रोहित धनकर
सामाजिक माध्यमों पर दर्जनों पोस्ट्स हैं जिन में कृष्ण को बलात्कारी और व्यभिचारी कहा गया है। कई पोस्ट्स हैं जिन में राम को मर्यादा पुरोषोत्तम कहे जाने पर सवाल उठाए गए हैं कि अपनी गर्भवती पत्नी को जंगल में छोड़ देना कैसी मर्यादा है? हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें हैं जिन में उन्हें विभिन्न मुद्राओं में दिखाया गया है जो उनके भक्तों को अपमान जनक लग सकती हैं। इन सब पर गाली-गलोच होता है, धमकियाँ दी जाती है। और यह ऐसा करने वालों की मूढ़ता और बदतमीजी है। पर कभी किसी ने कोई दंगा किया हो मुझे याद नहीं पड़ता। पिछले कई वर्षों में जो दो-तीन घटनाएँ याद आरही हैं वे जुलूश निकालने, आंदोलन करने या न्यायालय में मुकदमा करने की हैं। हुसैन की सरस्वती पर उनकी एक प्रदर्शनी में तोड़-फोड़ की गई थी, जो की हिंसक घटना थी, पर वह भी लोगों के घर जलाने और पुलिस पर हमले की घटना नहीं थी।
जो तीन घटनाएँ मुझे अभी याद आरही हैं उन सब में ऐतराज अनुचित था। हुसैन के सरस्वती के चित्र पर बखेड़ा करना अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता पर हमला था। इसी तरह वेंडी डोनिगर कि पुस्तक पर मुकदमा करना भी अकादमिक स्वतन्त्रता पर हमला था। दिल्ली विश्वविद्यालय के कोर्स में से रामायण पर लेख को हटाने के लिए सड़कों पर निकाल आना भी अकादमिक स्वतन्त्रता पर सफल हमला था। पर इन में से किसी ने भी दंगे की शक्ल नहीं ली। किसी की हत्या नहीं हुई। किसी का घर नहीं जलाया गया, किसी पुलिस चौकी पर हमला नहीं हुआ। ये सारे विरोध गलत थे। इन में हुसैन को सारे समझदार भारतीयों का समर्थन मिला, सभाएं हुई और उन पर हमले की सभाओं और लेखों में घोर निंदा हुई, जो उचित थी। डोनिगर पर मुकदमे की भी निंदा हुई, और वह किताब भारत में अभी भी उपलब्ध है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने रामायण पर लेख को कोर्स से हटा दिया, यह दुखद, गलत और हुड़दंग करने वाली भीड़ के सामने घुटने टेकना था। और इस को अभी भी असहिष्णुता के सामने आत्मसमर्पण माना जाता है, जो कि सही है।
साफ भाषा में बात करें तो ये तीनों उदाहरण हिन्दू-अतिवादियों के हम सब की चिंतन और अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता पर हमले थे। और इन्हें यही कहा गया, इन्हें यही समझा जाता है। उनकी भावनाओं के लिए किसी प्रकार की नरम भाषा का उपयोग ना तो किया गया, ना ही वह उचित होता।
पर यदि हम भारत में ऐसे ही हमले मुस्लिम-अतिवादियों की तरफ से देखें तो उनकी संख्या और प्रकृती बहुत भिन्न पाएंगे। 29 नवम्बर 2015 को मराठी समाचार पत्र लोकमत ने इस्लामिक-राज्य (ISIS) को पैसा कहाँ से मिलता है इस विषय पर एक लेख छापा। लेख में एक कार्टून भी था। जिस में आम तौर पर ‘पिग्गी-बैंक’ (गुल्लक) कहे जाने वाले चित्र पर “अल्लाह हु अकबर” लिखा हुआ था[1], जो इस्लामिक-राज्य के झंडे पर लिखा नारा है। दूसरे दिन ही लोकमत के कार्यालय में मुस्लिम-अतिवादी भीड़ ने तोड़-फोड़ की और लोकमत ने माफी मांगी। इस्लाम का अनादर करने के लिए। इस्लाम का अनदार आईएसआईएस के झंडे पर यही नारा लिखने पर नहीं हुआ, इस नारे के साथ लोगों के विडियो पर गला काटने से नहीं हुआ, पर लोकमत के लेख से हो गया।
उत्तर प्रदेश के एक राजनीतिज्ञ आजम खान ने संघ के सदस्यों को समलैंगिक कहा। जवाब में कमलेश तिवारी नाम के एक व्यक्ती ने मुहम्मद को समलैंगिक कह दिया। इस के विरोध में मुसलमानों की सभाएं हुई, उस को मारने वाले को 51 लाख रुपये इनाम में देने की घोषणा हुई। उसे गिरफ्तार कर लिए गया। बाद में उसके छूटने के बाद उसकी हत्या हो गई।
