पोस्ती ने पी पोस्त, नौ दिन चला अढ़ाई कोस: भारतीय विद्यालयी शिक्षातंत्र


रोहित धनकर

भारतीय विद्यालयी शिक्षातंत्र पर शीर्षक में दी गई कहावत अक्षरस: खरी उतरती है। वर्तमान में हम राष्ट्रीय स्तर पर ‘बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मकता’ में सुधार के लिए युद्ध-स्तर पर मुहिम चला रहे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता और शिक्षार्थियों के अधिगम में बेहतरी की कोशिश का यह ताजातरीन उदाहरण है। पर भारतीय शिक्षा के स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में गुणवत्ता सुधार का यह अकेला उदाहरण नहीं है। यह मुहिम असफलताओं के एक पहाड़ पर खड़ी है और उस पहाड़ की चोटी को और ऊँचा करने की तरफ अग्रसर है। शिक्षक शिक्षा योजना (1987), जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (1994), सर्व शिक्षा अभियान (2001), शिक्षा का अधिकार अधिनियम (2009) के माध्यम से शिक्षा में बेहतरी का प्रयास, आदि, सब इस असफलता के पहाड़ को और ऊँचा करने में सहायक रहे हैं। गुणवत्ता और शिक्षार्थियों की उपलब्धियों का स्तर लगभग वही है जो इन सब से पहले था। भारतीय विद्यालयी शिक्षा तंत्र जो अढ़ाई कोस चला वह सब नामांकन और कुछ हद तक संसाधनों के विकास तक सीमित है। शिक्षार्थी-उपलब्धि में सुधार नगण्य ही रहा है।
बहुत लोग इस समस्या को “बदलाव” की समस्या के रूप में विश्लेषित/व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं, उनका सवाल यह होता है कि “बदलाव क्यों नहीं हो रहा?” अर्थात् शिक्षकों के काम और पढ़ाने के तरीक़े क्यों नहीं बदल रहे। और फिर वे बदलाव कैसे किया जा सकता है इस के लिए सैद्धांतिक या व्यावहारिक तरीके बताते हैं। उन में से कुछ शिक्षकों के तौर-तरीक़ों में बदलाव का दावा भी करते हैं। शायद ये दावे कुछ हद तक सच भी हों। पर शिक्षार्थी-उपलब्धि फिर भी वहीं रहती है।
बदलाव-महारथी, जिन की हमारे शिक्षा जगत में भरमार है, यह मान कर चलते हैं कि उन्हें पता है क्या बदलना है और शिक्षकों को उन्हों ने जो चुना है उस रास्ते पर चलाना चाहते हैं। पर बदलाव-मंत्र अधूरा और कुपरिभाषित है। बदलाव सिर्फ जो है उस से भिन्न के होने की माँग करता है। और हम यह मान लेते हैं कि सभी लोग बदलाव से वांछनीय (अच्छा) बदलाव ही समझते हैं। पर बदलाव तो अवांछनीय भी हो सकता है और उस के परिणाम उलटे भी निकल सकते हैं। हाल ही में शिक्षा का अधिकार अधिनियम ने शिक्षार्थियों को साल-दर-साल स्वतः अगली कक्षा में बढ़ाने की नीति से ऐसा नुकसान किया भी है। यह ‘कुछ सीखें या ना सीखें आगे की कक्षा में बढ़ाना है’ की नीति शिक्षा की परिभाषा को उपलब्धि से काट देती है। जब कि शिक्षा मूलतः एक उपलब्धिपरक अवधारणा है। शिक्षा में प्रयास और प्रक्रिया भी होती है, पर शिक्षा का मूल अर्थ उपलब्धिपरक ही होता है। अर्थात् शिक्षा के मूल में ज्ञान, मूल्यों, कौशल हासिल (प्राप्त, विकसित) करना होता है, ना कि किसी तरह की प्रक्रिया से गुजारना। प्रयास और प्रक्रिया तो साधन मात्र हैं। अतः बदलाव का मंत्र जपने वाले लोग वास्तव में साधनों पर केंद्रित रहते हैं, साध्य (उपलब्धि) पर नहीं। वे मानते हैं कि केवल प्रक्रियायें (कक्षा में व्यवहार और गतिविधियाँ) बदलने से उपलब्धि स्वतः बदल जाएगी और वह बेहतरी की ओर ही बदलेगी।
शिक्षा में त्वरित-उपचार (quick-fix), खण्ड-खण्ड-सुधार और इनपुट-आउटपुट के तरीक़े बहुत कारगर नहीं होते। मुख्य कारण यह है कि शिक्षा विवेक के विकास का काम है। यह सक्रिय बौद्धिक-प्रयास का मामला होता है। अवधारणायें, नियम और विचार विकसित होने में समय लेते हैं। वे अपनी गति से पनपते हैं, आरोपित नहीं किए जा सकते। आरोपित करने से वे मृत-विचारों का बोझ बन कर बुद्धि को कुन्द करते हैं और विवेक जिस गत्यात्मक विश्लेषण की सतत माँग करता है वह नष्ट हो जाता है। गैर-सरकारी संगठन ४० दिन में पढ़ना-लिखना सिखाने का दावा करके प्रसिद्धि, धन और अपना फैलाव तो कर सकता है, पर उचित स्तर तक पढ़ना-लिखना नहीं सीखा सकता।
