‘पीके’ के बहाने

December 30, 2014

रोहित धनकर

धर्म—मजहब, पंथ और रिलिजन के अर्थ में—बहुत कमजोर और डरपोक विचार है. यह बात खासकर धर्म के संगठित हो जाने पर सही उतरती है, और सब धर्मों के लिए सही है. चाहे वह हिन्दू धर्म हो, ईसाइयत हो, इस्लाम हो, बोद्ध धर्म हो या कोई और. उनकी हिंसक और आक्रमणकारी प्रवृत्ती धर्म के मूल में बैठे इस डर का नतीजा है, किसी ताकत का नहीं. यह डर स्वयं विश्वास के आधार-हीन, तर्कहीन और विवेकविहीन होने के कारण उपजता है. क्यों की धर्मं लोगों की असुरक्षा की भावना और जगत की रहस्यमयता पर पनपता है, अतः वह नासमझी और भय को सदा बनाए रखना चाहता है. लोग यदि समझने लगें और अपनी असुरक्षा को स्वयं संभालना सीखालें तो धर्म को बहुत बड़ा खतरा होता है. जो धर्म की इस कमजोरी की तरफ इशारा करता है धर्म उसको हिंसा से रोकना चाहता है. ‘पीके’ के साथ यही हो रहा है.

जिन हिन्दुओं को ‘पीके’ में दिखाए गए धर्म के टोटके, चालबाजियां, धोखे और छल आपत्तीजनक लगते हैं वे उनको मिटाते क्यों नहीं? सड़क पर लाल पत्थर रख कर रोज उगने वाले मंदिरों को ये क्यों नहीं हटाते? रामपाल और आशाराम जैसे बाबाओं के चरणों में ये सर क्यों झुकाते हैं? ‘पीके’ के तपस्वी जैसे धोखेबाज बाबा तो आज हर गली-मोहल्ले में हैं; इन के होने से तो इन हिन्दुओं को कोई शर्म नहीं आती. उनके होने की बात करने से, बता देने से शर्म क्यों आती है? ‘पीके’ का विरोध इस डर का नतीजा है कि धर्म की जड़ों की सड़ांध को लोग समझने लगेंगे तो उसकी धन कमाने की और सत्ता देने की क्षमता खत्म हो जायेगी.

‘पीके’ कोई कॉमेडी नहीं है, केवल कोई नासमझ ही उसे कॉमेडी कहेगा, यह एक तीखा व्यंग है. व्यंग (satire) और प्रहसन (comedy) का फर्क या तो लोग सकझते नहीं या फिर व्यंग को नरम साबित करने के लिए कॉमेडी शब्द का प्रयोग कर रहे हैं. वैसे भी धर्म की जड़ में जितना छल होता है उस को उजागर करने के लिए कॉमेडी बहुत हल्का हथियार है, यह काम व्यंग ही कर सकता है.

लोकतंत्र में किसी चीज का विरोध करने के लिए, किसी छल को उजागर करने के लिए, व्यंग का उपयोग एकदम जायज है; बल्की लाजमी है. कुछ लोग अपने विवेकविहीन विश्वासों की रक्षा के लिए दूसरों के विचारों की अभिव्यक्ती पर आक्रमण नहीं कर सकते. उन्हें यह इजाजत नहीं दी जा सकती.

क्यों की अभिव्यक्ती की स्वतन्त्रता हमारा अधिकार है, इस लिए इस अभिव्यक्ती का विषय चुनने का भी अधिकार है. आप किसी लेखक को, कलाकार को, इस बात के लिए बाध्य नहीं कर सकते की वह धर्मों की जड़ में डर, मूर्खता और धोखा उजागर करे तो सब धर्मों में इन की बात करे. यह लेखक या कलाकार का चुनाव है की वह किस की बात करना चाहता है और किसकी नहीं. उसे न तो सब की बात करने के लिए मजबूर किया जासकता है ना ही सब की बात न करने पर दण्डित. ‘पीके’ हिन्दू धर्म पर अपना ध्यान केन्द्रित करती है, और यह उसका हक़ है. इसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जासकता. इस्माल और ईसायत की बात उसमें केवल एक संकेत के रूम में है. मेरे विचार से फिल्मकार यह कहना चाहता है कि वह हिन्दू धर्म के माध्यम से कुछ समस्याओं पर सवाल उठा रहा है; ये समस्याएं इस्लाम औए ईसाइयत में भी हैं. कोई और उनको विस्तार से ले, चाहे तो.