ऐसी कई घटनाएँ भारत की हैं। अद्यतन घटना 11 अगस्त 2020 को बंगलोर में लोगों के घर जलाने की, पुलिस चौकी जलाने की और बहुत से वाहन जलाने की है। कहा यह जा रहा है कि बंगलोर के एक विधायक के रिश्तेदार पी नवीन ने इस्लाम का अपमान करने वाली तस्वीर फ़ेसबुक पर पोस्ट की। इस से भड़क कर मुस्लिम भीड़ ने दंगा किया। पर यह कहानी धुरी है। इसका एक दूसरा रूप यह भी है की पहले एक मुस्लिम ने सामाजिक मीडिया पर किसी हिन्दू देवता का अपमान करने वाली सामाग्री पोस्ट की, इस के जवाब में नवीन ने अपनी पोस्ट की। जिसके कारण दंगे हुए।
इस बात को ठीक से समझने के लिए हमें इन दोनों पोस्ट्स की विषय-वस्तु पर विचार करना होगा। संचार माध्यमों की नीती यह है की इस तरह की पोस्ट्स की विषय-वस्तु नहीं बताई जाती, सिर्फ उस का मूल्यांकन की वह अपमान जनक थी, बताया जाता है। शायद यह नीति ठीक भी है। पर इस की समस्या यह है कि लोगों को पता नहीं चलता कैसी सामाग्री को अपमान जनक माना जा रहा है। और यह जान-बूझ कर लोगों को अंधेरे में रखना उनके स्वायत्त निर्णय का अपहरण होता है। क्या छपना उपायुक्त है और क्या नहीं का निर्णय या तो भीड़ करती है या संचार माध्यम। अतः, इन की विषयवस्तु पर कुछ विचार जरूरी है।
मैंने ऊपर कहा कि कृष्ण को बलात्कारी कहने वाली दर्जनों पोस्ट्स सामाजिक माध्यमों पर हैं। बहुत सी तो अभी इसी महीने की हैं। पर इस पूरी घटना की दूसरी कहानी का दावा यह है कि नवीन ने जिस पोस्ट के जवाब में एक तस्वीर पोस्ट की वह लक्ष्मी पर थी। मेरे पास जो जानकारी है उसके अनुसार किसी बसीर नाम के व्यक्ती के लक्ष्मी की स्तुति में गाये जाने वाले कन्नड़ के एक लोकप्रिय भजन की अपनी दो पंक्तियों की परोडी पोस्ट की। इस में लक्ष्मी को बहुत वासना की दृष्टि से देखा जा रहा है और उसकी छातियों का जिक्र है।
नवीन ने इसके जवाब में जो पोस्ट की वह तस्वीर इंटरनेट पर उपलब्ध है। उसने खुद नहीं बनाई। उस में इस बात का जिक्र है की मुहम्मद की शादी 51 वर्ष की उम्र में 6 वर्ष की आएशा के साथ हुई। और फिर दो हदीस और तीन कुरान की आयतों के संदर्भ हैं। पहली हदीस आईशा और मुहम्मद के साथ नहाने के बारे में है। और जो कुछ भी पोस्ट में कहा गया है वह आधिकारिक हदीस की किताबों के अनुसार सही है। दूसरी हदीस मुहम्मद के आयशा के साथ दाम्पत्य संबंध बनाने की उम्र और उस वक्त मुहम्मद की उम्र के बारे में है। यह भी किताबों के अनुसार सही है।
कुरान का पहला संदर्भ आयात 65:4 का है। इस में जिस बात की तरफ पोस्ट में इशारा है वह लड़कियों की महवारी शुरू होने से पहले उन से दाम्पत्य संबंध बनाने, शादी, और तलाक के संबंध में है। जो की कथित आयात के अनुशार सही है। कुरान का दूसरा और तीसरा संदर्भ मुहम्मद को आदर्श व्यक्ती मानने के बारे में है, जो की आयात 86:4 और 33:21 से है। दोनों संदर्भ कुरान के अनुसार सही हैं।
अर्थात नवीन की पोस्ट में हदीस और कुरान के सारे संदर्भ आधिकारिक पुस्तकों के अनुसार सही हैं। पोस्ट उसकी बनाई हुई नहीं है। यह इंटरनेट पर आराम से उपलब्ध है। फिर इस में इस्लाम या मुहम्मद के लिए अपमान जनक क्या है? पर कुछ है। उसे भी ठीक से समझने की जरूरत है।
एक, यह पोस्ट जान बूझ कर मुहम्मद और इस्लाम की कमियों को दिखाने के लिए, उन्हें नीचा दिखाने के लिए बनाई गई है। हदीस और आयतें इसी उद्देश्य से चुनी गई हैं। हालांकी वे सब उद्धरण सही हैं। सवाल यह है कि क्या किसी धर्म की आलोचना के लिए उसकी खराबी बताने वाले उसी के धर्म-शास्त्रों के उदाहरण देना अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता का दुरुपयोग है?