खण्ड-खण्ड-सुधार भी काम नहीं करता क्यों कि मानसिक-विकास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा एकीकृत और संश्लिष्ट होता है; जिसमें जानकारी, ज्ञान, भाव, रुझान, मानसिक-दक्षताएँ और प्रवृत्तियाँ एक दूसरे को प्रभावित करते हुए विकसित होती है। इस लिये एक व्यक्ति (संस्था) आ कर दक्षताएँ सिखाएगा, दूसरा आकर मूल्य सिखाएगा, तीसरा आकर कुछ और सिखाएगा यह केवल सीखी हुई चीजों के सिर्फ़ उसी संदर्भ में दोहराने भर की क्षमता दे सकता है जिस में वे सिखाने की कोशिश हुई है। यह उन्हें संपूर्ण मानसिक विकास का हिस्सा बनाकर अपने विवेक से सम्मान्यकृत करके जीवनोपयोगी क्षमता नहीं बना पाता। व्हीटहेड के शब्दों में यह सिर्फ मृत-विचार बनाता है।
इनपुट-आउटपुट मॉडल भी नहीं चलता, क्यों कि यहाँ कुछ भी यांत्रिक नहीं है। सब कुछ शिक्षार्थी अपनी चेतना में सृजित करता है। आप के इनपुट को उसकी चेतना कोई मायने देती है, वे मायने उसके पहले से बने विचारों, ज्ञान, रुझानों और मूल्यों के प्रकाश में बनते हैं। और शिक्षार्थी के स्वयं के मानसिक प्रयास से उन्हें अपने संपूर्ण मानसिक-ढाँचे में कोई जगह देनी होती है। उसको समझ का हिस्सा बनाना होता है। अतः हर इनपुट शिक्षार्थी की मानसिक स्थिति के हिसाब से बदल जाता है, नया रूप ग्रहण करता है और पहले से सीखी सब चीजों पर प्रभाव डालता है। आप कभी भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकते कि इनपुट-क क्या रूप उसकी चेतना में लेगा और किस तरह के प्रवभाव छोड़ेगा।
इस समस्याओं से एक साथ जूझने के लिए शिक्षा की एक समग्र धारणा शिक्षक के मन हो होनी ज़रूरी है। और उस धारणा के केंद्र में शिक्षार्थी की वांछनीय मानसिक-स्थिति (स्टेट ऑफ़ माइंड) ही हो सकती है। शिक्षण विधि, गति-विधियाँ, सामग्री और विषय-वस्तु सब उस वांछनीय मानसिक-स्थिति से और एक-दूसरे से संगत होनी चाहिएँ। त्वरित-सुधार, खंड-खंड विकास और इनपुट-आउटपुट की प्रक्रियाएँ शिक्षा को विखंडित करती हैं, उसकी समग्रता को भंग करती है, पुष्ट नहीं। अतः उपलब्धि में मदद नहीं कर सकती।
इस समय हमारे सभी शिक्षैक-सुधार कार्यक्रम यही विखंडन कर रहे हैं, अतः अप्रभावी हैं।
त्वरित-सुधार और खंड-खंड इनपुट सरकारी ढाँचे को इस लिये पसंद आता है क्यों कि यह सब कुछ को बहुत कम समय, धन और प्रयास की लागत से ठीक करने का झूठा वादा करता है। लगभग इन सभी प्रयासों में सुधार की योजना चलाने वाले गैर-सरकारी संगठन अपने कार्मिकों को बहुत छोटे और सतही प्रशिक्षण में कोई कुछ गतिविधियाँ सिखा कर उन्हीं गतिविधियों को सिखाने के लिए शिक्षकों के पास भेज देते हैं। और उनका एक नये शिक्षण-शास्त्र के रूप में प्रचार करते हैं। यही वह पोस्त है जिस का नशा शिक्षा व्यवस्था पर चढ़ा हुआ है, और उस नशे में वह नौ दिन में अढ़ाई कोस ही चल सकती है। गैर-सरकारी संगठन सालों से यही पोस्त शिक्षा व्यवस्था को पिला रहे हैं और इस प्रयास में स्वयं की प्रसिद्धि और आर्थिक मज़बूती की उपलब्धि प्राप्त कर रहे हैं। पर बच्चों की शैक्षिक उपलब्धियां जस-की-तस रहती है।
सवाल यह उठता है कि फिर क्या किया जाये कि शैक्षिक सुधार फलीभूत हों? इस पर कुछ विचार अगले छोटे आलेख में रखने की कोशिश करेंगे।


दिगन्तर विद्यालय दसकों से ऐसी विधियों का उपयोग सफलता पूर्वक कर रहा है जो शैक्षिक उपलब्धियों में विकास करती हैं। अब यह विद्यालय संपूर्ण विद्यालय विकास की एक योजना पर काम कर रहा है जो अधिक बच्चों तक पहुँच सके।
इस में आप निम्न लिंक पर जा कर आर्थिक सहयोग कर सकते हैं:
https://give.do/fundraisers/help-sustain-free-and-quality-education-of-underprivileged-children
आप का आर्थिक सहयोग बेहतर विद्यालयी शिक्षा के विकास और फैलाव में सहायक होगा।


Leave a comment