न्याय की अमूर्त और सार्वजनीन अवधारणा कि जरूरत

August 2, 2015

फेसबुक पर अपलोड करने में ६ बार असफल होने के बाद यह बात-चीत यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.

Manoj Kumar31 July at 08:43 · Edited ·

न्याय की अवधारणा की ठोस ऐतिहासिक समझ बनाने में आपकी रूचि है तो ऐसी खबरों पर नज़र रखनी चाहिए|

अगर आपकी रूचि शतरंज खेलने और गणितीय प्रमेय सिध्द करने में है तो इसे इग्नोर करें|

वैसे आज मुंशी प्रेमचन्द की जयन्ती भी है| प्रेमचन्द की मशहूर कहानी है – ‘शतरंज के खिलाड़ी|’ प्रेमचंद ने इस कहानी में नवाबी जमाने को चित्रित किया है| तब सामंत और नवाब शतरंज खेलते थे |

इन दिनों हिन्दुस्तान के ‘लिबरलस’ शतरंज खेलने में मशगूल हैं|

 ‘तानाशाह होता तो पहली कक्षा से गीता पढ़वाता’ – BBC हिंदी

सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश एआर दवे ने कहा कि अगर वो तानाशाह होते तो पहली कक्षा से ही गीता और महाभारत की शिक्षा शुरू करवा देते.” दवे साहब के बारे में उद्धृत खबर यहाँ देखे: http://www.bbc.com/hindi/india/2014/08/140803_dave_statement_gita_education_vs

मनोज जी बात ठीक पर अधूरी कह रहे हैं. तो मुझे लगा नीचे लिखी बात की तरफ भी ध्यान दिलवाना चाहिए:

Rohit Dhankar Manoj Kumar ji, गणित की प्रमेयों और शतरंज को इतनी हिकारत की नजरसे मतदेखिये. यदि मैं आपके रूपकों को समावेशी मानूं तो कह सकता हूँ कि:

Rohit Dhankar १. गणित की प्रमेयों के बिना आपके इतने अच्छे विचार इस माध्यम सेआप हम तकनहीं पहुंचा सकते थे. २. एक न्यायाधीश की मूढ़ता न्याय की जिसे आप गणितीय व्याख्या कहरहे हैं उसको गलत साबित नहींकरती बल्कि उसकी गलत समझको इंगित करती है. ३. आप केपास इस न्यायाधीश की बात के लिए ऐतराज करने का कोई करण नहीं हो सकता यदी पहलेसे आपकेपास वो गणितीय प्रमेय वाली न्याय की धारणा न होतो. कोई और तरीका हो तो बताये?

Manoj Kumar हिकारत की तो कोई बात ही नहीं है Rohit जी| लिखते समय यह ख्याल आया कि गणितीय तरीके से सोचने वाले लोग आसानी से न्यायाधीश दवे (पब्लिक फिगर) और व्यक्ति दवे (प्राइवेट इंडिविजुअल) के बीच साफ-साफ विभाजन कर लेंगे| भला ऐसे लोगों की इस न्यूज़ आइटम में क्या रूचि हो सकती है, इसलिए मैंने उनसे आग्रह किया कि इसे इग्नोर करें| ये तो साहित्य और किसी हद तक इतिहास (जिस हद तक इतिहास मानविकी है) वाले हैं जो पब्लिक और प्राइवेट के बीच घालमेल करते हैं और मनुष्य को समग्रता (continuum) में देखने का आग्रह पाले बैठे हैं|

