रोहित धनकर
कोविड-19 की मार को कम करने के लिए लागू लोकडाउन के पहले ही दो दिन में कई गैरजिम्मेदाराना घटनाएँ हुई हैं। उन में से कुछ पर छोटी टिप्पणिया हैं इस आलेख में। हमें इस महामारी से पार पाना है तो समूहिक रूप से जागरूक प्रयत्न करने होंगे। और उन प्रयत्नों में बाधा डालने वालों की निंदा भी करनी होगी और उन्हें नियंत्रित भी करना होगा।
एक गैरजिम्मेदार धर्मांध मुख्यमंत्री
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और सारे स्वस्थय संस्थानों ने बार-बार अपने घरों में रहने और एक-दूसरे से दूरी बनाए रखने की सलाह दी है। पूरे देश में लोकडाउन घोषित है। लोकडाउन के दिशानिर्देशों की अनुपालना ना करने वालों को आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 की धारा 51 से 60; और भारतीय दंड संहिता की चारा 188 के अनुसार दंडित करने का प्रावधान है। सारे देश के लोगों को विभिन्न कठिनाइयों के बावजूद घर के अंदर रहने और सामाजिक-दूरी (social distancing) बनाए रखने का कड़ाई से पालन करने की हिदायतें केंद्र और राज्य सरकारों ने दी हैं। लोकडाउन दिशानिर्देश क्रम 9 के अनुसार “सभी उपासना स्थल जनता के लिए बंद रहेंगे। बिना किसी अपवाद के किसी भी धार्मिक सम्मेलन की अनुमति नहीं दी जाएगी।”
इस पृष्ठभूमि में 26 मार्च 2020 के द हिन्दू की खबर के अनुसार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी श्री आदित्यनाथ ने राम की मूर्ती को एक स्थान से हटा कर दूसरे स्थान पर स्थापित करने के लिए लोगों के समूह को एकत्रित किया, इस समूह में:
- अयोध्या के मजिस्ट्रेट थे,
- जिले के पुलिस अधीक्षक थे,
- अतिरिक्त गृहसचिव उत्तर प्रदेश थे, और
- यहाँ श्री आदित्यनाथ ने 11 करोड़ रुपये का चेक भी भेंट किया।
इस में सब से पहले तो मुख्यमंत्री ने सरकार की घोषणा की अवमानना की। अर्थात धार्मिक कार्यक्रम वे स्वयं तो आयोजित कर सकते हैं पर दूसरे नहीं कर सकते। ये अवमानना वे अकेले नहीं पूरे सरकारी लवाजमें के साथ करके यह बता रहे हैं की कानून और दिशानिर्देश उनके लिए नहीं, केवल औरों के लिए हैं।
द हिन्दू की खबर पढ़ने से यह साफ नहीं होता की 11 करोड़ रूपए उन्होने सरकारी खजाने से दिये या अपने व्यक्तिगत धन में से? पर चेक देना और मूर्ती को स्वयं लेकर चलना क्या एक मुख्यमंत्री के लिए उपयुक्त है? वे अपने निजी धार्मिक विश्वासों में ये सब कर सकते हैं, पर इस आयोजन में तो उन्होने ये सब एक चुने हुए मुख्यमंत्री के रूप में किया। मेरे विचार से यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त के विरुद्ध है। वे दीपावली पर सरकारी धन से अयोध्या में लाखों दिये भी जलवा चुके हैं। उनके ये सब काम जहां तक मेरी समझ है संविधान और पंथनिरपेक्षता के विरुद्ध हैं। वैसे भी उनके बहुत से भाषण विडियो उपलब्ध है जो उन्हें नितांत धर्मांध व्यक्ति साबित कराते हैं।
इस सब के बाद वे लोगों को यह सलाह भी देते हैं की अन्य लोग अपनी पूजा आदि घर में ही करें। वे यह भूल गए की गुड़ खाने वाला बाबा दूसरों को गुड़ न खाने की सीख नहीं दे सकता। उनके इस व्यवहार का न कोई स्पस्टिकरण देखने में आया, ना ही केंद्र सरकार की तरफ से कोई वक्तव्य मैंने देखा। प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री के उनकी हिदायतों की अवमानना करने पर दूसरों के लिए उनका क्या नैतिक महत्व रह जाता है?
