इस्लामोफोबिया-हिन्दुफोबिया

May 20, 2020

रोहित धनकर

भारतीय मुख्यधारा संचार माध्यमों में और कथित सामाजिक माध्यमों में इस्लाम या मुस्लिम विरोधी टिप्पणियों के लिए खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीयों की जेल या नोकरी से निकालने की खबरें इन दिनों कई बार आई हैं। यह भारत के अंदर और बाहर यहाँ इस्लामोफोबिया  फैल जाने की खबरों के बाद शुरू हुआ है। सभी संचार माध्यमों की एक बड़ी समस्या मुझे यह लगती है की वे खबर पूरी नहीं देते। उदाहरण के लिए यह तो बताएंगे की अमुक व्यक्ती की सामाजिक-संचार माध्यमों में टिप्पणी के कारण नोकरी चली गई। पर उसकी वह टिप्पणी जिसके कारण नोकरी गई बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिलती, मिलती है तो बड़ी मुस्किल से। इसका अर्थ यह हुआ की आप नोकरी से निकालने वाले और खबर देने वाले माध्यम के निष्कर्ष (कि टिप्पणी इस्लामोफोबिक है) को मानने के लिए बाध्य हैं। आप तथ्यों के आधार पर अपना निष्कर्ष नहीं निकाल सकते, क्यों की तथ्य आपको उपलब्ध ही नहीं होते। खैर अभी मुद्दे पर आते हैं।

हाल ही में एक भारतीय डॉक्टर नीरज बेदी को उसके सऊदी अरबी विश्वविध्यालय ने कथित इस्लामोफोबिक टिप्पणी के लिए नोकरी से निकाल दिया। मुझे एक ट्वीटर वाले की मदद से वे टिप्पणियाँ मिली। थोड़ा यह देखना चाहते हैं की ऐसी टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिक हैं क्या? और इनपर किसी की नोकरी जानी चाहिए क्या?

टिप्पणियाँ निम्न प्रकार हैं:

  1. नीरज बेदी: “If all Muslims majority countries are Islamic only and not Secular why Hindus majority nation not to be Hindus nation only. Main concept behind to hate RSS and Hindus. A Truth and Fact I Challenge if any reply back.” (यदि सारे मुस्लिम-बहुल देश इस्लामिक राष्ट्र हैं और पंथ-निरपेक्ष नहीं हैं, तो हिन्दू-बहुल देश हिन्दू राष्ट्र क्यों नहीं होना चाहिए? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुओं से घ्रणा के पीछे मुख्य रूप से इसी धारणा है। यह एक तथ्य और सच्चाई है, मैं चुनौती देता हूँ यदि कोई जवाब देता है तो।”
  2. मोहम्मद शान: “कनिका कपूर मुसलमान है? डिलीवेरी बॉय जिसकी वजह से 70 घरों (को) क्वारेंटाइन किया गया वे (वो) मुसलमान है? दिल्ली में और महाराष्ट्र में जितने भी मजदूर सड़कों पर आए वे सब मुसलमान हैं? जिसने अपनी माँ की तेरहवीं में लोगों को खाना खिलाया और जिसकी वजाह से 3000 घरों की बस्ती सील हुई वह मुसलमान है? [Angry emoji]”
  3. नीरज बेदी: “60% cases belong to Jamaati only”. (60% केस तो सिर्फ जमातीयों वाले हैं।”

तीसरी टिप्पणी मोहम्मद शान की टिप्पणी है। यह स्पष्ट नहीं है की मोहम्मद शान की टिप्पणी नीरज बेदी की पहली टिप्पणी का जवाब है या किसी और टिप्पणी का। नीचे की दो टिप्पणियाँ ऊपर की चर्चा के सातत्य में नहीं हैं, नाही शायद उसी व्यक्ती को संबोधित हैं।

  1. नीरज बेदी: “This is typical redical indian Islamic terrorism mind set as evidenced in Syria and ISIS” (यह अतिवादी इस्लामिक आतंकवादी मानसिकता जो सीरिया और ISIS में दिखती है उसका का भारती नमूना है।) [मुझे नहीं पता यह किस कथन के लिए कहा गया है। अनुमान है भारत में(?) किसी मुसलमान के व्यवहार या कथन पर कहा गया होगा।)
  2. नीरज बेदी: “Truth and Fact is Redical Islamic terrorism exists in one form or other. Your perception Is wrong.” (सच्चाई और तथ्य यह है कि अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद का इस या उस रूप में अस्तित्व है। आपका सोचना (perception) गलत है।)

हम यहाँ पहले इन टिप्पणियों से संबन्धित कुछ सवालों पर सोचेंगे:

  1. इन टिप्पणियों में किए गए दावों की सत्यता-असत्यता की जांच कैसे करेंगे?
  2. क्या ये टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिक हैं?
  3. क्या ऐसी टिप्पणियों पर बंदिश होनी चाहिए?