Manoj Kumar जिस हद तक मैंने कांट के इस अकसर उद्धृत किए जाने वाले कथन को समझा है उस हद तक मैं उससे इतेफाक भी रखता हूँ – ‘Thoughts without content are void; intuitions without conceptions, blind’. मुझको नहीं पता रीतापन ज्यादा घातक है या साफ दृष्टि का नहीं होना| अलबता मुझको राजेन्द्र यादव की उस मशहूर कथन का ध्यान आता है कि ‘सूरज से सबको रोशनी मिलाती है, लेकिन अगर आप सूरज पर ही टकटकी लगाए रहेंगे तो आपकी आँखे चुंधिया जाएँगी| तो राजेन्द्र यादव के अनुसार दृष्टि खोने की आशंका तो सिर्फ और सिर्फ conceptual realm में रहने से भी है| लेकिन ईमानदारी से कहूँ तो मुझको नहीं पता | मुझको अंदाजन लगता है कि ‘totalizing theory’ और ‘shallow empiricism’ के बीच कोई उर्वर जमीन तो होनी चाहिए| नैतिक विवेचन और न्याय के मामले में बुध्द जैसे महात्मा हुए हैं जिन्होंने शायद इस जमीन पर फसल लगाने की सफल या असफल कोशिश की है| क्या न्याय चेतना का हमेशा absolute और transcendental होना जरूरी है या वह imminent sensibility भी हो सकती है| बहरहाल इस मामले में मेरी कोई अंतिम पोजीशन नहीं है इसलिए मैंने मामला “रूचि” का बताकर छोड़ दिया है| आप मेरा पोस्ट पढ़ें मैंने ‘रूचि’ शब्द का दो बार इस्तेमाल किया है|

Manoj Kumar अब जहाँ तक रूचि का मामला है किसी की रूचि शतरंज खेलने से ज्यादा संगीत सुनाने में हो ही सकती है| संगीत दिमाग से ज्यादा अस्थि-मज्जा में बजता है| smile emoticon

इसी बात को आगे बढाते हुए नीचे लिखी टिप्पणियाँ हैं.

फेसबुक पर कुछ गंभीर बात कितनी दूर तक की जासकती है इसका मुझे ठीक से पता नहीं है मनोज जी. फिर भी जब यहाँ है तो एक दो बात संक्षेप में कहे देता हूँ. और आप को मेरी बात गणितीय (अंशुमाला जी आप के सवाल का जवाब मिलगया होगा. मनोज जी अवधारणात्मक विश्लेषण को गणितीय प्रमेय सिद्ध करना कह रहे हैं.) और तरीका शतरंजी लग सकता है. पर मुझे दोनों बहुत पसंद हैं, और मुझे नहीं लगता इनके बिना काम चल सकता है, लोकतंत्र का तो बिलकुल भी नहीं. J

