न्याय-सूत्रों में आत्मा और आज की चेतना (कॉन्ससियसनेस्स) पर बहस

October 26, 2025

रोहित धनकर

न्याय-सूत्रों में आत्मा के लक्षण “इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, ज्ञान” बताए गए हैं। (1.1.10 इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानानि आत्मनः लिङ्गम् इति।) अर्थात् जीवों में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान की उपस्थिति से आत्मा की उपस्थिति सिद्ध होती है।

जहाँ तक शाब्दिक अर्थ का सवाल है, यहाँ आत्मा चेतना (=consciousness) का प्रयाय लग रही है। सभी दर्शन, मनोविज्ञान और कोगनीटिव साइंस मानव में चेतना की उपस्थिति स्वीकार करते हैं और उस की उपस्थिति के लिए यही प्रमाण देते हैं; अर्थात् जिस प्राणी में कुछ चीजों के प्रति आकर्षण (इच्छा) है, कुछ से दूर भगाना (द्वेष) है, इच्छा पूर्ति के लिए प्रयत्न करता है, दुःख और सुख का अनुभव करता है; वन प्राणी चेतना-युक्त है।

इस संदर्भ में न्याय एक प्रश्न खड़ा करता है: क्या आत्मा केवल शरीर, इन्द्रियों, मन, ज्ञान और सुख-दुःख की अनुभूतियों का एक संयोजन मात्र है? या वह इन सबके समूह से भिन्न कोई स्वतंत्र सत्ता है?

यह प्रश्न चेतना (consciousness) के अध्याताओं के लिए आज भी समस्या बना हुआ है। कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। अध्येता दोनों तरफ है: कुछ का कहना है कि चेतना अपने आप में अलग कुछ नहीं है, वह बस समस्त अनुभूनियों और भावों-विचारों के संयोग से पैदा होने वाली एक “मैं” की अनुभूति भर है। कुछ कहते हैं कि यह “मैं” की अनुभूति और चेतना को महसूस होने वाले सुख-दुःख की व्याख्या भौतिक प्रक्रियाओं के रूप में मस्तिष्क की व्याख्या से कभी भी नहीं हो सकेगी। यही दो मत यांत्रिक बुद्धि (Artificial Intelligence) पर होने वाली बहस, कि क्या AI कभी मानव जैसी हो पायेगी के मूल में भी हैं।

वात्स्यायन के अनुसार न्याय-सूत्रकार (गौतम) का मत है कि आत्मा ‘केवल शरीर, इन्द्रियों, मन, ज्ञान और सुख-दुःख की अनुभूतियों के एक संयोजन मात्र से भिन्न है।’ यह सिद्ध करने के लिए सूत्रकार केवल विश्वास का सहारा नहीं लेता, बहुत से तर्क देता है। सूत्रकार के तर्क कई जगह पर बहुत ठोस और विश्वासप्रद नहीं लगते। फिर भी इस मुद्दे को विश्वास के बजाय विवेक से जांचने की भरपूर कोशिश तो है ही। आगे मैं सूत्रकार के तर्क दे रहा हूँ।

आगे के सूत्रों में एक लंबा तर्क-वितर्क है, प्रश्न-उत्तरों का सिलसिला। आत्मा के बारे में उपरोक्त मान्यता [आत्मा केवल शरीर, इन्द्रियों, मन, ज्ञान और सुख-दुःख की अनुभूतियों के एक संयोजन मात्र से भिन्न है।] पर आपत्तियाँ और उनके उत्तर दोनों में से कुछ भी बनावटी नहीं लगता। साथ ही यह संवाद मुझे सुकरात (प्लेटो) के संवादों से ज्यादा वास्तविक लगता है। क्यों कि, एक, सुकरात के संवादों में प्रश्न सुकरात करता है और कई जगह वे प्रश्न स्वयं में अपेक्षित उत्तर छुपाये हुए होते हैं। दो, सुकरात की स्थापनाओं पर आपत्तियां शिष्यों की आपत्तियां लगाती हैं, बहुत जगह। जब की न्याय-सूत्रों में आपतियाँ विरोधी दार्शनिक मतों की लगती हैं। यह लंबा संवाद सूत्र 3.1.1 से 3.1.26 तक चलता है।