 

इन टिप्पणियों में किए गए दावों की सत्यता-असत्यता की जांच कैसे करेंगे?

नीरज बेदी की टिप्पणी नंबर 1 भारत में हिन्दू-वृचश्ववादियों की तरफ से दिये जाने वाला एक भ्रामक पर आम तर्क है। इस से आप असहमत हो सकते हैं, और लगभग हर संविधान का सम्मान करने वाला भारतीय इस से असहमत है भी, पर सार्वजनिक रूप से यह तर्क देने पर और यह प्रश्न पूछने पर बंदिश कैसे लगाई जा सकती है? यह तो हमें संविधान में दी गई अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता का सार्वजनिक उपयोग भर है। इस में इस्लाम के विरुद्ध या घ्रणा फैलाने वाली बात कहाँ है? क्या अधिकतर मुस्लिम बहुल देश इस्लामिक राष्ट्र नहीं हैं?

शरजील इमाम के अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता के हक के समर्थन में एक से अधिक भारतीय बुद्धीजीवियों ने लेख लिखे थे, विद्यार्थियों ने जुलूस निकाले थे। ट्वीटर और फेसबुक पर पाठकों ने उसके पक्ष में तर्क दिये थे। जिन्हें याद ना हो उनके लिए: बहुत सारी बातों में इमाम ने एक बात यह भी कही थी कि हिन्दू मुसलमानों की दुश्मन कौम है। कि संविधान ने इस दुश्मन कौम को मुसलमानों के सिर पर बैठा दिया है। और उन्हें मुस्लिम वृचश्व स्थापित करने के लिए संविधान से बाहर निकाल कर अपनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। यदि यह अभिव्यक्ती सतंत्रता के दायरे में आता है तो नीरज की टिप्पणी क्यों नहीं? उसमें तो दुश्मनी की और संविधान को तोड़ने की लड़ाई की बात भी नहीं है।

मुझे नीरज बेदी के उक्त तर्क से न सहानुभूती है न मैं इस से सहमत हूँ। मुस्लिम बहुल देश अपनी कट्टरपंथी आस्था और अन्य धर्मों के प्रती घोर असहिष्णुता में अपने देशों का क्या करते हैं यह उनका अपना मामला है। भारत एक समानता और स्वतन्त्रता पर आधारित संवैधानिक राष्ट्र है। यही इस की संस्कृति से मेल खाता है। यही मानवता की मांग है। यही यहाँ के निवासियों का बहुमत है। अतः भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं बनेगा, स्वयं हिन्दू ही इसे हिन्दू-राष्ट्र नहीं बनाने देंगे। पर इसी राष्ट्र की संस्कृति और संविधान के अनुसार नीरज को यह कहने का हक भी है। साथ ही जब तक यह सवाल सार्वजनिक तौर पर खुल कर नहीं पूछा जाएगा, और इसका जवाब सार्वजनिक तौर पर साफ, असत्य-आधारित और खुल कर नहीं दिया जाएगा; तब तक यह सवाल खत्म नहीं होगा। और इस सवाल का जिंदा रहना भारत के हित में नहीं है। अतः इस सवाल को खत्म करने के लिए इसका पूछा जाना और जवाब दिया जाना जरूरी है।

नीरज की दूसरी टिप्पणी मेरी जानकारी के अनुसार तथ्यात्मक रूप से गलत है। जहां तक मुझे पता है कोरोना के फैलाव में जमात का योगदान अधिकतम 43% एक-दो दिन के लिए रहा है। 60% कभी नहीं हुआ पूरे भारत में। हालांकि विशिष्ट प्रान्तों में शायद रहा हो। यह इस्लामोफोबिक है या नहीं इस पर आगे विचार करेंगे।