यहाँ मैं यह साफ करना चाहूँगा की किसी मुख्यमंत्री के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को बहाना बना कर हम लोग उसी तरह की गैर ज़िम्मेदारी नहीं कर सकते। उन के व्यवहार की निंदा और आलोचना का अर्थ यह नहीं है की वही निंदनीय व्यवहार दूसरे भी करने लगें। मैंने ऊपर हिदायतों के “नैतिक महत्व” पर टिप्पणी की है, कानूनी महत्व पर नहीं। साथ ही जो लोग समाज के प्रति जागरूक हैं और उसके भले के लिए प्रतिबद्ध हैं, इन के लिए नैतिक महत्व काम के औचित्य से आता है, किसी अंतर-विरोधी व्यवहार करने वाले मुख्यमंत्री से नहीं।
कुछ गैरजिम्मेदार कथित बौद्धिक
अब यह आम तौर पर माना जाने लगा है कि सामाजिक-माध्यम (social media) जन-मानस को प्रभावित करने वाला शायद सब से बड़ा कारक बन गया है। मुद्रित समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का प्रचार भी अब सामाजिक-माध्यमों से ही होने लगा है। इनमें कुछ माध्यमों—जैसे ट्वीटर, फ़ेसबुक और कुछ व्हाट्सअप्प समूह, आदि—को देखने से लगता है अपने आप को प्रबुद्ध मानने वाले कोई लोग इस संकट की घड़ी में बहुत गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर रहे हैं। एक उदाहरण ले कर बात को समझते हैं।
एक महामारी से बचने के लिए पूरे देश में लोकडाउन की घोषणा हुई है। इसकी सफलता के लिए राज्य सरकारें और अब केंद्र सरकार भी बहुत कोशिशें कर रही है। लोकडाउन को महामारी की रोकथाम के लिए उपलब्ध जानकारी के अनुसार एक बेहतर उपाय माना जा रहा है। यह मानना सरकार में बैठे किसी आत्म-मुग्ध हाकिम का नहीं, बल्कि भारतीय और वैश्विक स्वस्थय संगठनों का है। अर्थात इस विषय पर जिनके पास सर्वाधिक आधिकारिक जानकारी हो सकती है, उन निकायों की लोकडाउन के लिए सहमती ही नहीं, अनुषंशा भी है।
अब मान लीजिए कि मैं न तो इसको कारगर उपाय मानता हूँ, नाही इस से सहमत हूँ। और मैंने एक प्रबुद्ध नागरिक होने (या अपने आपको ऐसा मनाने के कारण) कुछ पढ़ा है जिस से मेरा यह मत बना है। तो क्या मुझे अपने मत की अभिव्यक्ती इस तरह से करनी चाहिए कि लोग सामाजिक-दूरी के दिशानिर्देशों को हल्के में लेने लगें, उनको मानने में ढिलाई बरतने लगें?
यहाँ मैं अपने विचारों की भिव्यक्ती पर रोक लगाने या झिझकने की बात नहीं कर रहा हूँ। पर उनको कैसे अभिव्यक्त करें इस पर ज़ोर दे रहा हूँ। मैंने योगेंद्र यादव का एक ट्वीट देखा जो जिम्मेदार अभिव्यक्ती का उदाहरण लगा मुझे। उन्होने कुछ ऐसा कहा: कि वे मानते हैं ही लोगों की मदद की व्यवस्था में कमियाँ हैं, वे यह भी मानते हैं कि लोकडाउन पर विशेषज्ञों के दो मत हैं। पर यह जानते हुए भी लोकडाउन का पूरी तरह से पालन करने की सलाह देते हैं। और इसे हम सब की ज़िम्मेदारी बताते हैं। इसमें वे अपने विचारों को बिना छुपाए महामारी की रोक-थाम में सम्पूर्ण सहयोग के लिए प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं।
यदि किसी के पास इस उपाय के उनुपयुक्त होने के बहुत ही पक्के और पूर्ण सबूत हैं तो भी उस में इतनी विनम्रता तो होनी चाहिए कि (1) स्वस्थय संगठनों के मत के महत्व को भी समझे, और (2) यह याद रखे कि वैज्ञानिक ज्ञान में—अपने स्वयं के भी—गलत होने की गुंजाइश सदा रहती है। इसे “fallibility” कहते हैं। अतः महामारी से पार पाने के उपायों को अपने मत की सम्पूर्ण सत्यता के घमंड में कमजोर न करे।
