डर हमें मूर्ख और दब्बू बना रहा है

July 3, 2022

रोहित धनकर

भाग 1: ईशनिन्दा

हम यदि भारतीय आलोचक और सृजनात्मक मेधा को कुंद नहीं करना चाहते तो हमें हर नागरिक को ईशनिन्दा (blasphemy) का हक देना होगा। सभी लोकतंत्रों में मजहबी गुरुओं, ईश्वरों और पैगंबरों की आलोचना और निंदा की भी छूट है। भारतीय संस्कृति में देवों पर कटाक्ष, उनकी आलोचना और उनकी हंसी उड़ाने की पुरानी परंपरा है। चाहे हम अपनी परंपरा के हिसाब से देखें, चाहे लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के हिसाब से, अवतारों, देवताओं, और पैगंबरों की आलोचना, निंदा और उनकी हंसी उड़ाना मजहब के दिमाग पर सिकंजे से निकलने के लिए जरूरी है। साथ ही हर मजहब एक राजनैतिक विचारधारा (ideology) भी है, खास कर आज पहचान-राजनीति (identity politics) के जमाने में। भारतीय संविधान में शरिया और हिन्दू-राष्ट्र के लिए गुंजाइश निकालने की बात रोज हो रही है। ऐसे में यदि आप मुहम्मद, कुरान, अल्लाह, मनु, देवता, कृष्ण आदि की आलोचना का हक नहीं देंगे, तो लौकिक राजनैतिक विचारधाराओं (secular political ideologies) के साथ अन्याय होगा। क्यों की उनके परवर्तकों, मनीषियों पर कटाक्ष और उन पर कथित-अपमानजनक टिप्पणियाँ तो आप करने देंगे; पर मजहबी राजनैतिक विचारधाराओं के परवर्तकों की मूर्खता, धोखेबाज़ी, झूठ और हिंसा पर लोगों को कटाक्ष नहीं करने देंगे। यह विचारधारा लोकतान्त्रिक बहस में कानूनी असमानता बनाती है। और अंत में लोकतन्त्र की जड़ खोद देगी। क्यों की कोई भी मजहबी राजनीति लोकतन्त्र को सहन नहीं कर सकती।

सब मजहबों और धर्मों में उनके आरध्यों की निंदा पर आक्रोश होता है। वह अभिव्यक्त भी होता है। पर सब में ना तो वह समान होता है नाही जघन्य हत्याओं तक पहुंचता है। या तो न्यायालयों में मुकदमों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है या सड़कों पर प्रदर्शन के माध्यम से। हो सकता गिनेचुने अवसरों पर कुछ तोड़-फोड़ हो जाये, पर वह जल्द ही नियंत्रित करली जाती है। पर मुस्लिम (इस पूरे लेख में मैं “मुस्लिम”, “मुसलमान” शब्दों से सिर्फ उन मुसलमानों की बात कर रहा हूँ जो मजहबी-अंधे और कट्टर हैं। मेरी टिप्पणियाँ उन मुसलमानों पर नहीं हैं जो नबी आदि के नाम पर हत्याओं के विरोधी हैं) प्रतिकृया इस से बहुत अलग होती है। वह बहुत व्यापक होती है, हिंसक होती है और हत्याएं करती है। यह भय पैदा करने के लिए होती है। भय जरूरी है कट्टर-इस्लाम के लिए। क्यों की इस का विवेकशील, नैतिक, और आध्यात्मित आधार बहुत ही कमजोर है। कुरान को तार्किक दृष्टि से पढ़ने पर यह एकदम साफ हो जाता है कि यह मजहब डर और लालच पर चलता है। फिर भी मुसलमान इसे शांति का मजहब साबित करना चाहते हैं। मुहम्मद को आदर्श मानव सिद्ध करना चाहते हैं। यदि खुली विवेचना होगी तो कुरान की आयतें और हदीस उनके शांति और मुहम्मद के आदर्श मानव होने के दावों की धज्जियां उड़ा देंगी। इस लिए लोगों को कुरान, मुहम्मद और हदीस पर खुल कर बात करने से रोकना जरूरी है। क्यों की विवेक सम्मत तर्क में वह कहीं टिकेगा नहीं, इस लिए जघन्य हिंसा के माध्यम से डर पैदा करना जरूरी है। यह ठीक वैसे ही हिंसा और डर पर चलता है जैसे बंबईय्या फिल्मों के गुंडों की हफ्ता वसूली हिंसा से फैलाये डर पर चलती है। डर गायब, तो हफ्ता गायब। डर गायब तो इस्लाम के शांति और मुहम्मद के आदर्श होने के दावे गायब। तो बोलने वाले को मार दो, यही रास्ता बचता है।