चौथी टिप्पणी में नीरज बेदी किसी व्यवहार या कथन को “अतिवादी इस्लामिक आतंकवादी मानसिकता जो सीरिया और ISIS में दिखती है उसका का भारती नमूना” बता रहा है। हमें नहीं पता वह व्यवहार या मानसिकता क्या है, जिस की तरफ नीरज इशारा कर रहा है। पर सीरिया में और ISIS की “अतिवादी इस्लामिक आतंकवादी मानसिकता” की अभिव्यक्ती और व्यवहार खुलकर हुआ है, इस से तो इंकार करना संभव नहीं लगता। और इस मानसिकता पर भारत में भी खुलकर व्यवहार हुआ है, हो रहा है। इसकी अभिव्यक्ती भी होती रहती है। और तुर्रा यह की इस की अभिव्यक्ती करने वालों को ‘उदार लोकतन्त्र’ का समर्थक भी घोसित किया जाता है। बल्कि उनकी इसलामपरस्त और हिन्दू-घृणा से ओतप्रोत मानसिकता की तरफ इशारा करने वालों को सांप्रदायिक और इस्लामोफोबिक भी कहा जाता है। यह भी ध्यान देने की बात है की जहां तक हम जानते हैं नीरज सब मुसलमानों को इस अतिवादी इस्लामिक मानसिकता का शिकार नहीं बता रहा। किसी विशिष्ट घटना, व्यक्ती या विचार को बता रहा है।

पाँचवीं टिप्पणी में वह कह रहा है: “सच्चाई और तथ्य यह है कि अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद का इस या उस रूप में अस्तित्व है। आपका सोचना (perception) गलत है।” आज के भारत और आज की दुनिया में “अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद” के अस्तित्व से कौन इंकार कर सकता है? इस सच्चाई से आँखें मूँदने से क्या हाशिल होगा? हालांकि यह कहना की सारे मुसलमान ऐसे हैं निसंदेह गलत और दुर्भावना पूर्ण होगा। पर अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद है, वह इस्लामिक धर्म-ग्रन्थों की एक व्याख्या से समर्थित है, और बहुत सारे मौलाना उस व्याख्या को समर्थन देते हैं। कोई चाहे तो इस पर बहस और शोध हो सकता है, पर वह समय की बरबादी होगी।

तो नीरज की टिप्पणियाँ सत्यता और अभिव्यक्ती स्वतन्त्रता के दायरे की दृष्टि से तो ट्वीटर जैसी जगह चलने वाले विमर्श में गलत नहीं काही जा सकती। पर कुछ लोगों की आपत्ति यह हो सकती है कि इन टिप्पणियों पर नोकरी से तो सऊदी अरब में निकाला गया है, और मैं सारी विवेचना भारतीय संदर्भों में कर रहा हूँ। यह महत्वपूर्ण बात है, इस पर विचार आगे करेंगे। अभी यह देखते हैं कि क्या ये टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिक हैं?

क्या ये टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिक हैं?

इस सवाल का जवाब देने से पहले हमें यह समझना पड़ेगा कि “इस्लामोफोबिया” और “इस्लामोफोबिक” के अर्थ क्या हैं? इस्लामोफोबिक तो वह चीज होगी जिसमें इस्लामोफोबिया के गुण पाये जाएँ। तो फिर हमें इस्लामोफोबिया का अर्थ समझना पड़ेगा।

ऑक्सफोर्ड, कॉलिन्स शब्द कोषों और इंटरनेट पर बहुतायत से काम में लिए जाने वाले वर्डवेब का सहारा लें तो इस्लामोफोबिया इस्लाम, मुसलमानों और मुस्लिम-राजनीति के प्रति एक रवैय्या या मनोभाव (attitude) है। इस मनोभाव में कुछ उपमनोभाव समाहित लगते है: भय, विरूचि, घ्रणा, प्रतिकूल-पूर्वधारणा, और नापसंदगी। इस्लामोफोबिया बनने के लिए इन में से कुछ भाव तीव्र और विवेकविहीन या तर्क-विहीन होने चाहिएं।

लगता है अभी इस शब्द पर समाज-शास्त्रियों ने बहुत ध्यान नहीं दिया है। क्योंकि मुझे यह समाज-शास्त्रों के अंतरराष्ट्रीय कोष में और ब्रिटन्नीका में नहीं मिला। पर विकिपीडिया में है। विकिपेडिया में इस के बारे में जो लिखा है उसका अर्थ कुछ निम्न प्रकार है:

“शब्द के अर्थ पर बहस जारी है, और कुछ इसे समस्याग्रस्त मानते हैं। कई विद्वान इस्लामोफ़ोबिया को ज़ेनोफ़ोबिया या नस्लवाद का एक रूप मानते हैं, हालांकि इस परिभाषा की वैधता विवादित है। कुछ विद्वान इस्लामोफोबिया और नस्लवाद को आंशिक रूप से अंतर्व्यापी घटना के रूप में देखते हैं, जबकि अन्य लोग इस रिश्ते पर विवाद करते हैं, मुख्य रूप से इस आधार पर कि धर्म एक नस्ल नहीं है। इस्लामोफोबिया के कारण और विशेषताएं भी बहस का विषय हैं। कुछ टिप्पणीकारों ने 11 सितंबर के हमले, इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवेंट के उदय और इस्लामिक चरमपंथियों द्वारा यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में अन्य आतंकवादी हमलों के परिणामस्वरूप इस्लामोफोबिया में वृद्धि दर्ज की है। कुछ लोगों ने इसे संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ में मुसलमानों की बढ़ती उपस्थिति के साथ जोड़ा है, जबकि अन्य इसे एक वैश्विक मुस्लिम पहचान के उद्भव के रूप में देखते हैं।”