दो, पर इस पोस्ट में मुहम्मद के अनुयायियों को बुरी लगाने वाली बातें और भी हैं। इस में अल्पवयष्क लड़की से दाम्पत्य सम्बन्ध बनाने को बलात्कार कहा गया है। यह शब्द हदीस में नहीं है, पर इस प्रकार के संबंध को भारतीय कानून के अनुसार और आज-कल के विमर्श में बलात्कार ही कहा जाता है। क्या हदीस को आज के विमर्श की भाषा में देखना-दिखाना गलत है?
तीन, इस में एक तस्वीर भी है, जिस में मुहम्मद और आयशा को दिखाया गया है। तस्वीर अपने आप में अश्लील नहीं है। पर मुहम्मद की तस्वीर बनाने पर तो कई हत्याएं हो चुकी हैं? सवाल यह है कि क्या आज के जमाने में, आप मुहम्मद का गुणगान तो खूब कर सकते हैं, पर कोई उसे तस्वीर के माध्यम से दिखाये तो आप उस पर अपनी संहिता थोप सकते हैं? क्या यह दूसरों की अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता पर हमला नहीं है?
नवीन गिरफ्तार है। क्या यह उसकी अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता का हनन नहीं है? बसीर का कोई अतापता नहीं है। कृष्ण को बलात्कारी कहने वाली पोस्ट्स के बारे में कोई शिकायत या गिरफ्तारी नहीं है। क्या यह नवीन जैसों के जवाब देने के हक को छीनना नहीं है? क्या नवीन पुलिस से छूट जाने के बाद सुरक्षित है? या उसका भी वही हस्र होगा जो कमलेश तिवारी का हुआ?
आज के महोल में बहुत लोगों को यह लेख सांप्रदायिक और इस्लाम विरोधी लगेगा। कुछ उधार की भाषा वाले इसे हिंदुत्ववादी और फासिस्ट भी कह सकते हैं। ये सब तो उनके चुनाव हैं, जिन से मुझे कुछ खास लेना-देना नहीं। पर जो समझना चाहते हैं बात को, उनके लिए थोड़ा समय इस बात पर लगाने की जरूरत है कि इन जानी पहचानी बातों पर मैंने इतना समय क्यों लगाया? मैं अपने कारण नीचे लिख रहा हूँ।
एक तो मैं ऐसा मानता हूँ कि भारत में शांति-समृद्धि और हर प्रकार का विकास तभी संभव है जब यह देश एक बहुलतावादी, पंथ-निरपेक्ष लोकतन्त्र रहे। इस के बिना यहाँ शांति-समृद्धि और विकास संभव नहीं है।
दो, आज कुछ लोगों की ना समझी के चलते मजहबी-पहचान की राजनीति (politics of religious identity) इतनी प्रबल हो गई है कि अब मजहब राजनैतिक विचारधाराएँ (political ideologies) बन चुके हैं। उनमें न कोई आध्यात्म (यदि कभी था भी तो) बचा है न सत्ता से दूरी। वे सब अब सामाजिक और राजनैतिक सत्ता के खेल में खुल कर खेल रहे हैं।
तीन, लोकतन्त्र में राजनैतिक विचारधाराओं में बहस, टकराव, एक-दूसरे की आलोचना, उनकी मान्यताओं पर आक्रमण, व्यंग, कटाक्ष, अपमानजनक टिप्पणियाँ, और हर प्रकार के शब्द-बाण चलाने जरूरी हैं। यह लोकतान्त्रिक विमर्श के, लोगों को विचार के आधार पर, मान्यताओं के आधार पर, अपनी तरफ मिलाने और विरोधी से दूर करने के तरीके हैं। इस की जद में उन चिचार धाराओं की मान्यताएँ, उनके प्रणेता, उनके