ऐसा नहीं है की विरोध, प्रदर्शन और हिंसा की धमकी हिन्दू भीड़ नहीं देती। देती है। हुसैन के चित्रों पर विरोध इसका उदाहरण है। और भी बहुत से उदाहरण है विभिन्न पुस्तकों पर प्रतिबंध और प्रदर्शन और हिंसा की धमकी के। जैसे औब्रेय मेनन की ‘The Ramayana’, रामानुजन का लेख ‘Many Ramayanas: The Diversity of a Narrative Tradition in South Asia’, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कोर्स से हटवा दिया गया था। पर इन सब में, जहां तक मैं जनता हूँ, किसी का गला नहीं काटा गया। और हिन्दू बहुमत ने ही इन उग्रता से विरोध करने वालों को नियंत्रित कर लिया। क्यों की हिंदुओं में इस तरह की मजहबी कट्टरता का विरोध करने वाले बहुत लोग हैं। साथ ही हिन्दू शास्त्रों में कहीं कथित ईशनिन्दा के लिए कत्ल की आज्ञा नहीं है। इस्लाम में एक तो इस तरह की हिंसा के विरोध करने वाले कम हैं, जो हैं वे स्वयं डरते हैं, अतः बोलते नहीं। और इस्लाम की किताबें इस की अनुमति ही नहीं आज्ञा देती हैं।

यदि दो किताबों में लिखे हुए और उस पर मजहबी लोगों की प्रतिकृया की तुलना करें तो आप बहुत फर्क पाएंगे। औब्रेय मेनन की ‘द रामायण’ 1954 में प्रकाशित हुई और हिन्दू विरोध के कारण 1956 से प्रतिबंधित है। यह राम कथा को एक आम कथा के रूप में पेश करती है, किसी धार्मिक कथा के रूप में नहीं। बहुत से चरित्रों का मज़ाक उड़ाती है जिनमें दशरथ, लक्ष्मण, ब्राह्मण, ऋषि और राम भी हैं। पर कुछ ऐसे वाक्य भी हैं जिन पर आज तो हिन्दू भी बहुत उग्र हो जाएँगे। एक दृश्य में लंका विजय के बाद लक्ष्मण और सीता बात कर रहे हैं। जिस में सीता यह स्वीकार करती है कि उसने ऋषियों को बचाने के लिए रावण से एक सौदा किया था। उस के तहत वह रावण के साथ सोई थी, और इस में रावण ने उसे बाध्य नहीं किया।

धार्मिक हिंदुओं के लिए यह बहुत अपमान जनक है। इस पुस्तक में ऐसी और भी बातें हैं। पर क्या विरोध हुआ? हाँ। क्या हत्या हुई? नहीं। जहां तक मैं जनता हूँ हत्या की धमकी तक नहीं दी गई। किताब अब भी प्रतिबंधित है भारत में, पर दुनिया भर बार में मिलती है। यहाँ तक की अमेज़न इंडिया पर भी मिलती है। मेनन को किसी ने नहीं मारा, उन की मृत्यु 1989 में, 77 वर्ष पाकर, त्रिवेन्द्रम में हुई।

‘द सटेनिक वरसेस’ (शैतानी आयतें) शलमान रश्दी का उपन्यास है। यह बहुत जटिल शैली में लिखा प्रतीकात्मक उपन्यास है, इस शैली को साहित्य वाले ‘जादुई वास्तविकता’ (magical realism) कहते हैं। पाठक को बहुत सावधान रहना पड़ता है यह ध्यान में रखने के लिए कि क्या कौनसे चरित्र के सपने में चल रहा है, और क्या वास्तव में। इस में बहुत कुछ है जिस पर मुसलमान नाराज हो सकते हैं। मैं सिर्फ दो उदाहरण दूंगा। जहीलिया विजय के बाद जब महौन्द की सेना उस के सभी आलोचकों को ढूंढ कर दंड दे रही थी या उसका चलाया मजहब कुबूल करने पर माफ कर रही थी, तब एक मामूली कवि, बाल, जिसने महौन्द पर एक व्यग्यात्मक कविता लिखी थी, वह बहुत डर गया। और जा कर एक वैश्यालय में छुप गया, जिस का नाम “हिजाब” था। कुछ दिन बाद वहाँ की औरतों के आपसी मनोरंजन के लिए और व्यापार बढ़ाने के लिए वहाँ एक नाटक शुरू हुआ। सब औरतें और वहाँ की मालकिन बाल से नाटक में पैगंबर की तरह बात और व्यवहार करने लगीं, और वहाँ जो औरतें थीं उन के नाम पैगंबर की पत्नियों की नकल पर रख दिये। आदि।