विचित्र बात यह है कि इस्लामोफोबिया के कारणों का जिक्र कराते हुए विकिपीडिया को योरोप और अमेरिका में इस्लामिक आतंकवाद की घटनाएँ तो याद आती हैं, पर भारत में दसकों से हो रहे आतंकवादी हमले याद नहीं आते। पर यह तो लिखने वाले का अपना झुकाव और पक्षपाती रवैय्या है। हमारे लिए काम की बात यह है की लोगों के मन में इस्लामोफोबिया का भाव बैठने में आतंकवादी हमलों की भूमिका का महत्व है। साथ ही और भी बातें हैं या होने का दावा किया जाता है।

मैं गलत हो सकता हूँ, पर नीरज की उपरोक्त बातों में इस्लाम या सभी मुसलमानों के प्रती कोई “भय, विरूचि, घ्रणा, प्रतिकूल-पूर्वधारणा, और नापसंदगी” तो मुझे नहीं लगी। बात को ठीक से समझने के लिए मान लीजिये कि कोई कहे कि “कट्टर हिंदुवाद की राजनीति मुसलमानों के जनसंहार की तैयारी या/और उनको दबाकर दोयम दर्जे के नागरिक बनाने के लिए मुसलमानों पर अत्याचार कर रही है”। (आगे इस कथन को दोहराने के बजाय, कथन-1 कह कर इंगित करेंगे।)  आप जानते हैं कि ऐसा भारत में आए दिन बहुत से बुद्धिजीवी कहते हैं। आप में से भी बहुतों ने ऐसा कहा होगा, और कहते भी हैं। अब कुछ सवालों पर विचार करते हैं:

  1. क्या इस कथन में सब हिंदुओं के लिए कहा जा रहा है? या सिर्फ “कट्टर हिंदुवाद की राजनीति” करने वालों के बारे में?
  2. क्या इस कथन में सब हिंदुओं के लिए “भय, विरूचि, घ्रणा, प्रतिकूल-पूर्वधारणा, और नापसंदगी” अभिव्यक्त हो रही है? (आप में से जो इस प्रश्न का उत्तर “हाँ” में दे रहे हैं उन्हें परिभाषा के अनुसार इस कथन को हिन्दुफोबिक मानना पड़ेगा।)
  3. क्या आप ऊपर उदाहरण के लिए हिन्दू कट्टरवाद की राजनीति के बारे में जो कहा उसे उचित मानते हैं? (यदि आपका उत्तर “हाँ” है, और दूसरे प्रश्न का उत्तर भी आपने “हाँ” में दिया है, तो आप अपने हिन्दुफोबिक होने को उचित मानते हैं।)

नीरज की टिप्पणी वैसे ही ‘अतिवादी इस्लामिक आतंकवाद’ की विचारधारा को मानने वालों के लिए है, जैसे उपरोक्त कथन-1 केवल कट्टर हिंदुवाद की राजनीति करने वालों के लिए। यदि कथन-1 सब हिंदुओं के लिए नहीं है, तो नीरज की टिप्पणियाँ भी सब मुसलमानों के लिए नहीं हैं। यदि कथन-1 जो हर रोज यहाँ के प्रबुद्ध लोग और उनके बाहर के दोस्त दोहराते हैं हिन्दुफोबिक नहीं है तो नीरज की टिप्पणियाँ भी इस्लामोफोबिक नहीं है। और मैं मानता हूँ कि नीरज की टिप्पणियाँ कथन-1 के बजाय ज्यादा सही है, तथ्यों के आधार पर ज्यादा साफ तरीके से सिद्ध की जा सकती हैं।

क्या ऐसी टिप्पणियों पर बंदिश होनी चाहिए?