आगे मैं इस संवाद को न्यूनतम टिप्पणियों के साथ दे रहा हूँ। आत्मा को शरीर आदि के संयोजन से भिन्न मानने को पक्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया है और इसे शरीर आदि का संयोजन भर मानने को प्रतिपक्ष के रूप में। इसे आध्यात्मिक विश्वास एवं धार्मिक दृष्टि के बजाय मानवीय चेतना की गुत्थी को सुलझाने के दार्शनिक प्रयास के रूप में पढ़ना अधिक सार्थक होगा, क्यों कि न्याय-सूत्रों में इस संवाद का वास्तविक लक्ष्य यही है। यह संवाद वात्यायन के भाष्य के तीन अनुवादों के आधार पर तैयार किया है, वे अनुवाद गंगानाथ झा, मृणालकांति गंगोपाध्याय और उदयवीर शास्त्री ने किए हैं।

(पक्ष: आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है.)

पक्ष: वस्तुओं का प्रत्यक्ष इन्द्रियों से होता है. इंद्रियाँ वटुओं के संपर्क में आने पर हुए संप्रेषण मन को भेजती हैं. मन एक समय में केवल एक ही इन्द्रिय से संप्रेषण प्राप्त कर सकता है. वह (मन) इस संप्रेषण को आत्मा को भेजता है. आत्मा में इस से संज्ञान (cognitioin) उत्पन्न होता है. जब आख किसी वस्तु को देखती है और त्वचा से उसे छूते हैं तो ये दोनों संप्रेषण मन एकसाथ नहीं, बारी-बारी से ग्रहण करता और आत्मा को भेजता है. पर संज्ञान तो एक ही वस्तु का होता है (जैसे: गुलाब लाल दिखता है और छूने में कोमल है). तो इन बारी-बारी से मिलने वाले संप्रेषण में एक की वस्तु का संज्ञान तभी हो सकता है जब इन को एक साथ संज्ञान में लेने वाली कोई इन्द्रियों से भिन्न सत्ता हो. वही सत्ता आत्मा है, जो इंद्रियाँ नहीं है.

प्रतिपक्ष: नहीं, पक्ष का उपरोयक्त तर्क ठीक नहीं है. इन इंद्रियों को स्वयं चेतन कर्ता माना जाना चाहिए, क्योंकि ये अपनी-अपनी वस्तुओं का बोध करती हैं और इसके अतिरिक्त, इंद्रियों की उपस्थिति या अनुपस्थिति के बाद वस्तु की अनुभूति की उपस्थिति या अनुपस्थिति होती है। अतः, एक चेतन आत्मा को इसके अतिरिक्त क्यों स्वीकार किया जाए?”

पक्ष: इन्द्रियों की व्यवस्था और क्रमिक क्रिया का नियमन किसी एक स्थायी चेतन सत्ता के कारण ही संभव है; अतः इस तर्क से आत्मा का निषेध नहीं होता।

(पक्ष: आत्मा शरीर से भी भिन्न है.)

पक्ष: (इस सूत्र से एकाधिक अर्थ किए गए हैं, यहाँ सिर्फ एक लेरहे हैं) यदि आत्मा (चेतना) शरीर-संयोग मात्र होती, तो शरीर के नष्ट करने पर (जलाने पर) जलाने वाले को कोई पाप नहीं लगता, अर्थात् जलाने में कोई बुराई नहीं होती.   क्योंकि शरीर तो पल-पल बदलता रहता है. जो शरीर 5 वर्ष की उम्र में है वह 20 में नहीं और जो 20 में है वह 20 में नहीं. अर्थात् जलाने (प्राणी को मारने का) काम एक शरीर करता और दंड दूसरे शरीर को मिलता. (व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक एक तभी मना जा सकता है जब उस में कुछ जन्म से मृत्यु तक एक ही रहे. वही जो एक रहता है वह आत्मा है, और वह शरीर नहीं है.)

