रोहित धनकर
मोदी देश के लिये शुभ नहीं है. उसके प्रधान मंत्री बनने से बहुत नुकशान होने वाला है. इस से बहुत लोग सहमत हैं. और यह आशंका मुझे सही लागती है. पर वे नुकशान किस किस्म के होंगे और किस हद तक होंगे इस पर बहुत स्पष्टता नहीं है.
यह तो तय है कि मोदी के आने से भारत को हिन्दु राष्ट्र के रूप मेन देखने वालों को बल मिलेगा. वे ज्यादतियां करने कि कोशिश करेंगे. मुसलामानों में असुरक्षा कि भवना बढेगी और उस से मुस्लिम कट्टरवाद को बढ़ावा मिलेगा. तो एक तरफ़ हिन्दु कट्टरवाद और दूसरी तरफ़ मुस्लिम कट्टरवाद दोनो बढ़ेंगे. पर क्या यह इस हद तक जाएगा कि देश में बहुत दंगे होने लगें? दोनों तरह का आतंकवाद बढने लगे? देश कोइ मशीन तो है नहीं कि मोदी ने दिल्ली मेन बटन दबया और वह पहले से तय रस्ते पर चल दिया. यहाँ सरकार के अलावा और भी लोग हैं, हिन्दु और मुसलमान कट्टरता के पुजारियों के अलावा और भि लोग हैं. क्या उन कि प्रतिक्रिया कुछ काम करेगी? सरकारों को भी देश में शांति और सहयोग चाहिए. क्या मोदी कि सरकार (यदि वह बनी तो) भी बढ़ते कट्टरवाद को कम से कम नियंत्रण में रखने के लिये कोशिश करेगी? क्या अन्तरराष्ट्रीय छवि का दबाव सारकार को साही रस्ते पर लाने में मदद करेगा? बीजेपी की सरकार बनी भी तो वह दूसरों की मदद से बनेगी, तो क्या उसके सहयोगी बीजेपी को कट्टरवाद के रास्ते पर चलने देंगे? ये सब सवाल अभी उनुत्तरित हैं. हम नहीं जानते वास्तव में परीणाम क्या होंगे. पर आशंका है.
दूसरी आशंका गरीब आदमी की अनदेखी और व्यापारिक घरानों को विकास के नाम पर बढ़ावा देने की है. वास्तव में हमारे पास विकास का कोइ बहुत साफ़ और समझा हुअ नमुना है नहीं। इस वक्त भारत की कोई भी पार्टी व्यापारिक (मैं इस में उद्योगपतियों को शामिल मान रह हूं ) घरानों को रोक नहीं सकेगी. इस के लिए आर्थिक उन्नति और समाजिक-राजनैतिक विकास का एक सन्तुलित मोडल चाहिए. कोई भी पार्टी अभी यह समझदारी नहीं दिखा रही है। पर मोदी के आने से हालात और बिगाड़ेंगे इस में बहुत कम शक है. भ्रस्टाचार का बढ़ना ईसी समस्या का हिस्सा है. मोदी के आने से भ्रस्टाचार का रंग तो बदल सकता है पर उसके कम होने की संभावना इसवक्त नही लगती।
तीसरी आशंका विरोधी विचारों की अभिव्यक्ति पर बहुत कड़ी रोक लगने और विरोधीयों को ताकत के बल पर दबाने की है. इस में सरकारी तंत्र का उपयोग, गुंडो के उत्पीड़न और हत्याएं, और भी कई तरीके काम में आ सकते हैं. सरकारी तंत्र का उपयोग मोदी विरोध का मुंह बन्द करने के लिये जरूर करेगा. इस से आगे कुछ होगा कि नहीं इसवक्त कहना मुश्किल है। इतना तो साफ़ है की हिन्दुकट्टरवाद अभिव्यक्ति कि स्वतन्त्रता का विरोधि है। इसी तरह इस्लामिक कट्टरवाद भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उस से भी बड़ा विरोधी है। मोदी इसमें राजनैतिक अभिव्यक्ति को भी जोङ देगा। अतः बोलने वालों की खैर नहीं। ना आप राजनीती में मोदी विरोधी बात कह पाएंगे ना ही धार्मिक मूर्खताएं पर कोई टिप्पणि कर पायेँगे।
पर आम तौर पर मोदी का विरोध करने वाले उस की तुलना हिटलर से करते हैं। और उसमें जो सब से बड़ी चीज षामिल है वह धार्मिक आधार पर विरोधी माने जाने वालों और राजनैतिक विरोधीयों का सफाया, नियोजित योजना बैद्ध तरीके से। अर्थात मुसलामानों पर वैसी ज्यादतियां जैसी जरमनी में यहूदियो पर हुई थी। हिटलर की ज्यादतियां नस्ल के आधार पर थीं, मोदी के बारे में दर है धर्म के आधार पर करने का।
यह आशंका सुन पढ़ कर इन दिनों एक सवाल मेरे मन मे बार बार आता है: क्या अतिशयोक्ति मूल तर्क को कमजोर करती है?