यदि कथन-1 जैसी टिप्पणियों पर हमारे देश में बंदिश लगादी जाये तो हमारे बौद्धिक दुनिया भर में जो कोहराम मचाएंगे उस का आप अंदाजा लगा सकते हैं। मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है। सौभाग्य से हमारे यहाँ एक संविधान है, उसमें अभिव्यक्ती की आजादी है, और एक उच्चतम न्यायालय है। इस लिए सारे दुसप्रचार के बावजूद आप का ऐसा ही मत है तो आप इसको अभिव्यक्त कर सकते हैं। मजेदार बात यह है की हमारे यहाँ जो लोग कथन-1 देहराते थकते नहीं और इस देहरान को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं, वेही लोग “इस्लामिक पक्षधरता की राजनीति के चलते जिहादी मानसिकता को संरक्षण मिल रहा है और इस्लामिक आतंकवाद को बल मिल रहा है” (कथन-2) यह कहदेने पर रोक लगाना चाहेंगे और इस कथन को इस्लामोफोबिक मानेंगे। कथन-2 उतना ही सत्य है जितना कथन-1, और कथन-2 को साबित करने के लिए उतने ही प्रमाण दिये जा सकते हैं, जीतने कथन-1 को साबित करने के लिए। हम यह नहीं देख पा रहे कि सत्य में पक्षपात न्याय और सद्भाव की हत्या कर देता है, और हमारे बौद्धिक हमें यह नहीं देखने दे रहे। यह हमारा दुर्भाग्य है।

अब इस बात पर आते हैं कि नीरज बेदी की नौकरी तो सऊदी अरब में वहाँ के कानून के अनुसार गई है, उसका विश्लेषण भारतीय संदर्भ में भारतीय कानून के अनुसार करना कहाँ तक उचित है।

जहां तक मैं जानता हूँ (इस अनुच्छेद में सऊदी अरब के बारे में जो कहने वाल हूँ वे सब बातें मैंने अभी पक्की तौर पर जाँची नहीं हैं, अब जांच करूंगा। अतः मैं गलत हूँ तो बताएं, दुरुस्त करलूँगा): सऊदी अरब एक इस्लामिक राज्य है। वहाँ आप मंदिर नहीं बना सकते। वहाँ आप मंदिर की आरती को ध्वनी विस्तार यंत्र से प्रसारित नहीं कर सकते। वहाँ आप किसी मुस्लिम को हिन्दू बनाने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते। कोई मुसलमान हिन्दू बन जाये तो उसे दंड मिलेगा, शायद मृत्यु दंड। वहाँ रोज दिन में पाँच बार कई मस्जिदों से ध्वनी विस्तार यंत्रों से यह घोषणा होती है कि “अल्लाह के अलावा और कोई इबादत के काबिल नहीं है” और “अल्लाह सब से महान है”, और वहाँ आप “शिव के अलावा और कोई इबादत के काबिल नहीं है” और “शिव सब से महान है” की घोषणा नहीं कर सकते। वहाँ मुस्लिम के अलावा और किसी को बराबर के नागरिक अधिकार नहीं मिल सकते। अब इसके बाद आप कहते हैं कि “हमारे यहाँ कोई किसी दूसरे के धर्म (मजहब) की बुराई नहीं कर सकता, कोई विभेदकारी वक्तव्य नहीं दे सकता”। यदी दूसरों के धर्मों पर बंदिश लगाना उनकी बुराई और बेइज्जती नहीं है तो फिर वह होती क्या है?

पाठकों को लग रहा होगा कि मैं यहाँ अब सऊदी अरब की क्यों ‘बुराई’ कर रहा हूँ, इस से हमारा क्या लेना देना। एक, मैं बुराई नहीं कर रहा, कुछ तथ्य रख रहा हूँ। दो, मैं भी यही मानता हूँ कि सऊदी अरब के आंतरिक कानून से हमारा कुछ लेना-देना नहीं। वे अपना देश कैसे चलना चाहते हैं, किस धर्म के आधार पर चलाना चाहते हैं, यह उनके तय करने की बात है। पर अब कई कारण बन रहे हैं कि शायद हमें सोचना पड़े, उनकी आंतरिक व्यवस्था के संदर्भ में नहीं, उनकी बाहरी नीतियों के संदर्भ में।

एक तो, इस का यहाँ सिर्फ जिक्र कर रहा हूँ बिना विस्तार में जाये, यह जग-जाहिर है कि भारत में सऊदी अरब से बहुत पैसा कट्टर इस्लाम को फैलाने के लिए आ रहा है, और उस से हमारा समाज और लोकतन्त्र प्रभावित हो रहा है। पर आज के लेख में इस के जिक्र का कारण कुछ और है।