प्रतिपक्ष:  (यदि तुम (पक्ष) आत्मा को नित्य मानते हो) तो भी शरीर को जलाने से पाप (बुराई) नहीं लगता, क्यों की (तुम्हारे अनिसार) आत्मा का अस्तित्व जलने या परिवर्तन से नष्ट नहीं होता, क्योंकि आत्मा नित्य है और शरीर से स्वतंत्र है। अतः जीवित शरीर को जलाने में भी आत्मा का तो कुछ बिगड़ता नहीं.

पक्ष: नहीं, (तुम्हारा तर्क ठीक नहीं है) कार्य और कर्ता दोनों शरीर पर आश्रित हैं.  नहीं, कार्य के आधार शरीर तथा कार्य करने वाली इन्द्रियों के वध-आघात-पीड़न से हिंसा होती है. वह दोष है, अर्थात् बुराई है.

पक्ष (सतत्): स्मृति और पहचान (प्रत्यभिज्ञान) से सिद्ध है कि देखने और स्मरण करने वाला वही एक आत्मा है; शरीर या इन्द्रियाँ तो बदल जाती हैं।

प्रतिपक्ष: नहीं. तुमने–पक्ष ने–एक आँख से देखे हुए की दूसरी आँख से पहचान का तर्क दिया है. पर आँख तो एक ही है. बीच में नाक की हड्डी आ जाने से दो होने का भ्रम होता है. अतः यह एक के ज्ञान की दूसरे द्वारा पहचान नहीं है. अतः इन्द्रियों को ही चेतन (आत्मा) मानने में कोई तर्क-दोष नहीं है.

पक्ष: एक आख के नष्ट होने से दूसरी नष्ट नहीं होती. अतः वे एक नहीं दो हैं. (अर्थात् मेरा—पक्ष का—ऊपर वाला तर्क ठीक है.)

प्रतिपक्ष: एक अवयव के नष्ट होने पर भी अवयवी बना रहता है, इस लिए तुम्हारा हेतु ठीक नहीं है. अर्थात् आख एक ही है दो तो सिर्फ दिखाई देती हैं.

पक्ष: आत्मा के निषेध के लिए जो दृष्टान्त दिए जाते हैं, वे असंगत हैं; इसीलिए आत्मा का निषेध असिद्ध है। (सभी हिस्सों (अवयवों) के नष्ट होने से वस्तु (अवयवी) नष्ट हो जाता है.)

पक्ष (सतत्): एक इन्द्रिय के अनुभव से दूसरे इन्द्रिय पर प्रभाव (आत्मा को सिद्ध करता है)। (यदि पहले नींबू ख्याया है, और खाते समय उसका स्वाद और रंग-रूप अनिभव किया है; तो सिर्फ रंग-रूप देख कर बिना चखे ही मुँह में लार आजाती है। इस तरह रंगरूप देख कर स्वाद की स्मृति दिद्ध है। रंगरूप आख देखती है, स्वाद जीभ/तालू चखता है। अतः एक से दूसरे की स्मृति आत्मा—जो दोनों के अनुभव ग्रहण करती है—सिद्ध होती है।)

प्रतिपक्ष: नहीं — [स्मृति आत्मा को इन्द्रियों से भिन्न सिद्ध नहीं करती], क्योंकि स्मरण किए जानेवाली वस्तु ही उसके पुनःस्मरण का कारण होती है। किसी अन्य इन्द्रिय का उद्दीपन उसी (अर्थात् स्मरण की वस्तु) के कारण होता है, किसी भिन्न आत्मा के कारण नहीं।

पक्ष: आत्मा का निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि स्मृति का तथ्य उसे आत्मा का एक गुण स्वीकार करने पर ही समझाया जा सकता है कि  है। [साथ ही, किसी वस्तु का पुनः स्मरण उन की अनुपस्थिति में भी होता है, तो ‘वस्तु स्वयं’ अनुपस्थित होने से उस का कारण नहीं हो सकती.]

(पक्ष: आत्मा मन से भी भिन्न है।)

प्रतिपक्ष: नहीं, [आत्मा कोई भिन्न सत्ता नहीं है], क्योंकि आत्मा को सूचित करने वाले सभी आधार मन (मनस्) पर भी समान रूप से लागू होते हैं। (और मन शरीर का हिस्सा है.)

