भारत में वर्तमान सम्प्रदायिक परिदृश्य: कारण और निराकरण?


(पहला रफ़ ड्रफ़्ट। इस आलेख को चर्चा के लिये नोट्स के रूप में देखा जाना चाहिये, अभी व्यवस्थित लेख के रूप में नहीं। इस में अभी भाषा और कथ्य की गलतियां हो सकती है। पूरे लेख को अभी हिन्दी में भी नहीं लिखा है। लोगों से एक चर्चा और उसमें इस में अभिव्यक्त विचारों की आलोचना-समलोचना के बाद ही इसे पूरा करने का विचार है, यदि किया तो।)

Discussion on Open Dialogue: 16th April 8:00 pm

https://us02web.zoom.us/j/85214219683?pwd=TXpaSnpIUjlKNkYxZlcyVGRaY1RTdz09

रोहित धनकर

भारतीय कथित उदारवादी आख्यान के दो लोगों की तिप्पणियां

प्रोफ़ेसर अपूर्वनन्द का मत

A Delhi University professor and one of the foremost writers in The Wire, tells us that “This politics of violence has caused immense cognitive damage to the Hindus. Their ability to comprehend the world and society is seriously impaired. They have also lost their sense of the self.” (emphasis added). Now, the Hindus, all Hindus, are not only responsible for the Hindu-Muslim riots and rifts in the society, but if they don’t feel this they have become stupid, they lost their cognitive ability and sense of self. Remember that sense of the self and cognitive ability to understand the world is what makes us persons and confers citizenship rights on us. But Hindus have lost both, thus they are no more persons and soon their rights should be consider an anomaly.

प्रोफ़ेसर योगेन्द्र यादव का मत

उत्तर प्रदेश में भाजपा को बहुत मिला तो सब यह विश्लेशण करने लगे की यह क्या हुआ? इतनी समस्याओं, जनता को कठिनायों, आदि को भूल कर लोगों ने भाजपा को वोट कैसे देदिये? बहुत लोगों ने बहुत से कारण गिनवाये, कुछ ने जनता को फ़ुसलाये हुए मूर्ख माना, हलंकि सीधा लिखा नहीं। इसी सन्दर्भ में योगेन्द्र जी यादव का एक विडिओ आया (https://www.youtube.com/watch?v=aJQR1RW30kA) जिसमें वे वही बात कह रहे हैं‌ जो हम जैसे कम जानकार १० वर्ष से कम जानीमानी जगहों पर कहते और लिखते रहे हैं। पर अब भी अधूरी बात, पूरी बात कहने के लिये शायद लोगों को और समय लगे। पर इस बात को पूरी करने से पहले यह देखते हैं कि उन्हों‌ने कहा क्या। नीचे उन के विडिओ के एक अन्श (लग्भग १४ मिनट से) की ट्रांसक्रिप्ट है, जिसमें कुछ वाक्यों को बोल्ड मैने किया है। देखें:

“मुकेश :… बहुत सारे लोग ये मानते हैं कि जो हिंदुत्व है वो काफी नीचे तक चला गया है। … जो आपने रिश्ता बनाने की बात की है, मानस में अपने-पराए के भेद की बात की है, क्या वो इस रूप में है?

