न्याय: सार्वजनिक विमर्श के दर्शन के रूप में


रोहित धनकर

सार्वजनिक विवेक (पब्लिक रीज़न)

वर्तमान बहसों में ‘सार्वजनिक विवेक’ (public reason) का विचार मुख्यतः राजनीतिक और उन नैतिक मुद्दों के संबंध में प्रयुक्त होता है जिनके राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। इसे लोकतंत्र के लिए आवश्यक माना जाता है। केवल राजनीतिक विचार-विमर्श में ही इसकी वैधता पर इतना अधिक जोर देना इसके दायरे, समुच्चय भागीदारों की संख्या और विषयवस्तु, तीनों को ही सीमित कर देता है। रॉल्स इसे “संवैधानिक आवश्यकताएँ और बुनियादी न्याय के विषय” तक सीमित करते हैं (SEP), जिससे नागरिकों के बीच जहां-जहां सत्ता प्रयोग होता है, उन सभी संबंधों का विस्तार भी शामिल नहीं होता। इसी प्रकार, रॉल्सियन विचार में भागीदार वे विवेकशील व्यक्ति (reasonable persons) हैं जो “आपसी सहयोग की निष्पक्ष शर्तों के रूप में सिद्धांत और मानदंड प्रस्तावित करने के लिए तत्पर हैं और उन्हें स्वेच्छा से मानने के लिए तैयार हैं, बशर्ते अन्य लोग भी उसी प्रकार करें। वे उन मानदंडों को सभी के लिए वाजिब समझते हैं और इसलिए अपने लिए उनका औचित्य स्वीकार्य मानते हैं; और वे दूसरों द्वारा प्रस्तावित निष्पक्ष शर्तों पर चर्चा करने के लिए तैयार हैं” (Rawls 1996, 49)। साथ ही, वे लोग “इनके परिणामों को स्वीकार करते हैं ताकि संवैधानिक शासन में राजनीतिक सत्ता के वैध प्रयोग का निर्देशन सार्वजनिक विवेक द्वारा हो” (Rawls 1996, 54)। [रोचक बात यह है कि भारतीय मंचों पर जिन लोगों के बीच बहस होती है—चाहे वह संसद हो, राज्य विधायिकाएँ हों या जनमाध्यम—वे लगभग सभी रॉल्स के दोनों मापदंडों पर खरे नहीं उतरते।]

  1. सार्वजनिक विवेक की विषयवस्तु में, ऐसा प्रतीत होता है, निम्नलिखित शामिल होने चाहिए:
    कुछ बुनियादी राजनीतिक मूल्य, जैसे समान मूलभूत स्वतंत्रताएँ; अवसरों की समानता। और
  2. विवेचना के दिशा-निर्देश, जिनमें तर्क के सिद्धांत और साक्ष्य के नियम शामिल हों, ताकि पहले बिंदु में निहित मूल्यों को लागू करने के तरीके का निर्धारण किया जा सके। (SEP, Rawls)

एक अधिक समावेशी समुच्चय के दृष्टिकोण के अनुसार, जो हाबर्मास के विचार पर आधारित है, “सार्वजनिक विवेक की मानक सामग्री कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे दार्शनिक विश्लेषण या तर्क द्वारा निर्धारित किया जाए। बल्कि, दर्शन सार्वजनिक विवेचना के संचालन के लिए आदर्श नियमों या दिशा-निर्देशों का एक समुच्चय प्रदान करता है। सार्वजनिक विवेचना के आदर्श दिशा-निर्देश सुनिश्चित करेंगे कि चर्चा समावेशी, सार्वजनिक और किसी भी आंतरिक या बाह्य दबाव से मुक्त हो,” और मानक सामग्री को स्वयं सार्वजनिक विवेचना द्वारा निर्धारित होने देते हैं।

इस दृष्टिकोण में, जिसे स्टैनफोर्ड इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिलॉसफी से कुछ चुनिंदा बिंदुओं के लिए गया है, सार्वजनिक विवेक को तकनीकी अर्थ में देखा जाता है, जो मुख्यतः राजनीतिक विमर्श से संबंधित है, और जिसमें (क) कुछ मानक सिद्धांत और (ख) सार्वजनिक बहस के नियम सम्मिलित होते हैं।