पक्ष: यह [प्रतिपक्षी का] कथन केवल संज्ञाभेद-मात्र है, क्योंकि ज्ञाता के लिए एक ऐसे एक ज्ञान साधन (अर्थात् ज्ञान को ग्रहण करने वाली सत्ता या क्षमता, जैसे आत्मा या मन) के अस्तित्व को तो स्वीकार किया ही जा रहा है।

पक्ष (सतत्): और [प्रतिपक्ष] यह नियम मन रहा है कि विभिन्न प्रकार के (दृश्य, श्रवण, स्वाद, आदि) बाह्य प्रत्यक्ष के लिए तो भिन्न-भिन्न साधन (उपकरण) मानने पड़ेंगे पर आंतरिक संवेदनों के लिए नहीं. क्यों कि दृश्य, श्रवण, स्वाद, आदि एक प्रकार ने संवेदन है और दुःख-सुख-ख़ुशी आदि भिन्न प्रकार के (वे दृश्य आदि की तरह भौतिक कारणों से नहीं वैचारिक कारणों से होते हैं). ऐसा नियम कि पहले प्रकार कि संवेदनों के लिए तो उपकरण मानना पड़ेगा (assume) पर दूसरे के लिए नहीं, असिद्ध है.

(पक्ष: आत्मा नित्य है.)

पक्ष: नवजात शिशु में हर्ष, भय, शोक के संकेत पाये जाते है. यह तभी संभव है जब किन्हीं वस्तुओं का पहले अनुभव हुआ हो, और उस अनुभव से हर्ष, भय आदि हुआ हो. पर नवजात शिशु को इस जन्म में तो ऐसा कोई अनुभव अभी हुआ ही नहीं, अतः इसे समझने के लिए पूर्व-जन्म मनना पड़ेगा, जब ये अनिउभाव हुए हों. जो इस जन्म और पूर्वनन्म में सामान्य हो सकता है वह शरीर तो नहीं है; अतः आत्मा ही हो सकती है. अर्थात् आत्मा नित्य है.

प्रतिपक्ष: नहीं. शिशु को हर्ष, शोक आदि कमल के फूल के खुलने-बंद हीने के समान बहुतिक कारणों से होने वाले विकार है. [इस के लिए किसी आत्मा को मनाने की (आत्मा का assumption लेने की) आवश्यकता नहीं है.]

पक्ष: नहीं, अस्वीकार्य है, क्योंकि पाँच भूतों से बने पदार्थों में जो परिवर्तन होते हैं, वे ऊष्मा, शीत और आर्द्रता के कारण होते हैं। [सद्य-जन्मे शिशु में ऐसा नहीं है.]

पक्ष (सतत्): क्योंकि [नवजात शिशु] को माता के स्तन को चूसने की इच्छा पूर्वजन्म में आहार ग्रहण करने की आदत के परिणामस्वरूप होती है। [अतः पूर्वजन्म और परिणाम स्वरूप आत्मा की नित्यता माननी पड़ेगी (postulate करनी पड़ेगी?).]

प्रतिपक्ष: [नहीं, इस में आत्मा को स्वीकारने की आवश्यकता नहीं है] जैसे लोहा चुंबक की तरफ आर्कषित होता है (भौतिक कारणों से) वैसे ही नवजात शिशु भी माता के स्तनों की तरफ आकर्षित होता है.

पक्ष: (वात्स्यायन इस की समग्रता से व्याख्या करता है. पर वह बहुत लंबी है, अतः मैं यहाँ उस का केवल एक हिस्सा ही लिख रहा हैं.) लोहा भी किसी अन्य वस्तु की ओर नहीं खिंचता [चुंबक के सिवा], तो इस नियम की व्याख्या कैसे की जाएगी? करण की विशेष प्रकृति कार्य की विशेष प्रकृति (केवल चुंबक की तरफ खींचना) से ही समझी जा सकती है. अतः, शिशु के मामले में भी, किसी विशेष वस्तु की इच्छा किसी विशेष कारण से ही उत्पन्न होती है। यह कारण पूर्वजन्म की आदतों के स्मरण से उत्पन्न है या किसी अन्य कारण से — यह निर्णय केवल वास्तविक अनुभव के आधार पर किया जा सकता है। और जो वास्तव में देखा जाता है वह यह है कि सभी प्राणी आहार की इच्छा से कुछ व्यवहार करते हैं जो पूर्व संस्कार (स्मृति) को दर्शाते हैं. यह स्मृति इस जन्म के नुभावों की नहीं हो सकती, क्योंकि वे अभी-अभी जन्मे है. तह यह पूर्वजन्म की आदतों के स्मरण के कारण ही करते हैं।

