रोहित धनकर
चंडीगढ़ के एक पत्रकार श्री अमित चौधरी के पिता को पुलिस ने रात भर चौकी पर रखा. केवल इस लिए कि कहीं वे प्रधानमंत्री की रैली के विरोध में किसी विरोध प्रदर्शन में शामिल ना ही जाएँ. यह सब हिन्दी आउटलुक के इस पृष्ट पर है. (http://www.outlookhindi.com/country/issues/prime-minister-narender-modis-chandigarh-rally-4081) आखिर में उन्होंने (या उनके पुत्र ने) लिख कर दिया कि वे किसी विरोध के मोर्चे में शामिल नहीं होंगे. असहमती की अभिवेक्ति के लिए शांति-पूर्ण विरोध कर नागरिक का हक़ है. इसे कोई लोकतांत्रिक सरकार नहीं छीन सकती. यदि छीननें की कोशिश करती है तो वह सरकार लोकतंत्र की परवाह नहीं करती केवल धोंश और दमन के बूते सत्ता में काबिज रहना चाहती है.
पिछले एक-सवा साल में कई ऐसे निर्यय सरकार ने लिए हैं जिनको देखकर लगता है कि या तो जो लोग सत्ता में हैं वे लोकतंत्र का अर्थ नहीं समझते या फिर वे लोकतंत्र चाहते नहीं. आये दिन सरकार के सहयोगी (या मई-बाप?) राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संध, विश्व हिन्दू परिषद् आदि भारत की धर्म-निर्पक्षता पर आक्रमण करते रहते हैं. कभी भारत को हिन्दू राष्ट्र बताते हैं, कभी बनाना चाहते हैं. सरकार कुछ नहीं बोलती. विद्यालयी पाठ्यक्रमों में हिन्दू धर्म-ग्रंथों को बढ़ा-चढ़ा कर शामिल करना चाहते हैं. भारत के इतिहास की अपनी ही व्याख्या को बिना तर्क प्रचारित करना चाहते हैं. स्वायत्त शैक्षिक और अन्य संस्थानों के प्रमुखों के रूप में राजनैतिक विचार में सरकार के मूर्ख पिठ्ठूओं को बैठाना चाहते हैं, चाहे उनकी योग्यता कुछ भी नाहो. कई राज्यों में गोमांस खाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. कुछ धार्मिक पर्वों पर पूरी जनता को, चाहे वे उस धर्म को मानने वाले हों या नहीं, शाकाहारी रखना चाहते हैं. लोगों को अपनी मर्जी का खाना खाने से भी रोकना चाहते हैं.
यह सब कई बातें साफ़ करता है.
- उनके मन में देश की तस्वीर हिन्दू-धर्म की एक मूर्खता पूर्ण और संकीर्ण समझ के आधार पर बनाई गई है. यह उनका हिन्दू धर्म है, जहाँ तक मुझे लगता है बहुसंख्यक हिन्दुओं का नहीं. यदी हिन्दू इस का विरोध नहीं करते तो उन को धर्म के इस नाजायज उपयोग का दोषी मानना पडेगा. वे अपने धर्म के खुले पन और सहिष्णु होने की दुहाई देना बंद करें.
- वे अपनी इस संकीर्ण राष्ट्रीय तस्वीर को बल और छल से साकार करना चाहते हैं. खुली बहस, सहमती, विवेकपूर्ण सामूहिक फैसले आदि लोकतांत्रिक तरीकों को तिलांजली दे कर बस सत्ता के बल पर अपनी चलाना चाहते हैं.
यह सब साबित करता है की भारत की राजनीती बहुत गलत और लोकतंत्र विरोधी दिशा में जा रही है. पर इस से भी ज्यादा चिंता की बात मुझे यह लगती है कि इसका विरोध करने वाले बहादुर लोग अपने घर में थोड़ी सी आंच आते ही देश छोड़ने की बात करने लगते हैं. इस देश छोड़ने की भगोड़ी-बहादुरी से मुझे कई आपत्तियां हैं.