द सैटेनिक वरसेस में एक और घटना है जो दार्शनिक और धर्मशास्त्र की दृष्टि से इस से भी ज्यादा खतरनाक है। जाहिलिया (Jahiliya) के लोग महौन्द (Mahound) (Jahiliya और Mahound से रश्दी का क्या तात्पर्य है यह गूगल बाबा से पूछ लें) को एक प्रस्ताव देते हैं कि यदि अल्लाह लत, उज्जा और मनत को मान्यता देदे तो वे महौन्द के दीन को मान्यता दे देंगे, और महौन्द को शहरी की परिषद का सदस्य चुनलेंगे। महौन्द अपने पहाड़ पर जाता है। वापस आता है तब बहुत कुछ कहता है जिसमें अल्लाह इन तीनों देवियों को और उन की सिफारिश (intercession) को स्वीकार करता है। अर्थात उन की भी पूजा की जा सकती है और उन की सिफारिश कयामत के दिन लोगों को जन्नत या जहन्नुम भेजने में काम आएगी।

पर इस से महौन्द के साथी बहुत नाराज और निराश होते हैं। उन के विरोध के कारण महौन्द फिर अपने पहाड़ पर जाता है, और दूसरी आयतें आती हैं। जिन में जिब्रील बताता है की कल वाली आयतें जिब्रील के वेश में शैतान ने दीं थी, वे अल्लाह की तरफ से नहीं शैतान की तरफ से थीं। और आज अल्लाह की तरफ आई आयतों के अनुसार ये देवियाँ काल्पनिक हैं, और इनकी कोई मान्यता नहीं है। यह उदाहरण इस्लाम के लिए दार्शनिक और धर्मशास्त्र की दृष्टि से बहुत खतरनाक है। तार्किक दृष्टि से देखे तो यह कुरान को महौन्द की जाने-अनजाने कल्पना साबित कर देता है, जो उस की इच्छाओं से संचालित होती है, अल्लाह से नहीं। एक बड़ी तार्किक समस्या यह है कि चालो इन कुछ आयतों का को पता चल गया कि वे शैतान से आईं थीं। पर ऐसी और कितनी आयतें होंगी यह कैसे पहचानें? इस बात की क्या गारंटी है कि महौन्द जिसे अल्लाह का दूत जिब्रील समझ रहा है वह शैतान नहीं है जिब्रील के वेश में? तो फिर यह किताब अल्लाह की है या शैतान की कैसे तय करें? जहां तक मैं समझता हूँ इस्लामिक धर्मशास्त्र (theology) में इस पहेली का कोई हल जरूर होगा। पर इस बात को ऐसे उठाना मुसलमानों ने धोर आपत्तीजनक माना।

ये दोनों उदारण निहायत ही आपत्तिजनक और भड़काऊ हैं। और उपन्यास में ऐसा और भी बहुत कुछ है। पर उपन्यास में यह अपनी जगह एक साहित्यिक कल्पना भी है। और पश्चिमी लोकतंत्रों ने इसे साहित्य में जगह देने को उपयुक्त माना, साथ ही अभिव्यक्ति और सृजना की स्वतन्त्रता का हिस्सा भी माना। पर भारत ने पुस्तक के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। आग दुनिया भर में फ़ेल गई। हिंसक प्रदर्शन हुए, कई देशों में। ईरान के खुमैनी ने रश्दी का सिर कलम करने का फतवा जारी कर दिया और बीस लाख डालर का इनाम भी घोषित किया। करोड़ों की लागत से इंग्लैंड और अम्रीका ने रश्दी की सुरक्षा की व्यवस्था कई वर्षों तक की। पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को बरकरार रखा। इस मामले में कई अनुवादकों और प्रकाशकों की हत्याएं हुई।

ऊपर लिखी चीजें सब जानते हैं। यहाँ यह सब दोहराने का कारण इस बात को चिह्नित करना है की कथित ईशनिन्दा पर आक्रोश सब मजहबों और धर्मों में हो सकता है, पर उस की ऊग्रता और प्रतिबद्धता भिन्न-भिन्न है। उसे बराबर करके देखना भ्रामक है। बाकी विरोध परदर्शित करते हैं और न्यायालय का दरवाजा खटखटाते हैं। कट्टर इस्लाम को मानने वाले लगातार हत्याएं और हिंसा करते हैं। इस इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए इस्लाम बाकी सब से ज्यादा खतरनाक है। और इस का विरोध भी, जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता चाहते हैं उनकी तरफ से, बाकी सब से ज्यादा होना चाहिए।

(जारी …. भाग 2: सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी कल)

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2 जुलाई 2022

रोहित धनकर

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