पक्ष (सतत्): सूत्र के निहितार्थ से यह निष्कर्ष निकलता है कि जीव जन्म से ही इच्छा से युक्त होता है — अर्थात जब कोई जीव जन्म लेता है, तो वह इच्छा से संपन्न होकर ही जन्म लेता है। इच्छा पुनः पूर्व में अनुभूत वस्तुओं के स्मरण से उत्पन्न होती है। और वस्तुओं का यह पूर्व अनुभव (पूर्वदृष्टता) पूर्वजन्म में शरीर की उपस्थिति के बिना समझाया नहीं जा सकता।

इस प्रकार आत्मा, जब किसी पूर्व शरीर से संबद्ध होती है, तब देखी गई वस्तुओं का स्मरण करती है और उन वस्तुओं से आसक्त हो जाती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा, दो शरीरों से संबंध रखने के कारण, पुनर्जन्म (प्रतिसंधि) को प्राप्त होती है। इसी क्रम में, वह पूर्व शरीर किसी और भी पूर्व शरीर की अपेक्षा करता है — और वह उससे भी पूर्व किसी और शरीर की — और यह क्रम अनादि तक चलता है। फलतः, चेतन आत्मा का शरीर के साथ संबंध अनादि है। अतः राग (आसक्ति-संबंध) भी अनादि है।

इस प्रकार आत्मा की नित्यता (शाश्वतता) सिद्ध होती है।

प्रतिपक्ष: जिस प्रकार उत्पत्ति से युक्त [अर्थात् अनित्य] किसी सामान्य पदार्थ के गुण कुछ विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार उत्पत्ति से युक्त आत्मा की इच्छा (और आत्मा स्वयं भी) किसी विशेष कारण से उत्पन्न होती है। [अर्थात् आत्मा भी एक सामान्य अनित्य वस्तु के समान ही मानी जानी चाहिए, और उसकी इच्छा भी उसी प्रकार उत्पन्न होती है जैसे किसी सामान्य वस्तु का गुण उत्पन्न होता है।] अर्थात् वह नित्य नहीं है. “

पक्ष: आत्मा और उसकी इच्छा की उत्पत्ति सामान्य गुणयुक्त वस्तुओं की उत्पत्ति के समान नहीं है। क्यों? — क्योंकि विचार (विमर्श) ही इच्छा आदि का कारण होता है। यह देखा जाता है कि जो जीव भोग-वस्तुओं का अनुभव करते हैं, उनकी इच्छा विचार से उत्पन्न होती है, और यह विचार पूर्व में देखी गई वस्तुओं के स्मरण से जन्म लेता है। इसी से यह निष्कर्ष निकलता है कि नवजात शिशु की इच्छा भी पूर्व में अनुभूत वस्तुओं के स्मरण से ही उत्पन्न होती है। [अतः सूत्र 3.1.24 के तर्क के अनुसार आत्मा नित्य है.]

इस संवाद में कुछ रुचिकर चीजें है। यह संवाद न्याय की ‘उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा’के अनुसार है। आत्मा को उद्देश के रूप में सूत्र 1.1.9 प्रमियों के साथ सूची में रखा है, उस के लक्षण सूत्र 1.1.10 में बताये हैं, और परीक्षा सूत्र 3.1.1 से 3.1.26 तह की गई है। इस में आध्यात्मिक या धार्मिक विश्वासों का सहारा बिल्कुल नहीं लिया गया है। केवल प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुमान का सहारा लिया है। इस में स्मृति को पूर्वजन्म में अनुभवों के लिए दिए गए तर्क और ली गई मान्यताएं बिल्कुल सुकरात के ‘सीखने को लेवल पुनः स्मरण’ सिद्ध करने के लिए दिए गए तर्क और मान्यताओं जैसी ही हैं। पुनर्जन्म और आत्मा की नित्यता को सिद्ध करने और आत्मा को इंद्रियों से भिन्न साबित करने के लिए transcendental argument का सहारा लिया गया है। जो कांट ने कैटेगरीज आदि को साबित करने के लिए भी काम में लिया है। और मुझे (अभी तो) वह बिल्कुल अर्थपत्ति जैसा ही लग रहा है। इस संवाद में दिए गए बहुत से तर्क आज भी मानवीय चेतना (consciousness) को समझने के लिए दिए जाते हैं। और आत्मा पर आम बहसों में तो भारतीय लोग ये लगभग सभी तर्क काम में लेते हैं।