इस बात को थोड़ा ठहर कर समझने कि ज़रूरत है। मैं एक वास्तविक उदहारण देता हूँ। बात कोई पच्चीस वर्ष पुरानी है। एक गाम में एक परिवार ने बिना मिटर के बीजली कि लाइन लगा रखी थी। वे लोग कुछ बल्ब और एक दो पंखें उस से चलाते थे। यही आम तौर पर गाँव का बिजलि उपकरणो के उपयोग का स्तर था। उस परिवार के एक राजनैतिक विरोधी ने बिजली विभाग को लिखित शिकायत भेजी। और उसमें कहा की ये लोग हर कमरे मेँ एक ऐरकंडीसनर चलाते हैं, दो रेफ्रीजरेटर हैं, टेलिवीजन है, और इसी तरह कि कई और चीजें लिखदी। अब समस्या यह थी की नातो इन चीजोँ का उस गाँव के आस पास चलन था नाही आरोपी परिवार की मालि हालत यह सब खरीदने की थी। गाओं में लोगों की माली हालात उस वक्त छुपी नहीं रहती थी। तो बिजली विभाग वाले भी आरोपी परिवार कि माली हालत जानते थे। वे इस लिखित शिकायत पर हंसे और उसे रद्दी की टोकरी में फ़ेंक दिया।
सवाल यह है कि क्या शिकायत करने वाले की अतिशयोक्ति ने उस की शिकायत को अविश्वनीय बन दिया? यदि शिकायत में अतिशयोक्ति नहीं होती तो क्या जॉंच और इस अनिमियतता को रोकने की संभवना अधिक थी? (यहाँ हमें बाकी चीजों को बराबर मानना होगा, इस विशलेषण में भ्रसटाचार, रिश्वत आदि को लाने से हम अतिशयोक्ति का प्रभाव नहीं समझ पाएंगे ) मुझे लगता है की अतिशयोक्ति विश्वश्नीयता को घटती है और हम जिसका विरोध करना चाहते हैं उसी कि मदद करते है। मेरा यह भी मानना है की अतिशयोक्तियों मोदी को आज वह जहाँ है वहां पहुंचने में बहुत मदद की है।
अतः, मेरा मानना है की:
१. मोदी देश के लिये नुकशान दयाक है।
२. लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्षता में विश्वास रखने वाले नागरिकों को उसे प्रधान मंत्री बनने से रोकने की कोशिश करनी चाहिये।
३. उसे रोकने के लिये उसके कारनामोँ को बिना अतिशयोक्ति के और निष्पक्ष विष्लेशण के साथ नागरिकों के सामने लाना चाहिए।
४. अतिशयोक्ति (जैसी हिटलर बनने कि संभवना) मोदी की ही मदद करेगी।
अब मोदी की कार्यशैली को देखेंगे तो आप पाएंगे कि वह पार्टी नहीं व्यक्तिवाद को केन्द्र में राखता है। अपने विर्धियों को नेस्तनाबूद करता है या इसकी कोशिश करता है। पार्टी पर पूरा कब्ज़ा करने की कोशिश करता है। स्वभाव से अधिनायकवादी है। भारतीय जनता पार्टी को अपनी व्यक्तिगत जागीर लगभग बना ही ली है। यह सब अपने प्रति स्वामीभक्ती ऱखने वालोँ की फौज ख़ड़ी करके किया है। और मोदी हिन्दू कट्टरवाद का समर्थक है, यह जग जाहिर है।
थोड़ा ध्यान देन तो पाएंगे कि आखिरी बात (हिन्दू कट्टरवादिता) को छोड़ दें तो ये सारे इंदिरा गांधी के गुण हैं। वह किसी धर्म के पक्ष विपक्ष में नहीं थीं. पर पूरी अधिनायकवादी थी। भारत को और कॉंग्रेस्स को अपनी जागीर समझती थी। कॉंग्रेस्स तो अब भी गांधी परिवार की जागीर ही है। यह उपलब्धि इंदिरा गांधी ने ही हाशिल कीथी। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा कर भारत की जनता को दबाने कि कोशिश की और उसके नतीजे भी भुक्ते. मोदी यदि ऐसी कोशिश करेगा तो उसे भी नतीजे भुगतने होंगे। अतः मुझे तो मोदी हिटलर के बजाय इंदिरा गांधी के अधिक नज़दीक़ लगता है।
पर एक बड़ा फर्क है: मोदी धार्मिक कट्टरवादी है। तो एक धार्मिक कट्टरवादी जब पार्टि और देख़ को कब्जे में लेना चाहेगा तो क्या होगा? क्या मोदी इंदिरा गांधी से अधिक दमनकारी होगा राजनीतिक विरोधियों के लिये? क्या वह धार्मिक दमन की नीती अपनायेगा ? क्या उसकी धार्मिक दमन की नीती देश में चल पायेगी? इन सवालों पर विचार करने की जरूरत है। अतिशयोक्ति और भय से संचालित हुए बिना।
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