no, they are not all equally good for the flourishing of humanity. But we have to learn to listen to all of them, consider all of them this concern of well-being of all. And then strive with our reason and love to create common purpose, common heart and common thought, so that it goes well for us all together.

Presently our analysis is marred by categories of ‘my religion’ and ‘other religion’, upper caste and lover caste, leftist and rightist, government supporter and government opponents, and so on. In our arrogance we take these categories as rigid and iron clad; defining property of humans; ourselves and well as of others. This stops us from listening, paying attentions to others concerns and fears, their aspirations and dreams. We simply shun them, call them names and reject them in their totality. Simultaneously, we declare ourselves (on both sides) champions of humanity; and don’t even notice that by demonizing the other, considering the other unredeemable evil, we are rejecting the humanity of the other. And by rejecting humanity in the other we fall from our humanity, unnoticed by ourselves.

People don’t change by shunning, by rejecting, by coercion, fear and force. The only way is to listen and pay head. And remember that we may be as evil on the others’ eyes as s/he is in ours. We have to allow the other to stand on the same ground and use the yardstick of benevolence for all, reason, equality and freedom. In a serious and genuine dialogue, we may discover that the other has a heart that beats the same as ours and s/he was as mistaken about our intentions as we are of his/her.

Complete rejection of the other dehumanizes him/her, once the dehumanization of the opponent is normalized, the only option remains is complete subjugation of the other. Whichever side be successful in this evil project, democracy is lost, and humanity is insulted. We have no way but to learn to listen and respond with reason and love.

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7th May 2021