योगेंद्र यादव : जी मुकेश जी, ये आपने अच्छा किया, खुलासा किया इसका क्योंकि वही है अलग से कोई factor नहीं है। यही तो factor है। और इसे खाली हिन्दुत्व मैं नहीं कहता। देखिये, इस देश में राजनीति करने की तीन सबसे बड़ी संपत्ति हैं, पूंजी हैं, जहां से कोई भी राजनीति अपना स्रोत ढूंढती है, अपना औज़ार ढूंढती है, और अपनी ऊर्जा ढूंढती है। पहला – राष्ट्रवाद, क्योंकि हिंदुस्तान में और खासतौर पर एक गुलाम देश में जो आज़ाद हुआ है, उसका राष्ट्रवाद सबसे बड़ी पूंजी है। और इस देश की तो इतनी अद्भुत पूंजी थी राष्ट्रवाद हमारा। दूसरी – धार्मिक विरासत और हिन्दू धर्म की विरासत, जिसका नाम लेने से हमारे ज़्यादातर लोग सकुचाते हैं। जो हर धर्म की तरह इसमें कूड़ा भी है। और हर धर्म की तरह बहुत शानदार, महान विरासत है ये। और तीसरा – हमारी सांस्कृतिक विरासत। हमारी भाषाएँ, हमारी संस्कृति। ये तीनों चीजों पर भारतीय जनता पार्टी ने कब्जा कर लिया है। ये तीनों इसकी हैं नहीं। ये भारतीय जनता पार्टी वाले, RSS वाले, हमारे देश की सांस्कृतिक धरोहर, विरासत को समझते भी नहीं है। हिन्दू धर्म के बारे में इनकी जो सोच है वो हिन्दू धर्म की मूल प्रवत्ति के विरुद्ध है। और राष्ट्रवाद में तो इनका, एक कतरा खून भी इन लोगों ने कभी नहीं दिया। अंग्रेजों की दलाली इनमें से कई लोगों जो इनके वारिस हैं, उनमें से कई लोगों ने की। लेकिन आज ये इन तीनों के मालिक बनकर बैठे हैं। और जिसके पास राष्ट्रवाद है, धर्म है, संस्कृति है, वो तो मेरा अपना है न। यहाँ से अपना-पराया हुआ है (दिल पर हाथ रखते हुए)। और उसके लिए मैं केवल बीजेपी को श्रेय नहीं देता। मैं, आपको और मुझे, अपने आप को दोष देता हूँ। हम लोग, जिनके पास देश के पहले पचास वर्ष, हम लोगों के पास इस देश की शिक्षा व्यवस्था थी। हम लोगों के पास इस देश का मीडिया था। हम लोगों के पास इस देश की सत्ता थी। हम लोग मतलब आप-मैं नहीं व्यक्तिगत रूप से। मगर ये जो जमात है, इसके पास सब कुछ था। लेकिन, इसने, इस जमात ने, इस देश के राष्ट्रवाद को धूल में फेंक दिया। सोचा इसके लायक नहीं है। सोचा अरे राष्ट्रवाद क्या चीज होती है, ये तो बड़ी embarrassing सी चीज है। अंग्रेज़ी बुद्धिजीवियों की नकल करके हमने भी यूरोप की तरह कहना शुरू किया कि राष्ट्रवाद तो बड़ी शर्मिंदगी का विषय है हमने हिन्दू धर्म के केवल नकारात्मक पक्ष देखे। उसका सार्थक पक्ष, उसकी खूबसूरती, उसकी गहराई, उसकी सांस्कृतिक पूंजी जो है, विषद स्वरूप, उददात स्वरूप जो उसका है, वो कभी पेश करने में सकुचाते रहे। बीच-बीच में कभी कर देते थे लेकिन सकुचाते रहे। और हमने, … इस देश की भाषाओं को हमने लताड़ा। इस देश की भाषाओं का अनादर किया। तो, जो पूंजी हमारे हाथ में स्वतः आ गई थी आज़ादी के आंदोलन के कारण, उसको हमने दुतकारा और दूसरे की थाली में रख दिया। और अब हम कह रहे हैं – हाय-हाय, क्या हुआ, मेरी थाली से क्या, अब मेरी थाली में कुछ नहीं बचा। हाय! वो क्या कर रहे हैं! हमारी वजह से तो कर रहे हैं। सच बात है ये मुकेश जी, इसको लागलपेट के कहने का क्या फायदा?”