वैसे भी हम सब जानते हैं की इस तरह का करारा व्यंग इस्लाम पर करना ज्यादा खतरनाक है. (यह बात बहुत से लोंगों को बड़ी फिरकापरस्त लगेगी, पर सही है.) इस के कई कारण हैं. एक तो यह कि हिन्दू धर्म का कोई केंद्रीय रूढ़-मत (dogma) नहीं है. बहुत सारे रूठ-मत है, इन में कोई भी सर्वमान्य नहीं है. इस का फायदा यह है कि कोई भी ऎसी चीज नहीं है जिसे कोई न कोई नकारता नहो, जिस पर अंगुली उठाने से पूरे धर्म पर अंगुली उठ जाए, जिसकी जड़ खोदने से पूरे धर्म की ही जड़ खुद जाए. पर इस के नुकशान भी हैं, जैसे यह कि धर्म के नाम पर कोई कुछ भी चाल-बाजी कर सकता है. दूसरा कारण हिन्दू धर्म की आलोचाने के कम खतरनाक होने का यह है कि बड़ी कटु आलोचना का इतिहास भी रहा है इस धर्म में. अब तो संध की करामातों के चलते इस खुलेपन के इतिहास को खतरा लग रहा है, पर अभी भी लोग इस की रक्षा करने में समर्थ हैं. तीसरा कारण यह है की इस्लाम में मुहम्मद और खुदा पर अंगुली उठाने का जवाब हिंसा से देने का पुराना रिवाज है.

जहाँ कोई एक रूढ़-मत नहीं होता वहां विभिन्न संभावनाओं को तलाशने की गुंजाईश थोड़ी ज्यादा मिलसकती है. और उस रूढ़-मत पर चोट से डर भी कम लगता है. हिन्दू धर्म के बारे में यह आशानी से कहा जासकता है कि लोगों ने अपनी जरूरत के मुताबिक भगवान् और देवता बना लिए, कई बार भ्रामक विश्वास के कारण और कई बार जान बूज कर अपने किसी फायदे के लिए, बल्की लोगों को छलने के लिए भी. मुहम्मद के बारे में यह कहना कि कुरआन देने वाला जिब्रील उसके मन का भ्रम या जान बूझ कर घड़ी गई छल-पूर्ण कल्पना थी, कहीं ज्यादा खरनाक है. रश्दी ने यही कहा था. बीबीसी हिंदी पर पाकिस्तानी पत्रकार वुसतुल्लाह ख़ान का एक लेख है ‘पाकिस्तान में भी कोई पीके बनाएगा?’ के शीर्षक से. उसमें वे कहते हैं “ऐसी फ़िल्म पाकिस्तान में बनाने का अभी किसी का हौसला नहीं और कारण आप जानते ही हैं.” यह कारण इस्लाम के लिए भारत में भी लागू होता है.

पर इस से ना तो किसी को ‘पीके’ के विरोध में हिंसा करने का हक़ मिलता है नाही हिरानी को पक्षपाती कहने का. यह उनका चुनाव था, और जायज था. इस देश में बहुसंख्यक हिन्दू हैं, हिन्दू धर्म में ढकोशले और पाखंड की ज्यादा गुंजाईश है. यह पाखंड इसी धर्म में इस वक्त सबसे ज्यादा हो रहा है. और इस से होने वाला नुकशान भी इस वक्त ज्यादा लोगों को हो रहा है. तो व्यंग भी इसी पर सब से पहले होना चाहिए.

आखिर में एक स्पष्टीकरण और एक दावा: मैंने धर्म के बारे में जो कुछ ऊपर कहा है वह कई लोगों को बहुत सतही और भोंथरा लगेगा. इस में उनको विश्लेषण की गहनता और सूक्ष्मता (nuance) की कमी लगेगी. मैंने यह बात जान बूझ कर इसी तरह कही है. क्यों कि ‘पीके’ के सवाल भी इसी तरह के सीधे सादे हैं. उदहारण के लिए: इन इतने भगवानों में असली कौनसा है? कैसे पता चले? या, भगवान् को हमने बनाया या हमको भगवान् ने? ये बड़े सीधे और बुद्धूपने के सवाल हैं. पर कोई सूक्ष्म से सूक्ष्म ईश्वर-मीमांसा भी इन का उत्तर नहीं दे सकती. हाँ, गहराई और सूक्ष्मता के नाम पर भ्रम जरूर फैला सकती है. इन का जो सीधा-सादा विवेक है उस की चमक धर्म-मीमांसा की सारी लफ्फाजी से कहीं ज्यादा है.