रहनुमा और नेता; सभी आते हैं। यह लोकतान्त्रिक बहस की प्रकृति है। इस में किसी खास विचारधारा (ideology) को विशेष संरक्षण देना दूसरों के साथ गैर-बराबरी और अन्याय है। क्यों की सभी मजहब सत्ता के खेल में कूद कर अब अपने आप को राजनैतिक विचारधारा बना चुके हैं, अतः उनको कोई विशेष संरक्षण देने से बाकी पंथ-निरपेक्ष विचारधाराओं के प्रती अन्याय होगा। अतः अब सारे मजहब, उनके प्रणेता, अवतार, देवता, नबी, पैगंबर, ईश्वर और ईश्वर-पुत्र कटाक्षों, व्यंगों और शब्द-बाणों की जद में आने जरूरी हैं। क्यों की वे अब मजहब कम और राजनैतिक विचारधाराएँ अधिक हैं। उन्हें किसी प्रकार का संरक्षण देना पंथ-निरपेक्षता की हत्या होगा। जो हम करने में लगे हुए हैं।
ऐसी स्थिती में आप यह नहीं कर सकते की किसी एक पंथ या पंथों के समूह के देविदेवताओं, महापुरुषों और गुरुओं की छेछालेदार और कटाक्षों की तो छूट है, पर अन्यों के मजहबी विचारों और प्रतीकों पर ऐसे ही कटाक्षों की छूट नहीं है। यह भी नहीं कहा सकते कि पंथ-निरपेक्ष राजनैतिक विचारधाराओं के ग्रन्थों और प्रणेताओं की तो आलोचना कर सकते हैं, पर मजहब चलाने वालों और उनके ग्रन्थों की नहीं।
हाल में देखिये किस तरह की सामान्य बातों को लेकर हास्य-अभिनेताओं और अन्य लोगों के साथ गाली गलोच हुआ है। अल्लाह, मुहम्मद और कुरान पर तो आप कभी सवाल उठा ही नहीं सकते थे, अब तो राम, कृष्ण, रामायण और महाभारत जैसे मिथकों (जो कि ठीक से धर्म-ग्रंथ भी नहीं हैं) पर भी सवाल नहीं उठा सकते। यह ठीक है की अभी तक तगड़ी हिंसा, आग-जनी और हत्याएं इन पर टिप्पणियों के कारण नहीं हुई हैं। पर जिस तरह की अभद्र और ऊग्र भाषा का उपयोग होता है वह बस उस से एक कदम ही दूर है। यदि समाज इस्लाम से संबन्धित मजहबी टिप्पणियों पर हुई हिंसा को हल्के से लेगा, यदि इस हिंसा को ‘भड़काऊ टिप्पणी के कारण हुई, लेकिन गलत हुई’ की नरम भाषा में वर्णित करेगा, साथ ही औचित्य लगाने वाला स्पष्टीकरण भी देगा; तो ऐसा ही दूसरी तरफ से भी यही होने लगेगा। इसे आप नहीं रोक पाएंगे। इसे रोकना है तो आप को इस्लाम की मुहम्मद की हर आलोचना पर मार देने की धमकी की भी उतनी ही कड़ी आलोचना करनी होगी जितनी दूसरे पंथों की असहिष्णुता की करते हैं। अब आपको नेहरू, गांधी, राम, कृष्ण, माओ, मार्क्स, मुहम्मद, आदि सब को एक तराजू में तोलना पड़ेगा।
समाज इंटरनेट और सामाजिक-माध्यमों के जमाने में उन पर क्या लिखा और पोस्ट किया जाएगा इस पर बंदिश चाह कर भी नहीं लगा सकता। इन माध्यमों तक संयमित, विवेकशील लोगों की पहुँच है; तो मूर्ख, कम जाननेवाले और यहाँ तक की बदतमीज धूर्तों की भी है। इसे आप नियंत्रित कर सकते हैं कुछ हद तक, पर सामाजिक-संचार माध्यमों पर विभिन्न टिप्पणियों को नहीं रोक पाएंगे। क्यों की इन पर पोस्ट करने से पहले अनुमति नहीं लेनी पड़ती, हटाने के लिए मेहनत और शिकायतें करनी पड़ती हैं। जब तक आप ये सब करेंगे तब तक नुकसान ही चुका होगा। साथ ही यहाँ पहचान छुपाने की सुविधा भी है। यह कुछ भी इन माध्यमों पर प्रसारित करने की सुविधा देती है। और ये माध्यम सब को उपलब्ध हैं।