गनेरी का प्रतिपादन, यद्यपि रॉल्स के विचार के आधार पर होने का दावा करता है और संभवतः राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित रहने का इरादा रखता है, किमी से कम व्याख्या के आधार पर अन्य क्षेत्रों को सम्मिलित करने की संभावना खुली रखता है। गनेरी कहते हैं: “सार्वजनिक विवेक वह विचार-विमर्श की पद्धति है जो विविध दार्शनिक, धार्मिक और नैतिक मान्यताओं वाले लोगों को आपसी चिंता और सामान्य हित के विषय पर तार्किक सामंजस्य की स्थिति में ले आती है।” हम “आपसी चिंता और सामान्य हित के विषय” को व्यापक अर्थ में लें, जिसमें सत्य, ज्ञान, नैतिकता और अच्छे जीवन जैसे विषय भी शामिल हों, भले ही वे सीधे राजनीतिक मुद्दों से जुड़े न हों। यह दृष्टिकोण भी सार्वजनिक विवेक के दोनों पहलुओं—नैतिक/मानक सामग्री और बहस के नियम—को शामिल करेगा। हम “सार्वजनिक विवेचना” का उस गतिविधि के रूप में उपयोग करेंगे जिसमें “सार्वजनिक विवेक” का प्रयोग होता है।

न्याय और सार्वजनिक बहस

गनेरी दिखाते हैं कि भारतीय संसाधन वैश्विक स्तर पर सार्वजनिक विवेचना को समृद्ध कर सकते हैं, और वे अपने कई उदाहरण न्याय से लेते हैं। मैलकम कीटिंग प्रारंभिक न्याय तर्क-शास्त्र की तुलना ‘प्राग्मा-डायलेक्टिक्स ऑफ डिसपैशनट डिस्कोर्स’ से करते हैं और दावा करते हैं कि वे न केवल एक-दूसरे का समर्थन करते हैं बल्कि एक-दूसरे को समृद्ध भी कर सकते हैं। न्याय-सूत्रों और भाष्यों के मेरे आम आदमी की हैसियत से अध्ययन से मुझे यह विश्वास हुआ है कि पूरा न्याय दर्शन—यद्यपि हर दृष्टि से और पूरी तरह नहीं—मूलतः सार्वजनिक विवेचना के रूप में विकसित हुआ है। और अपने रचना काल के हजारों वर्षों बाद भी यह आज के सार्वजनिक विमर्श के लिए महत्वपूर्ण है। मैं अपने दावे के समर्थन में न्याय से कुछ उदाहरण दूंगा।

1. उद्देश्य स्वयं इसका दावा करता है

गौतम के प्रथम न्याय-सूत्र में 16 विषयों की सूची है, जिनका ज्ञान सर्वोत्तम-हित तक पहुँचने के लिए आवश्यक बताया गया है। कुछ लोग इस क्रम की केवल असंबद्ध प्रलाप मान कर आलोचना करते हैं। गंगानाथ झा इस सूची और क्रम का बचाव करते हुए कहते हैं: “अपना ग्रंथ लिखने से पहले गौतम ने यह समझा कि विषय के यथार्थ निरूपण करने का सब से उत्तम ढंग यह है कि दो आदमियों को वादी और प्रतिवादी कल्पना करके एक तीसरे मध्यस्त के आगे दोनों पक्षों को उपपादन करा कर फिर उस कल्पित मध्यस्त के द्वारा यथार्थ तत्त्व का निर्णय कराया जाये.” (न्यायप्रकाश, झा)

यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि न्याय एक ऐसा शास्त्र है जिसे बहस के माध्यम से ही बेहतर समझा जा सकता है। झा इसे कल्पनात्मक बताते हैं; किन्तु सूत्रों में लगातार वाद-विवाद का जिक्र उस केवल काल्पनिक मानने के विरुद्ध जाता है।

3. अनुमान (अनुमान प्रमाण) के पाँच अवयव

अनुमान कई मायनों में न्याय का केंद्रीय बिंदु प्रतीत होता है। स्वयं ‘न्याय’ शब्द की  परिभाषा वत्स्यायन द्वारा इस प्रकार दी गई है: “वस्तु के बारे में यथार्थ ज्ञान की परीक्षा मान्य ज्ञान साधनों (प्रमाणों) की सहायता से करना।“ और अनुमान प्रमाण को ‘परम-न्याय’ कहा गया है। वत्स्यायन अनुमान की व्याख्या करते हुए कहते हैं:

“इन पाँच अवयवों में से प्रत्येक (उदा., प्रतिज्ञा आदि), जिनसे इच्छित सिद्धांत निर्णायक रूप से स्थापित होता है (सिद्धि संपन्न होती है), को उनके समष्टि-संबंध में ‘अनुमान घटक’ (अवयव) कहा जाता है। चारों प्रमाण कुल मिलाकर इन पाँच में उपस्थिति में हैं (अर्थात् इन्हीं के अन्तर्गत आते हैं)। ‘प्रतिज्ञा’ का प्रारंभिक कथन शब्द-प्रमाण (आगम) है। ‘हेतु’ कारण रूप में अनुमान (अनुमान) है। ‘उदाहरण’ प्रत्यक्ष अनुभव (प्रत्यक्ष) है। ‘उपनय’ अनुप्रयोग तुलनात्मक प्रमाण (उपमान) है। इन सभी के समन्वय से एक केंद्रीकृत सिद्धांत स्थापित करने की क्षमता का प्रदर्शन ‘निगमन’ (निष्कर्ष) है। यही परमन्याय है।”

अनुमान के संदर्भ में दो बातें सार्वजनिक विवेचना के लिये उल्लेखनीय हैं:

  • इसके दो रूप हैं: ‘स्वार्थ’ (स्वार्थ = स्वयं के लिए निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये) और ‘परार्थ’ (परार्थ = दूसरों को समझाने करने के लिये)।
  • जैसा ऊपर उल्लेख है, उदाहरण वही हों सकता है जो वादी और प्रतिवादी दोनों के लिये स्वीकार्य होता है।

बिना विस्तृत विवेचना में जाये, यहाँ यह कहना पर्याप्त है कि अनुमान की संरचना, जिसे परम-न्याय कहा गया है, दर्शकों की उपस्थिति में और एक मध्यस्थ द्वारा संचालित सार्वजनिक विवेचना के लिये बनाई गई है।

3. संशय (संदेह), निर्णय और वैचारिक खुलापन

न्याय न तो पूर्ण अज्ञान में कार्य करता है और न ही तब जब कोई स्पष्ट और मान्य निर्णय पहले से हो चुका है। यह तब कार्य करता है जब किसी विषय अथवा वस्तु के बारे में कुछ ज्ञान तो हो पर वह निश्चित न हो—यानी उसके वास्तविक स्वरूप के बारे में संशय बना रहता हो। इसका अर्थ है कि कोई व्यक्ति यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये खुले मन से हो और चर्चा के लिये तत्पर हो।

संदेह मिटाने के लिये ‘वाद’ (सत्य का निर्धारण करने वाली चर्चा) की सिफारिश की गई है। “अंतिम निर्णय (सत्य का ज्ञान (तत्त्वज्ञान) है। यह मान्य ज्ञान के साधनों द्वारा प्राप्त अंतिम परिणाम है। अंतिम निर्णय के लिये की गई चर्चा (वाद) यहीं समाप्त होती है ।”

4. वाद, जल्प और वितण्डा

  • सार्वजनिक विवेचना के लिये विशेष रूप से बहस/तर्क के तीन रूपों का उल्लेख दिया गया है।
    वाद: वह बहस जिसमें दोनों प्रतिद्वंद्वी अपने-अपने दृष्टिकोण के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करते हैं और प्रतिद्वन्दी के दृष्टिकोण की आलोचना करते हैं परन्तु पहले से स्वीकृत या स्थापित तथ्यों का खण्डन नहीं करते। उद्देश्य सत्य की प्राप्ति है।
  • जल्प (विवाद): जल्प एक प्रकार का वद है, जिसमें वादी अपने तर्कों को सहायक कुतर्कों (छल, जाति और निग्रहस्थानों) द्वारा समर्थन करते हैं। यहाँ बहस का उद्देश्य किसी भी प्रकार से विजय प्राप्त करना बन जाता है। कुछ कुछ नैयायिक इस रूप को निन्दनीय मानते हैं; जबकि कुछ अन्य इसे ‘प्रत्युत्तर में उसी प्रकार से उत्तर देने’ के उपकरण के रूप में देखते हैं। यह स्वस्थ बहस का रूप नहीं माना जाता।
  • वितण्डा (झगड़ा): जब विरोधी पक्ष किसी स्वयं की मत के बिना केवल वादी के मत को खण्डित करने का प्रयत्न करता है, तब वितण्डा होता है। वितण्डक का उद्देश्य केवल वादी की बात को नकारना होता है, न कि स्वयं कोई सिद्धान्त प्रस्तुत करना।

फणिभूषण न्याय के इस त्रिवर्ग का सार इस प्रकार देते हैं: “वाद वह बहस है जो सही ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से प्रेरित है, जल्प वह बहस है जो विजय की इच्छा से प्रेरित है, और वितण्डा वह बहस है जो विजय की इच्छा से प्रेरित है परन्तु विरोधी का अपना कोई सिद्धांत प्रस्तुति के योग्य नहीं होता।”