कुछ गैरजिम्मेदार आम लोग
पिछले दो दिनों में बहुत से आम लोग भी बाहर आते-जाते-घूमते देखे गए हैं। शायद इन को कई समूहों में बांटा जा सकता है। एक प्रयास नीचे दिया है:
- जिनके लिए घर से निकालना जरूरी होगया, दावा-दारू, भोजन या कोई अन्य निहायत ही आवश्यक चीज के लिए।
- बिना किसी विशेष कारण के।
- किसी धार्मिक या राजनैतिक मान्यता/उपक्रम को लोकडाउन की पालना से अधिक महत्वपूर्ण मानना।
कुछ ऐसी घटनाएँ हुई हैं जब उपरोक्त (अ) समूह के लोगों को पुलिस के हाथों कठिनाई उठानी पड़ी या किसी पुलिसवाले ने बदतमीजी की या पीट दिया। यह बहुत गलत है। कोई तरीका होना चाहिए लोगों की मजबूरी को समझने का, और पुलिस को ऐसी परिस्थिति में निर्देशों की अनुपालना के साथ संवेदनशील भी होना चाहिए। सही या गलत, मैं यह भी मानता हूँ कि पुलिस अधिकतर ऐसे मामलों में संवेदनशील रहती है। पर सामाजिक-माध्यमों पर छाया सक्रिय तबका ऐसे मामलों में पुलिस को पूरा खलनायक दिखाने की कोशिश करता है। ऐसी कुछ घटनाओं को ही समान्यकृत करके उसे पुलिस का आम व्यवहार करार देदेता है। मैं नहीं कह रहा कि जहां पुलिस की गलती है, उसने ज्यादती की है, उसकी निंदा न करें, उसे दंड देने के लिए ना कहें या उस की अनदेखी कर दें। बस इतना कि इन कुछ घटनाओं के आधार पर पुलिस के आम चरित्र और व्यवहार को इसी रंग में ना रंगें। पुलिस को भी बहुत से आत्ममुग्ध लोगों के कारण बहुत कठिनाइयां झेलनी पड़ रही हैं।
पुलिस को खलनायक बना देने की बहुत बड़ी समस्या यह होगी की समूह (आ) और (इ) वाले लोग अपनी जन-विरोधी हरकतों को छुपाने के लिए पुलिस की इस छवि का सहारा लेंगे। समूह (आ) में अधिकतर अपने आप को बहुत कुछ समझने वाले बदतमीज मध्यमवर्गीय लोग होते हैं। जो एक गरीब पुलिस के सिपाही के सामने अकड़ दिखा कर अपने आप को बहुत शक्तिशाली समझने लगते हैं। ऐसे लोगों को कानून के मुताबिक शख्त सजा मिलनी चाहिए।
इस में तीसरा, (इ) समूह, बड़ी परेशानी करता रहा है अभी तक। इस समूह में बाहर निकालने का कारण न तो जरूरत होती है, ना ही व्यक्तिगत अकड़। यह एक सैद्धान्तिक, धार्मिक, और राजनैतिक मसाला होता है। इसका एक उदाहरण ऊपर योगी आदित्यनाथ के व्यवहार में देख चुके हैं हम। मेरा अपना मानना है की इस समूह के लोगों के साथ बहुत कड़ाई से पेश आने की जरूरत है।
मैंने इस के जितने उदाहरण देखे हैं (इंटरनेट पर, सामाजिक माध्यमों पर) उन में, साफ कहूँ तो, हिन्दू-धर्म के आधार कर ऐसी सामूहिक-अकड़ और सामाजिक-शत्रुता की सिर्फ एक घटना देखी है। वही योगी वाली, और उसकी बहुत लोगों ने निंदा की है। मेरा मानना है उसे दंड भी मिलना चाहिए। आप हिंदुओं के ऐसे क्रियाकलाप जानते हैं तो कृपया सप्रमाण मुझे भी भेजें। सिख, ईसाई, जैन और फारसी धर्मों को मानने वालों के ऐसे कोई वक्तव्य या क्रियाकलाप मेरे देखने में नहीं आए। पर मुसलमान मौलवियों और आम-जन के ऐसे कथन और क्रियाकलाप दर्जनों में हैं।[1] कई बार आम सरीफ़ इंसान कह रहे हैं कि इनके लिए उनका धर्म ही सर्वोपरी है, कोई बीमारी हो, कोई सरकारी आदेश हो, समाज को कोई खतरा हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता; वे तो समूहिक नमाज़ पढ़ेंगे ही। वे तो सीएए विरुद्ध प्रदर्शन करेंगे ही, वे तो किसी आदेश को नहीं मानेंगे। नहीं, सब मुसलमान ऐसा नहीं कहते। निश्चित तौर पर ऐसा कहने और करने वाले मुसलमानों में अल्पमत में ही हैं। पर बहुत हैं, कोई छोटी संख्या नहीं है।