इस संवाद में आए कोई दो दर्जन युक्तियों (arguments) को आज के तर्क के अनुसार व्यवस्थित वक्तव्यों (propositions) और निष्कर्षों (conclusions) के रूप में लिख कर उनकी तार्किक वैधता (validity) और सत्यता (soundness) की जांच तर्क के विद्यार्थियों के लिए बहुत अच्छा अभ्यास हो सकता है। दूसरा बहुत अच्छा शैक्षणिक उपयोग इन सभी सूक्तियों को न्याय के पाँचावयवी अनुमानों के रूप में लिखना और जांचना भी हो सकता है।

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©️ रोहित धनकर, 26 अक्टूबर 2025


विवेकहीन आक्रामक कट्टर योद्धाओं का जमाना

December 20, 2019

रोहित धनकर

[इस ब्लॉग में मैं अपने कल के अङ्ग्रेज़ी के ब्लॉग “Rampant ad hominem and dogmatic warriors” में कही बात को ही हिन्दी में कह रहा हूँ। दोनो आलेख मैंने ही लिखे हैं। अतः, हू-ब-हू अनुवाद की जरूरत नहीं समझता।]

इस वक़्त भारत एक बहुत मुश्किल दौर से गुजर रहा है, शायद अपने संवैधानिक इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से। राजनैतिक विचार धाराओं के बहुत आक्रामक संघर्ष के कारण समाज बहुत उद्वेलित है और नागरिक लगातार दो धड़ों में बंटते जा रहे हैं। रोज लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता पर खतरे का डर फैल रहा है।

धर्मनिरपेक्षता लोकतन्त्र के लिए जरूरी है। न तो कोई भी देश बिना धर्मनिरपेक्षता के लोकतन्त्र हो सकता है, नाही कोई लोकतन्त्र धर्म-राज्य या फिरकापरस्त हो सकता है। क्यों कि लोकतन्त्र में व्यक्ति का महत्व स्वीकारना मूल मंत्र होता है। व्यक्ति स्वतन्त्रता इस का आधार होती है। और सब नागरिकों का हित समान समान होता है। अतः, राज्य अपनी नीतियों में धर्म के आधार पर भेद नहीं कर सकता। भेद करने पर इन सिद्धांतों का विरोध होगा। अतः वह लोकतन्त्र नहीं रहेगा।

लोकतन्त्र की गुणवत्ता उसके नागरिकों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। लोकतन्त्र के नागरिकों की पहली जरूरत स्पष्ट और विवेकशील चिंतन और नए विचारों को समझने की काबिलियत होती है। यह एक सुशिक्षित व्यक्ति की पहचान भी है। असपष्ट और विवेकहीन विचार करने वाले नागरिकों का लोकतन्त्र ना तो सुरक्षित रह सकता है नाही विकास कर सकता है। क्यों की इन्हें कोई भी दुर्बुद्धी नेता या प्रसिद्ध व्यक्ति आज के शक्तिशाली संचार माध्यमों के उपयोग से बहका सकता है। लोकतन्त्र में नागरिक की प्रभाविता उसकी साफ समझ और सत्या-सत्य के निर्णय की बौद्धिक ईमानदारी पर निर्भर करती है। उस में तथ्य और कुप्रचार में फर्क करपाने की समझ होनी चाहिए। उस में मतांधता और पूर्वाग्रह को नकारने की सामर्थ्य होनी चाहिए; और भेड़-चाल के विरुद्ध खड़े होने की सामर्थ्य होनी चाहिए।