  • बेचारे Kant को यहाँ क्यों घसीटते हैं. वह तो a priory synthetic को एम्प्टी नहीं मानता था. नाही Categorical Imperative जो कि एकदम abstract और सार्वभौम है खाली था उसके लिए. (Categorical Imperative: “act only in accordance with that maxim through which you can at the same time will that it become a universal law.”)
  • मुद्दा मनोज जी, दवे के पब्लिक और प्राइवेट इंडिविजुअल होने का नहीं है. उसके लिए तो दवे का और ऐसे लोगों द्वारा न्याय करने का विश्लेषण होना ही चाहिए. मुद्दा न्याय की सार्वभौम धारण और दवे जैसे लोगों द्वारा उसकी समझ का है. दवे की न्याय की अमान्य अवधारणा न्याय की सार्वभौम अवधारणा को नकारा या गलत साबित नहीं करती. यदि न्याय की धारणा दवे, आप या मेरी व्यक्तिगत धारणा के औसत से निकालने की कोशिस करेंगे तो आप जिस धारणा को लेकर चिंतित है उसका आधार ख़त्म हो जाएगा. ध्यान दीजिये, जब जब हम बहुमत का विरोध करते हैं (और वह जरूरी है, हमें करना पड़ेगा) हम कह रहे होते हैं की “emprical data के average को सही मानाने के लिए हम तैयार नहीं हैं”. तो अगला सवाल यही होगा: तो भाई आप मानते किस चीज को हैं? और आप जो भी उत्तर देंगे उसके सार्वभौम और अमूर्त (जिसे आप गणितीय और अवधारणात्मकता से अंधा होना कहेंगे) हुए बिना आप कोई तर्क नहीं बना पाएंगे. तभी आप वर्त्तमान में जिसे न्याय माना जारहा है (बहुमत द्वारा) उस की आलोचना पर पायेंगे. नहीं तो जैसी आपकी धारणा वैसी आप के विरोधियों की; तो आप की बात क्यों मानी जाए?
  • तो मैं जो दवा (सही या गलत) कर रहा हूँ वह यह है: जो भी व्यक्ती न्याय-अन्याय की सार्वजनिक बहस में उतरता है वह न्याय-अन्याय की कोई न कोई सार्वजनीन (universal) संभावना वाली अमूर्त अवधारणा को काम में लेता है. चाहे उसको इसका पता हो या नाहो. चाहे वह उस अवधारणा को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करके और उसकी आलोचना में शामिल हो या नाहो. और उस अवधारणा की सार्वजनिक अभिव्यक्ती को अस्वीकार करना अमानी बे-जांची और अनाभिव्यक्त धारणा के डंडे से दूसरों को मारना भर होता है.
  • एक उदाहरण से मेरी बात साफ़ हो जायेगी: मान लीजिये आपका और मेरा अपने खेतों की मेंढ़ को लेकर झगड़ा चल रहा है. हम दोनों मिल कर पटवारी को अपने खेत नापने के लिए बुलाते हैं. यदी मुझे पटवारी की नापजोख पर ऐतराज है तो उसके कम से कम निम्न में से कोई एक या अधिक आधार हो सकते हैं (और भी हो सकते हैं): (क) वह नापने में बहुत अशुद्ध (inaccurate) है. (ख) वह जान बूझ कर नापने में आपका पक्ष ले रहा है. (ग) वह जान बूझ कर खेत्रफल नापने के लिए गलत रेखागानितीय प्रमेय को काम में ले रहा है. (घ) उसे नापने के लिए उपयोक्त गणितीय प्रमेय की समझ नहीं है. ध्यान दीजिये, (घ) पर फैसला हुए बिना आप (क) से (ग) तक की लापरवाही, पक्षपात और मूढ़ता को सिद्ध तक नहीं पर पायेंगे. अतः, (घ) एकदम जरूरी है.
  • अतः, आप की आधी बात ठीक है: केवल (घ) में उलझे रहना “अवधारणा से अंधा होजाना” है. पर दूसरा पक्ष यह भी है कि (घ) को बहस से बाहर कर देना “अनुभाववाद से अंधा हो जाना है”. दोनों एक आँख से काणे हैं (पढ़ने वाले मेहरबानी करने यहां “काणे” शब्द पर ऐतराज ना करें). एक यथार्थ परक विवेकपूर्ण बहस के लिए दोनों जरूरी हैं. किसी एक से काम नहीं चलेगा. विवेक भी चाहिए और यथार्थ भी. विवेक के बिना हम या तो अँधेरे में चिल्ला रहे होंगे या समझ के बहार हो जाने की हद तक बेतुके (incoherent) हो जायेंगे. यथार्थ के बिना हम सातवें आशमान पर जिन्दगी के लिए बेमानी बहश कर रहे होंगे.
  • अब एक ऎसी बात जिस पर आप को और बहुत से साथियों को बहुत ऐतराज हो सकता है: बिंदु चार के पटवारी की हर नाप-जोख की अलग से हर बार जांच करनी होगी. उसके भूत काल में गलत नापने के उदारण या उसका किसी खाश तबके में होना स्वयं उसकी सारी नाप-जोख को गलत साबित नहीं कर पायेगा. “आदतन झूठा भी सच बोल सकता है”. “आदतन हत्यारा भी किसी की जान बचा सकता है”.

माफी चाहता हूँ, बात लंबी और गणितीय हो गई है. 🙂

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