संस्कार और शिक्षा


रोहित धनकर

“मैं भूगोल-विद्या सीखा, खगोल-विद्या (आकाशके तारोंकी विद्या) सिखा, बीजगणित (एलजब्रा) भी मुझे आ गया, रेखागणित (ज्योमेट्री) का ज्ञान भी मैंने हासिल किया, भूगर्भ-विद्याको भी मैं पी गया। लेकिन उससे क्या? उससे मैंने अपना कौनसा भला किया? अपने आसपासके लोगोंका क्या भला किया? किस मकसदसे मैंने वह ज्ञान हासिल किया? उससे मुझे क्या फायदा हुआ?” (मोहनदास करमचन्द गांधी, हिन्द स्वराज, नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, शताब्दी संस्करण २००९, (तीन भाषाओं में, गांधी का स्वयंकृत हिंदी अनुवाद), पृष्ट २१४।)

आजकल शिक्षा की किसी भी विवेचना में “संस्कार” शब्द का उपयोग बहुत निरापद नहीं है। इस शब्द से अपने आप को समतावादी और बुद्धिमान मानने या दिखाने की कोशिश करने वाले लगभग सभी लोग चिड़ते हैं। जैसे ही “संस्कार” शब्द सुना, वे इसे तुरंत ब्राह्मणवादी पितृसत्ता, हिन्दुत्ववादी राजनीति, पुरातन और प्रतिगामी हिंदू सोच और जातिवाद आदि से जोड़ने लगते हैं। यह प्रवृत्ति शायद संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रति कथित आधुनिकचिंतन के बहाने से बहुत सूक्ष्म और नियोजित तरीक़े से पनपाई गई कुछ हद तक सुसुप्त घृणा का नतीजा है।

इस बौद्धिक-फैशन के चलते शिक्षा और संस्कार के संबंधों पर बात करने से पहले “संस्कार” शब्द के अर्थों पर विचार करना ज़रूरी हो जाता है। तो आइए पहले यह देखते हैं कि इस शब्द के अर्थ क्या हैं।

पुष्पपाल सिंह के “राजकमल बृहत् हिन्दी शब्दकोश” में संस्कार शब्द को निम्न प्रकार समझाया गया है:

“पूर्व जन्म, कुल-मर्यादा, शिक्षा, सभ्यता आदि का मन पर पड़ने वाला प्रभाव; हृदय और आचार-विचार आदि को परिष्कृत तथा उन्नत करने का कार्य; परंपरा से चला आया कोई कृत्य, जिसका किसी विशेष अवसर पर विधान हो; हिंदुओं में धार्मिक दृष्टि से जन्म से मृत्यु तक होने वाले १६ संस्कार (कुछ लोगों के अनुसार १२ संस्कार) जो इस प्रकार हैं—गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जत्कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, यज्ञोपवीत, कर्णभेद, विद्यारंभ, वेदारंभ, केशांत, समावर्तन, विवा, और अंत्येष्टि। शुद्ध करने वाला कोई कृत्य, कुछ विशिष्ट अवसरों पर होने वाला कोई ऐसा धार्मिक या सामाजिक कार्य; मृतक की अंत्येष्टि क्रिया।”

यह व्याख्या अन्य हिन्दी शब्दकोशों—जैसे भार्गव आदर्श हिन्दी शब्दकोश, बृहत् प्रामाणिक हिंदी कोश, आदि—से संगत है। संस्कृत कोश आप्टे, मोनियर विलियम्स, वाचस्पत्यम्, शब्द कल्पद्रुम, आदि कई और अर्थ भी देते हैं। पर संस्कार शब्द के मूल अर्थों में उपरोक्त व्याख्या से कोई विरोध नहीं है। मैंने उपरोक्त व्याख्या इस लिये चुनी है कि यह इस शब्द को तीन स्तरों पर समझने की ओर स्पष्ट संकेत देती है: (१) संस्कार शब्द का मूल-भाव (मन पर पड़ने वाला प्रभाव) , (२) उस मूल-भाव के सकारात्मक उपयोग से संबंधित कर्म (परिष्कृत तथा उन्नत करने का कार्य), और (३) विशिष्ट कार्य जो मूल-भाव का उपयोग करके परिष्कार के उदारण हैं (१६ संस्कार)। यहाँ सवाल यह नहीं है कि ये १६ संस्कार किसी तरह का परिष्कार करते हैं या नहीं। सवाल सिर्फ़ यह है कि इन्हें संस्कार कहने के पीछे तर्क यह मान्यता है कि “ये परिष्कार करते हैं”, चाहे यह मान्यता ग़लत ही क्यों ना हो।