- यह एक ऎसी मानसिकता का परिचायक है जहाँ भगोड़े-बहादुर केवल अपना हित देखने में रुची रखते हैं. संपूर्ण जन के दुःख-सुख और पीड़ाओं का मोल अपने पर थोड़ी-सी भी आंच से कम है. ये वही माध्यम-वर्गीय भारतीय हैं जो यहाँ आर्थिक समस्याओं के चलते किसी दूसरे देश में किन्ही दूसरों द्वारा बनाई गई व्यवस्थाओं का स्वाद लेने चल पड़े थे.
- अब ये लोग वहां जाना चाहते हैं जहाँ लोकतंत्र के लिए लड़ने और उस लड़ाई में खतरे उठाने के लिए कोई और लोग हैं. ये तो बस लोकतंत्र की आजादी और सुरक्षा चाहते हैं, उसके लिए कोई मोल चुकाना इनके बस की बात नहीं है.
- क्या इन समझदार और बहादुर लोगों का देश की उस जानते के लिए भी कोई कर्तव्य है जिसके पास जैसा भी यह देश है इसमें रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है?
मुझे नहीं लगता कि ऐसे बहादुरों के विरोध का कोई मोल है जो केवल अपने लिए हरा और सुरक्षित (किन्ही दूसरों द्वारा सुरक्षित) चारागाह ढूंढ ने की फिक्र में तुरंत आ जाते हैं. आखिर वर्त्तमान सरकार की मूर्खताओं और ज्यादतियों को रोकने के लिए उन लोगों को सन्नद्ध होना पड़ेगा जो इस देश की अपने मन की तस्वीर बनाने को अपना हक़ मानते हैं और उसे इतनी अशानी से छोड़ना स्वीकार नहीं करते. जो यह कह सकें की जो हो रहा है इसमें उनका भी शायद कुछ दोष है क्योंकि उन्हों ने इस बीमारी को रोकने की पहले भरपूर कोशिश नहीं की या उन्हें पता ही नहीं था क्या चल रहा है या उन्हें इसे रोकने का कारगर तरीका नहीं आता था. अब वे ही इसे रोक सकेंगे जो कहीं नहीं जाने वाले. जो उन्हें गैरवाजिब लगता है उसके विरूद्ध इसी परिस्थिती में लड़ेंगे. यदी हम सही में एक जागरुक, विवेकी, और जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाना चाहते हैं तो हमें इन्हीं परिस्थितियों में रास्ते ढूँढने पड़ेंगे. कहीं और जाने का विकल्प हमारे पास नहीं है. हाँ, जो जाना चाहते हैं उनको सुरक्षित इस खतरनाक स्थिती से बहार जाने में हमें मदद करनी चाहिए. मानवीयता के नाते, वे बेचारे हमारी इस कहिनाई में बेवजह फंस गए हैं. वे इस में हमारे बारबार के सहयोगी नहीं कोई पराये हैं जिन्हें हम अबतक अपनी नागरिकता का हिस्सा मान रहे थे, गलती से. पर क्यों की वे मानव हैं, अतः हमें उनकी मदद करनी चाहिए, पर उनसे कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए. जाइए भाई, हमारी शुभ कामनाओं सहित इस खरतनाक परिस्थिती से बहार हो जाइए, ताकी हम बिना आप की सुरक्षा की अतिरिक्त चिता किये अन्याय का खुल कर विरध कर सकें.
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Very good thoughts Rohitji, the roller coaster unfolding of most distasteful, undemocratic events is leaving many of us dizzy. And the first thought is to leave… but you are right leaving is not the answer. But then what is? write-ups? collectivisation? The current dispensation is so vindictive that even the options for resistance are shrinking. It is imperative that like minded people push back quick and fast.
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I have no idea Gita ji, about the real and good answer. All I know is keeping quiet and leaving is not the answer. One can think, talk, speak, write, communicate till the right and effective answer emerges collectively. An intelligent and thoughtful resistance should be created. How? Don’t know yet, have never been in active politics.
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Gandhi’s definition of courage won’t include an easy exit option….(however one ex student of University has shared this article on facebook and that is how I read it and I think not everything is lost yet)
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