रोहित धनकर
रवीश कुमार का NDTV पर प्राइम टाइम (शायद १९ फरवरी का) बहुत ही सटीक और इस वक्त की चीख-चिल्लाहट में बेहद आवश्यक था. हमें और बहुत से ऐसे कार्यक्रम चाहियें. रवीश कुमार को इस के लिए धन्यवाद और जितनी हो सके उतनी प्रशस्ती मिलनी चाहिए. इस वक्त के अँधेरे और बेसमझी धारणाओं की लड़ाई को खूनी बनाने की कोशिश का पर्दा फास करने के ऐसे और प्रयाश और होने चाहियें. उन्हों ने बहुत सटीक सवाल उठाये हैं. अन्करों के काम को लेकर, भावनाओं का ज्वार पैदा करने को लेकर और तथ्यों की जाच को लेकर. यह एपिसोड सब को देखना चाहिए और इसपर सोचना चाहिए.
यह कार्यक्रम के इतना अच्छा होने के बावजूद मेरे मन में कुछ सवाल उठाता है. आशा है रवीश कुमार के चाहने वाले (जिन में मैं भी शामिल हूँ) इन सवालों को गलत नहीं समझेंगे. असहमती उनकी हो सकती है और वह जायज भी हो सकती है. मैं गलत हो सकता हूँ; पर जो सवाल हैं उनको रखना भी जरूरी है.
सब से पहले पूरे कार्यक्रम पर एक सवाल जो मुझे महत्त्वपूर्ण लग रहा है वह यह है कि अँधेरे की इन आवाजों को सुनाने की शुरुआत क्या इस नारों की आवाज से नहीं होनी चाहए थी, क्यों की यह बवाल तो यही से उठा?
- कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी.
- भारत की बर्बादी पर जंग रहेगी.
- भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह.
सवाल यह नहीं है कि यह नारे किसने लगाए, पर लगाए तो. क्या यह आवाज भी इस शांत चिंतन का हिस्सा होनी चाहिए जिसके लिए रवीश कुमार इतनी सिद्दत से और इतनी जायज अपील कर रहे हैं?
रवीश कुमार अपनी भूमिका या टिप्पणियों में कुछ बातें कहते हैं जिनकी तरफ ध्यान देना और उनके निहितार्थ समझना जरूरी है. उन में से कुछ बातें ये हैं (यह शब्दसह नहीं है, पर अर्थ वही है):
- कश्मीर में ये नारे (मेरी समझ में उपरोक्त) रोज लगाए जारहे हैं, वहां सरकार ने कितनों को गिरफ्तार किया?
- वहां पकिस्तान के झंडे रोज फहराए जारहे हैं.
- कश्मीर की समस्या इस्लाम की समस्या नहीं है.
- अफज़ल गुरु दिल्ली में आतंकवादी है तो श्रीनगर में क्या है?
अच्छा होता रवीश कुमार इस पर कुछ और साफ़ बोलते. अब हमारे पास इस नतीजे पर पहुँचाने के आलावा क्या रास्ता है कि यह सब कहकर वे यह बताना चाहते हैं कि:
- जो नारे कश्मीर में लगाए जा रहे हैं इनको JNU में लगाने की भी छूट होनी चाहिए, या कमसे कम उन्हें नरमी से जरूर देखाजाना चाहिए.
- यदि पकिस्तान का झंडा कश्मीर में फहराया जाता है तो इसे दिल्ली में भी नरमी से देखाजाना चाहिए.
इन दो स्थापनाओं पर बहुत गंभीरता से विचार होना चाहिए. सवाल यह बिलकुल नहीं है कि जो सरकार कर रही है वह जायज है, जो कुछ एंकर कर रहे हैं वह जायज है, जो पटियाला हाउस में वकीलों ने किया वह जाजाज़ हैं. ये सब गलत है. हमें इसे तुरंत रोकना चाहिए. पर इस स्थापनाओं के माध्यम से हम ऐसे नारों को यदी जायज नहीं बता रहे तो नरमी से लेने लायक जरूर बता रहे हैं. सहन करने काबिल जरूर बता रहे हैं. नारे लगाने वालों को अपने समूहों में शामिल करने की वकालत अवश्य कर रहे हैं. क्या इस से ऐसे नारे लगाने वालों की संख्या बढ़ेगी? क्या इस से जो अभी ये नारे लगा रहे हैं उनका मनोबल बढेगा? क्या ये दोनों चीजें इन नारों के पीछे की मनसा को पूरा करने में मददगार शाबित होंगी?
यह अभिव्यक्ती की आजादी का तर्क है जिस पर मैंने अपने पिछले ब्लॉग पोस्ट में लिखा है और जिसका कुछ मित्रों ने विरोध किया है. उनका यह कहना है की सरकार और ABVP के जायज और तीव्र विरोध में ऐसा माहोल बनाने का कोई तत्त्व नहीं है जो ऐसे नारों को नरमी से लेने की वकालत करता हो. मुझे रवीश जी के इस प्रोग्राम से लगता है ऐसा तत्त्व है, और यह कार्यक्रम इस का एक उदाहरण है.
यह सही है कि कश्मीर की समस्या की शुरुआत में इस्लाम का तत्त्व बहुत कम था. मेरा मानना है कि कुछ हद तक पकिस्तान के कबायलियों के वेश में आक्रमण करने के दिन से कश्मीर की समस्या में इस्लाम का तत्त्व था; क्यों कि पकिस्तान ने यह इस्लाम के नाम पर किया था. फिर भी कश्मीर की जनता भारत के साथ थी और केवल स्वायत्त निर्णय चाहती थी, जो उनका जायज हक़ था. और यह मूलतः राजनैतिक समस्या ही थी. पर आज यह उतनी ही इस्लाम की समस्या है जितनी राजनीती की. बल्की अब यह इस्लाम-प्रेरित राजनीती की समस्या है. नहीं तो पकिस्तान के झंडों का, ISIS के झंडों का, नारों की शुरुआत नराए-तदबीर (?) (अल्लाह हो अकबर) से करने का कोई स्पस्टीकरण नहीं है.
अब सवाल यह है कि वे भारतीय जो सरकार की आवाज दबाने की कोशिशों को गलत मानते हैं, ABVP और BJP के समर्थकों के हुड़दंग को गलत और राष्ट्र के लिए नुकशानदेह मानते हैं; पर उनके मन में नारों को लेकर उपरोक्त चिंताएं भी हैं; वे क्या रुख लें?
क्या उनकी आवाज ऎसी आवाज नहीं है जो सरकारी खेमे के विरुद्ध है, पर जिसे सरकार का विरोध करने वाले भी नहीं सुनना चाहते? क्या इस चिंता को अनसुना करना और इसे अभिव्यक्त करने वालों को सरकारी-खेमे की वर्त्तमान गतिविधियों का समर्थक मान लेना जायज है? क्या रवीश जी के TV के अँधेरे में इस आवाज को भी सुनना चाहिए था? मुझे लगता है इस आवाज को नहीं सुनकर सही रस्ते पर मजबूती से चल रहे बुद्धी-जीवी और रवीश जी जैसे एंकर सरकारी-खेमे को आम जानते के सामने एक नाजायज तर्क करने का मौक़ा दे रहे हैं. यदी उनकी इस चिंता की आवाज से असहमती है तो उनको बहुत सफलता नहीं मिलेगी. और यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा.
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Posted by Rohit Dhankar