  • इस दृष्टि से संस्कार शब्द का मूल-भाव किसी अनुभव से मन पर पड़ने वाला स्थाई प्रभाव या इम्प्रैशन या डिस्पोजिशन है। यह मनोविज्ञानिक दृष्टि से सीखना और उस से बनाने वाली स्थाई प्रवृति/रुझान का नाम है।
  • बिंदु (१) में उल्लिखित वांछनीय प्रभाओं को उत्पन्न करने वाले कार्य या परिस्थितियों को भी संस्कार शब्द से इंगित करने का रिवाज है, पर यह मूल-भाव का व्यत्पन्न और उस पर निर्भर अर्थ है।
  • वे कर्म जो बिंदु (२) में चाहे गये प्रभावों के उत्पन्न होने में सहायक हो सकते हैं या सहायक माने जाते हैं, उन्हें भी संस्कार शब्द से इंगित किया जाता है। पर ये मात्र उदाहरण हैं जो बिंदु (१) और (२) में दिये अर्थों पर निर्भर हैं, उनके उपजीवी हैं।

अतः हम कह सकते हैं कि संस्कार शब्द का मूल अर्थ मन-बुद्धि पर पड़ने वाला स्थायी प्रभाव ही है। और हम संस्कार शब्द के शिक्षा से संबंध के मात्र एक पहलू को इसी अर्थ में समझाने की बहुत ही संक्षिप्त कोशिश करंगे।

अब आरंभ में उद्धृत गांधीजी के कथन के माध्यम से शिक्षा और संस्कार का संबंध देखने की कोशिश करटते हैं। उक्त कथन में गांधीजी कहते हैं कि भूगोल, खगोल, बीजगणित, रेखागणित और भूगर्भ-विद्या सिखने से ना तो उनका कुछ भला हुआ नाही उन में दूसरों का भला करने की कोई योग्यता आई। आगे हक्सली की लिबरल शिक्षा की परिभाषा को उद्धृत करके गांधी जी कहते हैं कि यदि यह असली सीखा है तो मुझे उपरोक्त शास्त्र सिखने से यह शिक्षा नहीं मिली।   

प्रोफेसर हक्सली ने उक्त उद्धरण में उदार (लिबरल) शिक्षा के कई गुण लिखे हैं। इस छोटे आलेख में मैं उन सभी का ज़िक्र करने के बजाय सिर्फ़ तीन गुणों की बात करूँगा। और यहाँ हक्सली के उद्धरण का अनुवाद भी मेरा अपना काम-चलाऊ अनुवाद है। मैं गांधी जी के हिन्द स्वराज में दिये अनुवाद को पक्षपाती या ग़लत मानता हूँ। तो हक्सली के अनुसार उदार-शिक्षा उस व्यक्ति को मिली है:

  • “जिसका मन प्रकृति के मूलभूत सत्यों के ज्ञान से भरा हुआ है”,
  • “जिसकी बुद्धि स्पष्ट, शांत, तर्कशील है”, और
  • “जिसने सभी तरह की दुष्टता से घृणा करना और दूसरों का अपने समान सम्मान करना सीख लिया है।”

अब यह देखते हैं कि गांधी जी ने जो शास्त्र गिनाये हैं वे इस प्रकार की शिक्षा में मददगार हो सकते हैं या नहीं।

पहली बात, “मन प्रकृति के मूलभूत सत्यों के ज्ञान से भरा हुआ” होना तो एकदम सीधी और साफ़ बात है ही। भूगोल, खगोल-विज्ञान और भूगर्भ-विज्ञान “प्रकृति के मूलभूत सत्यों” को ही शिक्षार्थी के मन-बुद्धि में सृजित करना चाहते हैं। ये शिक्षण के अनुभव के माध्यम से बनी अवधारणायों और उन की संरचनाओं के मध्यम से होता है। यही मन-बुद्धि में संस्कार बनाना है। पर यह शिक्षा के उद्देश्यों और संस्कार निर्मिति की सब से नीचे वाली सीढ़ी है। इस सीढ़ी पर प्राप्त ज्ञान (संस्कार) जीवन में सीधे काम आ सकते हैं, अर्थात् स्वयं और दूसरों का भला कर सकते हैं।