ये रूप स्पष्टतः सार्वजनिक बहस की ओर संकेत करते हैं। [रोचक बात यह है कि आज के सार्वजनिक विमर्श में वादाबहुत कम है; अधिकांशतः जल्प और वितण्डा हावी हैं।]

5. प्रश्नों के लिये खुलापन

न्याय एक दार्शनिक प्रणाली होने के नाते अपने सिद्धांतों पर किसी भी प्रकार के प्रश्न उठाये जाने के लिये स्वाभाविक रूप से खुला है, और किसी प्रश्न को निन्दनीय या ‘धर्मनिन्दा’ घोषित करने का चलन नहीं है। यह सभी दर्शनों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है; मैं इसे यहाँ विशेष रूप से इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ क्योंकि आज के भारत में यह कुछ लोगों को आश्चर्यजनक लग सकता है। न्याय उन छह प्रणालियों का हिस्सा है जिन्हें कई बार ‘हिंदू दर्शन कहा जाता है। जैसा कि सर्वविदित है, वेदों की सत्यता, आत्मा का अस्तित्व और ईश्वर का होना व्यापक हिंदू धार्मिक विश्वास प्रणाली के अंग हैं। न्याय इन तीनों सहित अनेक विषयों पर बिना किसी हिचकिचाहट के प्रश्न उठाने की अनुमति देता है।

शब्द-प्रमाण पर चर्चा में सूत्रकार स्वयं इसकी वैधता को चुनौती देते हुए प्रश्न उठाते हैं। सूत्र 2.1.57 (झा में 2.1.58) में कहा गया है: “[आपत्ति] इसकी (यानी वेद के शब्द की) कोई वैधता नहीं है, क्योंकि यह ‘अनृत’ (असत्य), ‘व्याघात’ (आत्मविरोध) और ‘पुनरुक्ति’ (दोहराव) से भरा है।“ [मैंने जानबूझकर गंगोपाध्याय के अनुवाद का प्रयोग किया क्योंकि वे विशेष रूप से वेद का उल्लेख करते हैं। हालांकि, न तो गौतम और न ही वत्स्यायन सीधे वेद का उल्लेख करते हैं; पर सभी टीकाकार इस सूत्र की व्याख्या वेद को शब्द-प्रामाण्यता पर प्रश्न उठाने के रूप में करते हैं।]

यद्यपि गौतम इस आपत्ति को अगले ही सूत्र में अस्वीकृत कर देते हैं, और अस्वाभाविक रूप से अनुष्ठान-कार्य के दोष, अनुष्ठान-कर्ता के दोष तथा प्रयुक्त साधनों की कमी का हवाला देते हैं; यह तर्क कुछ हद तक कमजोर प्रतीत होता है। मेरा तात्पर्य यह है कि प्रश्न को दबा दिया नहीं गया; उसे स्वीकार किया जाता है और तर्कसंगत रूप से निपटाया जाता है। लगभग प्रत्येक दावे को सूत्रों में विरोधी दृष्टिकोण से परखा गया है और कठोर प्रश्न पूछ कर परीक्षण किया गया है।

वर्तमान संदर्भ में उपयोगिता

न्याय में से ऐसे और भी बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं। ये सभी न्याय को लगभग सार्वजनिक विवेचना का दर्शन बनाते हैं। आज के युग में सार्वजनिक विवेचना का एक बड़ा हिस्सा जनमाध्यमों (प्रिंट मीडिया, टेलीविजन और सोशल मीडिया) पर होता है। सतर्क अध्ययन से स्पष्ट होगा कि, भारत के सन्दर्भ में, यह अधिकांशतः जल्प और वितण्डा से भरपूर है। जो सामान्यतया इस्तेमाल होने वाले तर्क दोष हैं वे व्यक्ति पर हमला (ad hominem) और ढलान-तर्क (slippery slope) हैं। प्रमाण (अच्छे तर्क और साक्ष्य) आम तौर पर अनुपस्थित रहते हैं। दलील और विरोध-प्रत्युत्तर में मुख्य आधार निराधार दावे ही होते हैं। न्याय के सिद्धान्तों और बहस के विधान को समझना वर्तमान विषाक्त विमर्श के जंगल में अपना रास्ता तय करने में बहुत उपयोगी हो सकता है, और स्वस्थ सार्वजनिक विवेचना में पर्याप्त योगदान दे सकता है।

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