द साबरमती रिपोर्ट: एक टिप्पणी

November 26, 2024

रोहित धनकर

कल द साबरमती रिपोर्ट देखी। अपने आप को निष्पक्ष बता कर ढोल पीटने वाले मीडिया का बिलकुल सही चित्रण किया गया है। उनकी तथाकथित पंथ-निरपेक्ष राजनैतिक पार्टियों से साँठ-गाँठ भी बहुत सटीक और साफ़ दिखाई गई है। लेकिन बहुत कुछ सिर्फ़ इशारों में।

जस्टिस बनर्जी रिपोर्ट का पूरा शर्मनाक नाटक बहुत साफ़ नहीं बताया गया है। इस विषय पर बहुत कुछ है जो शर्मनाक है और जिस पर अभी सार्वजनिक बहस खुल कर नहीं हुई है। गोधरा ट्रेन में आग लगाई जाने के बाद और गुजरात दंगों के बाद भारतीय मीडिया, कुछ कथित ग़ैर-सरकारी संस्थाओं और व्यक्तियों की काली करतूतों का पूरा खुलासा अभी बाक़ी है।

कभी भविष्य में शायद इस चीज का विश्लेषण हो कि गुजरात दंगों के बाद चलाये गये नरेटिव का मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में बहुत बड़ा योगदान रहा है। भारतीय जनता पार्टी की २०१४ की जीत गोधरा ट्रेन में आग लगाने की घटना को दबाने और दंगों के बाद चलाये गये एक-तरफ़ा आख्यान की अनाभिव्यक्त प्रतिक्रिया का नतीजा भी थे। इस आख्यान ने एक स्वभावत: पंथ-निरपेक्ष (राजनैतिक मामलों में पंथ निरपेक्ष, सब जगह नहीं) समाज को अपने साथ दसकों से हो रहे दुराव को देखने पर मजबूर किया। लोगों का कांग्रेस और जातिवादी क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टियों से विश्वास उठ गया। पंथ-निरपक्षता (सिक्यूलरिज्म) की विकृत परिभाषा और वोट बैंक के लिए उसका स्वार्थपूर्ण उपयोग धीरे धीरे उजागर हो गया। इस दृष्टि से यह फ़िल्म गोधरा ट्रेन में आग लगाने की घटना को भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ देने वाली घटना ठीक ही बताती है।

फ़िल्म में यह दिखाया गया है कि गोधरा कांड के सच को मीडिया और राजनीतिक पार्टियों ने दबा दिया। लोगों को उस सच का पता नहीं चला। मेरे विचार से यह ग़लत है। मीडिया (कथित निष्पक्ष मीडिया) ने उसे दबाने की पुरज़ोर कोशिश की। राजनैतिक पार्टियों ने उसे नकारा। हमारी कथित-उदारवादी जमात ने उसे हादसा सिद्ध करने की कोशिश की। पर मुझे उस वक़्त का माहौल और छोटे समूहों में होने वाली चर्चाएँ याद हैं। लोग यह जानते और मानते थे कि आग हादसे में लगी नहीं, जान बूझ कर लगाई गई थी। यह ठीक है कि ऐसा लिखा नहीं गया, नाही उन जगहों पर बोला गया जहां की आवाज़ दूर तक सुनाई देती है। पर लोग जानते थे। हम लोग अभिव्यक्ति पर सरकारी बंदिश की तो बहुत बात करते हैं, पर हमारी कथित-उदारवादी जमात अपने विरोधी विचार की अभिव्यक्ति को जिस सफ़ाई और मुस्तैदी से रोकती है उस की समझ अभी भी समाज में बहुत कम है। आप किसी कथित-बौद्धिक समूह में उस के आख्यान के वुरुद्ध तथ्य और तर्क रख कर देखिए। आप को ५ मिनट में पता चल जाएगा कि उस विश्लेषण को किस तरह तुरंत रोका जाता है। तो लोग इस घटना की सच्चाई जानते थे, मानते थे; पर कहते नहीं थे।

मेरे विचार से फ़िल्म में एक और गलती है। आख़िर में राम मंदिर और राम की पूर्ति पर कैमरा केंद्रित करने की ज़रूरत नहीं थी। इस से फ़िल्म का आख्यान बाधित हुआ है और यह बायस्ड लगाने लगी है। यह ठीक है कि जलाये गये डब्बे में अधिकतर लोग अयोध्या की राम मंदिर से संबंधित यात्रा करके आये थे। पर यह बात फ़िल्म के आख्यान में मज़बूती के साथ आनी चाहिए थी, ना कि राम मंदिर और राम की मूर्ति पर कैमरा केंद्रित करके।

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