साफ विचार की काबिलियत के साथ ही लोकतन्त्र विचार और अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता की भी मांग करता है। बिना अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के संवाद संभव नहीं है और बिना संवाद के विवेक आधारित सहमती संभव नहीं है। मत-भेदों और हितों की टकराहट को दूर करने के लिए लोकतन्त्र में विवेक आधारित सहमति के अलावा कोई तरीका नहीं होता। अतः अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बिना लोकतन्त्र नहीं चल सकता।

लोकतन्त्र का सचेत नागरिक अपनी बात साफ और स्त्यरूप में निडर हो कर तो कहता ही है; वह दूसरे की बात भी पूरी शांति और ध्यान से सुन कर वेवेक-सम्मत जवाब देता है। जो अपने से भिन्न विचारों को शांति से सुनने और समझने की काबिलियत नहीं रखता वह कभी भी विवेकशील और स्पष्ट चिंतन नहीं कर सकता। ऐसे नागरिक का शोर-शराबा ना तो लोकतन्त्र की रक्षा करता है ना ही किसी लोकतान्त्रिक मूल्य की।

आम तौर पर जो लोग अपने विचारों के विरुद्ध विचार और तर्क सुनकर गुस्सा होते हैं उन्होने कुछ विचार और विश्वास बिना समझे और बिना उनके लिए उचित तर्कों/आधारों के स्वीकार कर लिए होते हैं। बहुत बार ऐसे लोग किसी गुरु, विचारक, प्रसिद्ध बुद्धिजीवी या यहाँ तक की खोखले सेलेब्रिटी तक का अनुकरण कर रहे होते हैं। अपने विचार के तर्कसहित विरोधिविचार से सामना होने पर ऐसे लोग असुरक्षित महसूस करते हैं, क्यों की वे नातो स्वयं के विचार को ठीक से समझते हैं, ना ही उस के लिए प्रमाण या तर्क दे सकते हैं। अतः, अपने बचाव के लिए ये लोग विचार से ध्यान हटा कर विचार रखने वाले हमला कर देते हैं। यह बहुत व्यापक स्तर पर काम में लिया जाने वाला तर्क-दोष है। और आज कल तो इसका बहुत ही ज्यादा चलन हो गया है। इस तर्कदोष का लेटिन भाषा में नाम एड होमिनेम है।

एड होमिनेम के कुछ उदाहरण नीचे दिये हैं:

“कुछ लोग बात कर रह थे। राम और उसके दोस्तों की दृढ़ मान्यता थी कि धरती घनाकार है। कृष्ण के बहुत हैरानी हुई।

उसने कहा “धरती यदि घनाकार है तो समुद्र से आते हुए जहाज को किनारे से देखने पर पहले मस्तूल और फिर बाद में पूरा जहाज क्यों दिखता है? चंद्र ग्रहण के समय चाँद पर धरती की छाया गोल क्यों दिखती है? मेरे विचार से धरती गोलाकार होनी चाहिए।

राम: तुम्हें भाषा नहीं आती। तुमने “बाद में” को “बद में” बोला है।

कृष्ण: ठीक है। तुम मेरी बात तो समझ गए हो। तो यह बताओ मेरे तर्क में क्या दोष है?

राम: तुम घनाभ चीजों को पसंद नहीं करते, इस लिए ऐसा कह रहे हो।

कृष्ण: बढ़िया। अब ये बताओ मेरी बात में गलती क्या है?

राम2: हमें तुम्हारा इतिहास भी देखना पड़ेगा, तुमने चंद को भी गोल कहा था।

कृष्ण: ठीक। अब मेरे धरती संबंधी तर्क में गलती बताओ।

राम3: तुम्हारी बुद्धि बीमार हो गई है।

कृष्ण: धन्यवाद। पर मेरे तर्क में दोष बताओ।

राम4: हे ईश्वर, यह कह रहा है कि धरती गोल है! घ्रणित, अति घ्रणित!!