दूसरी बात, बुद्धि का “स्पष्ट, शांत, तर्कशील” होना। गांधी जी द्वारा व्यर्थ बताये सभी पंचों शास्त्र (भूगोल, खगोल, बीजगणित, रेखागणित और भूगर्भ-विद्या) साक्ष्य और तर्क के आधार पर निष्कर्ष निकालना सिखाते हैं। यह इन शास्त्रों के विषय-वस्तु (कंटेंट) को सीखने का बौद्धिक परिणाम होता है। विषय-वस्तु अपने आप में उपयोगी होती है, पर शैक्षिक दृष्टि से वह कुछ अधिक महत्वपूर्ण और उच्चमुल्यवान वस्तु सिखाने के साधन के रूम में भी काम में ली जाती है। वह उच्चमुल्यवान वस्तु चिंतन की स्पष्टता, विवेकशिलता (तर्क सहित) और सत्य की शांत खोज है। और यह सिखाने का और कोई तरीक़ा नहीं है, विभिन्न शास्त्र पूर्ण समझ के साथ सिखाने के अलावा। यह विवेकशालता भी संस्कार का ही दूसरा अधिक उन्नत रूप है। यह एक मनोवृत्ति (डिस्पोजिशन) भी पैदा करती है: किसी चीज को स्वीकारने से पहले उसके सत्य की तथ्य-तर्क-संगत जाँच करने की मनोवृति। यह मनोवृत्ति विवेक का मूल है।

तीसरी बात, “सभी तरह की दुष्टता से घृणा करना और दूसरों का अपने समान सम्मान करना” सिखाना। यह नैतिक विकास की तरफ़ संकेत है। यदि सचेत और समझ के साथ उपरोक्त पाँच शास्त्र और साथ ही इतिहास, समाज विज्ञान और साहित्य सिखाया जाता है तो वह इस लिये भी कि हम अपने आप को मानव समुदाय के एह हिस्से के रूप में देख सकें। और दूसरों को अपने जैसा देखना नैतिकता का मूल है।

अतः ये तीनों चीजें मिलकर मानव मन और बुद्धि का परिष्कार करती है। उसे संस्कारित करती हैं। सद्भाव पूर्ण विवेकशील स्वायत्तता की मानवीयता का केंद्र बिंदु है। यही संस्कार शिक्षा के माध्यम से विकसित किया जाता है। इसी लिए “संस्कार” शब्द का एक अर्थ “शिक्षा” भी है। शिक्षा मानव के परिष्कार का नाम तो है ही।

यह छोटा-सा आलेख दो मुद्दों पर बात करने के लिए लिखा गया है। एक, संस्कार शब्द से अनुचित चिड़ को इंगित करने के लिए। दो, यह कहते कई लोग सुनाई देते हैं कि “स्कूली विषयों का जीवन में कोई बहुत महत्व नहीं है, वे आगे काम में नहीं आते”। जैसे यह कहना कि “गणित में ट्रिगोनोमेट्री मैंने आगे कभी काम में नहीं ली” या “ग्रेविटी का न्यूटन का सूत्र मेरे कभी काम में नहीं आया” या “रसायन विज्ञान के समीकरण कभी काम में नहीं आये”, आदि। यह भ्रामक विचार है। शिक्षा का असली मुद्दा इन शास्त्रों की विषयवस्तु घोटलेना नहीं होता है। बल्कि इनके माध्यम से विभिन्न मनोवृतियाँ और योग्यताएँ विकसित करना होता है। जो हमें सद्भाव और विवेक सिखाती हैं। यही मानव का परिष्कार है। अतः गांधी जी का यह कथन चाहे किसी विशेष और खींचे हुए अर्थ में सही हो, चाहे उस वक़्त किसी राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति करता हो; शिक्षा की दृष्टि से ग़लत है।

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One Response to संस्कार और शिक्षा

  1. Manoj Kumar's avatar Manoj Kumar says:

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    Regards
    Manoj

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