दूसरी और आज के संदर्भ की बात यह है: हमारे देश के एक संवैधानिक पद पर अशीन जिम्मेदार मुसलमान नागरिक ने अपने फेसबुक और ट्वीटर के माध्यम से कहा कि भारतीय मुसलमानों ने अभी तक मुस्लिम और अरब दुनिया से शिकायत नहीं की है, करेंगे तो हिमस्खलन (avalanche) आजाएगा, अर्थात तुम्हारे ऊपर बर्फ का पहाड़ टूट पड़ेगा। इसे आप एक अकेले व्यक्ति के किसी गुस्से में उपजे विचार के रूप में देख रहे हैं तो मेरे मत से इसे ठीक से नहीं समझ रहे। यह उसी वैश्विक-इसलामवाद की अभिव्यक्ती है जो भारत में जब-जब हिन्दू-मुसलमान तनाव होता है तो अभिव्यक्त होती है। मैं यहाँ इस के विस्तार में नहीं जाऊंगा, लेकिन इस का इतिहास उपलब्ध है, दस्तावेजी साक्ष्यों के साथ। यह धमकी भारत और हिंदुओं को संयुक्त अरब अमीरात (UAE) में कुछ भारतीयों पर इस्लाम विरोधी ट्वीटर टिप्पणियों के कारण कारवाई के बाद दी गई।

इसी कड़ी में 13 या 14 मई 2020 को हमारी एक प्रसिद्ध और उदार पत्रकार आरफा खनुम शेरवानी ने अरब के एक प्रसिद्ध और उदार पत्रकार खलेद अलमीना का विडियो साक्षात्कार किया। इस साक्षात्कार में सुश्री शेरवानी के भारत में इस्लामोफोबिया के कारण यहाँ की अर्थव्यवस्था को अरबी नाराजगी से क्या नुकसान हो सकते हैं, यहाँ के जो लोग अरब और खाड़ी देशों में नौकरी करते हैं उनको क्या नुकसान हो सकते हैं आदि पर बात कर रही हैं। यह पत्रकारिता में आमबात है और इसपर किसी को कोई ऐतराज करने की जरूरत नहीं है। समस्या तब पैदा होती है जब अलमीना साहब बार बार यह कहते हैं की भारत में मुसलमानों को मारा जा रहा है, पढ़े लिखे हिन्दू भी इस्लामोफोब हो गए हैं, यहाँ मुसलमानों पर ज्यादती होगी तो अरब देशों में प्रतिकृया होगी। वे इसमें सरकार को दोष देते हैं, बीजेपी और आरएसएस को दोष देते हैं, और एक से अधिक बार कहते हैं की मोदी को बोलना चाहिए की अब बहुत हो गया। अर्थात उसे स्वीकार करना चाहिए की यहाँ मुसलमानों पर एकतरफा ज्यादती हो रही है। यह धीरे-धीरे एक धमकी जैसा बन जाता है, ये करो नहीं तो नौकरियाँ जाएंगी, आर्थिक सहयोग घटेगा। वे कहते हैं की वे स्वयं अब किसी हिन्दू के साथ काम नहीं करना चाहेंगे। और ये बताने की कोशिश करते हैं की उनके यहाँ सब के साथ बिना धार्मिक भेदभाव के व्यवहार किया जाता है। और हमारी उदार पत्रकार इन सब चीजों पर हामी भारती हैं। और यह वह देश है जिसके कुछ नियम-कायदे मैंने ऊपर लिखे हैं। अर्थात हमारी उदार पत्रकार एक अरबी उदार संपादक की हमें यह बताने में मदद कर रही हैं की हमारे यहाँ धार्मिक भेदभाव नहीं होना चाहिए, उनके इस्लामिक देश में तो ऐसा ही होगा और वह उचित है। हमें भारतीयों को धार्मिक भेदभाव नहीं करना, और हम इसे सहन भी नहीं करेंगे। पर पर दूसरे धर्मों को इंचभर जगह ना देने वाले इस्लामिक देश के किसी व्यक्ती से धमकी भरे लहजे में ये सब हम क्यों स्वीकार करें? ये भारतफोबिया और हिन्दुफोबिया है, मैं उनके ही मापदंड काम में लूँ तो।

यह साक्षात्कार 13 या 14 मई का है। 10 मई को और 12 मई को हूगली में मुसलमानों ने हिंदुओं पर पुलिस के अनुसार इस लिए आक्रमण करके उनके घर जलादिए कि उनपर फबती कसी गई थी। हमारी उदार पत्रकार और अरबी उदार पूर्व संपादक एक बार भी इस घटना का या किसी भी घटना का जिक्र नहीं करते जो इस तरफ इशारा करती हो की इस देश में इस्लामिक आतंकवाद है, यहाँ ट्वीटर पर जितनी धमकियाँ और गालिया मूर्ख हिन्दू मुसलमानों को देते हैं, उतनी ही  मूर्ख मुसलमान हिंदुओं को भी देते हैं। यहाँ दंगों की घटनाएँ दुर्भाग्य से हुई हैं, पर वे एकतरफा नहीं रहे हैं।