मेरे विचार से बसीर ने लक्ष्मी पर अपनी वसना की अभिव्यक्ती करके केवल अपने मन का मैल बिखेरा है। इस से न तो लक्ष्मी को कुछ फर्क पड़ा, ना ही उसके भक्तों को पड़ना चाहिए। इसी तरह से कृष्ण को बलात्कारी कहने वाला अपने देखने का नजरिया बता रहा है, या जान बूझ कर गाली-गलोच कर रहा है। और जहां तक मुहम्मद और इस्लाम पर कटाक्षों के लिए इस्लामिक ग्रन्थों से ही उद्धरण देने का सवाल है वह तो कोई बात ही नहीं है। जिन्हें राम की शंबूक बध पर आलोचना बुरी लगती है, वे रामायण से शंबूक बध निकाल दें। इसी प्रकार जिन्हें मुहम्मद के एक नौ वर्ष की बालिका से दाम्पत्य संबंद की आलोचना बुरी लगती है वे ऐसी सब हदीसों को निकाल दें जिन से इसकी पुष्टी होती है। जब तक ये संदर्भ रहेंगे लोग इन पर बोलेंगे।
इस समस्या का इलाज कमलेश और नवीन जैसों की गिरफ्तारी में नहीं है। इस का इलाज रुशदी और तसलीमा की जुबान बंद करना नहीं है। इस का इलाज किसी विश्वविद्यालय के कोर्स में से रामायण पर लेख निकाल देना नहीं है। इस का इलाज इन सब को आलोचना की छूट देना, और इन पर आक्रमण करने वालों को यह बताना है कि दूसरों के विचारों और उन की अभिव्यक्ति को हिंसा और डर से दबाने का उनका कोई हक नहीं है। अब सभी धर्मों को शब्द-बाणों और हर प्रकार की आलोचना के दायरे में लाने का समय है, इन को बचाने का नहीं।
एक बात यह कही जाती है कि मजहबों की आलोचना करो ही मत, सभी उनका आदर करें, शालीन भाषा का उपयोग करें। यह अच्छी बात है, सब को शालीन रहना चाहिए। यह सभ्य समाज में अच्छा सामाजिक मूल्य है। पर इसे कानून बना कर बल से लागू नहीं किया जा सकता। बल से लागू करना लोगों की विचार करने की आजादी छीनता है। किसी को यदी गीतगोविंद में कोई अध्यात्म नहीं बल्कि रति-क्रीड़ा ही नजर आती है, तो आप उसे मूर्ख कह कर चुप नहीं करवा सकते। उसे अपनी बात कहने का हक है। इसी तरह से यदि किसी को काबा की सब मूर्तियाँ तोड़ना धर्मांधता, असहिष्णुता और हिंसा लगती है तो उसे भी कहने का हक है। मैंने ऊपर कहा है कि सभी मजहब राजनैतिक विचारधाराएँ बन चुके हैं। यदि वे सत्ता के खेल से दूर रहते, तो शायद कुछ हद तक उनकी कठोर आलोचना से बचा जा सकता था। पर अब उन को संरक्षण देना उनकी असहिष्णुता से डर कर पंथ-निरपेक्षता को कमजोर करना होगा।
******
13 अगस्त 2020
[1] https://www.newslaundry.com/2015/11/30/lokmat-having-to-apologise-for-a-cartoon-on-isis-shows-the-sorry-state-of-press-freedom-in-india