इस अधूरे सच में कुछ जोड देने से यह अधिक पूर्ण (सम्पूर्ण नहीं) हो जायेगा। पर उस से पहले यह देखिये कि इस आधी-आत्मस्वीकृति में भी दूसरों को लतियाने का कितना लोभ है। कहते हैं ” ये तीनों चीजों पर भारतीय जनता पार्टी ने कब्जा कर लिया है”। और यह भी कि “जो पूंजी हमारे हाथ में स्वतः आ गई थी आज़ादी के आंदोलन के कारण, उसको हमने दुतकारा और दूसरे की थाली में रख दिया”। जब आपने स्वतः ही उसे “धूल में फेंक दिया” था या उनकी “थाली में रख दिया” तो कब्जा करने की बात कहां आई? उन्हों‌ने आप की फेकी हुई‌ आप की नजर में‌ सडी वस्तु को इज्जतबक्षी। आगे कहते हैं कि “और राष्ट्रवाद में तो इनका, एक कतरा खून भी इन लोगों ने कभी नहीं दिया। अंग्रेजों की दलाली इनमें से कई लोगों जो इनके वारिस हैं, उनमें से कई लोगों ने कीयह बात रोज कही जाती है। और यह कहने में सब से आगे हैं भारतीय कम्युनिस्ट। संघ वालों ने आजादी कि लडाई में भाग लिया या नहीं इस का उत्तर संघ वालों को देनेदें, यहां‌ हम यह देखते हैं कि भारतीय कमुनिस्टों ने क्या किया। क्यों कि यह आरोप योगेन्द्र जी ने मूलतः उन्हीं से उधार लिया लगता है। कमुनिस्टों के चरित्र और स्वतन्त्रता आन्दोलन के आखिरी दिनों में व्यवहार की एक झलक लोहिया अपनी पुस्तक “भारत विभाजन के गुनह्गार” में दिखाते हैं। इस पुस्तक में वे कम्युनिस्ट को एकाधिक बार “विश्वासघती” (पृष्ठ ९, ) कहते हैं। और लिखते हैं कि उन्हों ने विभाजन का समर्थन किया। हलंकि लोहिया उङ्के समर्थन को विभाजन का बडा कारण नहीं मनते। पर यह सिर्फ़ इस लिये कि उनक प्रभाव नहीं था। उनकी नीयत तो साफ़ ही थी। आगे वे कहते हैं “I am somewhat intrigued by this aspect of cimmunist trachury, that it leaves no lasting bad test in the mouth of the people. Other traitors are not so fortunate”. (The Guilty Men of India’s Partiction, Rammanohar Lohia, R.R. Publishing Corporatioin. 1960, re-print 2020)मैने यह हिस्सा मूल अङ्ग्रेजी पुस्तक से इस लिये लिया है कि यहां पर हिन्दी अनुवाद गलत है। इसी पृष्ठ पर आगे वे कहते हैं कि कम्युनिस्ट जबतक सत्ता में नहीं रहते तब तक आत्म-निर्णय (self-determinatioin) का समर्थन करते हैं, और जब सत्ता में आजाते हैं तो उसका विरोध। उनके इस सिद्धन्त ने भारतीय राष्ट्र को कमजोर किया है।

एक झलक और हामिद दलवई कम्युनिस्टों और मुसल्मानों की तुलना करते हुए लिखते हैं “When communists are not in power, they are internationalists; when Muslims are a minority in any country they lack a nationalistic spirit and have an internationalistc, that is, pan-Islamic, attitude. When either the communists or the Islamists are faced with a choice between modern, territorial nationalism and allegiance to the state on the one hand, and their own international ideology on the other, most of them invariably choose the latter.” यह कहना आज कल मुस्लिम विरोध कहा जायेगा पर मुझे दलवई की बात ठीक लगती है। पर मुझे यह भी लगता है कि भारतीय मुसलमान बदल रहे हैं इस सन्दर्भ में। कम्युनिस्ट नहीं बदल रहे।

सच का एक और हिस्सा

अब सच के उस दुसरे हिस्से की बात करते हैं जिस का जिक्र योगेन्द्र जी ने अपने विडिओ में नहीं किया। यह हिस्सा उनकी सम्पत्ती २ और ३ से सम्बन्धित है। उन्हों ने कह है कि “जो पूंजी हमारे हाथ में स्वतः आ गई थी आज़ादी के आंदोलन के कारण, उसको हमने दुतकारा”। बात सिर्फ़ इतनी नहीं है। केवल दुत्कारना किसी भ्रमित आधुनिकवाद के चलते हो सकता है, इस का स्पष्ठीकरण बिना दुर्भावना के आरोप का सामना किये सम्भव है। पर यदि इस “दुत्कार” के साथ तीन चीजें और मिलजायें तो कठिनाई बढ जाती है। मान लीजिये किसी एक बहुत समर्थ तबके ने देश के राष्ट्रवाद, हिन्दू-धर्म और सन्स्कृति को “दुत्कार दिया” और उस तबके के पास “देश के पहले पचास वर्ष इस देश की शिक्षा व्यवस्थाहो, उसके पास देश का मीडियाहो, और उसके पास देश की सत्ताहो; और उसके व्यवहार में नीचे लिखी तीन चीजें भी साफ़साफ़ हों:

  1. राष्ट्रवाद, हिन्दू-धर्म और सन्स्कृति पर लगातार आक्रमण भी करता हो, यह सिर्फ़ दुत्कारने से आगे जाकर उचित-अनुचित लनत-लमानत की बात है। दुत्कार कर तो आप सिर्फ़ अनदेखा करने भी बैठ सकते हैं। यहां सक्रिय जड खोदने के काम की बात है,
  2. कोई दूसर आप की फेंकी हुई उस सम्पत्ती को उठा कर झाडने-पोंछने लगे, उस में कोई मूल्य देखने लगे तो उसे विभिन्न विशेषण दे कर चुप करवादें, मीडिया पर अधिकार के कारण छपने नादें, कहीं गन्भीर चर्चा मेन ना आने दें और शिक्षा पर अधिकार के कारण उस तरह के व्यक्ति और उसके विचारों को विद्यालयों विश्वविद्यालयें से बाहर करदें। यह दूसरी चीज की,
  3. अपने भ्रमित उदारवाद के चालते आप मजहब के आधार पर भेदभाव भी करने लगें,

तो यह एक सैद्धन्तिक भूल के बजाय दुर्भावना लगने लगेगी।

ऊपर मैने जो तीन बातें कही हैं इन के सैकडों उदारहण हमारे आजके उदारवादी विमर्ष में सहज ही देखे जा सकते हैं। वर्तमान सम्प्रदायिक वतावरण के प्रमुख मुद्दों पर चलने वाली बहस और लिखे जाने वाले लेख इस का साफ़ उदाहरण हैं। नीचे लिखे मुद्दों का इस नजर से विश्लेशण किया जा सकता है।

  1. सरकारी शिक्षण सन्स्थानों में‌ हिजाब बैन
  2. हलाल प्रमाण पत्र का मशला
  3. अज़ान की स्वीकृत डेसिबल से ऊंची आवाज
  4. हनुमान चालीसे की धमकी
  5. जगह-जगह भडकाऊ भाषण
  6. रामनवमी पर हिंसा
  7. द कश्मीर फ़िलेस फ़िल्म पर बहस, आदि।

इन सब मुद्दों में दो पक्ष हैं। दोनों पक्षों में सच्चाई के कुछ अंश है। हम इन पर प्रोफ़ेसर अपूर्वनन्द की दृष्टि से भी विचार कर सकते हैं और प्रोफ़ेसर योगेन्द्र यादव की अधूरी झिककती दृष्टि से भी। या फ़िर सहस के साथ पूरी सच्चाई के साथ भी। पर कोई भी एकांतिक विचार हमें शान्ति और सौहारद्र के रास्ते पर नहीं ले जा सकेगा। किसी में भी पूरी सच्चाई नहीं है। हम जब भी दोनों पक्षों को ध्यान में रखे बिना कोई शख्त बात कहते हैं तो आग में घी डाल रहे होते हैं।

बहुत से लोगों को लगेगा की इन मुद्दों पर बात करना यातो समय की बर्बादी है या वर्तमान विभाजित और साम्प्रदायिक राजनीति की चपेट में आजाना। देश के सामने और हजार लोगों के जीवन से सम्बन्धित मुद्दे हैं उन पर विचार होना चाहिये। मुझे बहुत दिन से लग रहा है की इस देश की राजनीति एक गहरे सम्प्रदायिक भंवर में है। वह और मुद्दों पर विवेकसम्मत विचार को पनपने नहीं दे रही। जब तक आम आदमी इस साम्रदायिकता की जडों पर विचार करके विवेकशील निर्णय लेना आरंभ नहीं करेगा, अपनी बात खुले तौर पर नहीं रखेगा तब तक हम इसी भंवर में गहरे उतरते जायेंगे। मेरा ऐसा कोई दावा नहीं है की विवेकशील निर्णय का तरीका या रास्ता वही है जो इन नोट्स में लिखा है। पर इस में मुझे सन्देह नहीं है की लोकतन्त्र को सही दिशा आम आदमी का सुविचारिक विवेक-सम्मत निष्कर्श ही दे सकता है।

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