यह पृष्टभूमि है जिसमें इस्लामिक कट्टरवाद के पोशक और घोर भेदभाव वाले देशों में नीरज जैसों की नौकरियाँ जाती हैं और हमारे प्रबुद्ध लोग उसे उचित ठहराते हैं। भारत में हिन्दू-मुस्लिम तनाव एक यथार्थ है। इसे मिटाने के लिए इस पर विचार करना पड़ेगा। वह विचार किसी काम का नहीं हो सकता यदि एकतरफा इस्लामोफोबिया की ही कहानी चलाये। इस एकतरफा आख्यान से तो यह बढ़ेगा यहाँ तनाव बढ़ेगा। अंतरराष्ट्रीय उम्मा का भय दिखाने की कोशिश जो आरफा खनुम शेरवानी और जफरुल-इस्लाम खान ने की है, और जो समय समय पर होती रहती है, उसका विरोध यदि हमारे बौद्धिक नहीं करेंगे तो समस्या और उलझेगी। और इस प्रक्रिया में बौद्धिक और भी अप्रासांगिक होते चले जाएँगे।

आखिर में एक बात और, जो बहुत लोगों को बहुत नागवार गुजरेगी। ऊपर हमने यह देखा है की फोबिया में ये मनोभाव होते हैं: भय (fear), विरूचि (aversion), घृणा (hate), प्रतिकूल-पूर्वधारणा (prejudice), और नापसंदगी (dislike)। क्या अंबेडकर जब जाती-प्रथा के विरुद्ध लिख रहे थे, और हिन्दू धर्म को मूल रूप से गैर-बराबरी का धर्म बता रहे थे, ऐसा धर्म जो दूसरे को हीन समझता है। तो क्या वे हिन्दुफोबिक थे? या वे अपनी दृष्टि से हुन्दुओं के व्यवहार और मनुस्मृति के विश्लेषण से निकले नतीजों को अभिव्यक्त कर रहे थे? यदि आप इसे हिन्दुफोबिया के नाम से प्रचलित करते हैं तो आप हिंदुधर्म के व्यावहारिक रूप और उसके एक महत्वपूर्ण ग्रंथ की आलोचना पर प्रतिबंध लगाएंगे। अर्थात इन दो में जो बुराइयाँ हैं, कमियाँ हैं, मानवता विरोधी भाव और कर्म हैं, उनका जिक्र नहीं कर सकते। समाज में यह विवेचना बंद होने से जातिप्रथा और मनुस्मृति पर न तो ठीक से विमर्श संभव रह जाएगा न ही उस में सुधार की गुंजाइश। बस उसकी बढ़ोतरी ही होती रहेगी।

यदि यह बात सही है तो आतंकवाद की घटनाओं, उनके इस्लाम से जुड़ाव, इस्लाम के शास्त्रों (कुरान और हदीस) से समर्थन और उलेमाओं के समर्थन वाली व्याख्या की बात करना इस्लामोफोबिक क्यों माना जाना चाहिए? इन चीजों पर चर्चा बंद कर देने से भी वही होगा जो हिन्दू-धर्म पर चर्चा बंद कर देने से। अर्थात इनकी आंतरिक बुराइयाँ पनपती ही रहेंगी। सुधार की नान जरूरत महसूस होगी और न संभावना।

इस लेख में अभिव्यक्त विचारों पर आपके मत आमंत्रित हैं। पर बिना गाली-गलोच और व्यक्तीगत टिप्पणियों के।

कुछ प्रश्न, जिन पर विचार करना हमारे समाज में अब जरूरी हो गया है, इन्हें अतिप्रश्न मान कर दबाते रहने से अंदर ही अंदर इन के गलत उत्तर प्रचारित होंगे। और वे उत्तर समाज में लगातार तनाव पैदा करेंगे। इन का सामना करने से एक बार बहुत डर लगेगा, पर अंततः हम आराम से बात करना सीख जाएंगे, ऐसा मुझे लगता है:

  1. क्या ऊपर आए कथन-1 और कथन-2 जैसी टिप्पणियाँ हमारे संचार माध्यमों में रोज नहीं होती?
  2. क्या ये टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिया या हिन्दुफोबिया की अभिव्यक्ती है?
  3. क्या हमें इन पर कानूनी रोक लगानी चाहिए?
  4. क्या हिन्दू-धर्मशास्त्रों की आलोचना और उनपर कड़ी टिप्पणियाँ हिन्दुफोबिया है?
  5. क्या मुस्लिम धर्मशास्त्रों की आलोचना और उन पर कड़ी टिप्पणियाँ इस्लामोफोबिया है?
  6. क्या राम की शंबूक-वध, बाली-वध, सीता की अग्नि परीक्षा आदि को लेकर आलोचाना राम का अपमान है, जिसे सहन नहीं कारना चाहिए?
  7. क्या मुहम्मद की विभिन्न चीजों पर आलोचना उस का अपमान है, जिसे सहन नहीं करना चाहिए?
  8. क्या यह लेख सांप्रदायिक और/या इस्लामोफोबिक है?

