रोहित धनकर
हम साठ पार के राजस्थानी देहाती जब उच्चाप्राथ्मिक स्तर पर पढाई कर रहे थे तो विद्यालय में और पढ़े-लिखे घरवालों की तरफ से बार बार स्वावलंबी होने को कहा जाता था. किताबें, कापियां, या कलम-स्याही खरीदनी हैं तो खुद ६ किलोमीटर चलकर जाओ, और खरीद लाओ. स्कूल की यूनिफार्म के कपड़े खरीदने हैं तो खुद खरीदो. यहाँ तक की आठवीं के बाद किस स्कुल में पढ़ना है और कौनसे विषय पढ़ने हैं खुडी तय करो. यह मामला आजादी का कम और जिम्मेदारी का ज्यादा था. स्वावलंबन में केन्द्रीय मूल्य आजादी नहीं, जिम्मेदारी होती है. पर जिम्मेदार होने के रस्ते में आजादी मिल ही जाती है. आज उसी गाँव में जहाँ मैं बड़ा हुआ बच्चों के पास न आजादी है ना जिम्मेदारी. स्वावलंबन कहीं रस्ते में खो गया है.
बच्चों को छोड़ कर पूरे गाँव को देखें तो हाल और भी बुरा है. एक उदाहरण इसे समझने में काम आ सकता है.
गाँव में कुल दो कुँए थे. दोनों में पीने के लिए अच्छा पानी था. कुँए सरकार ने नहीं गाँव वालों ने मिलकर खोदे थे. पानी की जरूरत लोगों के पीने-नहाने से ले कर पशुओं तक तो लागतार रहती थी. गरमी के दिनों में और भी ज्यादा. तो गाँव वाले अपनी पंचायत करते औए कुँए के साथ लगी जमीन को साल भर बोने-जोतने के एवज में पूरे गाँव के लोगों और पशुओं के लिए पानी की व्यवस्था कर लेते. कुँए के साथ की जमीन में सबकी हिस्सेदारी नहीं थी, पर पानी की व्यवस्था सब लोगों और सबके पशुओं के लिए करना जमीन के उपयोग कर पाने की शर्त थी. यहाँ तक की पशुओं के पानी पीने की खेली को सदा भरा रखना पड़ता था और उसमें कहीं के भी, किसी के भी पशु आ कर पानी पी सकते थे.
आज लगभग सबके अपने खेतों में कुँए हैं. आधे से ज्यादा लोग अपने खेतों में ही रहते हैं. अपना खेत, अपना कुआँ, अपना पानी. किसी सहयोग या पंचायत की जरूरत नहीं. लगता है स्वावलंबन बढ़ा है. पर दूसरा भी पक्ष है: कुछ लोग अब भी गाँव के कुँए पर निर्भर है. वे मिलर व्यवस्था करने के बजाय सरपंच के चक्कर लगाना पसंद करते हैं. मोटर खराब हो गई तो सरकार ठीक करे, पाइप टूट गया तो सरकात ठीक करे. गाँव में गंदगी हो गई तो सरकार ठीक करे.
पानी यहाँ एक उदारण भर है. मेरे इलाके में लगभग सभी परिवारों की आर्थिक सामर्थ्य कई गुना बढी है. पर-निर्भरता, सरकार पर, बिजली पर, बाज़ार पर भी कई गुना बढ़ी है. मेलजोल, सहयोग, सामूहिक योजना बनाना, अपनी समस्याओं को स्वयं हल करना कई गुना घटा है.
पुरानी व्यवस्था बराबरी और न्याय पर आधारित नहीं थी. कुछ लोगों के पास जाती और परंपरा के आधार पर गाँव के बारे में निर्णय लेने के ज्यादा मौके थे, कुछ के पास कम. पर निर्णय लेने में कम से कम ख़याल सबका रखा जता था. अब बराबारी बढ़ी है, पर ख़याल रखने की परंपरा खत्म सी हो गई है. अपने अधिकार हासिल करने हैं तो ताकत चाहिए, भलमनसाहत कुछ ख़ास काम की चीज नहीं लगती.
मामला जटिल है. कौनसी व्यवस्था बेहतर थी? जिन्दगी किस में ज्यादा सुरक्षित थी? सामूहिक स्वनिर्भरता किस में ज्यादा है? रिश्तों की स्निग्धता किस में ज्यादा है? एक-दूसरे का ख़याल रखना किस में ज्यादा है? कहीं कुछ गड़बड़ है. हम कुछ नया और बेहतर पाने के चक्कर में पुराना और बेहतर खो रहे हैं. पुराने और अवान्छानीये (गैर बराबरी, परंपरा की जकड़न) से पीछा छुड़ाने के लिए नया और अवांछनीय गले लगा रहे हैं. क्या पुराने अवांछनीय को छोड़ने और वांछनीय को मजबूत करने का कोई तरीका है? क्या नया वांछनीय अपनाने और अवांछनीय से बचने का कोई तरीका है? क्या हम दोनों दुनियाओं के शुभ को पा सकते हैं और अशुभ को मिटा सकते हैं? क्या हम दोनों हाथों में लड्डू रख सकते हैं? और यदि नहीं तो क्या हम अपने आप को विवेकशील मानव कह सकते हैं? कुछ तो गड़बड़ है.
Posted by Rohit Dhankar