आज कल नागतिकता संशोधन विधेयक और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पर चल रही बहस में बहुत ज्यादा लोग उपरोक्त तरीके से बात कर रहे हैं। ऐसा नहीं है की अच्छी और उचित प्रकार की बहस नहीं चल रही। वह भी खूब चल रही है और उस से लोकतान्त्रिक प्रक्रिया मजबूत भी हो रही है। क्यों की तर्कों में स्पष्टता आ रही है और विचारों की विभिन्न परतों का विश्लेषण हो रहा है।

पर दूसरी तरफ ऊपर वर्णित किश्म के लोग भी लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता के योद्धा बने घूम रहे हैं। इन में से अधिकतर योद्धा ठीक से पढ़कर कर समझने की काबिलियत नहीं रखते, तर्क की समझ शून्य है, अपने अलावा सब विचारों के लिए एकदम बंद दिमाग हैं। बस अपने गुरुओं से सुनी बातें दोहरा रहे हैं और समझते हैं की बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। पहले सिर्फ संघ के पास ऐसे बंद-दिमाग योद्धा थे; अब दोनों तरफ इनकी फौजें हैं।

इन लोगों ने कुछ समाज में सराहना पाने वाले विचार आत्मसात कर लिए हैं, कुछ अच्छे समझे जाने वाले विश्वास बना लिए हैं। पर उनके मर्म को समझे बिना और उनके पीछे विवेक के आधार को समझे बिना उन्हें आत्मसात किया है। अब क्यों कि ये विचार समाज में इतना मान पते हैं और जाने-माने बुद्धिजीवी इसी तरह की बातें अपने कारणों से बहुत ऊग्रता से रखते हैं। अतः इन पदाति सैनिकों को बल मिलता है। चूंकि ये तर्क कर नहीं सकते, तो क्रोध अभिव्यक्त करके और विपरीत विचार के लिए आग्रह करने वालों पर व्यक्तिगत आक्रमण करके अपने आप को उच्च नैतिक धरातल पर समझने लगते हैं। जब कि इनके आदर्श-लोग, जो इन विचारों का महत्व और इनके तर्क-कुतर्क समझते हैं, वे व्यक्तियों पर आक्रमण किए बिना अपनी बात रखते हैं।

ये पदाति-सैनिक यह नहीं समझते कि उदार लोकतन्त्र में अपने विरोधी की विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करना एक बहुत महत्वपूर्ण मूल्य है। एक विचार-शील नागरिक विरोधी को अपनी बात रखने देता है, बल्कि कोई और उस के इस अधिकार को बाधित करते हैं तो उसके अधिककर की रक्षा भी करता है; और तब सभ्य तरीके से सटीक आलोचना प्रस्तुत करता है। जब हम लोगों को उनके विचारों के लिए शर्मिंदा करने की कोशिश करके चुप कराना चाहते हैं या उन पर व्यक्तिगत आक्रमण करते हैं तब हम स्वयं हथियार डालचुके होते हैं।

नैतिक निर्णय किसी रटे-रटाये सिद्धान्त को मतान्ध लागू करना नहीं होता। कोई भी नैतिक समस्या तब तक नहीं उपजती जब तक एक ही परिस्थिति में दो महत्वपूर्ण नैतिक सिद्धांतों की टकराहट न हो। अतः, नैतिक निर्णय कम से कम दो सिद्धांतों में से किसी एक का विवेक-सम्मत चुनाव होता है। यह लकीर का फकीर होने से बहुत अलग चीज है। नैतिक निर्णय बहुत बार लकीर छोड़ कर नए पथ के निर्माण की मांग कर कराते हैं।

लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, स्वतन्त्रता और समानता में समझ कर विश्वास रखने वाला कोई भी व्यक्ति किसी के विचार गलत हों तो भी व्यक्तिगत आक्रमण नहीं कर सकता। निसंदेह, गलत विचार की आलोचना की भी जरूरत होती है और उसे नकारने की भी। पर यह काम सभ्य तरीके से करना पड़ता है। जो विचार की आलोचना करके उसे नकारने का काम बिना व्यक्त पर आक्रमण किए नहीं कर सकता, वह लोक-संवाद के पहले सिद्धान्त से भी अपरिचित है।

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20 दिसम्बर 2019