हम में से हर कोई गलत हो सकता है। मैं भी इस लेख में बहुत जगह गलत हो सकता हूँ। और समझना चाहता हूँ किन जो लोग ऐसी चीजों पर सोचते हों वे किन नतीजों पर किन कारणों (reasons, not causes) से पहुँचते हैं। ठीक से सोच कर बताएँगे तो उपयोगी होगा।

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20 मई 2020


Identity politics will produce Giriraj Singhs

December 5, 2016

Rohit Dhankar

[Posting every day is a bad idea. But still… Also these thoughts are truly “loud thinking”, not very well worked out. Just a rough cut.]

“There is a need to increase population of Hindus in the country. They should take this issue seriously as their population has been decreasing in eight States in the country,” Mr. Giriraj Singh, Union Minister of State, said in October 16, as per a report in the The Hindu, 5th December 16.

“The country is facing population explosion, it has to be controlled soon,” the same Minister says in December 16, and as per The Hindu report, and he also thinks that “after ‘notebandi’ (demonetisation), there is an urgent need to make laws for ‘nasbandi’ (sterilisation) in the country.”

Looking at his record one needs waste no time in explaining that he wants ‘nasbandi’ for Muslims and ‘increase of population’ of Hindus. The question is: should such a person be a minister in the government of a secular country?

Percentage of Muslim population in the country is increasing can hardly be denied. Nor can one close ones eyes to the fact that in some areas (particularly along the Bangladesh boarder) it has changed the local demography beyond recognition. This phenomenon cannot be explained through the ‘general minority mentality’ syndrome as population of Hindus in both Pakistan and Bangladesh is constantly decreasing in spite of Hindus being in a minority in these countries. Those who think that this phenomenon has nothing to do with religion and political use of it are over stretching their intellectual capabilities.

However, the question still remains: should not people like Mr. Singh be shunted out of the government? Those who govern a democratic country are expected to rise above their sectarian biases and of being capable of a little more intelligent thinking. They should try to understand the complex factors what influence reproduction rate in any section of population. And they are to do with economic and educational status of the section in question as well. Yes, religious beliefs and practices are a very important factor, but that is not the only factor.

It seems to me that what makes such leaders acceptable to the masses is intense identity politics in India. Identity politics encourages—nay, depends on—excusatory principle of membership of a political formation, it is not open to all citizens on the basis of their political views. It is restricted by caste or religion or any other basis that provides a fulcrum of identity. It harms the moral and intellectual development of the members of such formations as they cannot grow beyond their restricted identities; and induces the same desire to play identity politics in other communities. All this gives rise to intense competition between communities, the humanitarian values and individual freedom suffers.

All communal (I am deliberately using the term “communal” for “community based”) identities are exclusory in nature and repressive to individual members of their own communities. If it is allowed and appreciated when Jats, Rajputs, Brahmins, Dalits, Muslims etc. organise themselves and struggle for their interests; how does one oppose some more sinister (and perhaps cleverer) minds to organise Hindus to fight for their own interests? One understand that politics is a messy business and does not always take a straight path; therefore, there may be times when a deliberately disadvantaged section of population comes together and fights against injustice done to them. But this has to be played with care, the basic principle of organisation has to remain political and the politicians have to be wise enough to know when to stop playing it.

Indian people have to learn to go beyond their restrictive identities to recognise themselves humans first and foremost; and then construct an identity of being Indians for themselves. The smaller indemnities of being an Indian and belonging to a caste or religious group have to submit to the paramount identity as a human being; and have to be governed by the principles of equality, justice and freedom for all humans.

That is the only way to neutralise people like Modi and Giriraj Singh. Pitching one identity or interest group against another is a sure way to lose. If all this sounds too simplistic to some complex minds, go on and obfuscate as much as you please, Girirajs and Modis will thrive. Politics in India at this moment has to be conducted in a simpler language that people can understand, and make sense of. “Sab se pahale tum insaan ho; Hindustani, Pakistani, chini baad men. Aur Jat, Rajput, Dalit, Musalman, Hindu to use se bhi baad men.” I think an ordinary Indian can understand, argue, debate, accept and reject this proposition. And that is what is needed at the moment.

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