यह न तो सिर्फ कट्टरता है, न किसी डर या भय के कारण है, न ही किसी सामयिक आक्रोश का नतीजा है। यह एक धार्मिक विशिष्टता-वाद और धार्मिक-अकड़ की अभिव्यक्ती है। ऐसा कहने वाले लोग यह कह रहे हैं कि हम अपने धर्म के लिए सम्पूर्ण भारतीय समाज को खतरे में डालेंगे। सरकार की सिर्फ वही बात मानेंगे जो हमारा धर्म मानने की इजाजत देता है, वह भी धर्म की हमारी अपनी समझ के अनुसार। बाकी लोगों को हमारे इसी व्यवहार के साथ जीना पड़ेगा। इन में बहुत से लोग एकदम आम इंसान और निहायत ही सरीफ़ लोग हैं। व्यक्तिगत तौर पर आप उनके व्यवहार को बहुत शालीन और सभ्य पाएंगे। वे बुरे लोग भी नहीं हैं, किसी भी अर्थ में शायद। पर उन्हें सभी चीजों पर, सामाजिक रूप से प्रदर्शित व्यवहार में, धर्म को तरजीह देने की आदत हो गई है। वे इसी को ठीक व्यवहार मानते हैं। और बहुत बार समझ तक नहीं पाते की दूसरों को इस में गलत क्या लगता है।
यह बात में इतना ज़ोर दे कर इस लिए कहा रहा हूँ की बाकी सब चीजों की आलोचना होती है। जो नियम तोड़ते हैं उनकी निंदा होती है। चाहे वह आदित्यनाथ हो, चाहे आम जन या पुलिस। पर इस्लाम के नाम पर ऐसे रवैये को सिर्फ नजर-अंदाज़ किया जाता है। थोड़े ज्यादा बुद्धिमान लोग इसे स्पष्टीकरण के साथ उचित ठहराते भी मिल जाएंगे। मुझे नहीं लगता की वर्तमान संकट में भी विचारवान लोगों को इस ढोंस-पट्टी की अनदेखी करनी चाहिए।
मैंने ऊपर भी कहा है, धर्म के नाम पर ऐसी अकड़ बहुत जगह मंदिरों या अन्य मौकों पर हिंदुओं ने भी दिखाई हो सकती है। मेरे देखने में नहीं आई। आप जानते हैं तो जरूर भेजें। पर असल मुद्दा यह है कि सब सोचने-समझने वाले लोगों को इस मानसिकता और इन क्रियाकलापों का बिना भेदभाव और बिना “राजनैतिक-चालाकी”[2] के विरोध करना चाहिए। नहीं तो कुछ भी सामाजिक रूप से सफल नहीं हो पाएगा।
अच्छी बात यह है की मैंने ऊपर जिस तरह के लोगों का जिक्र किया है वे कुछ ही हैं। चाहे वे राजनीतिज्ञ हों, कथित-बौद्धिक हों, आमजन हों, या धर्म के सिपाही हों; सौभाग्य से अभी तक भारतीय जनसमुदाय में वे बहुमत में नहीं हैं। यह लिखा इस लिए है कि संकट की धड़ी में, खास कर बीमारी फैलाने में; बहुत थोड़े लोग बहुत बड़ी खराबी कर सकते हैं। बस इसी लिए इनकी हानि पहुंचाने की क्षमता देखते हुए, इनके नागरिक अधिकारों के पूरे सम्मान के साथ, इन्हें नियंत्रित करना जरूरी है।
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27 मार्च 2020
[1] मैं जनता हूँ की धर्मों का नाम लेकर सीधे ऐसे लिखने का रिवाज नहीं है। इसे बुरा माना जाता है। यह भी माना जाता है की ऐसे व्यवहार के कारण धर्मों में नहीं होते; बल्की लोगों के व्यक्तिगत चिंतन में, या सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों में होते हैं। पर मैं इसे नहीं मानता। ऐसे व्यवहारों के कारण चाहे वे हिंदुओं की तरफ से हों चाहे मुसलमानों की तरफ से धार्मिक-विचार में ही होते हैं। झूठी मान्यताओं की आड़ में उनके स्रोत के ना देखना समस्या को बढ़ावा देना होगा। होता रहा है।
[2] “पॉलिटिकल कोरेक्ट्नेस” का सही अनुवाद मेरे विचार से “राजनैतिक-औचित्य” नहीं “राजनैतिक-चालाकी” है।
They are there to set examples. Such behavior is not acceptable.
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